सोमवार, 26 जुलाई 2010

माजिद मजीदी-२

चिल्ड्रेन ऑफ़ हीवेन


साल १९९७, ईरान के अमानवीय इलाकों से डंका पीटते एक और फ़िल्म बाहर आई, चिल्ड्रेन ऑफ़ हीवेन, और सारी दुनिया में ईरान की फ़िल्मों को पहचान दिलाने का काम इस फ़िल्म ने कर दिया. रोज़मर्रा के चाय-पानी-पैसे में व्यस्त रहने वाला आदमी भी जानने लगा कि ईरान में भी फ़िल्में बनती हैं, और ऐसी फ़िल्में कि कलेजा हाथ पर रखने को जी करे.
 
 
इस फ़िल्म को देखने का मेरा अनुभव बड़ा रोमांचकारी रहा, इसे देखने के दौरान कई फ़िल्में और बातें दिमाग में आती रहीं जो हमारे यहाँ की फ़िल्मों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर ईरान की फ़िल्मों से नज़दीकी की द्योतक हैं, लेकिन उनके बारे में बात बाद में.

तो, क्या आपका जूता आपके लिए ज़रूरी है? अगर फटा-चिथड़ा हो तब भी ज़रूरी है? क्या आप जूता खो जाने पर डरेंगे? यदि हाँ तो आप इस फ़िल्म को भी देखेंगे. .

कहानी !!... क्या ये ज़रूरी है? तो ठीक है....कहानी का नायक है अली, वो छोटा बालक जो ज़रा भी शैतान नहीं है, जो बचपन में ही सीख रहा है कि मुश्किलों का सामना कैसे किया जाये. "मैं क्यों डरूं... नहीं डरूंगा.... ना ही पीछे हटूंगा..... लेकिन बस घबराता हूँ अब्बू के बारे में सोचकर, उनके पास पैसे कम हैं ना..." कुछ इसी तरह का लड़का है अपना अली. अपनी छोटी बहन को खूब प्यार करने वाला और उतना ही उससे डरने वाला लड़का है अली.

छोटी बहन है ज़ाहरा, थोड़ा सा व्यक्तिगत होकर सोचूँ तो मुझे ये बच्ची अपनी प्यारी भतीजी की याद दिला देती है. हर छोटी सी बात पर मुंह फुला लेना, डर जाना और अपने भाई को डराना.... बड़ा ही स्नेहिल व्यक्तित्व है इस बालिका का. एक और बात, इनकी माँ फ़िल्म में कुछ भी नहीं है, हाँ इनके पिता थोड़े बहुत ज़रूर हैं, ये वही व्यक्ति हैं जो द सॉन्ग ऑफ़ स्पैरोज़ में नायक के तौर पर थे.

आपको क्या चाहिए एक बच्चे से, या आप क्या कमाना चाहेंगे एक कला की शर्त पर, एक कलेजा पसीजा देने वाली कहानी के शर्त पर..... मैं तो कमाना चाहूँगा ढेर सारी खुशियाँ. और इस तरह के कठिन मूल तत्व इस फ़िल्म में बखूबी मिलते हैं.

बहरहाल, आनन-फानन में अली से अपनी बहन का जूता खो जाता है, जिसे वो मरम्मत के लिए ले गया था. घर में बवाल से बचने के लिए उसे ज़ाहरा को मनाना पड़ता है कि वो अम्मी-अब्बू से कुछ भी न कहे. एक ही जूते से काम चलाते हैं दोनों, दौड़-दौड़ कर जूते बदलना और अपने-अपने स्कूल जाना-आना, ये भाई-बहन के जीवन का हिस्सा बन जाता है. बीच में दोनों में मनमुटाव भी होता है, लेकिन समझदार अली को सब कुछ बखूबी हैंडल करना आता है. छोटी बहन को समझा कर वो मसले सुलझा लेता है.

दोनों के जीवन का एक ही उद्देश्य 'अब' रह गया है किसी भी भांति जूते हासिल करना, चाहे पुराने चाहे नये. इसी तरह की भागदौड़ में एक दिन उन्हें अपनी पुराने जूते मिलते भी हैं, ज़ाहरा के ही स्कूल में पढने वाली एक लड़की के पैर में. तहकीक़ात में पता चलता है कि उस लड़की ने ये जूते एक कबाड़ीवाले से खरीदे थे और लड़की की हालत काफ़ी ख़राब है इसलिए वे उससे जूते वापिस हासिल करने का ख्याल छोड़ देते हैं. अरे भाई, ये बच्चे भी समझदार हैं.

अली तो जैसे इस भाग-दौड़ में अपनी खुशियों को भूल चुका है, उसके दोस्त रोज़ नई-नई टीमों को फ़ुटबाल में हराने की रणनीति बना रहे हैं, जबकि अली इनसे अलग अपने आप को एक दूसरे मायाजाल में स्थापित कर चुका है. घर की हालत काफ़ी ख़राब है, छोटी-छोटी चीज़ों के लिए सोचना पड़ रहा है.

लड़के को अपनी भागाभागी पर इतना भरोसा है कि वह एक ओपन रेस में हिस्सा लेने के लिए अपने खेल के टीचर को मना लेता है, पढने में ये लड़का तो है ही लाजवाब. रेस में दौड़ने का बस एक ही कारण, तीसरे स्थान पर आने वाले प्रतिभागी को एक जोड़ी खेलने वाले जूते दिए जायेंगे, इसलिए अली दौड़ जाता है. बड़ी ही कूटनीतिक चालों का इस्तेमाल करते हुए वो ख़ुद को पहले या दूसरे स्थान पर आने से रोकता है, लेकिन इतनी लम्बी रेस में अपने दिमाग पर नियंत्रण खो बैठता है और रेस में पहले स्थान पर आ जाता है (दुःखद), लेकिन ऐसी फ़िल्मों के अंत के नियम के अंतर्गत सारी समस्याओं का अंत होता है, वो जूते नहीं हासिल कर पाकर भी काफ़ी ज़रूरी चीज़ें हासिल कर लेता है. नौकरी की तलाश में भटकता पिता अच्छी सी कमाई करके अपनी बच्ची के लिए एक जोड़ी जूते भी ले आता है और वो सारी चीज़ें भी, जिसके लिए उसने अली से साइकिल दुर्घटना के ठीक पहले वायदा किया था.

फ़िल्म की शूटिंग तेहरान की तंग गलियों में हुई है, यहाँ आपको एक खुला माहौल देखने को नहीं मिलेगा, जहां लैंडस्केप की उन्मुक्तता नहीं होगी. यहाँ कई अलग-अलग और छोटी-छोटी समस्याएँ नहीं हैं पूरी कहानी जूते पर केन्द्रित है और उससे जुड़ी समस्याओं पर. एक बड़ा आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि मजीदी ने इस फ़िल्म की अधिकतर शूटिंग के दौरान कैमरे और क्रू को छिपा के रखा था ताकि लोगों के सामान्य भाव कैमरे में कैद हो सकें.

फ़िल्म में आये कुछ प्रकरण-दृश्य (बड़े ही साधारण से) दिमाग के एक बड़े हिस्से में घर कर गये हैं, लेकिन इनका अपना प्रभाव बड़ा ही व्यापक है. जैसे, अच्छे नंबरों के लिए मिली पेन की अहमियत अली के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए वो ज़ाहरा को पेन एक रिश्वत के तौर पर दे देता है. एक बार अपनी-अपनी कापियों पर लिख-लिख कर एक दूसरे से वार्तालाप करते हैं कि अब आगे स्कूल बिना जूतों के स्कूल कैसे जाया जाये और वे दोनों अपने अब्बू के द्वारा ध्यान से 'वॉच' किये जाते हैं.  जूते का नाली में गिर जाने वाला सीन भी सुन्दर है, लेकिन इस दृश्य की तीन-चार फ़िल्मों में वाहियात नक़ल देख़ मूल सीन कलेजे से उतर गया.

एक मित्र से बात हो रही थी कि मजीदी की फ़िल्में मूलतः कैसी हैं? जनाब ने क़ाबिल-ए-तारीफ़ ज़वाब दिया...उनके अनुसार इनकी फ़िल्में कम मसालेदार गोश्त की माफ़िक हैं, जिनके पाचन में कोई समस्या नहीं आती है. इस जवाब को मैं आजकल कुछ दोहराने लगा हूँ.

प्रियदर्शन की हाल ही में एक फ़िल्म आई है बम बम बोले.... ये फ़िल्म मूलतः क्या है इसका कोई अंदाज़ नहीं लग पाता है. डायलॉग तक नक़ल किये गये हैं और नाम दिया गया कि यह फ़िल्म चिल्ड्रेन ऑफ़ हीवेन से प्रभावित है, क्या प्रभावित फ़िल्में इस हद तक प्रभावित होती हैं? इतना ही या कहें एकदम ऐसा ही प्रभाव किसी दक्षिण भारतीय फ़िल्म में मैंने देखा था, जिसका नाम याद नहीं है और याद रखना चाहता भी नहीं हूँ.

एक बात तो इस तरह की बातों से खुलकर सामने आई कि ईरान की फ़िल्में किस तरह से दुनिया भर की फ़िल्मों को "प्रभावित" कर रही हैं और फ़िल्मों के लिए नये मानकों की स्थापना कर रही हैं .

रविवार, 18 जुलाई 2010

माजिद मजीदी – १

(माजिद मजीदी, एक ऐसा शख्स जिसे ईरान के सिनेमा से, या कहें सिनेमा से प्यार करने वाला हर शख्स प्यार करता है. ईरान में कलाओं के प्रति शासन के ख़तरनाक़ रवैये से हमें पहले विष्णु खरे ने अवगत कराया और फ़िर इसका इल्म हुआ कि ऐसे माहौल में फ़िल्म निर्माण किसी चुनौती से कम नहीं. माजिद मजीदी के सिनेमा को देखना सरल है. यहाँ, बहस की इस श्रृंखला में, हम मजीदी को करीब से देखने कोशिश करेंगे. मजीदी की फ़िल्म का वातावरण इतना कम प्रदूषित होता है कि कभी-कभार विश्वास नहीं होता कि सिनेमा इतना साफ़-सुन्दर भी हो सकता है.)
मोहसिन मखमलबाफ की फ़िल्म बॉयकॉट  में अभिनय कर चुके मजीदी का जन्म और पालन-पोषण तेहरानके एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ. इंस्टीट्यूट ऑफ़ ड्रामैटिक आर्ट्स में पढ़ाई और १९७९ की ईरान की क्रान्ति के बाद सिनेमा की दुनिया में शॉर्ट फ़िल्म्स और डाक्यूमेंट्री से मजीदी ने मजबूत क़दम रखा और बहुत ही कम फ़िल्मों से दुनिया में अपनी पहचान बनाई.
द सॉन्ग ऑफ स्पैरोज़
२००८ में बनी ये फ़िल्म मजीदी की अन्य फ़िल्मों की तरह मानवीय संवेदना को एक अलग ऊंचाई पर ले जाकर स्थापित करती है, ऐसी ऊंचाई कि जिस तक पहुँचाने का रास्ता ही दूसरा है, और हमारे हिन्दी सिनेमा में ऐसे रास्ते काफ़ी पहले खुले थे लेकिन अब ऐसा हो पाना मुश्किल है. 
क़रीम एक अपनी छोटी-छोटी समस्याओं से भी गंभीरता से जूझने वाला पुरुष है, जो शुतुरमुर्गों के फार्म पर काम करता है और साथ ही शुतुरमुर्गों से बड़ा ही घनिष्ठ रिश्ता क़ायम कर चुका है. उसे नहीं पसंद है कि कोई अनजान कर्मी शुतुरमुर्ग की आदतों के बारे में जानकारी ना होते हुए भी उनसे सम्बन्ध बनाये. घर में एक ख़ूबसूरत बीवी नरगिस, दो निहायत ही प्यारी लडकियां और शैतानों का शैतान लड़का हुसैन है. कहानी के नायक करीम और हुसैन हैं. पहले तो बड़ी लड़की के कान की मशीन खो जाती है, वो गिर गयी है उस कुण्ड में जो करीम के घर के पिछवाड़े है और हुसैन, उसके दोस्त और करीम बाबू मिल कर मशीन को खोज निकालते हैं. मशीन भीग कर ख़राब हो चुकी है, जब घरेलू नुस्खों काम नहीं करते हैं तो ज़रुरत पड़ती है उसे बनवाने की, जिसके लिए करीम को अपने चेतक (दुपहिया) के साथ शहर जाना होगा. 

बहरहाल, अगले ही दिन फार्म से एक शुतुरमुर्ग भाग निकलता है जिसके लिए करीम दोषी करार दिया जाता है और वो अपनी नौकरी को बचाने में असफल साबित होता है. घर में वो इस बहाने के साथ दाखिल होता है कि उसे यह नौकरी पसंद नहीं है, लेकिन वह अलग-अलग जगहों से भगोड़े शुतुरमुर्ग की ख़बरें सुनता रहता है और उसे खोजने के लिए कई निरर्थक प्रयास करता है.
शहर में पता चलता है कि कान की मशीन दुरुस्त करने की हालत में नहीं है, इसलिए करीम को ज़्यादा पैसे लगाकर नयी मशीन लेनी होगी. आनन-फानन में करीम दुपहिया टैक्सी ड्राईवर का काम शुरू कर देता है और सामान और इंसान दोनों के स्थानान्तरण का जिम्मा लेता है. इधर छोटे हुसैन कुंड को साफ़ करके उसमें मछलियां पालने के लिए नित नये तरीके ढूंढ रहे हैं.
समूची कहानी ऐसे ही हल्के-हल्के माहौल में बढती है और समस्याएँ करीम बाबू का पीछा नहीं छोडती हैं. आधी से अधिक कहानी तो करीम की मोटरसाइकिल पर बीतती है, बाकी की कुछ हुसैन के डांट खाने में और फ़िर करीम की परेशानियों में.
फ़िल्म के सबसे पहले दृश्य में एक शुतुरमुर्ग का क्लोजअप है और उनके साथ करीम के रोज़ के काम को दिखाया गया है. किसी फ़िल्म में कोई बिम्ब कितनी ख़ूबसूरती से निभाया जा सकता है, ये माजिद मजीदी से सीखने लायक़ है. मसलन, फ़िल्म में कुछ सीन ऐसे हैं जिन्हें समूची फ़िल्म के बजाय याद करना ज़्यादा सुखद होता है, या कहें कि अगर उन्हें ही अच्छे से समझा जाए तो फ़िल्म के भीतर छिपी मानवीय संवेदनाएं उभर जाती हैं. जैसे, एक दृश्य खुलता है तो लगता है कि तीन हाथ आसमान के तारे तोड़ रहे हैं, लेकिन कैमरा थोड़ा ऊपर उठता है तो ही समझ में आता है कि एक माँ अपनी दोनों बेटियों के साथ मिल कर कोई कालीननुमा चीज़ बुन रही है.
एक दृश्य में करीम शुतुरमुर्ग के भेष बना, बीहड़ों में उस भगोड़े को ढूँढने की कोशिश करते हैं और लगभग इसी तरह के एक दूसरे दृश्य में एक अंतहीन खेत में करीम एक नीले रंग का दरवाज़ा पीठ पर लादकर चलते हैं. इन दृश्यों में हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल हुआ, और हुआ तो एकदम सही जगह हुआ. अपने देश की पूंजीवादी फ़िल्मों की तरह नहीं, कि अगर नायक-नायिका के आलिंगन का भी दृश्य है तो वहां भी इस तरह के शॉट्स का जी भर के इस्तेमाल होता है.
फ़िल्म की कहानी निहायत ही सरल है, जिसे बड़ी ही ख़ूबसूरती से फिल्माया गया है. फ़िल्म के शीर्षक के नाम पर बस एक दृश्य ही याद आता है…. बच्चों द्वारा साफ़ किये गये कुंड के चारों ओर गौरैयाओं का चहचहाना. मुझे वो दृश्य तो कतई याद नहीं आता जो कि पोस्टर में दिखता है कि मछलियाँ ज़मीन पर बिखरी हुई हैं, क्योंकि मेरे हिसाब से फ़िल्म आशावाद को एक बड़ी निष्ठा के साथ बढ़ावा देती है.
फ़िल्म का पूरा माहौल एक लैंडस्केप की तरह उभरता है. मजीदी से एक साक्षात्कार में पूछा गया कि आपके लिए फ़िल्म का कौन सा हिस्सा फिल्माना सबसे कठिन था…. इस पर मजीदी का जवाब बड़ा ही डरा देने वाला था, उन्होंने कुछ ऐसा कहा – “मेरी हर फ़िल्म में मेरे लिए मुश्किल होता है एक सुखद अंत दिखाना”. शायद ये मुश्किल इसलिए आती हो क्योंकि फ़िल्म में किरदारों को समस्याओं से ग्रसित दिखाया गया है.
फ़िल्म का संगीत बैगपाइप पर है, जो एकदम ज़मीन से जुड़ा हुआ है और एक विराट भव्यता समेटे हुए है. फ़िल्म के सच्चे प्रेमियों ने फ़िल्म ज़रूर देखी होगी, यदि नहीं तो आप गलती कर रहे हैं इसे ना देख़ कर.

रविवार, 11 जुलाई 2010

मेरा यार मिला दे….

रात के दो बजने जा रहे हैं, घर में सब सो रहे हैं, बस मैं ही उलझ गया…. कंप्यूटर का वो हिस्सा, जिसमे मैं गाने रखता हूँ, उसे खंगालते-खंगालते एक फोल्डर पर नज़र पड़ी…साथिया.

शाद अली की पहली फ़िल्म है, कहानी आई है बरास्ते मणिरत्नम. गीत लिखा हैं गुलज़ार ने और हारमोनियम-कंप्यूटर संभाला है रहमान ने.

फ़िल्म तो कुछ ख़ास नहीं है कि ये मुझे रात को इतनी देर तक जगा सके, हाँ, लेकिन संगीत ज़रूर है. ये बात तो है कि रहमान बहुत ज़्यादा अपने कंप्यूटर वाले हिस्से पर निर्भर हो जाते हैं, लेकिन सारे ऐब को नज़रंदाज़ करते हुए ध्यान दिया जाये मेरे पसंदीदा गाने मेरा यार मिला दे… पर.

हमान ने गाया है और शायद जी खोल कर गाया है, कभी तो इसे सुनकर लगता है कि गाने वाला सचमुच किसी से मिलने की ज़िद में बैठा है. पार्श्व में लय एकदम खुल के चल रही है जैसे वो अपने से अलग के सभी सांगीतिक प्रभावों को मुंह चिढ़ा के कह रही है – आओ! मेरे जितना बह के दिखाओ, मेरे जैसा बह के दिखाओ…..चाहो तो छूट के दिखाओ उस सीमित सौंदर्य से. एक-एक थाप खुल कर सुनाई पड़ती है और यही खुलापन समूचे गीत के माहौल को और खुला बनाता जाता है.

शायद रहमान भी नहीं रोक पाए हैं उसे, रहमान के बारे में ये कहा जा सकता है कि उनकी आवाज़ बड़े ही धीमें क़दमों के साथ कान में पड़ती है और फिर घुलने लगती है. आवाज़ में हल्का सा दोहरापन पता चलता है लेकिन बढ़िया है.

गीत में और कोई दूसरी आवाज़ नहीं सुनाई देती है बस डरे-सहमे से वाद्ययन्त्र.

अगर आप चाहें तो एक और बात नोटिस कर सकते हैं कि अधिकतर गानों में कोई ऐसा प्रभाव नहीं सुनाई देगा जो गायक की आवाज़ को दबाये….. जैसा सुनने को मिलता है अदनान सामी के गाये गाने ऐ उड़ी उड़ी उड़ी….. में. यहाँ पर आपको गिटार की बेस पिच का बेजोड़ इस्तेमाल सुनने को मिलेगा. यहाँ उलझने के साथ खुली हुई लट रात भर बरसी थी और रहमान ने भरपूर समय लिया है इस गीत को उसी शरारती लहज़े में ढालने के लिए. बस यूं ही कहना चाहता हूँ कि अगर अदनान के अलावा कोई गायक होता तो उस ख़ास प्ले का दीदार होना शायद नामुमकिन होता.

दरअसल, रहमान बहुत कम ही फ़िल्मों में मेरे मन को भाने वाला संगीत दे पाते हैं. लेकिन साथिया का संगीत थोड़ा बहुत उस रहमान की याद दिलाता है जो इल्लैयाराजा के साथ रहता था और ये बड़ा ख़ुशनुमा एहसास है. अगर देखा जाये चुपके से लग जा गले…… जैसे गीत को तो पता चलता है हर छोटी-छोटी चीज़ अपना व्यापक प्रभाव श्रोता पर डालती है. मसलन, इस पूरे गीत में पीछे बज रहे घुंघरुओं और पायल को शायद आपने कभी ध्यान से सुना हो. यदि नहीं सुना तो सुनियेगा ज़रूर. एक बड़ा विस्मृत करने वाला क्षण आता है जब इस गीत के ठीक बीच में बहुत थोड़े समय के लिए लय ब्राजीलियाई साम्बा जैसे कुछ में बदल जाती है. अरे ये तो बताना भूल गया कि यहाँ साधना सरगम हैं और साथ में मुर्तज़ा खान और क़ादिर खान भी हैं.

कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि रहमान किसी भी गायक/ गायिका से कुछ भी गवा सकते हैं, लेकिन शंकर-एहसान-लॉय को मैं रहमान से ऊंचे पायदान पर रखता हूँ, लेकिन उनके बारे में फिर कभी बात करूंगा.
फ़िल्म का संगीत अपने आप में बड़ा फैला हुआ है. और भी गाने हैं इस फ़िल्म में, लेकिन उनके बारे में मैं खुल के बात नहीं कर सकता हूँ. इस बार कोई वीडियो नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि ये सारे गाने सिर्फ़ कान के रास्ते ही दिमाग को धनधनाते हैं.