गुरुवार, 22 सितंबर 2011

मंगलेश डबराल की कविताएँ


[मंगलेश डबराल की संगीत से जुड़ी स्मृति उनके व्यक्तित्व जितनी सरल और उनकी कविता जितनी विस्मयकारी है. संगीत की स्मृति को हम कभी जज़्ब नहीं कर पाते हैं, लेकिन संगीत की स्मृति का प्राकृतिक अनुवाद केवल मंगलेश डबराल के पास होता आया है. किसी राग की स्मृति को वे संगीतकार को सुनने की याद से देखते हैं, जिससे उस राग के सभी आयाम अपने समूचे उपलब्ध ब्रह्माण्ड में फैलते है. किसी भी राग के अस्तित्व को दर्शाता यह वाक्य सबसे अनूठा है कि "ज़्यादातर लोग यमन का शरीर ही गाते रहते हैं", यमन अति-साधारण रागों की सूची से आता है, लेकिन इसे गाने को लेकर लोगों का अनमनापन इसे इसकी 'साधारण-सूची' से भी लगभग निष्कासित कर देता है और कुछ इसी तरह वे राग मारवा के लिए भी लिखते हैं और इसकी नीरसता के लिए मारवा का दुःख-पंथी होना बताते हैं - "लोगों को अब यह राग ज़्यादा रास नहीं आता/ कोई व्यर्थ के दुःख में नहीं पड़ना चाहता". मंगलेश डबराल के यहाँ राग शुद्ध कल्याण किसी स्थापत्य का हिस्सा है और हर बार जन्म लेता है. जिन रागों का ज़िक्र वे अपनी कविता में करते हैं, वे अकसर निलंबित राग होते हैं - ख़याल गायकी से उन रागों का लगभग निष्कासन हो चुका होता है क्योंकि वे राग अपने स्वरूप में इतने सरल होते हैं कि वहाँ पर दूसरे कठिन रागों का अतिक्रमण हो जाता है. इसीलिए अपनी कविता 'प्रतिकार' में वे लिखते हैं : 

जो कुछ भी था जहाँ-तहाँ हर तरफ़ 
शोर की तरह लिखा हुआ
उसे ही लिखता मैं
संगीत की तरह.

मंगलेश डबराल जैसे मूर्धन्य का हमारे पास होना हमेशा हमें समृद्ध करता आया है. बुद्धू-बक्सा पर उनकी संगीत से जुड़ी रचनाएं आगे भी प्रकाशित की जाएँगी. बुद्धू-बक्सा मंगलेश डबराल का आभारी रहेगा.]



राग दुर्गा                                            
(भीमसेन जोशी के गाये इस राग को सुनने की एक स्मृति)

एक रास्ता उस सभ्यता तक जाता था
जगह-जगह चमकते दिखते थे उसके पत्थर
जंगल में घास काटती स्त्रियों के गीत पानी की तरह
बहकर आ रहे थे
किसी चट्टान के नीचे बैठी चिड़िया
अचानक अपनी आवाज़ से चौंका जाती थी
दूर कोई लड़का बांसुरी पर बजाता था वैसे ही स्वर
एक पेड़ कोने में सिहरता खड़ा था
कमरे में थे मेरे पिता
अपनी युवावस्था में गाते सखि मोरी रूम-झूम
कहते इसे गाने से जल्दी बढ़ती है घास

सरलता से व्यक्त होता रहा एक कठिन जीवन
वहाँ छोटे-छोटे आकार थे
बच्चों के बनाए हुए खेल-खिलौने घर-द्वार
आँखों जैसी खिड़कियाँ
मैंने उनके भीतर जाने की कोशिश की
देर तक उस संगीत में खोजता रहा कुछ
जैसे वह संगीत भी कुछ खोजता था अपने से बाहर
किसी को पुकारता किसी आलिंगन के लिए बढ़ता
बीच-बीच में घुमड़ता उठता था हारमोनियम
तबले के भीतर से आती थी पृथ्वी की आवाज़

वह राग दुर्गा थे यह मुझे बाद में पता चला
जब सब कुछ कठोर था और सरलता नहीं थी
जब आखिरी पेड़ भी ओझल होने को था
और मैं जगह-जगह भटकता था सोचता हुआ वह क्या था
जिसकी याद नहीं आयी
जिसके न होने की पीड़ा नहीं हुई
तभी सुनाई दिया मुझे राग दुर्गा
सभ्यता के अवशेष की तरह तैरता हुआ
मैं बढ़ा उसकी ओर
उसका आरोह घास की तरह उठता जाता था
अवरोह बहता आता था पानी की तरह.



राग मारवा                                            
(अमीर खां और पन्नालाल घोष को सुनने की स्मृति)

बहुत दूर किसी जीवन से निकल कर आती है 
राग मारवा की आवाज़ 
उसे अमीर खां गाते हैं अपने अकेलेपन में 
या पन्नालाल घोष बजाते हैं
किसी चरवाहे की-सी अपनी लम्बी पुरानी बांसुरी पर
वह तुम्हारे आसपास एक-एक चीज़ को छूता हुआ बढ़ता है
उसके भीतर जाता है उसी का रूप ले लेता है
देर तक उठता एक आलाप धीरे-धीरे एकालाप बन जाता है
एक भाषा अपने शब्द खोजने के लिए फड़फड़ाती है
एक बांसुरी के छेद गिरते-पिघलते बहते जाते हैं
उसमें मिठास है या अवसाद
यह इस पर निर्भर है कि सुनते हुए तुम उसमें क्या खोजते हो

मारवा संधि-प्रकाश का राग है 
जब दिन जाता हुआ होता है और रात आती हुई होती है 
जब दोनों मिलते हैं कुछ देर के लिए 
वह अंत और आरम्भ के बीच का धुंधलका है 
जन्म और मृत्यु के मिलने की जगह
प्रकाश और अन्धकार के गडूड-मडूड चेहरे 
देर तक काँपता एक विकल हाथ ओझल हो रहा है
एक आँसू गिरते-गिरते रुक गया है
कहते हैं मारवा को किसी आकार में समेटना कठिन है
वह पिघलता रहता है दूसरे रागों में घुल जाता है
उसमें उपज और विस्तार पैदा करना भी आसान नहीं
उसके लिए भीतर वैसी ही कोई बेचैनी वैसा ही कोई विराग चाहिए
तुम उसे पार्श्व-संगीत की तरह भी नहीं सुन सकते 
क्योंकि तब वह सुस्त और बेस्वाद हो जाता है
गायक-वादक सब जानते हैं 
लोगों को अब यह राग ज़्यादा रास नहीं आता
कोई व्यर्थ के दुःख में नहीं पड़ना चाहता
इन दिनों लोग अपने ही सुख से लदे हुए मिलते हैं

फ़िर भी भूले-भटके सुनाई दे जाता है 
रेडियो या किसी घिसे हुए रेकॉर्ड से फूटता शाम के रंग का मारवा 
अमीर खां की आवाज़ में फैलता हुआ
या पन्नालाल घोष की बांसुरी पर उड़ता हुआ
आकार पाने के लिए तड़पता हुआ एक अमूर्तन
एक अलौकिकता जो मामूली चीज़ों में निवास करना चाहती है 
पीछे छूटे हुए लोगों का एक गीत
जो हमेशा पीछे से आता सुनाई देता है 
और जब कोई उसे सुनता न हो और कोई उसे 
गाता-बजाता न हो तब भी वह गूंजता रहता है
अपने ही धीमे प्रकाश में कांपता हुआ मारवा.


राग शुद्ध कल्याण                                     
(भीमसेन जोशी को सुनने के बाद)

एक मिठास जो जीवन में कम होती जा रही है
अकसर शुद्ध कल्याण में मिलती है
उसका साफ़ मीठा पानी चमकता रहता है
उसकी छोटी-बड़ी नदियाँ जगह-जगह फैली हैं 
उसका ज्वार चंद्रमा को गोद में ले लेता है
उतरती हुई उसकी लहरें बहुत नीचे चली जाती हैं
पृथ्वी के गर्भजल तक
और तुम जब इस पृथ्वी की सतह पर निरर्थक डोलते हो
लकड़ी पत्थर घासफूस और कुछ टूटी-फूटी चीज़ों की तरह
तो वह तुम्हें हल्का और तरल बनाता हुआ अपने साथ ले जाता है 
किसी स्थापत्य का हिस्सा बनने के लिए

अपनी कल्पना के यथार्थ में हर संगीतकार
इस राग को कई तरह से रचता आया है 
जैसे बार-बार अपनी ही सुन्दरता को प्रकाशित करता हो 
बारीक़ी से उसे तराशता हुआ 
जब तक एक-एक स्वर की कला समूचे राग की कला न हो जाये
स्वरों के स्थापत्य में चमक उठता है एक-एक स्थापत्य स्वर 
और तब बहुत प्राचीन होते हुए भी वह इतना नया लगता है 
जैसे उसका जन्म पहली बार हो रहा हो
हर संगीतकार उसकी पूर्णता तक पहुँचने से पहले ही लौट आता है
दूसरी आवाज़ों के लिए उसे छोड़ता हुआ 

शुद्ध कल्याण सुनते हुए तुम उसके आर-पार देख़ सकते हो
तुम्हारे अपने ही स्वर उसमें गूंजते हैं 
भले ही तुमने उन्हें पहले कभी न सुना हो 
और तुम उन्हें अकेले भी नहीं सुन रहे हो 
कोई तुम्हारे साथ है तुम्हारे भीतर 
तुम्हारा कोई अंश जो सहसा तुम्हें पहली बार दिखाई दिया है 
स्वरों की एक बौछार बार-बार तुम्हें भिगो देती है 
वह तुम्हारा सारा कलुष धो रही है
ऐसे ही किसी क्षण में तुम उसे गा उठते हो
क्योंकि उसमें इतनी कोमलता है
क्योंकि तुम ख़ुद उस कोमलता के बहुत पास पहुँच चुके हो
कि उसे गाये बिना नहीं रह सकते 
अपनी किसी व्यथा किसी वासना में
चन्द्रमा तक अपनी आवाज़ उठाने की कोशिश करते हुए 
आधी-अधूरी वह जैसी भी हो वही है जीवन की बची हुई मिठास.


शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

गोरख के पाँच


[गोरख एक जन बुद्धिजीवी थे, आर्गेनिक इंटलेक्चुवल और इसी पारिभाषिक शब्द के वजन पर वह जन-कवि थे. दोनों छोरों की शक्तियों से लैस और आत्महंता हद तक संवेदनशील, प्रतिबद्ध. अपने समय के अधुनातम दर्शन अस्तित्ववाद से जूझना एक तरफ,  दूसरी ओर मार्क्सवादी सिद्धांतों को जीवनानुभव से जोड़ना. उर्दू-संस्कृत के काव्यशास्त्र की गहरी समझ से लैस और लोकगीतों की लय में रमे हुए. गोरख आधुनिक हिन्दी के उन विरल कवियों में  हैं जिनकी  कविताओं का लोकगीत बन जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. (मूलतः शमशेर जी का विश्लेषण है यह!) गहरी सम-वेदना का ज्ञान गोरख की कविता को करुणा के पारस में बदल देता है. इस करुणा के साथ ही विकसित होती है प्रतिबद्धता. कोई अलग से थोपी हुई  नहीं. यह संवेदन से विचारधारा तक पहुंचने का रास्ता है. गोरख के ही शब्दों में- 'तुम्हारी आँखें हैं/तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर/ जितनी जल्दी हो सके  इस दुनिया को बदल देना चाहिए.’ केदार जी की ‘उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/ दुनिया को इस हाथ की तरह गरम और सुन्दर होना चाहिए’ जैसी कविता पर गोरख की कविता भारी पड़ती है क्योंकि वह कर्म-सौंदर्य से दीप्त है. यह एक्टिव और पैसिव का अंतर है. - मृत्युंजय]



समझदारों का गीत

हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।


चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।


हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।


हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।


वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।



बंद खिड़कियों से टकराकर

घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों में बंद खिड़कियाँ हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह

नई बहू है, घर की लक्ष्मी है
इनके सपनों की रानी है
कुल की इज्ज़त है
आधी दुनिया है
जहाँ अर्चना होती उसकी
वहाँ देवता रमते हैं
वह सीता है, सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है

लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह

कानूनन समान है
वह स्वतंत्र भी है
बड़े-बड़ों क़ी नज़रों में तो
धन का एक यन्त्र भी है
भूल रहे हैं वे
सबके ऊपर वह मनुष्य है

उसे चहिए प्यार
चहिए खुली हवा
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह

चाह रही है वह जीना
लेकिन घुट-घुट कर मरना भी
क्या जीना ?

घर-घर में शमशान-घाट है
घर-घर में फाँसी-घर है, घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकराकर
गिरती है वह

गिरती है आधी दुनिया
सारी मनुष्यता गिरती है

हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं ।



फूल और उम्मीद

हमारी यादों में छटपटाते हैं
कारीगर के कटे हाथ
सच पर कटी ज़ुबानें चीखती हैं हमारी यादों में
हमारी यादों में तड़पता है
दीवारों में चिना हुआ
प्यार।

अत्याचारी के साथ लगातार
होने वाली मुठभेड़ों से
भरे हैं हमारे अनुभव।

यहीं पर
एक बूढ़ा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में
फूल और उम्मीद
रख जाता है।



समाजवाद

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...

गाँधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...

काँगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...

महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई



एक झीना-सा परदा था

एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख़्तों की लहराती हरियालियाँ
झील में चाँद कश्ती चलाता हुआ
और ख़ुशबू की बाँहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे

फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियाँ कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे

अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं
चाँदनी उँगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हल तरफ़ बेख़ुदी छा गई

हम न थे, तुम न थे
एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेख़ुदी थी कि अपने में डूबी हुई

एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आँखें खुलीं...
ख़ुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी.

(इससे पहले धूमिल. साथ की कला-कृति 'द स्क्रीम' एद्वार्द मुंक की है.)