रविवार, 18 जुलाई 2010

माजिद मजीदी – १

(माजिद मजीदी, एक ऐसा शख्स जिसे ईरान के सिनेमा से, या कहें सिनेमा से प्यार करने वाला हर शख्स प्यार करता है. ईरान में कलाओं के प्रति शासन के ख़तरनाक़ रवैये से हमें पहले विष्णु खरे ने अवगत कराया और फ़िर इसका इल्म हुआ कि ऐसे माहौल में फ़िल्म निर्माण किसी चुनौती से कम नहीं. माजिद मजीदी के सिनेमा को देखना सरल है. यहाँ, बहस की इस श्रृंखला में, हम मजीदी को करीब से देखने कोशिश करेंगे. मजीदी की फ़िल्म का वातावरण इतना कम प्रदूषित होता है कि कभी-कभार विश्वास नहीं होता कि सिनेमा इतना साफ़-सुन्दर भी हो सकता है.)
मोहसिन मखमलबाफ की फ़िल्म बॉयकॉट  में अभिनय कर चुके मजीदी का जन्म और पालन-पोषण तेहरानके एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ. इंस्टीट्यूट ऑफ़ ड्रामैटिक आर्ट्स में पढ़ाई और १९७९ की ईरान की क्रान्ति के बाद सिनेमा की दुनिया में शॉर्ट फ़िल्म्स और डाक्यूमेंट्री से मजीदी ने मजबूत क़दम रखा और बहुत ही कम फ़िल्मों से दुनिया में अपनी पहचान बनाई.
द सॉन्ग ऑफ स्पैरोज़
२००८ में बनी ये फ़िल्म मजीदी की अन्य फ़िल्मों की तरह मानवीय संवेदना को एक अलग ऊंचाई पर ले जाकर स्थापित करती है, ऐसी ऊंचाई कि जिस तक पहुँचाने का रास्ता ही दूसरा है, और हमारे हिन्दी सिनेमा में ऐसे रास्ते काफ़ी पहले खुले थे लेकिन अब ऐसा हो पाना मुश्किल है. 
क़रीम एक अपनी छोटी-छोटी समस्याओं से भी गंभीरता से जूझने वाला पुरुष है, जो शुतुरमुर्गों के फार्म पर काम करता है और साथ ही शुतुरमुर्गों से बड़ा ही घनिष्ठ रिश्ता क़ायम कर चुका है. उसे नहीं पसंद है कि कोई अनजान कर्मी शुतुरमुर्ग की आदतों के बारे में जानकारी ना होते हुए भी उनसे सम्बन्ध बनाये. घर में एक ख़ूबसूरत बीवी नरगिस, दो निहायत ही प्यारी लडकियां और शैतानों का शैतान लड़का हुसैन है. कहानी के नायक करीम और हुसैन हैं. पहले तो बड़ी लड़की के कान की मशीन खो जाती है, वो गिर गयी है उस कुण्ड में जो करीम के घर के पिछवाड़े है और हुसैन, उसके दोस्त और करीम बाबू मिल कर मशीन को खोज निकालते हैं. मशीन भीग कर ख़राब हो चुकी है, जब घरेलू नुस्खों काम नहीं करते हैं तो ज़रुरत पड़ती है उसे बनवाने की, जिसके लिए करीम को अपने चेतक (दुपहिया) के साथ शहर जाना होगा. 

बहरहाल, अगले ही दिन फार्म से एक शुतुरमुर्ग भाग निकलता है जिसके लिए करीम दोषी करार दिया जाता है और वो अपनी नौकरी को बचाने में असफल साबित होता है. घर में वो इस बहाने के साथ दाखिल होता है कि उसे यह नौकरी पसंद नहीं है, लेकिन वह अलग-अलग जगहों से भगोड़े शुतुरमुर्ग की ख़बरें सुनता रहता है और उसे खोजने के लिए कई निरर्थक प्रयास करता है.
शहर में पता चलता है कि कान की मशीन दुरुस्त करने की हालत में नहीं है, इसलिए करीम को ज़्यादा पैसे लगाकर नयी मशीन लेनी होगी. आनन-फानन में करीम दुपहिया टैक्सी ड्राईवर का काम शुरू कर देता है और सामान और इंसान दोनों के स्थानान्तरण का जिम्मा लेता है. इधर छोटे हुसैन कुंड को साफ़ करके उसमें मछलियां पालने के लिए नित नये तरीके ढूंढ रहे हैं.
समूची कहानी ऐसे ही हल्के-हल्के माहौल में बढती है और समस्याएँ करीम बाबू का पीछा नहीं छोडती हैं. आधी से अधिक कहानी तो करीम की मोटरसाइकिल पर बीतती है, बाकी की कुछ हुसैन के डांट खाने में और फ़िर करीम की परेशानियों में.
फ़िल्म के सबसे पहले दृश्य में एक शुतुरमुर्ग का क्लोजअप है और उनके साथ करीम के रोज़ के काम को दिखाया गया है. किसी फ़िल्म में कोई बिम्ब कितनी ख़ूबसूरती से निभाया जा सकता है, ये माजिद मजीदी से सीखने लायक़ है. मसलन, फ़िल्म में कुछ सीन ऐसे हैं जिन्हें समूची फ़िल्म के बजाय याद करना ज़्यादा सुखद होता है, या कहें कि अगर उन्हें ही अच्छे से समझा जाए तो फ़िल्म के भीतर छिपी मानवीय संवेदनाएं उभर जाती हैं. जैसे, एक दृश्य खुलता है तो लगता है कि तीन हाथ आसमान के तारे तोड़ रहे हैं, लेकिन कैमरा थोड़ा ऊपर उठता है तो ही समझ में आता है कि एक माँ अपनी दोनों बेटियों के साथ मिल कर कोई कालीननुमा चीज़ बुन रही है.
एक दृश्य में करीम शुतुरमुर्ग के भेष बना, बीहड़ों में उस भगोड़े को ढूँढने की कोशिश करते हैं और लगभग इसी तरह के एक दूसरे दृश्य में एक अंतहीन खेत में करीम एक नीले रंग का दरवाज़ा पीठ पर लादकर चलते हैं. इन दृश्यों में हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल हुआ, और हुआ तो एकदम सही जगह हुआ. अपने देश की पूंजीवादी फ़िल्मों की तरह नहीं, कि अगर नायक-नायिका के आलिंगन का भी दृश्य है तो वहां भी इस तरह के शॉट्स का जी भर के इस्तेमाल होता है.
फ़िल्म की कहानी निहायत ही सरल है, जिसे बड़ी ही ख़ूबसूरती से फिल्माया गया है. फ़िल्म के शीर्षक के नाम पर बस एक दृश्य ही याद आता है…. बच्चों द्वारा साफ़ किये गये कुंड के चारों ओर गौरैयाओं का चहचहाना. मुझे वो दृश्य तो कतई याद नहीं आता जो कि पोस्टर में दिखता है कि मछलियाँ ज़मीन पर बिखरी हुई हैं, क्योंकि मेरे हिसाब से फ़िल्म आशावाद को एक बड़ी निष्ठा के साथ बढ़ावा देती है.
फ़िल्म का पूरा माहौल एक लैंडस्केप की तरह उभरता है. मजीदी से एक साक्षात्कार में पूछा गया कि आपके लिए फ़िल्म का कौन सा हिस्सा फिल्माना सबसे कठिन था…. इस पर मजीदी का जवाब बड़ा ही डरा देने वाला था, उन्होंने कुछ ऐसा कहा – “मेरी हर फ़िल्म में मेरे लिए मुश्किल होता है एक सुखद अंत दिखाना”. शायद ये मुश्किल इसलिए आती हो क्योंकि फ़िल्म में किरदारों को समस्याओं से ग्रसित दिखाया गया है.
फ़िल्म का संगीत बैगपाइप पर है, जो एकदम ज़मीन से जुड़ा हुआ है और एक विराट भव्यता समेटे हुए है. फ़िल्म के सच्चे प्रेमियों ने फ़िल्म ज़रूर देखी होगी, यदि नहीं तो आप गलती कर रहे हैं इसे ना देख़ कर.

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