रविवार, 19 जून 2011

रातातूई....पकाना


वास्तविकता को नकारते वक़्त कुछ लोग यह नहीं समझ पाते कि वे धीरे-धीरे दलाल सिद्ध होते जा रहे हैं, ऐसे कई फ़िल्म-समीक्षकों से मैं मिल चुका हूँ और बात कर चुका हूँ जो एनीमेशन फ़िल्मों के प्रेम पर हँसते हैं और ये सिद्ध करने को लालायित रहते हैं कि ऐसी फ़िल्मों में कूड़े के अम्बार के अलावा कुछ नहीं होता. 'बच्चों के वर्ग' की फ़िल्में देखना उनके सामर्थ्य के बाहर की चीज़ जान पड़ती है. ऐसे समीक्षकों को अपनी फ़िल्म-आंकलन की क्षमता पर बारम्बार सोचना चाहिए.

बहरहाल, इस बार फ़िर से पिक्सार..फ़िल्म है रातातूई...चूहों के अद्वितीय साम्राज्य से निकली फ़िल्म...यह फ़िल्म क्या दिखाना चाहती है, इसके बारे में बात न करें तो ज़्यादा अच्छा, क्योंकि इसका फैसला आपको ख़ुद लेना चाहिए.

हाँ तो रातातूई, फ्रेंच किसानों की एक चकलीदार डिश है, जिस पर कुछ लाल-सुनहरे रंग का गाढ़ा तरल उड़ेला जाता है, एक बड़े स्तर पर स्तरहीन खाना, सामान्यतया होटलों में न परोसे जाने वाली डिश है रातातूई और अगर गूस्तोव के रेस्तरां में परोसने के बारे में सोचा तो वह किसी गुनाह से कम तो नहीं ही होगा.

फ़िल्म आई है बरास्ते ब्रैड बर्ड और जैन पिंकावा. अपना हीरो है चूहा रेमी, एक बड़ी फ़ौज के साथ गुमसुम और उदास रहने वाला चूहा और हमेशा एक उम्दा और बड़ा खानसामा होने का ख़्वाब देखने वाला. ये ख़्वाब देखने की कला उसे गूस्तोव से वरदान में मिली है. उसने गूस्तोव की किताबें पढ़ी हैं और सारी किताबें और सारे नुस्खे हर खाना पकाने वाले से एक ही बात कहते हैं -"कोई भी पका सकता है". और ये "कोई भी पका सकता है" वाला सन्देश रेमी के भीतर एक गर्व के साथ रहने लगता है और उसे अपने ख़्वाबों का बादशाह बना देता है. लेकिन उसके कुनबे के सभी लोग 'लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर' वाली परम्परा से हैं, जहाँ रेमी की सभी खूबियों को लोग जानते तो हैं, फ़िर भी उसे खाने की चीज़ों में चूहा-मार दवाओं की पहचान में लगाया गया है. रेमी बोले हाँ, तो हाँ और ना, तो ना.

बहरहाल, एक घर में बड़े ही गुप्त तरीक़े से रह रहे चूहे (जो कम-से-कम हज़ार तो होंगे ही) खाने की चोरी में हुई भारी गड़बड़ी से तितर-बितर हो जाते हैं, सारे दोस्त, सारे जोड़े, सारे भाई और बहन, बच्चे-कच्चे, सारे और सभी कुछ एक दूसरे से दूर हो जाते हैं. इस पचड़े में रेमी तो एकदम से दूर छिटक जाता है, गंदे-साफ़ पानी के भिन्न-भिन्न माध्यमों से बहने के बाद जब रेमी को होश आता है, तो वह होश एक बेहोशी लेकर आता है क्योंकि तब उसे इस बात का इल्म होता है, कि वह पेरिस में शेफ गूस्तोव के रेस्तरां के बिलकुल क़रीब है.

'हनुमान', 'घटोत्कच' और पता नहीं कौन-कौन से देवी-देवताओं पर भूतों की तरह एनीमेशन फ़िल्में बनाने वाली कम्पनियां केवल बाज़ार देखती हैं, बाज़ार में 'कौड़ी का तीन' हो रहे धर्म को देखती हैं, नहीं तो अच्छी फ़िल्मों का भारत में भी बन पाना मुमकिन है, लेकिन हालिया समझ को देखते हुए अच्छी बाल-फ़िल्में दूर की कौड़ी लग रही हैं.

मारिए गोली इन सब बातों को अभी, लेकिन मैं तो ये सोच हतप्रभ हो रहा हूँ कि अपना रेमी तो पगला ही गया होगा, जब अपने उस्ताद के होटल के सामने उसने होश सम्हाला होगा. उसके लिए यही अनुभव ज़मीन से उठाने के लिए काफ़ी होगा, जब मरे हुए गूस्तोव का भूत उसे बार-बार यह याद दिलाता होगा कि 'कोई भी पका सकता है'. मनुष्य की आत्मा कितनी स्थूल और मोटी है, गूस्तोव के सह-खानसामों में से किसी ने भी और उसके ख़ुद के बेटे तक ने भी 'कोई भी पका सकता है' वाला हुनर नहीं पाया, दुनिया-ज़माने की बात रहने दीजिये. यह जज़्बा केवल रेमी के लिए रखा गया था, बचाकर.....क्योंकि हर तरफ़ इसे लूटने के लिए लोग खड़े थे, जो इस जज्बे की गर्दन मरोड़कर उसे ख़त्म करने की ख़्वाहिश रखते थे....लम्पटों की एक पूरी फ़ौज.

अब आता है हीरो की दावेदारी पर सन्देह करने के लिए एक और पात्र...लिंग्विनी...इस बात से बिलकुल अनजान कि वह गूस्तोव का बेटा है, ऐसे बेटे जो अपने बाप से अनजान होते हैं, उन्हें हम किस तरीक़े से देखते हैं, उसी तरीक़े का सामाजिक तौर पर सफ़ल अनुवाद है लिंग्विनी. झाड़ू-पोछे-सफ़ाई जैसे अंतहीन काम के लिए रखा गया ये लड़का गाहे-बगाहे सॉस-शेफ के गुस्से का शिकार होता रहता है. इसी बीच रेमी रेस्तरां में घुसने में सफ़ल होता है, और एक कार-रिमोट वाली दोस्ती लिंग्विनी से कर लेता है. एक तरफ है लिंग्विनी जो कुछ नहीं जानता, दूसरी तरफ़....नहीं-नहीं...उसके ऊपर है रेमी जो वह सब जानता है जो गूस्तोव की खासियत रही है, रसोई की शान रही हैं वे चीज़ें. यही रेमी का सुपरविज़न सारे कुछ को एक अलग ऊँचाई पर खड़ा कर देता है...इस सारे कुछ में बहुत सारी चीज़ें रहती हैं...गूस्तोव के रेस्तरां का खोया हुआ शौर्य, गूस्तोव का सुख, भीड़, निर्धन और कठिन-सा प्रेम-सम्बन्ध...सब कुछ वापिस अपनी ऊँचाई पर लौट जाना था. रेमी का होना लिंग्विनी को यह एहसास दिलाना होता था कि वह ही गूस्तोव का बेटा है और उस रेस्तरां का मालिक. ओफ़! क्या सब कुछ सच में इतना कठिन था, हाँ, कम से कम एक चूहे के लिए जिसे अपने समाज से बाहर के समाज में एक गहरी पैठ बनानी थी, तब यह कठिन था......वह समय और भी कठिन होता है, जब किसी बुद्धिजीवी और कम ओहदे के व्यक्ति को किसी बड़े 'मूर्ख' को बात समझानी होती है. नाम रातातूई इसलिए रखा गया क्योंकि आख़िर में गूस्तोव की रसोई की शान वही रातातूई लेकर आता है, जिसे रेमी ने बनाया है. और भी कई किस्से और कई लोग हैं फ़िल्म में...उन्हें जानने के लिए फ़िल्म ही देख़ लीजिये.

फ़िल्म में रसोई एक ख़ास जगह है, एक पवित्र-स्पेस.....जैसे किसी कलाकार के लिए एक मंच... ये एक थियेट्रिकल परिकल्पना है जहाँ रसोई को केन्द्रीय-भूमिका देनी होती है, यह बहुत सरल-सा हिसाब है जहाँ हर पात्र और दर्शक अपने को उस स्पेस का हिस्सा होता हुआ पाता है. यह एकदम कोरी परिकल्पना है जहाँ चूहे खाना बनाते हैं और सुधार कर कहा जाए तो आदमियों का खाना, फ़िर थोड़े और सुधार के साथ एक बहुचर्चित रेस्तरां में.....लेकिन इसमें कितना आशावाद सम्मिलित है और एक 'I can do it' जैसी अवधारणा भी जिससे होकर गुज़रना ही आपको बुद्धिमान 'खानसामा' बना देता है.

मेरे अनुभव के आधार पर, आप इस फ़िल्म को देखने के बाद अपनी कुर्सी से संवेदनाओं का पहाड़ या आंसुओं का समंदर लेकर नहीं उठते. आप 'उड़ते' हैं एक हल्की-सी मुस्कान के साथ और उस अदम्य जिजीविषा के साथ जिसे पालकर 'कोई भी पका सकता है'. फ़िल्म में एक बड़ा चक्करदार प्रेम भी है, लेकिन वह उतना ही ज़रूरी है जितना फ़िल्म में लिंग्विनी का खाना बनाना. एक अच्छी फ़िल्म के नाम पर इसे अपनी सूची में जोड़ लें(यदि चाहें तो), नहीं तो यूं ही देख़ डालिए.

(एनीमेशन फिल्मों की श्रेणी में आप पहले वॉल-ई और अप को पढ़ चुके हैं)

शुक्रवार, 10 जून 2011

धोबी घाट पर विष्णु खरे


(उद्भावना के अप्रैल 2011 के अंक 92 में प्रकाशित विष्णु खरे और सम्पादक अजेय कुमार के बीच फ़िल्म 'धोबी घाट' पर हुई बातचीत को कुछ अलग तरीक़े से यहाँ दिया जा रहा है. स्वीकृति के लिए बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे और अजेय कुमार का आभारी. फ़िल्म 'धोबी घाट' पर अभी तक जिस तरह की मूर्ख और भ्रामक समीक्षाएं दिख रही थीं, उन्हें चुप करने/रखने के लिए इसकी ज़रूरत थी. फ़िल्मों के प्रति विष्णु खरे का रवैया सभी समीक्षकों के लिए निहायत ही ज़रूरी हैं, क्योंकि फ़िल्म को सिर्फ़ उसकी कथा-वस्तु पर बहस का केंद्र बनाना ग़लत है. फ़िल्म के हर एलिमेंट को पकड़ में रख, उस पर बात करने की आदत हमें विष्णु खरे से लगती है. फ़िल्मों पर विष्णु खरे का नज़रिया हमेशा की तरह हमें आगाह करता रहता है.) 


मुम्बई के जीवन पर इतनी फ़िल्में बनी हैं कि उन सबको याद रख पाना सम्भव नहीं है और आज तो यह स्थिति है कि अधिकांश फ़िल्में या तो मुम्बई पर बनती हैं या उसी पार्श्वभूमी पर बनी लगती हैं. 'सलाम बॉम्बे' और 'स्लमडॉग मिलियनेअर' मुम्बई पर बनी वे दो फ़िल्में हैं जो विश्वभर में चर्चित हुईं और विचित्र संयोग है कि वे विदेश-स्थित - एक भारतीय और दूसरा फिरंगी-निदेशकों द्वारा बनाई गई थीं. वे लोकप्रिय यथार्थवादी फ़िल्में थीं और उनके मुकाबिले 'धोबी घाट' एक प्रायोगिक कोशिश लगती है. इसका अंग्रेजी नाम 'मुम्बई डायरीज़' है जो कुछ भ्रामक लगता है. दरअसल मुम्बई अपने-आप में ब्रिटिशोत्तर इतिहास के कई शहरों, युगों, संस्कृतियों, वर्गों, धर्मों, भाषाओं, जातियों, माफियाओं, राजनीतिज्ञों, फ़िल्म उद्योग और एक जटिल यातायात प्रणाली से मिलकर बना लगभग पौने दो करोड़ की वृहत्तर आबादी का कथित 'कॉस्मोपोलिटन' घटोत्कच-नगर है. उसकी 'आत्मा' को शायद किसी महाकाव्य या 'गेर्निका' सरीखी पेंटिंग में ही पकड़ा जा सकता है, कथा-साहित्य या सिनेमा की पकड़ से वह बाहर लगता है, हालांकि मेरा मानना है कि लोकप्रिय मुम्बइया फ़िल्म के स्तर पर उसे सिर्फ़ ख्वाजा अहमद अब्बास-राजकपूर ने 'श्री 420' में हासिल किया था. 'धोबी घाट' की समस्या यह है कि वह मूलतः कुछ चरित्रों की कहानी है जो न तो प्रतिनिधि हैं न प्रतीकात्मक. उनमें से भी तीन प्रमुख किरदार तो मुम्बई के हैं भी नहीं, बाहर से आए हैं. अग्रेज़ी के एक चालू जुमले का इस्तेमाल करते हुए आधुनिक चित्रकार की भूमिका में आमिर खान मुम्बई को 'माइ म्यूज़, माइ होअर, माइ बिलविड' ('मेरी कलादेवी, मेरी छिनाल, मेरी माशूका') कहता है जबकि फ़िल्म मुम्बई को इन तीनों में से कुछ भी सिद्ध नहीं कर पाती - वह है इन तीनों से कहीं बेतहाशा ज़्यादा.

ख़ुद निदेशिका किरण राव 'धोबी घाट' नाम से आश्वस्त नहीं लगती. उसने हिन्दी में यह नाम इसलिए रख लिया कि लोग समझें कि शायद यह धोबियों के जीवन पर आधारित कोई सामाजिक, यथार्थवादी, प्रयोगात्मक फ़िल्म होगी. दशकों पहले एक फ़िल्म 'धोबी डाक्टर' बनी थी, लेकिन आशंका के विपरीत, वह हिन्दी में पीएच.डी. करने वालों पर कोई व्यंग्य नहीं था. किरण राव की फ़िल्म में धोबी घाट की कोई केन्द्रीय भूमिका नहीं है. उसका नायक मुन्ना कहने को धोबी दिखाया गया है लेकिन दरअसल वह इस्तरी करके लानेवाला छोकरा है. यह ठीक है कि उसे धोबी घाट पर कपड़े पछीटते हुए बताया जाता है लेकिन सभी जानते हैं कि महानगरों के धोबी धोने और इस्तरी करने के दोनों काम नहीं करते. धोने, सुखाने, इस्तरी करने, लाने-ले जाने के लिए उन्हें 48 घंटे का दिन चाहिए. एक आदमी तो ये काम कर ही नहीं सकता. मुन्ना अपनी ख़ाला की झोपड़पट्टी में रह रहा है और वह धोबियों का खानदान नहीं लगता. दिल्ली, मुंबई में एक ही बड़ी इमारत से प्रैसवाले दम्पतियों को, जो ख़ुद को धोबी कहलाना पसंद नहीं करते, इतना काम मिलता है कि वे अँधेरा होने तक कपड़े पहुंचाते रहते हैं. बहरहाल, किरण राव मुंबई को इंसानियत का धोबी घाट नहीं बना पाई. मुन्ना को रंगरेजी का दावा करनेवाला भी दिखाया गया है, लेकिन यदि किसी पोशाक के कपड़े में नुक्स हो तो दर्जी, धोबी, प्रैसवाले और रंगरेज़ उसे कहाँ तक सँवार पायेंगे?

काश कि 'धोबी घाट' के न चलने की वजह उसकी 'गंभीरता' होती, क्योंकि गम्भीर फ़िल्में तो बिलकुल भी न चलकर हमेशा चलती हुई होती हैं. 'धोबी घाट' में न तो कला है और न मनोरंजन. यदि आप देखें तो उसके अधिकांश पात्र 'क्लीशे' हैं - एक तलाकशुदा आधुनिक चित्रकार जो मुम्बई की नकली कला-दुनिया से ऊबा हुआ गरीब मुहल्लों में शायद जीवन और कला के अर्थ और प्रेरणा खोज रहा है, भारतीय मूल की न्यूयॉर्क-स्थित 'बैंकर' युवती जो 'सैबेटिकल' और कैमरे लेकर कलर और ब्लैक-एंड-वाइट इंडिया खोजने मुम्बई आई हुई है, दरभंगा का एक मुस्लिम नवयुवक ज़ोहैब जो मुन्ना बनकर अपनी ख़ाला की झुग्गी में रहकर रईसों के कपड़े प्रैस करता हुआ 'इंडस्ट्री' में 'हीरो' बनने के लिए 'स्ट्रगल' कर रहा है. किरण राव मुम्बई को लेकर लगभग सभी 'स्टीरिओटाइप्स' का इस्तेमाल कर रही है. इस झोंक में उसने यह भी दिखा दिया कि अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए मुन्ना रात को मुम्बई की मुनिसपैल्टी के लिए चूहों को लाठी से मारने का काम भी करता है. 'नाईट रैट किलर' कहलाने वाले इन चूहेमारों को हर रात न्यूनतम तीस चूहे मारने पड़ते हैं और उससे ऊपर प्रति चूहा पच्चीस पैसा एक्स्ट्रा मिलता है. मुन्ना न्यूयॉर्क की शाइ और मुम्बई के अरुण दोनों के कपड़े प्रैस करता है. एक रात बैंकर शाइ के साथ अचानक सो लेने के बाद चित्रकार अरुण उससे कह देता है कि ऐसे रिश्तों में उसका कोई यकीन नहीं लेकिन शाइ है कि उसे 'प्यार' किए जाती है. उधर गरीब चूहेमार धोबी 'स्ट्रग्लर' शाइ मेमसाब से अपने पोर्टफोलिओ के लिए फोटो खिंचाने की प्रक्रिया में उससे 'काफ़-लव' करने लगता है और शाइ भी शायद अरुण और मुन्ना के बीच दोमुंही है. यह भी इशारा है कि एक अधेड़ अमीर औरत मुन्ना का कभी-कभार यौन-शोषण करती है. आया के स्तर की नौकरानियां मुन्ना को कतई नापसंद करती हैं - वह उन्हें निम्नवर्ग का उचक्का लगता है. फ़िल्म को और मुम्बइया बनाने के लिए किरण राव एक ड्रग माफ़िया की उपकथा भी ले आती हैं जिसमें फंसकर मुन्ना का खालाजाद भाई मारा जाता है, हालांकि फ़िल्म का एक प्रभावशाली दृश्य वह भी है जिसमें मुन्ना मातमपुर्सी करने आए हत्यारे माफ़िया सरगना को अपनी झुग्गी में लाठी से पीटता है, भले ही अंत में वह ख़ुद ज़्यादा पिटता है.

मुझे लगता है कि फ़िल्म के चार प्रमुख पात्रों में सबसे मार्मिक वह नव विवाहिता मुस्लिम युवती है जो प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होती लेकिन एक सिनेमाई युक्ति के माध्यम से तीन वीडियो-पत्रों के फ्लैशबैक के ज़रिए 'धोबी घाट' में आवाजाही करती है. किराये के घर में एक पुरानी अल्मारी में अरुण को तीन डीवीडी पत्र मिलते हैं जो एक छोटी वृत्तनाटिका की तरह हैं जिसे उसकी 'नायिका' ने ख़ुद शूट किया है. शाइ की कुतूहल भारत-यात्रा और इस मुस्लिम नववधू की मुम्बई-यात्रा में फ़ोटोग्राफ़ी ही साझा तत्व नहीं है, दोनों का मोहभंग भी है जो मुस्लिम युवती के लिए जानलेवा है. फ़िल्म के इस ट्रैक का कोई सम्बन्ध मुन्ना और शाइ से नहीं है लेकिन अरुण, जो एक 'वायोर' की तरह इन दृश्य-श्रव्य 'पत्रों' को पढ़ रहा है, उन्हें पढ़कर, विशेषतः उनके भयावह त्रासद अंत से, इतना विचलित हो जाता है कि उसके चित्र शायद हमेशा के लिए प्रभावित होने लगते हैं - उसकी अमूर्त कला में मानवीय चेहरे प्रवेश करते हैं. क्या यह एक मात्र संयोग है कि 'धोबी घाट' के दो सम्पूर्ण पात्र एक युवती और एक युवक, दोनों त्रासद हालात के शिकार, मुस्लिम हैं? या वे हिन्दू दिखाए जाते तो भी कोई फर्क़ न पड़ता? शाइ अरुण पर 'स्पाइ' भी कर रही है, लेकिन आखिर में जिसे वह अपनी मुट्ठी में मसोस रही है वह अरुण का नया पता है या उसका अपना दिल? सबसे ज़्यादा ओपन-एंडेड किरदार मुन्ना का ही है - वह वापस प्रेस्ड कपड़ों की डिलीवरी करेगा, अपने भाई की हत्या का बदला लेगा, अपने आदर्श सल्मान खान की तरह फिलिम लाइन में दबंग बनेगा या अपनी खाला और उसके बचे हुए बेटे को लेकर दरभंगा के मुसलमानों के बीच लौट जाएगा? 'धोबी घाट-टू', किरण राव?

अब दरअसल 'पूँजीपति', 'एलीट', 'क्रीमी लेयर', 'बूजर्वा' आदि उच्च-वर्गों में भी कई वर्ग-उपवर्ग बन चुके हैं. आप यदि टेलीविजन, अंग्रेजी अखबारों के विज्ञापनों और पेज थ्री को ध्यान से देखें तो एक जाति-प्रथा धनाढ्य-नवधनाढ्य वर्ग में भी सक्रिय है. 'धोबी घाट' में एलीट है जरूर लेकिन वह अम्बानियों-टाटाओँ-वाडियाओं-मल्यों के वर्ग की नहीं है. वह आर्टी-फार्टी विश्व है, वहाँ आधुनिक 'रीति' काल है, कॉमेडी ऑफ़ मैनर्स है, भंगिमा, मुद्रा, अभिनय है, एटीट्यूडिनाइज़िन्ग या नाज़-ओ-नखरा, अदाबाज़ी, छद्म है. गुणवता और कलात्मकता को लेकर एक एलीटिज्म हमेशा सम्भव और सह्य भी हो सकता है लेकिन उनकी अधकचरी समझ हास्यास्पद और त्रासद भी होती है, वह कितनी भी सदाशय क्यों न हो. 'धोबी घाट' में मंझोले दर्ज़े के दो एलीटिज्म हैं - एक तो मुम्बई के 'कला-जगत' का है, दूसरा एन.आर.आइ. शाइ का है, जो सारी सुख-सुविधाओं के साथ अपनी रूट्स वाले इंडिया को कैनन के टेली-लेंसों के माध्यम से डिस्कवर, कलेक्ट और रिकॉर्ड करने आई है - इनके मुक़ाबले यास्मीन के उस दृश्य को याद कीजिए जब वह एलोरा में त्रिमूर्ति से मुख़ातिब है, वह भी है फ़िल्म का हिस्सा, उसे भी किरण राव ने ही शूट किया है, लेकिन इसके बावजूद उसमें एक बहुयामी असलियत - औथेंटिसिटी - है.

मुझे किरण राव की नीयत पर शक़ नहीं है, न उसकी समझ पर. वह मुम्बई फ़िल्म उद्योग की उन युवा प्रतिभाओं में से है जिन्हें आधुनिक विश्व-सिनेमा की लगभग सारी जानकारी है. यातायात और संचार-संसाधनों ने यह भी सम्भव कर दिया है कि संसार के किसी भी कोने में आज रिलीज़ हुई फ़िल्म को आप अगले अधिकतम 48 घंटों में घर-बैठे देख़ सकते हैं. उस पर 'ट्विटर' और 'फेसबुक' के माध्यम से हज़ारों मील दूर चलती फ़िल्म के दरम्यान ही दर्शकों और विशेषज्ञों की राय जान सकते हैं. फ़िल्म-निर्माण तकनीक ने चमत्कारिक प्रगति की है जो अभी सिर्फ़ शुरू हुई है. प्रोड्यूसर-डायरेक्टर को एतराज़ न हो तो आप सीधे प्रसारण के ज़रिए फ़िल्मों की शूटिंग अपने ड्राइंग-रूम में देख़ सकते हैं, वह भी थ्री-डी में. अच्छी फ़िल्म बनाने के रास्ते में अब एक ही अड़ंगा बचा है और वह है निदेशक में प्रतिभा की कमी. जानकारी है, समझ है, सदाशयता  है, यदि आपका पति आमिर खान है तो आपके पास सारे संसाधन भी हैं, लेकिन इन सबके बावजूद यदि आपमें कारयित्री प्रतिभा की कुछ कमी है तो आपकी 'धोबी घाट' 'अच्छी' फ़िल्म मानी जा सकती है, उसे 'दिलचस्प' और 'बहसतलब प्राम्भिक प्रयोग' कहा जा सकता है, लेकिन बड़ी फ़िल्म तो वह हो नहीं पाएगी. यहाँ समस्या 'फॉर्म' और 'कंटेंट' की नहीं है, वह तो आपको मालूम ही हैं, सवाल उन्हें प्रतिबद्ध रचाव-बसाव वाली कलाकृति में कायांतरित करने का है जो एक तरह के आत्म-नाश से ही हासिल हो पता है. 

मैं प्रतिभा की आनुवांशिकता में यक़ीन नहीं करता, देखिये कि अमिताभ और जया बच्चन जैसे पिता-माता और बीसेक फ़िल्मों के बावजूद सपत्नीक अभिषेक बच्चन कितना दयनीय और हास्यास्पद अभिनेता चला आता है, लेकिन हाँ, राज बब्बर में भी कभी एक अच्छा अभिनेता बनने की संभावना थी और स्मिता पाटिल तो बड़ी अभिनेत्री थी ही, इसलिए प्रतीक में कुछ जन्मजात अभिनय-प्रतिभा हो तो क्या आश्चर्य? 'धोबी घाट' में उसकी वैसी-ही 'सबड्यूड' भूमिका है जैसी 'शक्ति' में अमिताभ बच्चन की थी. फ़िर भी, किरण राव अभी पूर्णरूपेण विकसित निदेशक नहीं हैं, उसे 'धोबी', 'दरभंगा', निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवार, निम्नवर्ग-उच्चवर्ग सम्बन्ध, 'मुन्ना' सरीखे किरदार की मानसिक-बौद्धिक-सांस्कृतिक-सामाजिक बनावट के सारे न्यूआन्सेज़ का अहसास कुछ कम ही है. प्रतीक के अभिनय की कमियाँ निदेशक के भारतीय अनुभवों की कमियाँ हैं जो, सौभाग्यवश, उसी के सामाजिक वर्ग के 'स्वाभाविक' अटपटेपन-गॅाकीनैस-में छिप भी जाती हैं. हम चूँकि अपेक्षाकृत जागरूक भारतीय हैं इसलिए हम पकड़ लेते हैं कि प्रतीक दरभंगा का मुस्लिम युवक हो नहीं सकता. लेकिन सामान्य उत्तर भारतीय दर्शक और लगभग सभी दक्षिण भारतीय दर्शकों को वह नहीं खटकेगा और विदेशी दर्शकों को तो समूची भारतीय भू-संस्कृति से ही कुछ लेना-देना नहीं है, जबकि मेरा यह हाल है कि मैनें अपनी लम्बी ज़िन्दगी में मुस्लिम दर्जी तो बहुत देखे हैं और वे होते भी चश्मेबद्दूर माहिर और ईमानदार हैं लेकिन मुस्लिम धोबी या प्रैसवाला आजतक नहीं देखा-सुना, मुस्लिम-बहुल इलाकों में होते हों तो होते हों. दरअसल स्वयं किरण राव में अपनी नायिका शाइ जैसी नेकनीयती है और ठीक उसी जैसे भारत से नावाकफ़ियत भी है. शाइ अभी पहली पीढ़ी की एन.आर.आइ. है, 'भारतीयता' में रचे-बसे उसके माँ-बाप दोनों मौजूद हैं. वह मुन्नासरीखे किसी नवयुवक से एक ठेठ अमरीकी युवती जैसा बराबरी का बर्ताव करेगी इसमें मुझे शक़ है. शाइ की बेटी या नातिन ज़रूर फ़रागज़ेहन होगी.

देखा जाए तो यास्मीन का ट्रैक 'धोबी घाट' में सबसे मार्मिक, सार्थक और कलात्मक है. वह मलीहाबाद की मुस्लिम लड़की है जो अपने शौहर के साथ मुम्बई आती है और उसे कहीं से एक डीवीडी कैमरा मिल जाता है जिसपर वह मिनी डीवी टेप पर अपने मायकेवालों को ऑडियो-विजुअल 'ख़त' लिखती है. ये चिट्ठियाँ धीरे-धीरे उसके रोजनामचे, उसकी डायरियां बन जाती हैं यानी उसका मिनी (ऑटो) बायो-पिक्, उसका लघु आत्म (कथा-वृत्त) चित्र. ये ख़त मलीहाबाद क्यों नहीं भेजे जा सके यह एक राज़ ही रहता अगर चित्रकार अरुण को वे अपने 'नये', मामूली किराये के घर की एक पुरानी लकड़ी की अल्मारी के बक्से में कुछ सस्ते गहनों के साथ न मिले होते. यूं तो सभ्यता का तक़ाज़ा है कि किसी भी और के - अपनी पत्नी तक के - निजी ख़तों और डायरियों को नहीं पढ़ा जाना चाहिए लेकिन हममें से कितने हैं जो इसका लोभ सवरण कर पाते हैं और चित्रकार अरुण तो अभी अपने राहबर को पहचानता नहीं है इसलिए उन्हें अपने टीवी पर पढ़ता है और एक जीवंत नवोढ़ा को एक अभागी बीवी में बदलती देखने वाला शायद पहला और अन्तिम शख्श बन जाता है. यास्मीन से वाबस्ता दो दृश्य स्मरणीय हैं - एक में वह रेत पर उर्दू में अपना नाम लिखती है जिसे समंदर की लहरें आकर मिटा देती हैं, जिसके कई प्रतीकार्थ हो सकते हैं और दूसरा कुछ और जटिल है - शाइ चोरी-छिपे अरुण के फोटो ले रही है, जो 'अनैतिक' रूप से यास्मीन के वीडिओ देख़ रहा है, यास्मीन अपने कैमरे में देख़ रही है, और हम दर्शक इस सबको पर्दे पर 'धोबी घाट' के कैमरामैन के ज़रिए देख़ रहे हैं. यह बहुस्तरीय, अनेकार्थी वॉयोरिज़्म है. यदि किरण राव ने अपनी इस पहली फ़िल्म से कुछ सही सबक़ लिए तो उनकी अगली फ़िल्म वैसी ही हो सकेगी जैसी वह 'धोबी घाट' को बनाना चाहती थी.