सोमवार, 28 मार्च 2011

अन्तरा - १

जब कुछ अच्छा सुनने को मिलता है, तो वह समय होता है....संगीत कम, संगीत सुनने को मिलता है, जब हम समय को सुनने की कोशिश में होते हैं, या समय इस कोशिश में होता है, कि वह हमें सुन सके. शब्द-संगीत का भौतिक मरा हुआ रूप कितनी जीवित होता है या हो सकता है, इसके लिए अभी कोई मानक निर्धारित नहीं है. कोरिया, चीन और भारत - मेरी नज़र में यही तीन देश अपने सिनेमा को संगीत-समृद्ध बनाते हैं, उसमें प्रयोग करने से भी नहीं चूकते. अभी जिस समय भारतीय सिनेमा अपनी पहचान के लिए घूम रहा है, और जिसे सफलता का एक ही मानक पता है - ऑस्कर, ठीक उसी समय कुछ लोग ऐसे भी रहे हैं, जिन्हें आईडेन्टिटी-क्राइसिस से जूझने के अलावा और भी काम थे, असल सिनेमा और संगीत यहीं से बाहर आया.
 
गानों की संख्या गिनने में वक़्त ज़ाया करना तो सही नहीं, लेकिन उन्हें बातचीत कर तरजीह दी जा सकती है. बुद्धू-बक्सा पर फ़िल्मी गीतों के लिए एक नए स्तम्भ को शुरू कर रहा हूँ, वक़्त दर वक़्त पाँच गाने जोड़े जायेंगे और बात की जाएगी. हाँ, निश्चित है कि इस तरह के क्रम को एक नियतांक की माफ़िक नहीं रखा जा सकता, इसलिए गीतों के चयन पर उठाये गए सवाल और उनके जवाब के लिए बुद्धू-बक्सा आभारी रहेगा.
 
१. आख़िर तुम्हे आना है  संजय दत्त और नगमा. फ़िल्म यलग़ार और गाने का मौसम बदनतोड़ ढंग से रूमानी, संजय दत्त की खूबसूरती तो अभी भी कम नहीं हुई है लेकिन सौन्दर्य की पराकाष्ठा पर वे इसी गीत में दिखते हैं या समकालीन फ़िल्मों में. संगीत खांटी फिल्मीपन लिए हुए है लेकिन उदित नारायण की आवाज़ हर तरह के गतिरोध को तोड़ती जाती है. इस गीत को शायद एक स्त्री की नज़र से या एक मनमौजी की नज़र से देखा जाना चाहिए. मनमौजी की नज़र या तो नीली साड़ी पर, नहीं तो शब्दों पर रूकती है और स्त्री की नज़र हमेशा नायक वाले एलिमेंट पर टिकती है. इसके लिए अगर आप एक एनालिस्ट का नज़रिया अपनाएंगे, तो पीछे छूट जायेंगे. गाने के पीछे चलता एकदम बँधा हुआ रिदम है, जो बीच-बीच में आने वाली आवाज़ों के लिए थोड़ा मद्धिम पड़ जाता है और अटपटी-सी लगने वाली बातचीत को जगह दे देता है. हाँ, ये बातचीत ज़रूर तंग करती है और गाने को थोड़ा ठहरा देती है. अगर रूमानी गीतों का कोई क्रम होता, तो ये गीत मेरी तरफ़ से उस क्रम में सबसे ऊपर जगह बनाता. मेरे लिए समूचे गीत की शान है वे लाइनें - तुम दुश्मन होते तो कोई बात ही क्या थी, अपनों को मनाना है ज़रा देर लगेगी.

२. अभी ज़िंदा हूँ तो जी लेने दो अपने नसीर भाई, मकरंद और साथ में एक भारी घुमंतुओं की फ़ौज. अगर चलन के अर्थों को तोला जाए, वे भी इस गीत के लिहाज़ से कम ही होंगे. एक बाप का अपने बेटे से इस तरह आशीर्वाद पाना, जिसे वो अपना सौभाग्य समझ रहा है, अद्भुत अनुभूति है. पत्नी के भाव जो अपने बेटे से सच बोल नहीं सकती और पति को रोक नहीं सकती, ख़ैर ये प्राथमिकता नहीं है,  पूरे खुलेपन के साथ निकलते हैं.....मुझे टुकड़ों में नहीं जीना है... गीत के बोल लाजवाब हैं और साथ ही एक ख़ास धमक के साथ भरा हुआ संगीत भी. गाने में व्याप्त पूरा माहौल इन लाइनों को समझा देता है....आज की शाम बड़ी बोझिल है, आज की शाम बड़ी कातिल है. लिरिक्स में एक ख़ास तरह बेफ़िक्री मज़े से मिलती है, जो एक आवारा के पास होती है. यहाँ देखिये....आग से आग बुझेगी दिल की, आज ये आग भी पी लेने दो. सच कहूं तो ज्यादा लिख पाने में असमर्थ हूँ, क्योंकि ये गीत ही मुझे लिमिटेड स्पेस देता है, जिसमें ये गाना ही ख़ुद में फैलाव ला सकता है, कोई दूसरा एलिमेंट नहीं. फ़िर भी, इतना ही कहूँगा.....लाजवाब.

३. मौला मेरे ले ले मेरी जान   किसी भी तरह की आपाधापी से दूर मालूम होता है ये गाना. जब भी सुनों, हमेशा कुछ नया एलिमेंट पकड़ में आता है जो उस बार के सुनने से पहले कभी नहीं सुना गया. खुलकर गाया गया है और किसी भी तरह की क़सर नहीं छोड़ी है सलीम-सुलेमान नें इसे ख़ूबसूरत बनाने में. इतनी ज़्यादा गतिमान फ़िल्म में मूड को भारी कर देने वाले गीत का इस्तेमाल....ऐसा सफल प्रयोग मुझे पहले नहीं मिला. एक मानसिक व्यथा और हार्दिक क्लेश का सफल लयबद्धिकरण. पहले लगता था, गीत पर फ़िल्म का प्रभाव पड़ने से इसे अपनी पहचान मिली है, लेकिन अब मालूम है, ये गीत कहीं-कहीं फ़िल्म को अपने प्रभाव में लेता है. लय एक नया प्रयोग है जहाँ पारंपरिक यंत्रों को अलग तरीक़े से इस्तेमाल करने की संभावनाएं दिखती हैं. एक बढ़िया चीज़ है ये, कि भारीपन समेटे होने बावजूद इस गाने की लय हमेशा थोड़ी भागती दिखती है, गाने को बोझिल नहीं बनाया गया है. एक मुसलमान का दर्द.....जब फूटता है, तो न जाने अपने साथ अवसादों का कितना बड़ा सैलाब लाता है, जिसकी पहचान इस तरह होती है - तेरे संग खेली होली, तेरे संग थी दिवाली.. त्योहारों पर साथ होने को एक ताक़त की तरह इस्तेमाल करता एक मुसलमान, बेबसी का ढिंढोरा न पीटे तो क्या करे, सो जाए? उसका दावा होता है कि मैं तेरा तीसरा रंग हूँ.... गुरेज़ हो तो मौला मेरी जान ले ले, क़ुर्बान हो जाने की बेफ़िक्री और तेरे लौट कर आने की शर्त के साथ खड़ा हूँ मैं.


४. आओगे जब तुम साजना   कुछ प्रश्न हमेशा अनुत्तरित रह जाते हैं, मसलन क्यों एक गीत नसों में घुस चुका है, क्यों उसके निकलने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं या क्यों उसे खून में घुलने की जल्दबाज़ी है, लेकिन क्या ये पर्याप्त है, जबकि वह गीत गीत न होकर इंतज़ार करने की एक परम्परा है, जहाँ तुम्हारे आने से फूल खिलेंगे, मुहब्बत इतनी है कि तुम भरी बरसातों में आना, सावन भी तो झूम कर बरसेगा न?.....क्यों बांसुरी विरह का राग गा रही है, वादों पर भरोसा इतना कि आँखों पर हमने दिल हारा है.....मेरे जीवन का गीत....मेरे ह्रदय का गीत...इसे मेरा प्रलाप भी समझा जाए तो ग़लत न होगा. सपनों का संसार जब खिलता है, तो फूटने के लिए आतुर एक बांसुरी, महज़ फुरफुरा कर रह जाती है. गीत को गाते दिख रहे हैं बस दो... गायक और बांसुरी, थोड़ा वायलिन भी....एक संगीतकार का नियंत्रण कितना ज़रूरी है,ये बात उसी समय पता चलती है, जब गीत संगीतकार के हाथों से छूटता दिखता है और अपने हिसाब से बह जाता है...संगीत जब नहीं था तो सिर्फ़ संगीत ही था, अपनी पहचान के ख़िलाफ़ खड़ा था और समूचे तंत्र को जन्म देता था, जहाँ आपके सभी भावों की जगह होती थी. ठीक यही बात, यहाँ लागू होती है, जहाँ संगीत का स्तर इतना व्यापक और प्रभावपूर्ण नहीं है, लेकिन गीत की अपनी चलन सारे माहौल को जन्म देती है. इम्तियाज़ अली की जब वी मेट से आया हुआ.
 
क्या आज तुम आओगी? तुम्हारे पलकों पर झिलमिल तारे भी होंगे, वादा रहा.

५. कि तेरा ज़िक्र है  ज़िक्र होने से उठने वाला ग़ुबार संक्रामक होता है, वहाँ महकना ज़रूरी, बहकना और ज़्यादा ज़रूरी होता है....मैं शोलों की तरह दहकता हूँ, खुशबुओं में. मेरी मस्तियाँ हैं, फिसलना, सम्हलना और तेरे हर ज़िक्र के साथ चहकना है. जब मेरा गाना, एक नदी बन जाता है और सेमल का बीज बन फुर्र हो जाता है, तब तेरा ज़िक्र होता है, मैं फ़िर क्यों न मचलूँ, ज़िक्र के बाद का समय भी मुझे टहलने से रोक नहीं पाएगा. बस यूं ही, बिना किसी मेहनत के, शैल हदा(या जो भी उच्चारण हो) और राकेश पंडित गाते-गाते ख़त्म कर देते हैं, एक कठोर आदि-अंत का उदाहरण मिलना मुश्किल है यहाँ, तिलिस्म का एहसास होना लाज़मी है, यदि न हुआ हो तो फ़िर से सुनिए. ज़िक्र इत्र था, जिसे महकाया संजय लीला भंसाली ने, गुज़ारिश से. गीत जिस माहौल में चल रहा है, वह विराट-सा है....जगह के आधिक्य के साथ....नहीं चाहता कि उस नितांत रूमानी नृत्य का आनन्द उठाये बिना सुनूँ, इसलिए मैं इसे वीडियो के साथ देखने में ज़्यादा सहज रहता हूँ.

सोमवार, 14 मार्च 2011

सात खून माफ़ : २

वह ख़त्म हो गया, या चला गया अपनी शुरुआत में जहाँ से वह कभी आया ही नहीं, हड्डियों का पानी घिस चुका है उसके और फ़िल्में पनीली चाय जैसी लग रही हैं, न कभी आशा थी न ऐसी चाह लेकिन जो हुआ वह पहले से निश्चित था.

विशाल भारद्वाज, मक़बूल और ओमकारा जैसी अच्छी फ़िल्मों के बाद कोई चिर-परिचित चमत्कार नहीं कर पाए, थोड़ा बहुत दम इश्क़िया में दिखा लेकिन आगे-पीछे सबकुछ साफ़. जहाँ एक तरफ़ भारतीय सिनेमा अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा को टक्कर देने के लिए अपने को मजबूत करना चाह रहा है, वहीँ दूसरी ओर विशाल भारद्वाज और गुलज़ार जैसे लोग इस मुहीम में अब ज़्यादा साथ नहीं दे पा रहे हैं. इस बात से अधिक निराशाजनक (कम से कम मेरे लिए) और कुछ नहीं कि जिस जमात के बारे में (अधिक शुद्धिकरण के लिए "जोड़ी") ब्लॉग्स, अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठ और पत्रिकाओं के विशिष्ट अंक लिखे-छापे जा रहे हैं, उन्हें ये नहीं पता कि वे अब इसके असल हक़दार नहीं रह गए हैं. मेरी पिछली पोस्ट गुलज़ार और विशाल के संगीत के लिए ही थी, लेकिन फ़िल्मों का क्या? वे अब अनुत्तरित होती जा रही हैं, फ़िर भी एक टैग के पिछलग्गू आलोचक 'ख़राब' को 'बहुत अच्छा' बनाने पर तुले हुए हैं, अगर उसे नकार दिया जाए, तो एक बहुत बड़ी फ़ौज आपके ख़िलाफ़ खड़ी हो जाएगी.

सात खून माफ़......फ़िल्म को मेरी प्रिय अभिनेत्री का साथ मिला हुआ है लेकिन वे भी इस बार कोई ख़ास कमाल नहीं कर पाईं हैं. समूची फ़िल्म इस तरह से बढती है, जैसे किसी ने कार में चाभी भर कर उसे एक निश्चित दिशा में बाधा-विहीन मार्ग पर छोड़ दिया हो, और उस कार को किसी भी चीज़ से मतलब नहीं है, अपने ख़ुद के होने से भी नहीं. फ़िल्म का माहौल दम-घोटू किस्म का है, दर्शक के लिए किसी भी स्पेस की रचना नहीं की गई है. दूसरे अर्थों में, स्पेस ही स्पेस है, जिसे भर पाना एक अजीब से अन्धकार से होकर गुजरना है.

कहानी, फ़िल्म के लिए सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु (मुख्यधारा), उसे हल्का कलात्मक टच देकर दिखा पाना अच्छी फ़िल्म की रचना है, लेकिन जब उसे छुए बग़ैर आगे बढ़ा जाए, तो आने वाली फ़िल्मों को 'सात खून माफ़' कहते हैं....ऐसी फ़िल्में जो अपने चलन में हमेशा असंतुष्ट होती हैं, एक व्यभिचारी की तरह...अपनी हर चाह के पूरे होने को अपने अगली चाह के आगाज़ के रूप में देखता हुआ....एक ऐसे आदमी की तरह जो वर्तमान की बातें करते हुए भविष्य को जीने लगता है, इस बात से बेख़बर कि उसका वर्तमान अभी उसके भूत के भविष्य में चल रहा है, अधूरा.

फ़िल्म की कहानी लगातार आपसे ध्यान की भीख मांगती रहती है, एक इनकम्प्लीट ड्राफ्ट की तरह कहानी, किसी घटना को कहानी से जोड़ने में असमर्थ है और घटनाएं समय से जुड़ने में असमर्थ. समय को जिस तरह से हाथों-हाथ लिया है विशाल ने, वह मेरी समझ के परे है. शादी-मरना-शादी, ये क्रम फ़िल्म की पूरी कहानी का सार है और इस क्रम को एक संक्रामक तरीक़े से फ़िल्म का हिस्सा बनाया गया है, इससे अलग और भी प्रयोग किए जा सकते थे - जिनकी आशा विशाल की हर फ़िल्म से रही है - वे नहीं किए गए और फ़िल्म आर्टिस्टिक डेस्क पर गए बिना रिलीज़ हो गई.


जहाँ तक गुलज़ार की बात है तो वे भी अपनी धार खो चुके हैं, न्यू वेव के बाद गुलज़ार अपने बने-बनाये खांचे में बंद हो गए, और अपने पुराने को दुहराने लगे, लेकिन यहाँ पर इस जोड़ी को सराहना होगा कि संगीत फ़िल्मों के स्तर से कहीं ऊपर होता है, वजह......विशाल भारद्वाज, संगीत में खनक अब भी बची हुई है, ये कहना शायद ग़लत नहीं होगा कि ओमकारा में संगीत के सफल होने का अभिमान उनके सिर नहीं चढ़ा और संगीत फ़िल्म दर फ़िल्म बेहतर होता गया. बहरहाल, फ़िल्म की कहानी सुलझी हुई है, एक औरत की शादी, छह जीवित पुरुषों से और एक मरे हुए से होती है, सारे ज़िंदा मार दिये जाते हैं, और सातवाँ (मरा हुआ), ईसा है, जो एक सिलसिले को ख़त्म करने का काम करता है. इन सबके बीच नादान-सा प्रेम भी है, जिसकी उपस्थिति उसके अलावा हर प्रेम को लाभ पहुंचाती है. दिक्कत ये है कि एक औरत की अनस्टेबिलिटी के कारण क्या हैं...उसकी न पूरी होती इच्छाएं या एक स्थापित ज़िन्दगी की चाह. अभिनय के लिए जॅान अब्राहम और अनु कपूर के अलावा कोई एक अच्छा स्टैंड नहीं ले पाया, जो एक सफ़ल निर्देशक की हार ही है.

वक़्त ज़रूरी क्यों है? इसका जवाब विशाल और गुलज़ार को मालूम होना चाहिए, और उनका महिमा-मंडन कर रहे सभी लेखकों-आलोचकों को. दर्शक समझदार है, और यह मानना होगा कि वह दुनिया भर का साहित्य पढ़कर और फ़िल्में देखकर सिनेमा हाल में जाता है, और जब ऐसा दर्शक सोचने की कला के साथ स्वतंत्र है तो हरेक सिने-प्रेमी को आलोचक कहना क्या सही नहीं होगा?



[बुद्धू-बक्सा पर एक बार पहले भी सात खून माफ़?]