मंगलवार, 7 अगस्त 2012

संगीतकार सज्जाद हुसैन की खोज में - २ : अशरफ़ अज़ीज़

(इस करिश्माई बातचीत को प्रकाशित करना बुद्धू-बक्सा के लिए एक उपलब्धि है. इसे यहाँ प्रकाशित करने का एक ही मकसद है, जो कि हर रचना का होता है, कि इसे आपके जेहन तक उतारना और यह दिखाना कि ये हमारे कितने करीब साबित हो सकती है. इसके पहले का पाठ यहाँ. और इसी के साथ हम यहाँ जो अद्भुत तस्वीर दे रहे हैं, वह अरिदीप मुखर्जी के कैमरे से. अरिदीप वाराणसी में रहते हैं, और दृश्य-कलाओं की गूढ़ और साफ़ समझ रखते हैं. तस्वीर का नाम - स्मृति यात्रा. बुद्धू-बक्सा अरिदीप का शुक्रगुज़ार है.)

स्मृति यात्रा - अरिदीप मुखर्जी



कोरोग्वे से मोरोगोरो तक - हिंदुस्तानी फ़िल्मी गीत का मुखड़ा

हम शहरी अफ्ऱीक़़ा से देहाती अफ्ऱीक़़ा जा रहे थे। उस इलाक़े में जहाँ हिंदुस्तानियों की फौलादी लकीरें नहीं थी। हालाँकि हमारा जन्म अफ्ऱीक़़ा में ही हुआ, देहात हमारे लिए अजनबी जगह थी। ऐसी बियाबान जगह में हमें हिंदुस्तानी ख़यालों के सहारे की ज़रूरत और भी महसूस हो रही थी। हल्कीबारिश ने रास्ते को कोरा काग़ज़ बना दिया था जिस पर बस कभी दो, कभी चार लकीरें बनाती आगे चली जा रही थी। मैंने भाई से पूछा, ‘हिंदुस्तानी संगीत है क्या? कहाँ से आया है?’ उन्होंने बताया, ‘यह संगीत उसी सरगम से बना है जिससे क्लासिकल और फ़ोक बने हैं। सरगम संगीत का एल्फ़ाबेट है।’ जब मुझे यह समझ में नहीं आया तो उन्होंने मुझे एक केला खिलाया और कहा इसका स्वाद है, ‘स’। इसके बाद बस के हर पड़ाव पर मुझे अलग-अलग स्वाद के केले खिलाए और हम ‘स’ से ‘नि’ तक पहुँच गए। एक केले और दूसरे केले के बीच जो अंतर समय और जगह का था, उन्होंने कहा ये है श्रुति। पश्चिमी संगीत की भी सरगम है। हमारी सरगम और उनकी सरगम में बहुत अंतर नहीं है, लेकिन श्रुति का उपयोग हमारे संगीत में बहुत अलग है। ‘हमारा गीत सुरों के इतने छोटे-छोटे हिस्सों में बँटा होता है कि हमें पता ही नहीं लगता कि हम एक स्वर से दूसरे स्वर पर कब पहुँचगए। स्वर नदी के पानी या कहें हवा की तरह आगे बढ़ जाता है। वेस्ट की घड़ी अटक-अटक कर चलती है इसीलिए एक स्वर से दूसरे स्वर की दूरी हमें साफ महसूस होती है। लेकिन हमारे संगीत में घड़ी लगातार एक ही रफ़्तार पर चलती है।’ हमारे संगीत में ऐसा क्यों है तो वह कहने लगे, ‘नेचर में वक़्त भी ऐसे ही चलता है, हमारा संगीत ये सिखाता है। यदि तुम जागे हुए नहीं हो तो तुम्हें पता नहीं लगेगा कि समय कब गुज़र गया और ये बहुत ख़तरनाक हो सकता है।’ 

उन्होंने कहा, जब बीसवीं सदी में हिंदुस्तान का इतिहास लिखा जाएगा, फ़िल्मी संगीत की ईजाद को इंडिया की एक इंक़लाबी कला का दर्जा मिलेगा। उनको इस बात का पूरा भरोसा था कि आर सी बोराल, पंकज मलिक, मास्टर ग़ुलाम हैदर, अनिल विश्वास, सी. रामचंद्र, नौशाद और सज्जाद हुसैन इनको एक दिन वही दर्जा मिलेगा जो तानसेन, बैजू बावरा, अमीर ख़ुसरो और स्वामी हरिदास का है। फ़िल्म में साउंड टेक्नोलाजी आने से पहले मूक सिनेमा था। आर सी बोराल जैसे संगीतकार साउंड आने से पहले लाइव आरकेस्ट्रा, जैसे ऑपेरा में होता है, स्क्रीन के पास बैठ के बजाते थे और यह संगीत फ़िल्म में जान डाल देता था। वर्ना सिर्फ़ तस्वीरें भूत जैसी लगती थी। हमारे लोक संगीत ने उसमें इंसानियत डाली। उनका विचार था, सही फ़िल्म संगीत रवींद्रनाथ टैगोर, नज़रुल इस्लाम, उत्तर प्रदेश के कोठों और नौटंकी से आया है। इसमें छोटे, बड़े सबका योगदान है। सिनेमा सामान्य लोगोंके लिए है। इसमें शास्त्रीय संगीत नहीं चलता। रवींद्रनाथ टैगोर के लिए भी शास्त्रीय संगीत का उस्ताद रखा गया था। लेकिन उन्होंने तो सीखने से ही इंकार कर दिया। जब वह इंगलैंड गए तो उन्हें वहाँ का इंग्लिश और आयरिश सादा गीत बहुत पसंद आया। नज़रुल इस्लाम ने भी बंगाली लोक संगीत से प्रभावित होकर सादी कविता जिसे लोग समझ सकें, सरल धुन में बाँधी जो कोई भी गुनगुना सके। उन्होंने कहा रवींद्र और नज़रुल ने फ़िल्म के लिए गीत तैयार नहीं किये, लेकिन हमारे संगीतकारों ने उनसे प्रेरणा ली कि अच्छे संदेश वाली कविता को सीधी-सादी सुंदर धुन में पिरोया जा सकता है जिससे लोगों को केवल आनंद ही नहीं कुछ सीखने को भी मिले। होशियार के लिए इशारा ही काफ़ी होता है। रवींद्रनाथ टैगोर और नज़रुल इस्लाम के गीतों से प्रेरणा लेकर हमारे संगीतकारों ने अपने गीत सजाए और फ़िल्म संगीत को इतिहास बना दिया। इसमें कोई शक नहीं कि सिनेमा एक टेक्नोलाजी है जिससे हिंदुस्तान की तस्वीर बनाई जा सकती थी। लेकिन फ़िल्म संगीत के बिना यह हिंदुस्तानी नहीं हो सकती थी। फ़िल्म संगीत ने इसे देशी बनाया। पुरानों धागों से नया कपड़ा बुना गया। मैंने उनसे पूछा, ‘फिर क्यों पढ़े-लिखे लोग हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत को घटिया समझते हैं?’उनका जवाब था, ‘हर पढ़ा-लिखा आदमी अक़्लमंद नहीं होता। जो इस संगीत को घटिया कहते हैं, वे इस संगीत के बारे में नहीं अपने बारे में बता रहे होते हैं।’ 

1930-31 में जब हिंदुस्तानी फ़िल्मों में साउंड ट्रैक आया, उसके साथ ही इंसान की आवाज़ और भाषा का प्रयोग हुआ। मूक सिनेमा में लिमिटेसन्स थीं। चित्र के मतलब नहीं निकलते थे। इसलिए कहानी को समझाने के लिए बारबार लिखे हुए शब्दों का इंटरल्यूड परदे पर दिखाया जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि एक आदमी स्क्रीन के एक और खड़ा होकर शब्दों में कहानी बताता। जैसे कि जीते-जागते इंसान को भाषा से अलग नहीं किया जा सकता, जब तक बोलते-गाते इंसान फ़िल्मों में नहीं आए, तब तक फ़िल्म इंसान के बारे में थी ही नहीं। 

हिंदुस्तान एक खेतिहर देश है जिसमें ज़िंदा रहने के लिए गीत एक बहुत बड़ा ज़रिया है। लोकगीत में पुरानी पीढ़ी की विज़्डम डालकर नयी पीढ़ी तक पहुँचाई गई ताकि नयी पीढ़ी अपने बुजु़र्गों के तजुर्बे का फ़ायदा उठाये और उनकी याद भी ताज़ा रखे। सिनेमा अवाम का माध्यम है इसलिए उसमें शास्त्रीय संगीत उचित नहीं था। हिंदुस्तान का लोक संगीत ही फ़िल्म का आधार बना। सिनेमा मे गीत का उपयोग कैसे होना है, संगीतकार आर सी बोराल, मास्टर गु़लाम हैदर, केशव भोले, पंकज मलिक, तिमिर बारान, अनिल विश्वास इन लोगों ने इसका जवाब निकाला। वह यह कि फ़िल्म की कहानी आगे बढ़ाने का ज़रिया बनाया जाए। आज भी सबसे सफल गीत वे हैं, जब उन्हें क्रमबद्ध ढंग से रखा जाए तो सारी कहानी ख़ुद-ब-ख़ुद पता लग जाती है। गीत को किस सिचुएशन में आना चाहिए, इसका जवाब है जिसमें जज़्बा इतना बढ़े कि डायलाग से काम न बनता हो, तो गीत लगाया जाए।कहानी में ऐसी सिचुएशन आती है जहाँ न तो तस्वीर और न संवाद काम करते हैं, वहाँ गीत उसे पूरा करता है। गीत कहानी को गहराई देता है। अच्छा डाइरेक्टर और संगीतकार वही है जो कहानी में गीत को पैबंद की तरह नहीं, ऐसे बुने कि वह अलग न दिखाई दे। 

भाई ने एक बात और बताई कि फ़िल्मी गीत के साथ ब्लैक एंड व्हाइट फ़ोटोग्राफ़ी को रंगीन बनाने का मंसूबा संगीतकारों ने ही निकाला। वह था आरकेस्ट्रा। हमारे देशी संगीत में इतने वाद्य नहीं थे कि गीत को इंद्रधनुषी रंग दे सकते। पहले तो, उन्होंने पश्चिमी संगीत से वह साज़ लिये जो हमारे वाद्यों केस्वरों से मिलते-जुलते थे। जैसे, सरोद की जगह गिटार, वीणा की जगह स्लाइडिंग गिटार, बाँसुरी की जगह धातु का फ़्लूट, सारंगी की जगह वायलिन, हारमोनियम की जगह पियानो और एकोर्डियन, शहनाई की जगह ओबो और आवाज़ की जगह सेक्सोफ़ोन का इस्तेमाल किया। इन वाद्यों को अकेले बजाया जा सकता था और गीतों को रंगीन करने के लिए आरकेस्ट्रा की ज़रूरत थी। लेकिन आरकेस्ट्रा नोटेशन के बग़ैर काम में नहीं लाया जा सकता। इसलिए कलाकारों को पश्चिमी संगीत का एल्फ़ाबेट सीखना पड़ा। 1952 में जब महबूब ख़ान की रंगीन फ़िल्म आन नोवल्टी सिनेमा में दिखायी गई तो भाई ने कहा, ‘आज हिंदुस्तानी फ़िल्म भद्दी हो गई। अच्छे गाने होते हुए टेक्नीकलर की ज़रूरत नहीं थी।’ 

दिल में छुपाके प्यार का तूफ़ान ले चले
आज हम अपनी मौत का सामान ले चले ... 
मिटता है कौन देखिए उल्फ़त की राह में

उन्होंने कहा फ़िल्म को बाज़ारू कर दिया है। वह फ़िल्म आधी छोड़कर रीगल में हम लोग फ़िल्म देखने गए और शहर में ढिंढोरा पीट दिया कि हम लोग फ़िल्म आन से बेहतर है। लेकिन सच यह है कि मेरे भाई के अलावा फ़िल्म कोई छह लोगों ने ही देखी थी। 

चली जा चली जा
आहों की दुनिया
यहाँ कोई नहीं अपना न घर अपना न दर अपना।

मेरे भाई उन गिने-चुने लोगों में थे जिनकी बातों में इतना दम था कि वह कभी भूलती नहीं थीं। भाई के साथ यह सफ़र चालीस साल पहले की बात है। लेकिन लगता है, सब कुछ कल ही हुआ है। रवींद्रनाथ टैगोर के बारे में सिर्फ़ यह मालूम था कि उन्होंने बिना दरो-दीवार का स्कूल बनाया है। भाई की यह बातें सुनकर मैं यह सोचने लगा कि जिस स्कूल में मैं जाता हूँ वह तो जेल है और मेरे भाई ने चलती हुई बस को स्कूल बना दिया जिसमें मनोरंजन के साथ हम सीख भी रहे थे। वह अध्यापक थे और मैं उनका छात्र। भाई ने बताया कि हर विदेशी वाद्य को अपने संगीत में अपनाने से पहले उसकी परीक्षा ली गई। क्या इन साज़ों में से वे बारीक स्वर निकाले जा सकते हैं जो हमारे संगीत को अभिव्यक्त कर सकें? उन्होंने कहा, बहुत से पढ़े-लिखे लोग फ़िल्मी गीत के आर्केस्ट्रा को पश्चिम का कटा-पिटा मिलावटी आरकेस्ट्रा समझते हैं। 1940 के दशक में ही हमारे संगीतकारों ने आर्केस्ट्रा का हिंदुस्तानीकरण कर लिया था। उसे अपना बना लिया था। इसकी जो दो मिसालें उन्होंने मुझे दीं वह आज भी याद है। उन्होंने अपने पार्कर पेन मुझे दिखाया और कहा, यह है विलायती लेकिन इससे मैं उर्दू लिख सकता हूँ,हिंदी लिख सकता हूँ, मैं जो भी चाहूँ लिख सकता हूँ। दूसरी मिसाल उस संगीतकार से जुड़ी है जिसके गाने की खोज में हम यह सफ़र कर रहे हैं। सज्जाद हुसैन इटली के मैंडोलिन में माहिर थे। हालाँकि मैंडोलिन में मींड नहीं है लेकिन उनमे यह क़ाबलियत थी कि वह मैंडोलिन के तार में से आधा, चैथाई स्वर निकाल कर हिंदुस्तानी संगीत दे रहे हैं। 

यह कहते हुए उन्होंने थोड़ा-सा विषय बदला। अरे भाई, अगर हमने तुम्हें यह इंप्रेशन दिया है कि मोरोगोरो में हमें वह गाना सुनने को मिल जाएगा जिसे हम ढूँढ़ रहे हैं, हो सकता है नाकाम हो जाएँ। जिन्होंने अपना रिकार्ड संभाल कर रखा हुआ है वह हमें इतनी आसानी से क्यों सुनाएगा? उस समय उन्होंने वह बात कही जो मुझे आज भी याद है और आगे भी रहेगी कि हो सकता है, ख़ुदा ने इंसान को इसलिए बनाया है ताकि हमें इस बात का इल्म हो कि रूह को बचाने के लिए उन्हें कितनी मेहनत करनी पड़ती है। 

इन बातों ने ऐसा सुरूर पैदा किया कि हमें वक़्त और जगह का अहसास ही नहीं रहा। बाहर देखा तो लहर पर लहर दिखाई दे रही थी और शाम का सुर्मा फ़िज़ा पर छा रहा था। रात होते ही हम हंडेनी पहुँच गए। हमारी बस बाज़ार के बीच रुकी। रात की वजह से सफ़र वहीं बंद हो गया और सबको बस में ही रहने की हिदायत दी गई। हम बस के बाहर निकले तो हज़ारों जुगनू सितारों की तरह उड़ रहे थे। ऐसा लग रहा था एक आसमान हमारे नीचे है और एक ऊपर। भाई ने ऊपर की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘यह जो चमकते हुए सितारे नज़र आ रहे हैं, करोड़ों बरस सफ़र करने के बाद इनकी रौशनी हम तक पहुँच रही हैं। जब इनकी रोशनी का सफ़र शुरू हुआ था, कृष्ण, राम, मूसा, ईसा, बुद्ध और मोहम्मद पैदा भी नहीं हुए थे। इस रोशनी ने सब दौर देखे हैं। हमें भी देख रही है।’ हम रात की यह ख़़ूबसूरती थोड़ी ही देर सराह सके। मच्छरों के लश्कर ने हम पर हमला कर दिया। फिर तो रात हमने बड़ी मुश्किल से गुज़ारी। एक घंटा भाई सोते तो मैं मच्छर उड़ाता और जब मैं सोता तो वह। हंडेनी के मच्छर दुनिया के सबसे ज़हरीले मच्छर हैं। सुबह शरीर पर लाल-लाल चकत्ते नज़र आ रहे थे। भाई ने कहा, ये थी पानीपत की लड़ाई जिसमें दो फ़ौजों ने एक दूसरे का ख़़़ून किया। लेकिन फ़र्क़ यह है कि हमारे बदन पर जो ख़़ून था वह अपना ही था। मुझे ताज्जुब हो रहा था, मैं तो मुसीबत में था, वह ख़ुश नज़र आ रहे थे। उन्होंने कहा बलिदान के बगै़र कुछ काम नहीं बनता। अब मुझे यक़ीन है कि हमें गाना सुनने को मिलेगा। 

दूसरे दिन बस का सफ़र फिर शुरू हुआ। लेकिन शहर के कुछ मील बाहर पहुँचते ही देखा सिंगासी नदी में बाढ़ आई हुई है। पुल पानी में डूबा हुआ है। सारा दिन इंतज़ार में गुज़रा कि नदी का पानी कब जाए और बस आगे बढ़े। बस में, साथ जा रहे अफ्ऱीक़़ी लोगों की देहाती मासूमियत का सबूत मिलने लगा। उनके पास खाने पीने के लिए जो कुछ भी था, बाँटकर खाने लगे। हमें भी दिया। रंग, भेदभाव सब कुछ ख़त्म हो गया। सब लोग बस यही चाहते थे कि पानी उतर जाए तो बस पुल के पार हो। शाम तक नदी पुल के नीचे उतर गई। जब पानी से पुल निकला तो बड़ा डरावना लग रहा था जिसे आज भी सोचकर दहशत होती है। पक्का पुल तो पिछले साल टूट गया था। उसकी जगह बाँस का पुल साइसेल की रस्सी से लटकाया गया था। बस ड्राइवर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा। ये एक्सप्रेस बस है, रुक नहीं सकती। यही पुल पार करके जाएगी। अगर आप लोगों को यहीं जंगल में रुकना है, तो यहाँ के भूखेशेर, चीते देख रहे हैं, वह आप सबको हड़प जाएंगे। अब आप लोगों की मर्ज़ी रुकिए या चलिये। पाँच मिनट में बस में नहीं बैठे तो मैं समझ जाऊँगा कि आप लोगों को नहीं जाना है। 

उस वक़्त मेरे भाई के मुँह से यह मिसरा पहली बार मैंने सुना, ‘क़दो गेसू में क़ैसो कोहकन की आज़माइश है’ (ग़ालिब)। उन्होंने कहा, इस पुल को साइसेल की रस्सी ने बाँघा है। इसी रस्सी के बल पर हम सब एक हैं। मुझे भरोसा है यह रस्सी टूटेगी नहीं। पुल को फिर से देखकर मेरे दिमाग़ में एक बादल सा उठा और एक ख़याल दिमाग़ में आया कि क्यों हम अफ्ऱीक़़ा के बियाबान जगहों में इंडिया से और भी दूर एक फ़िल्मी गाना ढूँढ़ने के लिए जा रहे हैं? अगर यह पागलपन नहीं है तो हमारे दिमाग़ के ढीले स्क्रू का सबूत ज़रूर है। ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर दी थी। फ़ैसले के लम्हे सामने थे, यह ख़याल दूर हो गया। 

जिस चीज़ ने हमें रोटी दी है अगर हम उसके वफ़ादार नहीं हैं तब हम न तो इंसान हैं, न आदमी। मेरे भाई को साइसेल पर भरोसा था और मुझे भाई पर। ज्योंही हम दोनों बस पर चढ़े सब काँपते-काँपते साथ हो लिये। बस पुल पर आ गई है और हिंडोले जैसे पुल पर झूलते हुए आगे बढ़ने लगी। पुल के दूसरी ओर पहुँचने पर ड्राइवर ने गाड़ी रोककर ताली बजाई और कहा जब आप जैसे लोग सफ़र करते हैं तो लगता है हमारे साथ सेना है। आप लोगों ने हमारी लाज रख ली। आज तो आप लोगों ने एक नयी कहानी गढ़ी है। मैं अब ये बात सबको बताऊँगा कि हमने पुल कैसे पार किया। ड्राइवर ने कहा आज मेरी एक ग़लतफ़हमी दूर हो गई कि ये दो मुहिंदी (हिंदुस्तानी) जिनकी नस्ल को हम डरपोक व्यापारी समझते हैं ऐसा सोचना ग़लत है। मेरे भाई ने कहा, ‘मुझे आज फिर भरोसा हुआ कि साइसेल के बल पर हमारी ज़िंदगी का चक्कर चलता रहेगा और दुनिया इसे क्यों सुनहरा धागा मानती है।सुनहरी इनकी क़ीमत है। लेकिन इसमें स्टील की ताक़त है। सफ़र के दूसरी ओर पहाड़ियों की दीवार नज़र आई। भाई ने बताया वह उलूगरू पहाड़ है। उनकी गोदी में है मोरोगोरो शहर, जहाँ हम जा रहे हैं। थोड़े ही आगे जाने पर रेल नज़र आने लगी। ट्रेन देखते ही हमने इत्मीनान की साँस ली क्योंकि ट्रेन अफ्ऱीक़़ा में हिंदुस्तान की लकीर है। 



मोरोगोरो में बालूसिंह से मुलाक़ात

दोपहर को हम मोरोगोरो पहुँचे। सीधे भाई के दोस्त बलवंत बालूसिंह के यहाँ गए। दो बच्चों के साथ वह घर के बाहर ही बैठे थे। देखते ही बड़ी ख़ुशी ज़ाहिर की। हम लोग नहाये, घोये। चाय नाश्ते के लिए तैयार हो गए। तब उन्होंने अपनी राम कहानी सुनाई। कहने लगे वक़्त बहुत ख़राब हो गया है।कभी भी उनकी नौकरी जा सकती है। वो दारेस्सलाम-टबोरा रेलवे लाइन में इंजिन के फ़ायरमैन थे। कहने लगे, ‘कोयले का इंजिन जाने वाला है और डीज़ल इंजिन आ जाएगा तो हमारी नौकरी चली जाएगी। अगर कहीं श्मशान घाट की कोई नौकरी हो तो बता देना। एक बहुत माहिर आग का काम करनेवाला है।’ इस पर हम लोग बहुत हँसे। उन्होंने कहा, भाभी को नहीं बताना। हमने उन्हें कुछ ख़बर नहीं की है। मुझे लगा था, इन्हीं के पास वह गाना होगा। उनकी नौकरी जाने का मज़ाक़ खत्म हुआ तो वह बहुत गंभीर हो गए। कहने लगे, ‘मुझे नहीं लगता कि जिस गीत को सुनने के लिए आप आए हैं,वह काम पूरा हो जाएगा। क्योंकि हाजीभाई जिनके पास रिकार्ड है, शक्की भी हैं। तुम लोग एक दिन लेट आए हो। उनके मुताबिक़ अच्छा समय निकल गया। फिर भी चलो, कोशिश करके देखते हैं। कोशिश करना इंसान के हाथ में है।’ वह हमें रेलवे शेड में ले गए हाजीभाई से मिलने के लिए। जातेसमय उन्होंने नसीहत दी, रिकार्ड का नाम मुँह पर न लाना। ऐसा कुछ भी हुआ तो ज़रा भी काम नहीं बनेगा। मैं बस कहूँगा, मेहमान आए हैं तो आपसे मिलाने के लिए ले आया। बाक़ी उन्होंने तो इंतज़ाम किया हुआ होगा। शेड की तरफ़ जाते समय रास्ते से गुज़रे तो वहाँ सिनेमा में फ़िल्म बरसात लगीहुई थी। बालूसिंह ने बताया ‘सब लोग शंकर जयकिशन के संगीत पर इस फ़िल्म को बारबार देख रहे हैं। लेकिन मैं फ़ाली मिस्त्री की जादूगरी देखने जाता हूँ। उन्होंने धूप और छाँव मिला कर एक रंगीन फ़िल्म बनाई है। गीत ”हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का“ जो फ़िल्म के ब्लैक एंडव्हाइट होते हुए भी लाल नज़र आता है और कोयला जब जलता है तो इसमें से कितने ही रंग निकलते हैं।’

हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का
ओ जी ओ जी...

वह ठीक कह रहे थे। फ़ाली मिस्त्री बहुत अच्छे कैमरामेन थे। फिर भाई और बलवंत में बहस हो गई। उन्होंने कहा, ‘अय्यूब, तुम्हें फ़िल्म संगीत अच्छा लगता है कि तुम कुछ और देखते ही नहीं। सिवाय नौशाद, सी रामचंद्र, शंकर जयकिशन के अलावा तुम्हें फ़िल्म में किसी और की कला नज़र ही नहींआती। उनका विचार था फ़िल्म पहले आँख के लिए है, फिर कान के लिए है। संगीतकारों ने इंडियन पब्लिक को अंधा बना दिया है। वह फ़ाली मिस्त्री, आर डी माथुर, फ़रीदून ईरानी, जाल मिस्त्री इनकी कारीगरी पहचानते ही नहीं। भाई ने इसके जवाब में कहा, बालू यह तुम्हारी ग़लतफ़हमी है।हिंदुस्तानी फ़िल्म पहले कानों तक पहुंँचती है, फिर आँखों तक। 


हाजीभाई से मुलाक़ात: हिंदुस्तानी फ़िल्मी कहानी का अंतरा

बातों बातों में हम रेलवे शेड पहुँचे तो उन्होंने कारख़ाने के बाहर ही रुकने को कहा और अंदर जाकर एक बुजु़र्ग से बातें करने लगे। थोड़ी देर में उन्हें लेकर हमारे पास आ गए। हम लोगों से हाथ मिलाया और कहा, ‘मेरा नाम है, हाजीभाई। आप में ग़लतफ़हमी पैदा न हो, मैं कभी मक्का-मदीना नहीं गया।मेरे पिता जी गए थे। उनके अच्छे कामों का नाम मुझे मिल गया है।’ उन्होंने मेरे भाई से पूछा, ‘आप लोग क्या करते हैं?’ भाई ने कहा, ‘हम आधे मुसलमान हैं।’ ये सुनकर वह चैंके और कहा, ‘भई ये कैसे?’ भाई ने जवाब में कहा, ‘ख़ुदा को मानते हैं लेकिन डरते नहीं।’ उन्होंने कहा, ‘ये क्या चक्कर है?’भाई बोले, ‘हम मस्जिद नहीं जाते, रोज़ा नहीं रखते। लेकिन ईद मनाते हैं।’ यह सुनकर हाजीभाई बहुत हँसे और बोले आज का खाना हमारे घर। 

दोपहर का वक़्त गुज़ारने के लिए हमने बरसात फ़िल्म देखी। बालू सिंह ने पिक्चर की फ़ोटोग्राफ़ी पर लेक्चर पर लेक्चर दिये। शाम को हम हाजीभाई के घर पहुँचे। वह बाहर बरामदे में हमारे इंतज़ार में बैठे थे। फिर से सलाम दुआ हुई। कुर्सियाँ आईं और हमें बिठा कर ख़ुद घर के अंदर चले गए। थोड़ीदेर में मुर्ग़े की चीख़ सुनाई दी। तब बालूसिंह ने कहा, ‘मुझे लगता है आपका काम बन जाएगा।’ इतने में हाजीभाई भी आ गए थे। बैठकर बातें होने लगीं। वे कहने लगे मुझे उन लोगों पर ताज्जुब होता है जो रूह की सच्चाई को नहीं मानते। मुर्ग़े के गले पर जब छुरी चलती है, तो वह उड़ने की कोशिशकरता है। परों की आवाज़ रूह के उड़ने का सबूत है। फिर उन्होंने पूछा, ‘आज क्या किया?’ तो बताया, बरसात पिक्चर देख कर आए हैं। उन्होंने यह सुनते ही कहा, ‘पृथ्वीराज के बेटे की फ़िल्म तो...’ उन्होंने दो गालियाँ राजकपूर को दीं। बोले, इस नौजवान पर तो बड़ों का आशीर्वाद नहीं होगा जिसनेराम गांगुली को निकाल दिया और शंकर जयकिशन को लिया। फ़िल्म आग का ‘न आँखों में आँसू, न होठों पे हाय’ (मजरूह सुलतानपुरी) जिसने ऐसा डायमंड गीत दिया उसके साथ ऐसी बेवफ़ाई तो हमने कभी नहीं देखी। 

न आँखों में आँसू न होठों पे हाय
मगर एक मुद्दत हुई मुसकराये।

बोले, ‘शंकर जयकिशन में क्या है? ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म में लाल दुपट्टे की बात कर रहे हैं। इनकी मत मारी गई है। कौन इन पागलों को सुनेगा?’ ये सुनकर बालूसिंह अपना सिर हिलाने लगे। यह होता है नतीजा फ़िल्म को कान से सुनने का। हाजीभाई के घर के दरवाज़े के पीछे एक सायाइधर-उधर जा रहा था। मैं समझ गया, वो एक कुएँ में गिर गए हैं। ये एक्सप्रेशन हमारे बुज़ुर्ग उन हिंदुस्तानियों के लिए करते थे जिनकी शादी काली अफ्ऱीक़़ी औरतों से होती थी। 

ज्यों ही शाम होने लगी कि लगा हाजीभाई अपने आप में इतिहास हैं। सिनेमा संगीत का इतना ज्ञान था, वह और मेरे भाई ऐसे बैठे मानो सिनेमा संगीत के महान ज्ञानी हों। उन्होंने बताया वह बहुत दिनों में इस पसोपेश में हैं कि उन्हें यह समझ में नहीं आता कि फ़िल्म बैजू बावरा में नौशाद कहना क्या चाहते हैं? लोक संगीत को क्लासिकल संगीत के ज़रिए महलों तक पहुँचाया जाए या शास्त्रीय संगीत को लोक संगीत की तरह सरल बनाकर आम लोगों तक पहुँचाया जाए। क्या बात सच है इसका जवाब न मिलने के कारण काम में भी मन नहीं लगता। मेरे भाई ने कहा, अंत में तो वही गीत है, ‘तू गंगा की मौज मैं जमना की धारा’ आप जो जवाब ढूँढ़ रहे हैं, वह इसी गीत में है। उन्होंने कहा, ‘ये तो आपने अच्छी बात सुझाई। हो सकता है कल मैं अपना काम ठीक से कर पाऊँगा।’ फिर कहने लगे, ‘अगर मरते वक़्त उनके कानों में ये गीत ”झूले में पवन के आई बहार प्यार छलके“ सुनाई पड़ेगा तो उन्हें लगेगा वह स्वर्ग छोड़ कर जा रहे हैं।’

झूले में पवन के आई बहार प्यार छलके

बातों-बातों में ही खाना आ गया। उससे पहले हाजीभाई ने कहा, ख़ुदा का शुक्र है उन्होंने मुर्ग़े को मुर्ग़ा और हमें आदमी बनाया, नहीं तो कौन जाने, कौन किसको खा रहा होता।

खाना ख़त्म हुआ। रात के लिए गैस का लैंप जला। चाय का एक दौर हुआ और फिर हाजीभाई कहने लगे, हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत का न तो लोक संगीत और न ही शास्त्रीय संगीत से ही कोई गहरा ताल्लुक़ है। यह हिंदुस्तान में नया इंक़लाब है। ये नयी बोतल में पुराना नशा नहीं, नयी बोतल में नया नशा है। यह इसलिए कि हर टेक्नोलाजी अपने आप में एक नया पैग़ाम है। पहले तो माइक्रोफ़ोन ने हमारी गायकी बदली। माइक्रोफ़ोन के बगैर तलत महमूद जैसे गायक अपना काम नहीं चला सकते थे। फिर 78 आरपीएम का रिकार्ड साढ़े तीन मिनट में जो कहना है, वो कह देता है। यह ऐसा गीतनहीं है जब मूड आया बना लिया। ये कहानी की सिचुएशन के लिए, कहानी को आगे बढ़ाने के लिए है। अगर हम फ़िल्मी गीत को सुनते हैं, तो उसमें धुन को बाँटा हुआ है। प्रिल्यूड और इंटरल्यूड वाले भाग में हमें आर्केस्ट्रा मिलता है और अगर वह सिर्फ़ धुन को दोहराये तो वह हिंदुस्तानी रहेगा।लेकिन विदेश से हारमनी और रंग को भी हमारे संगीतकारों ने प्रयोग किया। हमारा परंपरागत संगीत लकीर की तरह फ़्लैट है। हारमनी ने उस पर मंज़िलें बनाईं। उससे गीत को और भी ख़ूबसूरत बनाया जा सका, उसमें बारीकियाँ डाली जा सकीं। इसके पायनियर संगीतकार थे, आर सी बोराल औरपंकज मलिक। ये वे नौजवान थे जो अपनी संस्कृति की बहुत इज़्ज़त करते थे। उन्हें पता था कि धुन पुरानी चीज़ है, उसमें विदेशी वाद्य, प्रिल्यूड और इंटरल्यूड में लगाये और धुन को साफ़ सुथरा रखा। आवाज़ में इंसान की रूह बोलती है। धुन को उससे जोड़ा, फिर बोलों ने कहानी को आगे बढ़ाया। आम गीत इसी स्ट्रेटेजी पर बने हैं। 

संगीतकार सज्जाद हुसैन ने इस सिद्धांत को नहीं अपनाया क्योंकि वह ख़ुद वादक थे। सज्जाद हुसैन का नाम सुनकर हम चौंके। लेकिन बाहर से ज़रा भी उत्सुकता नहीं दिखाई ताकि उनको कोई शक न हो। हम हाजीभाई को धोखा देने में कामयाब रहे। हाजीभाई ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा सज्जाद हुसैन जानते थे कि एक माहिर कलाकार के हाथ में वाद्य भी गा सकता है और आवाज़ वाद्य भी बन सकती है। उनका कहना था कि जिन गीतों में बोल ऊँचे दर्जे पर हैं और साज़ नीचे, तो वह बराबर नहीं है। अब जब बोलती गाती फ़िल्म 1931 में आई तो हिंदुस्तान की आज़ादी का आंदोलन तेज़ी पर था।आज़ादी के बाद लोगों में एकता होगी, लोग बराबर होगे। सज्जाद ने अपने गीतों में साज़ और आवाज़ में एकता पैदा की। जो लोग समाज में एकता और बराबरी नहीं चाहते उन्हें सज्जाद हुसैन का संगीत पसंद नहीं आएगा। जहाँ गौतम बुद्ध अपने इसी मक़सद में कामयाब नहीं हुए, तो सज्जाद हुसैन की क्या बिसात! एक शायर ने कहा है- ‘तम्हीदे ख़राबी की तकमील ख़राबी है’ - सीमाब। हाजीभाई ने कहा, ‘मैं इसकी कहानी बताता हूँ। 


एक पुराने गीत से नयी मुलाक़ात

ये कहकर उन्होंने अपने एक मुलाज़िम को आवाज़ दी तो हुक़्क़ा आ गया। उन्होंने कहा, ‘सज्जाद हुसैन उस्ताद अली बख़्श (मीना कुमारी के पिता) के असिस्टेंट थे। अली बख़्श को एक नयी फ़िल्म का संगीत मिला वो थी दोस्त। एक दिन अली बख़्श बीमार होने की वजह से रिकार्डिंग पर नहीं आए।उनकी ग़ैर हाज़िरी में सज्जाद हारमोनियम में धुन बजाने लगे जिसे सुनकर नूरजहाँ वहाँ आ गईं। उन्हें वह धुन इतनी अच्छी लगी कि अली बख़्श को निकाल दिया गया और सज्जाद को ले लिया गया। हाजीभाई ने फिर मेरी तरफ़ घूर कर देखा और कहने लगे, ‘ऐसे इंसान को बड़ों का आशीर्वाद नहीं मिल सकता और उसके बग़ैर बात नहीं बनती। लेकिन हम दाद देंगे नूरजहाँ की। फ़िल्मी गीतों में एक क्रांति लाने में उनका हाथ था। कभी-कभी इंसान को ज़िंदगी का कारोबार बढ़ाने के लिए ग़लत काम भी करना पड़ता है।’ ये कहकर हाजीभाई उठ कर अंदर गए और चमड़े का एक अटैची केस उठाकर लाए। नौकर को आवाज़ दी, जो पहले एक छोटी टेबल लेकर आया, उस पर ग्रामोफ़ोन रखा। हाजीभाई ने उसमें चाबी भरी। नयी सूई लगाई और फिर बस्ते से एक रिकार्ड निकाला। उसको रखा और वह गाना जो हमने बरसों नहीं सुना था, ‘कोई प्रेम का देके संदेसा हाय लूट गया, हाय लूट गया’,फिर हमारे कानों तक पहुँचा।

कोई प्रेम का देके संदेसा हाय लूट गया, हाय लूट गया।

गाना ख़त्म होने पर उन्होंने कहा, ‘यह गाना है ही नहीं। यह ज़िंदगी की नाकामियों पर, इंसान की एक ठंडी साँस है। तो ये है सच्चाई।’ यह कहते हुए वह रिकार्ड उठाने लगे तो मैंने कहा, ‘इसके पीछे क्या है, वह भी बजाकर सुनाइये।’ तो उन्होंने मेरे गाल पर चुटकी काटी और कहा, ‘मैं तो हूँ चोर, तू डाकू बनेगा। यह सफ़र जो तुमने इस रिकार्ड की एक साइड सुनने के लिए किया, वह दोबारा करना तब हम दूसरी साइड सुनाएँगे।’ रिकार्ड को झोले में डालकर अटैची के अंदर रख लिया। रिकार्ड हमारी आँखों से ओझल हो गया जो आज तक ओझल है। 

फिर कहने लगे, हर मुजरिम को अपने जुर्म का भार उठाने की थकान होती है, इसीलिए उसको अपना जुर्म बाँटकर हल्का करना होता है। आज रात वही हो रहा है। मैं आप लोगों का शुक्रगुजार हूँ, आप लोग भी इसे बाँट रहे हैं क्योंकि यह रिकार्ड मैंने चुराया था। मैं आपको पहले की कह चुका हूँ कि मैं सच्चा हाजी नहीं हूँ। लेकिन चोरी मेरा पेशा नहीं है। किसी बुज़ुर्ग को छोटों को नसीहत देने का कोई अधिकार नहीं, जब तक वह ख़ुद ऐसा अघिकार हासिल नहीं करना चाहता। और मुझे पास बुलाकर बताया कि ये चोरी उन्होंने कैसे की।

एक रात मोरोगरो स्टेशन पर एक गाड़ी देर तक रुकी। एक हिंदुस्तानी सज्जन उसी समय हिंदुस्तान से लौटे थे। वह तबोरा जा रहे थे। वक़्त था, उनसे मुलाक़ात हुई, बातें होने लगीं। उन्होंने बताया कि वह इंडिया से कुछ रिकार्ड लेकर आए हैं। इनमें से कुछ दारेस्सलाम में उन्हें सुनने का मौक़ा मिला।उन्होंने कहा, इनमें कुछ तो बहुत बेकार हैं जो उन्हें नहीं चाहिएँ। चूँकि उन्हें वज़न कम करना था, तो कहा, अगर आपको चाहिएँ तो ले लीजिए। मैंने रिकार्ड देखे। दिल ने कहा, उनसे कहूँ, आप ख़ज़ाना लुटा रहे हैं। जोश ने साथ नहीं दिया। और मैंने रिकार्ड जल्दी से उनसे ले लिये। ये गाना उन्हीं में से था। उन्होंने कहा, यह जानते हुए कि कोई चीज़ क़ीमती है, यह न बताना भी एक तरह की चोरी है। हाजीभाई अपने क़ीमती ख़ज़ाने को बस्ते में डालकर घर के अंदर जाकर रख आए। जब वापस आए तो संगीतकार सज्जाद के बारे में और भी कहानियाँ सुनाई।

(जारी...)

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