शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

मंगलेश डबराल की नई कविताएँ


[मंगलेश डबराल की ये कविताएँ आधुनिक ज़रूरतों, संस्कृति की कठिन और नवीन अंगड़ाईयों से सामना करती हैं. इनमें एक बैंक के नए हो जाने का विलाप मौजूद है, उसके अधिकतर लोगों के खो जाने से उपजा अकेलापन है. फ़िर-फ़िर और बार-बार ये कविताएँ तमाम सामंती ताक़तों का विरोध करती हैं. यहाँ विनोद कुमार शुक्ल के लहज़े का परिष्कृत और ताक़तवर रूप भी है, जो कुचले और मसले गए लोगों के सन्दर्भ में आता है, जहाँ चीज़ें नहीं रहतीं, बस उनकी जगहें खाली मिलती हैं. ऑक्सीजन की कमी की पूर्ति एक सत्तारूढ़ हँसी और सामन्ती उद्घोष के साथ होती है. तमाम विरोधों के बावजूद जो भी वैश्विक पटल पर घट रहा है, उसे ये कविताएँ बखूबी दर्ज़ करती हैं. पहाड़ों, जन-जंगल-जानवरों और चिड़िया-चुनमुनों से इनका वास्ता है. इनके पास यथार्थ, विकास और त्रासदियों की अपनी परिभाषाएँ हैं. पहले "हंस" में  प्रकाशित हुईं और अब यहाँ. बुद्धू-बक्सा कवि और हँस-सम्पादक का आभारी. मंगलेश डबराल की पिछली कविताएँ यहाँ.]


नये युग में शत्रु

अंततः हमारा शत्रु भी एक नये युग में प्रवेश करता है
अपने जूतों कपड़ों और मोबाइलों के साथ
वह एक सदी का दरवाज़ा खटखटाता है
और उसके तहख़ाने में चला जाता है
जो इस सदी और सहस्राब्दी के भविष्य की ही तरह अज्ञात है
वह जीत कर आया है और जानता है कि अभी पूरी तरह नहीं जीता है
उसकी लड़ाइयां बची हुई हैं
हमारा शत्रु किसी एक जगह नहीं रहता 
लेकिन हम जहां भी जाते हैं पता चलता है वह और कहीं रह रहा है
अपनी पहचान को उसने हर जगह अधिक घुला-मिला दिया है
जो लोग ऊंची जगहों में भव्य कुर्सियों पर बैठे हुए दिखते हैं
वे शत्रु नहीं सिर्फ़ उसके कारिंदे हैं
जिन्हें वह भर्ती करता रहता है ताकि हम उसे खोजने की कोशिश न करें

वह अपने को कंप्यूटरों टेलीविजनों मोबाइलों
आइपैडों की जटिल आंतों के भीतर फैला देता है
किसी महंगी गाड़ी के भीतर उसकी छाया नज़र आती है
लेकिन वहां पहुंचने पर दिखता है वह वहां नहीं है
बल्कि किसी दूसरी और ज़्यादा नयी गाड़ी में बैठ कर चल दिया है
कभी लगता है वह किसी फ़ैशन परेड में शिरक़त कर रहा है
लेकिन वहां सिर्फ़ बनियानों और जांघियों का ढेर दिखाई देता है
हम सोचते हैं शायद वह किसी ग़रीब के घर पर हमला करने चला गया है
लेकिन वह वहां से भी जा चुका है
वहां एक परिवार अपनी ग़रीबी में से झांकता हुआ टेलीविजन देख रहा
जिस पर एक रंगीन कार्यक्रम आ रहा है

हमारे शत्रु के पास बहुत से फोन नंबर हैं ढेरों मोबाइल
वह लोगों को सूचना देता है आप जीत गये हैं
एक विशाल प्रतियोगिता में आपका नाम निकल आया है
आप बहुत सारा कर्ज़ ले सकते हैं बहुत सा सामान ख़रीद सकते हैं
एक अकल्पनीय उपहार आपका इंतज़ार कर रहा है
लेकिन पलट कर फोन करने पर कुछ नहीं सुनाई देता

हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता 
हमें ललकारता नहीं
हालांकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं है
हम सब एक दूसरे के मित्र हैं
आपसी मतभेद भुलाकर
आइए हम एक ही थाली में खायें एक ही प्याले से पियें
वसुधैव कुटुंबकम् हमारा विश्वास है 
धन्यवाद और शुभरात्रि।


आदिवासी

इंद्रावती गोदावरी शबरी स्वर्णरेखा तीस्ता बराक कोयल
सिर्फ़ नदियां नहीं उनके वाद्ययंत्र हैं
मुरिया बैगा संथाल मुंडा उरांव डोंगरिया कोंध पहाड़िया
महज़ नाम नहीं वे राग हैं जिन्हें वह प्राचीन समय से गाता आया है
और यह गहरा अरण्य उसका अध्यात्म नहीं उसका घर है

कुछ समय पहले तक वह अपनी तस्वीरों में 
एक चौड़ी और उन्मुक्त हंसी हंसता था
उसकी देह नृत्य की भंगिमाओं के सहारे टिकी रहती थी
एक युवक एक युवती एक दूसरे की ओर इस तरह देखते थे
जैसे वे जीवन भर इसी तरह एक दूसरे की ओर देखते रहेंगे
युवती बालों में एक फूल खोंसे हुए
युवक के सर पर बंधी हुई एक बांसुरी जो अपने आप बजती हुई लगती थी

अब क्षितिज पर बार-बार उसकी काली देह उभरती है
वह कभी उदास और कभी डरा हुआ दिखता है
उसके आसपास पेड़ बिना पत्तों के हैं और मिट्टी बिना घास की
यह साफ है कि उससे कुछ छीन लिया गया है
उसे अपने अरण्य से दूर ले जाया जा रहा है अपने लोहे कोयले और अभ्रक से दूर
घास की ढलानों से तपती हुई चट्टानों की ओर
सात सौ साल पुराने हरसूद से एक नये और बियाबान हरसूद की ओर
पानी से भरी हुई टिहरी से नयी टिहरी की ओर जहां पानी खत्म हो चुका है
वह कैमरे की तरफ गुस्से से देखता है
और अपने अमर्ष का एक आदिम गीत गाता है

उसने किसी तरह एक बांसुरी और एक तुरही बचा ली है
एक फूल एक मांदर एक धनुष बचा लिया है
अख़बारी रिपोर्टें बताती हैं कि जो लोग उस पर शासन करते हैं
देश के 626 में से 230 जिलों में
उनका उससे मनुष्यों जैसा कोई सरोकार नहीं रह गया है
उन्हें सिर्फ़ उसके पैरों तले की ज़मीन में दबी हुई
सोने की एक नयी चिड़िया दिखाई देती है
एक दिन वह अपने वाद्ययंत्रों को पुकारता है अपनी नदियों जगहों और नामों को 
अपने लोहे कोयले और अभ्रक को बुला लाता है
अपने मांदर तुरही और बांसुरी को ज़ोरों से बजाने लगता है
तब जो लोग उस पर शासन करते हैं
वे तुरंत अपनी बंदूक निकाल कर ले आते हैं।


बची हुई जगहें

रोज़ कुछ भूलता कुछ खोता रहता हूँ
चश्मा कहाँ रख दिया है क़लम कहाँ खो गया है
अभी-अभी कहीं पर नीला रंग देखा था वह पता नहीं कहाँ चला गया
चिट्ठियों के जवाब देना क़र्ज़ की किस्तें चुकाना भूल जाता हूँ
दोस्तों को सलाम और विदा कहना याद नहीं रहता
अफ़सोस प्रकट करता हूँ कि मेरे हाथ ऐसे कामों में उलझे रहे
जिनका मेरे दिमाग़ से कोई मेल नहीं था
कभी ऐसा भी हुआ जो कुछ भूला था उसका याद न रहना भूल गया

माँ कहती थी उस जगह जाओ
जहाँ आख़िरी बार तुमने उन्हें देखा उतारा या रखा था
अमूमन मुझे वे चीज़ें फिर से मिल जाती थीं और मैं खुश हो उठता
माँ कहती थी चीज़ें जहाँ होती हैं
अपनी एक जगह बना लेती हैं और वह आसानी से मिटती नहीं
माँ अब नही है सिर्फ़ उसकी जगह बची हुई है

चीज़ें खो जाती हैं लेकिन जगहें बनी रहती हैं 
जीवन भर साथ चलती रहती हैं
हम कहीं और चले जाते हैं अपने घरों लोगों अपने पानी और पेड़ों से दूर
मैं जहाँ से एक पत्थर की तरह खिसक कर चला आया
उस पहाड़ में भी एक छोटी सी जगह बची होगी
इस बीच मेरा शहर एक विशालकाय बांध के पानी में डूब गया
उसके बदले वैसा ही एक और शहर उठा दिया गया
लेकिन मैंने कहा यह वह नहीं है मेरा शहर एक खालीपन है

घटनाएँ विलीन हो जाती हैं
लेकिन जहां वे जगहें बनी रहती हैं जहां वे घटित हुई थीं
वे जमा होती जाती हैं साथ-साथ चलतीं हैं
याद दिलाती हुईं कि हम क्या भूल गया हैं और हमने क्या खो दिया है।


यथार्थ इन दिनों

मैं जब भी यथार्थ का पीछा करता हूँ 
देखता हूँ वह भी मेरा पीछा कर रहा है मुझसे तेज़ भाग रहा है
घर हो या बाज़ार हर जगह उसके दांत चमकते हुए दिखते हैं 
अंधेरे में रोशनी में 
घबराया हुआ मैं नींद में जाता हूँ तो वह वहां मौजूद होता है
एक स्वप्न से निकलकर बाहर आता हूँ  
तो वह वहां भी पहले से घात लगाये हुए रहता है 

यथार्थ इन दिनों इतना चौंधियाता हुआ है
कि उससे आंखें मिलाना मुश्किल है
मैं उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़ता हूँ
तो वह हिंस्र जानवर की तरह हमला करके निकल जाता है
सिर्फ़ कहीं-कहीं उसके निशान दिखाई देते हैं
किसी सड़क पर जंगल में पेड़ के नीचे 
एक झोपड़ी के भीतर एक उजड़ा हुआ चूल्हा एक ढही हुई छत
छोड़कर चले गये लोगों का एक सूना घर 

एक मरा हुआ मनुष्य इस समय
जीवित मनुष्य की तुलना में कहीं ज़्यादा कह रहा है
उसके शरीर से बहता हुआ रक्त 
शरीर के भीतर दौड़ते हुए रक्त से कहीं ज़्यादा आवाज़ कर रहा है
एक तेज़ हवा चल रही है
और विचारों स्वप्नों स्मृतियों को फटे हुए काग़ज़ों की तरह उड़ा रही है
एक अंधेरी सी काली सी चीज़
हिंस्र पशुओं से भरी हुई एक रात चारों ओर इकठ्ठा हो रही है
एक लुटेरा एक हत्यारा एक दलाल 
आसमानों पहाड़ों मैदानों को लांघता हुआ आ रहा है
उसके हाथ धरती के मर्म को दबोचने के लिए बढ़ रहे हैं

एक आदिवासी को उसके जंगल से खदेड़ने का ख़ाका बन चुका है
विस्थापितों की एक भीड़ 
अपनी बचीखुची गृहस्थी को पोटलियों में बांध रही है
उसे किसी अज्ञात भविष्य की ओर ढकेलने की योजना तैयार है
ऊपर आसमान में एक विकराल हवाई जहाज़ बम बरसाने के लिए तैयार हैं
नीचे घाटी में एक आत्मघाती दस्ता 
अपने सुंदर नौजवान शरीरों पर बम और मिसालें बांधे हुए है
दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष अंगरक्षक सुरक्षागार्ड सैनिक अर्धसैनिक बल 
गोलियों बंदूकों रॉकेटों से लैस हो रहे हैं
यथार्थ इन दिनों बहुत ज़्यादा यथार्थ है
उसे समझना कठिन है सहन करना और भी कठिन।


नया बैंक

नया बैंक पुराने बैंक की तरह नहीं है
उसमें पुराने बैंक की कोई छाया नहीं है
उसका लोहे की सलाख़ों वाला दरवाज़ा और उसका अंधेरा नहीं है
लॉकर और स्ट्रांगरूम नहीं है 
जिसकी चाभियां वह खुद से भी छिपाकर रखता है
वह एक सपाट और रोशन जगह है विशाल कांच की दीवार के पार
एअरकंडीशनर भी बहुत तेज़ है
जहाँ लोग हांफते पसीना पोंछते आते हैं 
और तुरंत कुछ राहत महसूस करते हैं 

नये बैंक में एक ठंढी पारदर्शिता है
नया बैंक अपने को हमेशा चमका कर रखता है
उसका फ़र्श लगातार साफ़ किया जाता है 
वह अपने आसपास ठेलों पर सस्ती चीज़ें बेचने वालों को भगा देता है
और वहां कारों के लिए कर्ज़ देने वाली गुमटियां खोल देता है
बैंक के भीतर मेजें-कुर्सियां और लोग इस तरह टिके हैं
जैसे वे अभी-अभी आये हों उनकी कोई जड़ें न हों यह सब अस्थायी हो
नया बैंक पुराने बैंक से कोई भाईचारा महसूस नहीं करता
वह उसे अपने इलाक़े के पिछड़ेपन का कारण मानता है 
और कहीं दूर ढकेल देना चाहता है

नये बैंक में वे ख़ज़ांची नहीं हैं जो महान गणितज्ञों की तरह बैठे होते थे
किसी अंधेरे से रहस्यमय पूंजी को निकाल लाते थे
और एक प्रमेय की तरह हल कर देते थे
वे प्रबंधक नहीं हैं
जो बूढ़े लोगों की पेंशन का हिसाब संभाल कर रखते थे
नया बैंक सिर्फ़ दिये जानेवाले कर्ज़ 
और लिये जानेवाले ब्याज का हिसाब रखता है
प्रोसेसिंग शुल्क मासिक क़िस्त पेमेंट चार्जेज़ चक्रवृद्धि ब्याज लेट
फ़ाइन और पैनल्टी वसूलता है
और एक जासूस की तरह देखता रहता है कि कौन अमीर हो रहा है
किसका पैसा कम हो रहा है कौन दिवालियेपन के कगार पर है
और किसका खाता बंद करने का समय आ गया है।


हमारे शासक

हमारे शासक ग़रीबी के बारे में चुप रहते हैं
शोषण के बारे में कुछ नहीं बोलते
अन्याय को देखते ही वे मुंह फेर लेते हैं
हमारे शासक ख़ुश होते हैं जब कोई उनकी पीठ पर हाथ रखता है
वे नाराज़ हो जाते हैं जब कोई उनके पैरों में गिर पड़ता है
दुर्बल प्रजा उन्हें अच्छी नही लगती
हमारे शासक ग़रीबों के बारे में कहते हैं कि वे हमारी समस्या हैं
समस्या दूर करने के लिए हमारे शासक
अमीरों को गले लगाते रहते हैं
जो लखपति रातोंरात करोड़पति जो करोड़पति रातोंरात
अरबपति बन जाते हैं उनका वे और भी सम्मान करते हैं

हमारे शासक हर व़क़्त देश की आय बढ़ाना चाहते हैं
और इसके लिए वे देश की भी परवाह  नहीं करते हैं     
जो देश से बाहर जाकर विदेश में संपति बनाते हैं 
उन्हें हमारे शासक और भी चाहते हैं
हमारे शासक सोचते हैं अगर पूरा देश ही इस योग्य हो जाये 
कि संपति बनाने के लिए बाहर चला जाये
तो देश की आय काफ़ी बढ़ जाये           
                                         
हमारे शासक अक्सर ताक़तवरों की अगवानी करने जाते हैं
वे अक्सर आधुनिक भगवानों के चरणों में झुके हुए रहते हैं
हमारे शासक आदिवासियों की ज़मीनों पर निगाह गड़ाये रहते हैं
उनकी मुर्गियों पर उनकी कलाकृतियों पर उनकी औरतों पर 
उनकी मिट्टी के नीचे दबी हुई बहुत सी चमकती हुई चीज़ों पर
हमारे शासक अक्सर हवाई जहाज़ों पर चढ़ते और उनसे उतरते हैं
हमारे शासक पगड़ी पहने रहते हैं
अक्सर कोट कभी-कभी टाई कभी लुंगी
अक्सर कुर्ता-पाजामा कभी बरमूडा टी-शर्ट अलग-अलग मौक़ों पर
हमारे शासक अक्सर कहते हैं हमें अपने देश पर गर्व है।


टॉर्च

मेरे बचपन के दिनों में
एक बार मेरे पिता एक सुंदर सी टॉर्च लाये
जिसके शीशे में गोल खांचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों की हेडलाइट में होते हैं
हमारे इलाक़े में रोशनी की वह पहली मशीन
जिसकी शहतीर एक चमत्कार की तरह रात को दो हिस्सों में बांट देती थी

एक सुबह मेरी पड़ोस की एक दादी ने पिता से कहा
बेटा इस मशीन से चूल्हा जलाने के लिए थोड़ी सी आग दे दो
पिता ने हंस कर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ़ उजाला होता है
इसे रात होने पर जलाते हैं 
और इससे पहाड़ के ऊबड़-खाबड़ रास्ते साफ़ दिखाई देते हैं
दादी ने कहा उजाले में थोड़ा आग भी रहती तो कितना अच्छा था
मुझे रात से ही सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
पिता को कोई जवाब नहीं सूझा वे ख़ामोश रहे कुछ देर तक

इतने वर्ष बाद वह घटना टॉर्च की वह रोशनी
आग मांगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है
हमारे व़क़्त की विडंबना में कविता की तरह।


ग़ुलामी

इन दिनों कोई किसी को अपना दुख नहीं बताता
हर कोई कुछ छिपाता हुआ दिखता है
दुख की छोटी-सी कोठरी में कोई रहना नहीं चाहता
कोई अपने अकेलेपन में नहीं मिलना चाहता
लोग हर वक्त घिरे हुए रहते हैं लोगों से
अपनी सफलताओं से ताक़त से पैसे से अपने सुरक्षादलों से
कुछ भी पूछने पर तुरंत हंसते हैं
जिसे इन दिनों के आम चलन में प्रसन्नता माना जाता है
उदासी का पुराना कबाड़ पिछवाड़े फेंक दिया गया है
उसका ज़माना ख़त्म हुआ
अब यह आसानी से याद नहीं आता कि आख़िरी शोकगीत कौन-सा था
आख़िरी उदास फ़िल्म कौन-सी थी जिसे देखकर हम लौटे थे

बहुत सी चीज़ें उलट-पुलट हो गयी हैं
इन दिनों दिमाग़ पर पहले क़ब्ज़ा कर लिया जाता है
ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने के लिए लोग बाद में उतरते हैं
इस तरह नयी ग़ुलामियां शुरू होती हैं
तरह-तरह की सस्ती और महंगी चमकदार रंग-बिरंगी
कई बार वे खाने-पीने की चीज़ से ही शुरू हो जाती हैं
और हम सिर्फ़ एक स्वाद के बारे में बात करते रहते हैं
कोई चलते-चलते हाथ में एक आश्वासन थमा जाता है
जिस पर लिखा होता है "मेड इन अमेरिका'
नये ग़ुलाम इतने मज़े में दिखते हैं
कि उन्हें किसी दुख के बारे में बताना कठिन लगता है

और वे संघर्ष जिनके बारे में सोचा गया था कि ख़त्म हो चुके हैं
फिर से वहीं चले आते हैं जहां शुरू हुए थे
वह सब जिसे बेहतर हो चुका मान लिया गया था पहले से ख़राब दिखता है
और यह भी तय है कि इस बार लड़ना ज़्यादा कठिन है
क्योंकि ज़्यादातर लोग अपने को जीता हुआ मानते हैं और हंसते हैं
हर बार कुछ छिपाते हुए दिखाई देते हैं
कोई हादसा है जिसे बार-बार अनदेखा किया जाता है
उसकी एक बची हुई चीख़ जो हमेशा अनसुनी छोड़ दी जाती है।


जापान : दो तस्वीरें
(सूनामी की तस्वीरें देखने के बाद)

एक
भूकंप, सूनामी विकिरण से घिरी हुई
एक छोटी-सी बच्ची अथाह मलबे में रास्ता बनाती चली जा रही है
वह सत्रह अक्षरों से बने हुए एक हाइकू जैसी दिखती है
उजड़े हुए घरों के बीच एक अकेला आदमी साइकिल पर कहीं जा रहा है
एक शरणार्थी शिविर के सर्दी में एक वृद्ध चाय मिलने की उम्मीद में है
एक औरत अपने घर के खंडहर से बिस्तर खींचकर समेट रही है
एक गुड़िया कीचड़ के समुद्र में पड़ी हुई है

हाइकू जैसी छोटी-सी बच्ची
अपने पीछे तस्वीरें छोड़ती हुई चली जाती है
तस्वीरें जमा होती रहती हैं
उसकी ख़ुद की तस्वीर एक घर के खंडहर में फर्श पर चमक रही है
एक क्षत-विक्षत समय अपनी विकराल छायाएं फेंकता है
थर्राती हुई धरती की छाया प्रचंड पानी की छाया
ज़हरीली हवा की छाया

एक अवाक् हाइकू की तरह सत्रह नाज़ुक अक्षरों की बनी हुई वह
चलती जाती है उस तरफ़
जहाँ बिछुड़े हुए लोग एक दूसरे को फिर से मिलने की बधाई दे रहे हैं
और फिर बहुत सारी मशीनें हैं
जो हर आनेवाले के शरीर में विकिरण नापती हैं।

दो
शरणार्थी कैंप में बच्चों की तस्वीरें धोई जा रही हैं
ताकि यह पहचाना जा सके कि वे कौन थे
उन्हें धोनेवाले सावधानी से तस्वीरों का कीचड़ मिटा रहे हैं
उनका 8.9 रिश्टर पैमाने का भूकंप भगा रहे हैं
उनकी 20 मीटर ऊंची सूनामी लहरों को पोंछ रहे हैं
उनके 7 स्तर के विकिरण को मिटा रहे हैं
दीवार बेशुमार तस्वीरों से भर गयी है 
उन बच्चों की जो खो चुके हैं
उनकी याद को धो-पोंछ कर दीवार पर टांका जा रहा है
नाजुक हाइकू जैसे शिशु जो अब कही नहीं हैं

पुराने हाइकू जैसा एक बूढ़ा एक तालाब पर 
देर तक प्रार्थना करता हुआ सा झुका रहता है
उस गहराई में जहां अब पानी नहीं बचा है।


पंचम 

किराना घराने के सबसे अज़ीम गायक
अब्दुल करीम ख़ां से एक दिन उनके एक मुरीद ने पूछा
उस्ताद आपने तो सातों सुर साध लिये हैं अब कुछ बचा नहीं
खरज से रिखभ तक तीनों पर्दों के आरपार चली जाती है आपकी मीठी आवाज़
करीम ख़ां उदास स्वर में बोले
अरे कहां बेटा सिर्फ़ पंचम को ही मैं थोड़ा-सा समझ पाया हूँ
और अब इस उम्र में क्या कर पाऊंगा और
मुरीद भी उदास हो गये
उन्हें उम्मीद थी उस्ताद कुछ और रोशनी डालेंगे
अपने बेजोड़ रियाज़ पर

बहुत पहले किसी किताब में पढ़ा था यह वाक़या
उसे याद करते हुए सहसा हाथ रुक जाता है
जब भी लिखने बैठता हूं कोई कविता।


घटती हुई ऑक्सीजन

अक्सर पढ़ने में आता है
दुनिया में ऑक्सीजन कम हो रही है
कभी ऐन सामने दिखाई दे जाता है कि वह कितनी ते़जी से घट रही है
रास्तों पर चलता हूँ खाना खाता हूँ पढ़ता हूँ सोकर उठता हूँ
तो एक लंबी जमुहाई आती है
जैसे ही किसी बंद वातानुकूलित जगह में बैठता हूँ
उबासी एक झोंका भीतर से बाहर आता है
एक ता़कतवर आदमी के पास जाता हूँ 
तो तत्काल ऑक्सीजन की ज़रूरत महसूस होती है
बढ़ रहे हैं नाइट्रोजन सल़्फर कार्बन के ऑक्साईड
और हवा में झूलते अजनबी और चमकदार कण
बढ़ रही है घृणा दमन प्रतिशोध और कुछ चालू किस्म की खुशियां
चारों ओर गर्मी स्प्रे की बोतलें और खुशबूदार फुहारें बढ़ रही हैं

अस्पतालों में दिखाई देते हैं ऑक्सीजन से भरे हुए सिलिंडर
नीमहोशी में डूबते-उतराते मरी़जों के मुँह पर लगे हुए मास्क
और उनके पानी में बुलबुले बनाती हुई थोड़ी सी प्राणवायु
ऐसी जगहों की तादाद बढ़ रही है
जहाँ सांस लेना मेहनत का काम लगता है
दूरियां कम हो रही हैं लेकिन उनके बीच निर्वात बढ़ता जा रहा है
हर ची़ज ने अपना एक दड़बा बना लिया है
हर आदमी अपने दड़बे में क़ैद हो गया है
स्वर्ग तक उठे हुए चार-पांच-सात सितारा मकानात चौतऱफ
महाशक्तियां एक लात मारती हैं 
और आसमान का एक टुकड़ा गिर पड़ता है
गरीबों ने भी बंद कर लिये हैं अपनी झोपड़ियों के द्वार
उनकी छतें गिरने-गिरने को हैं
उनके भीतर की हवा वहां दबने जा रही है

आबोहवा की फ़िक्र में आलीशान जहा़जों में बैठे लोग
जा रहे हैं एक देश से दूसरे देश
ऐसे में मुझे थोड़ी ऑक्सीजन चाहिए
वह कहाँ मिलेगी
पहाड़ तो मैं कब का छोड़ आया हूँ
और वहाँ भी वह
सि़र्फ कुछ ढलानों-घाटियों के आसपास घूम रही होगी 
दम साधे हुए मैं एक सत्ताधारी के पास जाता हूँ
उसे अच्छी तरह पता है दुनिया का हाल
मुस्कराते हुए वह कहता है तुम्हें क्यों फ़िक्र पड़ी है
जब ज़रूरत पड़े तुम माँग सकते हो मुझसे कुछ ऑक्सीजन।


माँगना

जब भी खुद पर निगाह डालता हूँ
पलक झपकते ही माँ स्मृति में लौट आती है
मैं याद करता हूँ कि उसने मुझे जन्म दिया था
कभी-कभी लगता है वह मुझे लगातार जनमती रही
पिता ने मुझ पर पैसे लुटाये और कहा
शहरों में भटकते हुए तुम कहीं घर की सुध लेना भूल न जाओ
दादा ने पिता को नसीहत दी
जैसा हुनरमंद मैंने तुम्हें बनाया उसी तरह अपने बेटे को भी बनाओ

दोस्तों ने मेरी पीठ थपथपायी
मुझे उधार दिया और कहा उधार प्रेम की कैंची नहीं हुआ करती
जिससे मैंने प्रेम किया 
उसने कहा मेरी छाया में तुम जितनी देर रह पाओ
उतना ही तुम मनुष्य बन सकोगे
किताबों ने कहा हमें पढ़ो
ताकि तुम्हारे भीतर ची़जों को बदलने की बेचैनी पैदा हो सके

कुछ अजीबो़गरीब है जीवन का हाल
वह अब भी जगह-जगह भटकता है और दस्तक देता है
माँगता रहता है अपने लिए 
कभी जन्म कभी पैसे कभी हुनर कभी उधार
कभी प्रेम कभी बेचैनी।


नुकीली चीज़ें
(हिन्दी कवि असद ज़ैदी और चेक कवि लुडविक कुंडेरा के प्रति आभार सहित)

तमाम नुकीली चीज़ों को छिपा देना चाहिए
कांटों-कीलों को वहीं दफ्न कर देना चाहिए जहाँ वे हैं
जो कुछ चुभता हो या चुभने वाला हो 
उसे तत्काल निकाल देना चाहिए
जो चीज़ें अपनी जगहों से बाहर निकली हुई हैं
उन्हें समेट कर अपनी जगह कर देना चाहिए
फूलों को कांटों के बीच नहीं खिलना चाहिए
धारदार ची़जें सि़र्फ सब्जी और फल काटने के लिए होनी चाहिए
उन्हें उस स्त्री के हाथ में होना चाहिए
जो एक छोटी सी जगह में धुएं में घिरी कुछ बुनियादी कामों में उलझी है
या उस डॉक्टर के हाथ में होना चाहिए
जो ऑपरेशन की मेज पर तन्मयता से झुका हुआ है
तलवारों बंदू़कों और पिस्तौलों पर पाबंदी लगा देनी चाहिए
खिलौना निर्माताओं से कह दिया जाना चाहिए 
कि वे खिलौने को पिस्तौल में न बदलें
प्रतिशोध हिंसा हत्या और ऐसे ही समानार्थी शब्द 
शब्दकोशों से हमेशा के लिए बाहर कर दिये जाने चाहिए 
जैसा कि हिंदी का एक कवि असद ज़ैदी कहता है
पसलियों में छुरे घोंपनेवालों को उन्हें वापस खींचना चाहिए
और मरते हुए लोगों को वापस लाकर उन्हें उनकी बैठकों
और काम की जगहों में बिठाना चाहिए
हत्यारों से कहा जाना चाहिए
कि एक भी मनुष्य का मरना पूरी मनुष्यता की मृत्यु है
दुनिया को इस तरह होना चाहिए
जैसे एक चेक कवि लुडविक कुंडेरा 
पहली बार मां बनने जा रही एक स्त्री को देखकर कहता है
कि पृथ्वी आश्चर्यजनक ढंग से गोल है
और अपने तमाम कांटों को झाड़ चुकी है।


*****


गुरुवार, 8 नवंबर 2012

विष्णु खरे का नया आलेख


प्रकाशकों के आगे अपने चीर-हरण के लिए हम हिंदी लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.

पिछले दिनों फेसबुक,ब्लॉग-क्षेत्र और कोलकाता के दैनिक “प्रभात वार्ता” में चले कान्हा-सान्निध्य विवाद के,जिससे हिंदी कवियों की वरिष्ठ पीढ़ी के कुछ सदस्यों और कथित युवा पीढ़ी के अनेक स्वयंभू नुमाइंदों के कई महत्वाकांक्षी,हास्यास्पद और करुण विडम्बनाएँ और विरोधाभास उजागर हुए,इस केन्द्रीय पहलू से लगातार ध्यान हटाने की साज़िश हुई कि मसला मूलतः हिंदी में प्रकाशकों की भूमिका का था जिसमें कई किस्म के लेखक कई छोटे और मँझोले,यहाँ तक कि विदूषक और उप-खलनायक के नायब-किरदारों को भी, निभाने के लिए फ़क़त फ़्री ट्रैवल,बोर्डिग,लाजिंग और ईवनिंग एन्टरटेनमेंट पर सोल्लास राजी कर लिए जाते हैं.

मामले का खुलासा यह है कि दिल्ली के एक निचले दर्जे के प्रकाशक शिल्पायन ने अपने चचातुल्य सुपरिचित कवि एवं आकाशवाणी के महानिदेशक लीलाधर मंडलोई,सुख्यात कवि-इतिहासवेत्ता-फिल्म-संगीत-विशेषज्ञ तथा मध्यप्रदेश के वरिष्ठ आइ ए एस अधिकारी पंकज राग तथा एक टूरिस्ट-रेसॉर्ट के अनाम स्वामी की मदद से जबलपुर के पास सुप्रसिद्ध पर्यटन-स्थल कान्हा में एक विषय-सूची विरहित एक कविता-शिविर करवाया जिसमें हिंदी के करीब तीन दर्ज़न विविधस्तरीय कवियों ने हिस्सेदारी की.सारा खर्च शिल्पायन तथा उसके अनाम साहित्यवत्सल-मित्र होटल-मालिक ने उठाया.यह प्रमाणित है कि इस निजी,प्रकाशकीय शिविर की अदृष्ट स्मारिका के लिए विज्ञापन लीलाधर मंडलोई ने जुटाए – पंकज राग को लेकर ऐसे कोई सुबूत नहीं हैं,सिवा इसके कि शिविर के कुछ पहले तक वे मध्यप्रदेश पर्यटन निगम के सर्वेसर्वा थे.दोनों कवि-अधिकारी रचनाकारों के रूप में शिविर में उपस्थित थे,जिस पर कोई साहित्यिक आपत्ति नहीं की जा सकती.अन्यथा सुपात्र कवि मोहन डहेरिया को तत्काल, घटनास्थल पर ही, एक पुरस्कार घोषित-प्रदत्त भी हुआ.यह मंडलोई का एक और निजी पुरस्कार था या शिल्पायन-मण्डलोई का,यदि चैक से दिया गया तो उसपर दस्तखत किसके थे,वह इसी अवसर पर क्यों दिया गया आदि प्रश्न न तो कोई पूछ रहा है न उनके उत्तर दे रहा है.

कथित हिंदी-जगत में उपरोक्त तथ्यों को लेकर कोई विवाद नहीं था – अपयश इस पर हुआ कि “कवियों” में से एक राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का वरिष्ठ पदाधिकारी था और कुछ दूसरों पर हिन्दुत्ववादी होने का शुब्हा हुआ.प्रकाशक ने कहा कि मनसेवाला मेरा मित्र है और मैं उसे आगे भी बुलाऊंगा,कथित ढोंगी प्रगतिवादी कुछ भी कहें.लगभग सारे हिस्सेदार लेखक चुप रहे – तब भी जब सवाल उठाए गए कि ऐसे फ़ोकटे,परोपजीवी,संदिग्ध,निजी “आयोजन” में वे क्यों नाच-गा-बजा आए. उल्टे शिल्पायन और लीलाधर मंडलोई का बचाव करने की बहुस्तरीय कोशिशें हुईं,जिनमें अकादेमी-पुरस्कार विजेता कवि पं राजेश जोशी ने नेतृत्व सँभाला.इस कान्हा-काण्ड के और भी मार्मिक और उद्घाटक साहित्यिक-रेआलपोलिटिकल परिणाम निकले हैं जो शायद यहाँ हमारे लिए अप्रासंगिक हों.

इस प्रश्न को कई बाहरी ब्लॉग-विवादियों ने उठाया कि जिस प्रकाशक ने लेखकों के साथ  रॉयल्टी का हिसाब करने और अन्य मामलों में लगातार उद्दंड अनियमितताएँ की हैं और इस तरह उनका अपमान किया है उसके ऐसे मुफ़्तिया,पिकनिकिया आयोजन में लेखक गए ही क्यों.यह असंभव है कि आमंत्रित कुछ वरिष्ठ और कनिष्ठ कवि यदि भुक्तभोगी नहीं तो इस सचाई से नावाकिफ़ भी हों.लेकिन हिंदी में लेखकों ने ही प्रकाशक को ऐसा जबरा बना दिया है जो उन्हें मारता भी है और रोने भी नहीं देता क्योंकि बीच-बीच में वह कान्हा जैसे लालीपॉप भी थमाता रहता है.

एक अदने लेखक की हैसियत से मुझे पिछले करीब पैंतालीस वर्षों से हिंदी के प्रकाशन-विश्व को निस्बतन नज़दीकी से देखने का मौक़ा मिला है और संयोगवश उसकी शुरूआत राजकमल प्रकाशन से ही हुई.1960 के उत्तर-दशक तक  दिल्ली के कश्मीरी गेट और चावड़ी बाज़ार के पुराने प्रकाशक आधुनिक हिंदी साहित्य के लिए अप्रासंगिक हो चुके थे,  बनारस का भारतीय ज्ञानपीठ अस्तंगत-सा था और प्रेमचंद का पारिवारिक सरस्वती प्रैस श्रीपत-अमृत भ्रातृद्वय के बंटवारे,वार्धक्य,संतति-अरुचि और पेशेवर अयोग्यता के कारण निस्तेज हो चला था.सोविएत रूस के साथ करोड़ों का व्यापार करनेवाले पार्टी-मेंबर पंजाबी (शीला)संधू परिवार ने राजकमल प्रकाशन को खरीद लिया था और हालांकि शीला संधू में मैंने कभी अत्यधिक साहित्यिक समझ और तमीज नहीं देखे लेकिन एक संपन्न आधुनिक अंग्रेज़ीदां “प्रगतिशीलता” उनमें थी. अपने सफ़ेद बालों के कारण वे अकालवृद्धा दीखती थीं लेकिन उनके सॉफिस्टिकेशन से हिंदी के अधिकांश प्रकाशित और प्रकाशनेच्छु लेखक प्रभावित थे.कई प्रतिष्ठित,बहु-प्रकाशित लेखक उनके सामने बैठे या दर्शनाभिलाषी रहते थे.किन्तु सबसे दूरगामी महत्व का तथ्य यह था कि उन्हें तभी नामवर सिंह सरीखा “प्रतिबद्ध” टहलुआ मिल गया जो घटिया हिन्दी फिल्मों के पुश्तैनी अंगोछाधारी रामू काका की तरह अब तक राजकमल मालिकों  का नमक चुका रहा है.तब रामू काका जनवरी-फरवरी को जनौरी-फरौरी कहते थे,खैनी रगड़ते थे लिहाजा ऊर्ध्वमुख वार्तालाप करते थे,तेलौस बाल रखते थे और उनके इस तरह के बहुविध बनारसी गावदीपन पर शीला संधू,कृष्णा सोबती और युवतर निर्मला जैन जैसी अहीर की छोहरियाँ तफरीह के लिए उन्हें 8 दरियागंज में नाच नचाया करती थीं.

राजकमल से पुस्तक आने का फ़ख्र मुझे अब तक हासिल नहीं हुआ है,इसके बावजूद मैं साहित्य में सर्वाइव कैसे कर गया इसकी चौतरफ़ा हैरत है,लेकिन शुरू-शुरू में,जब तक शीला संधू पर मेरी अहम्मन्य गुस्ताखियाँ खुली न थीं,मुझे उनकी रिंग रोड लाजपत नगर वाली निहायत बूर्ज्वा और पूँजीवादी तिमंजला कोठी में,जिसमें उस ज़माने में स्विमिंग पूल होना बताया जाता था, जो तब ही लाखों रूपए की दीखती थी और आज होती तो बीसेक करोड़ की होती,एक-दो दफा कॉकटेल्स पर बुलाया गया था.मेरे लिए तब भी ऐसी दुनिया अजनबी न थी,जो अनजाना था वह यह था कि हिंदी का एक प्रकाशन-गृह इस तरह शराब पिला सकता था और कई प्रतिष्ठित लेखक इस क़दर पी सकते थे. तब प्रकाशकों के बीच यह ज़लील शब्द ‘रसरंजन’ प्रचलित होने में कुछ दशक थे.इसमें कोई शक़ नहीं कि संधू परिवार का बेपनाह ऐश्वर्य किताबों के धंधे की पैदाइश नहीं थी लेकिन लेखकों पर यह साफ़ था कि शीला संधू उनकी या उनकी पांडुलिपियों की मुहताज नहीं.लिहाज़ा बड़े-से-बड़ा हिंदी लेखक,यदि वह राजकमल से छपने का मुहताज था तो,या तो शीला संधू की बहुत संभ्रांत,महीन मुसाहिबी करता या उनके दरवाज़े खुलवाने के लिए अपने रामू काका से मधुर सम्बन्ध रखता.हस्तांतरित हो जाने से पहले तक अच्छे-अच्छे हिन्दी लेखकों से जितनी स्वैच्छिक,कृतकृत्य गुलामी शीला संधू के राजकमल ने करवाई है,वह कान्हावाले सभी के लिए कल्पनातीत है,भले ही वह उसी परम्परा का लुम्पेन दरिद्रीकरण हो.

नामवर सिंह को प्रतिभाहीन तो कोई नहीं कह सकता किन्तु किसी पुस्तक-प्रकाशक की,भले ही वह सोवियत-समर्थित क्यों न रहा हो, नौकरी करनेवाले अपने ढंग के वे पहले हिंदी आलोचक थे. उन्होंने बहुत पहले यह समझ लिया था कि राजकमल क्या था और क्या होने जा रहा था. उसकी चाकरी कुछ अपमानजनक तो थी किन्तु प्रकाशनातुर हिंदी लेखकों में उसकी सत्ता-छवि सबसे बड़े प्रकाशक की बनती थी जो सही भी था.नामवर उस समय चालीस के हुआ ही चाहते थे यानी आज की हास्यास्पद आत्ममुग्ध परिभाषा में “युवा” थे. उनकी महत्वाकांक्षा हिंदी का प्रोफ़ेसर बनने की थी जो बाद में शीला संधू के साहित्य अकादेमी और जोधपुर में कुलाधिपति वी वी जॉन के साथ रसूखों से ही हासिल हो सकी, यह नहीं कि वे अकादेमी पुरस्कार और प्रोफ़ेसरी के कुपात्र थे. अकादमिक और आलोचना जगत में नामवर सिंह पहले से ही निष्क्रिय-अज्ञात नहीं थे लेकिन राजकमल में सेवा के मालकिन-मुलाजिम दोनों को बहुविध लाभ थे.’आलोचना’ की संपादकी, जो अब तक बँधुआ बंटाईदारों के (राम)भरोसे चल रही है,और ‘सोविएत लैंड नेहरू अवार्ड’ ने ,जिसकी बागडोर रामू काका को सौंपी गयी थी और अब जिसकी  गुमटी दशकों से बंद हो चुकी है,हिंदी के लेखन-अकादमिक-प्रकाशन (अधो)विश्व के रेआलपोलिटीक पर जैसा भी हो असर तो डाला ही है.

कई कारणों से, जिनमें जाना यहाँ बेकार है, पिछले चालीस दशकों से कलकत्ता, पटना, लखनऊ, अलाहाबाद आदि के पुराने, क्षेत्रीय हिन्दी प्रकाशन-गृह या तो बंद होते गए,या नाम-मात्र के रह गए, या, शायद इसीलिए, दिल्ली के बड़े प्रकाशकों द्वारा खरीद लिए गए. अनेक कस्बाई या लघु-महानगरीय प्रकाशक जिंदा हैं, नए पैदा भी होते रहते हैं, लेकिन उनकी हैसियत मुस्लिम और अँगरेज़ हुकूमत के दौरान राजपूत-नवाबी रियासतों जैसी ही है. यह एक हैबतनाक हक़ीक़त है कि आज जब हम हिंदी में लेखक-प्रकाशक संबंधों की बात करते हैं तो लेखक भले ही अखिल-भारतीय हों, प्रमुख प्रकाशक सिर्फ दिल्ली के दरियागंज इलाके के हैं और वहाँ से भी मात्र दो हैं, राजकमल और वाणी, और वे भी दो सगे भाइयों के हैं, जो बीच में कट्टर दुश्मन थे और परस्पर मानहानिपरक पारिवारिक बदनामियाँ और नुक़सानदेह, प्रतियोगी व्यापारिक साजिशें करने से चूकते न थे – अब पता नहीं उनके रिश्ते कैसे हैं लेकिन गाँठ तो पड़ ही चुकी है. आत्माराम, राजपाल, नेशनल जैसे पुराने प्रकाशन थकेले हैं, ग्रन्थ शिल्पी, प्रकाशन संस्थान, प्रवीण आदि दूसरे से दसवें दर्जे के प्रकाशक हैं, बहुत पहले हापुड़ के ‘संभावना’ प्रकाशन ने गुणवत्ता में राजकमलादिक को चुनौती देने की उम्मीद जगाई थी और उसके कुछ वर्षों बाद पंचकूला के ‘आधार’ ने, लेकिन पहला अपनी व्यावसायिक अक्षमता का शिकार हुआ और दूसरा अपनी अनियमितताओं का – बहुत बड़ा मज़ाक़ यह रहा कि हरयाणा की बुद्धिहीन सरकार ने दूसरे के मालिक को प्रदेश साहित्य अकादेमी का उपाध्यक्ष बना डाला.

यह अविश्वसनीय किन्तु सत्य है कि भारत के हिंदी प्रकाशकों में से अधिकांश कूड़ा ही छापते हैं – यहाँ तक कि वह कथित प्रतिष्ठित प्रकाशकों के कैटलॉगों में भी देखा जा सकता है.लेखक और साहिबे-किताब बनने का मर्ज़, इन्टरनैट के बावजूद, बढ़ता ही जा रहा है और ऐसे महत्वाकांक्षियों के पास पैसों की कोई कमी नहीं दिखती और अब हिंदी का बड़े-से-बड़ा प्रकाशक पैसे लेकर कचरा छपने को तैयार है, बशर्ते कि आप उस प्रकाशन को शुरूआत में ही सस्ता या बाज़ारू न समझें.इसमें एक ठगी यह होती है कि इन प्रकाशकों के कुछ तृतीय-चतुर्थ श्रेणियों के उप-प्रकाशन भी होते हैं और आप पैसे इसलिए देते हैं कि आपकी पुस्तक मुख्य-प्रकाशन से आएगी लेकिन वह छापी किसी और कम्पनी के नाम से जाती है. मामूली शहरों और कस्बों में तो यह एक छोटी-मोटी महामारी की तरह है.हिंदी के एक इन्द्रप्रस्थ-वासी हलायुध ने बीसियों कस्बों में यशःप्रार्थियों को किताब छपा देने का लालच दे कर कुछ लाख रुपयों से ठगा है. कई जानकार ऐसा मानते हैं कि यह कुछ अत्यंत निचले प्रकाशकों की मिलीभगत से ही हो पाया, जो अब बाज़ार से लापता हैं.

हिन्दी प्रकाशन जगत में इतने प्रकार की ठगविद्याएं चलती हैं कि उनकी अधुनातन जानकारी रख पाना असम्भव है. मुझ सहित हिंदी के सारे लेखक-लेखिकाओं को, वरिष्ठ हों या युवा, डूब मरना चाहिए कि कविता-संग्रहों के अधिकांश महत्तम संस्करण तीन सौ प्रतियों में छपे बताए जा रहे हैं, कई इससे भी कम, और अब प्रकाशक यह अफ़वाह उड़ा रहे हैं कि कहानी-उपन्यास के प्रिंट-ऑर्डर भी बौने हो चुके हैं. कोई भी जानकार लेखक अपनी किताब देखकर बता सकता है कि वह उसके पहले संस्करण की है या बाद की, लेकिन प्रकाशक इनकार कर देता है कि उसने कोई नया एडिशन छापा है. यदि वह किसी कारणवश पुस्तक में मुद्रित भी कर देता है कि संस्करण दूसरा है तो न तो लेखक को पहले सूचित करता है, न बाद में, न उसे उस नए संस्करण की कॉम्प्लीमेंटरी प्रतियां देता है.रॉयल्टी को लेकर मैंने अच्छे-अच्छे लेखकों को रोते देखा है.

यहाँ आकर हम नेत्रसुख के लिए हिंदी में प्रकाशक-लेखक संबंधों के एक लगभग अश्लील पहलू की ओर भी झाँक ही लें. ऊपर संकेत दिया जा चुका है कि शीला संधू ने लेखकों में किस तरह एक स्यूडो-एलीट (छद्म-संभ्रांतवर्ग) निर्मित किया. वैसे यह सच है कि किसी भी प्रकाशक के कैटलॉग में एक ही विधा, विषय, बिक्री और स्तर के लेखक नहीं होते फिर भी उसे पक्षपात के आधार पर एक और जाति-व्यवस्था खड़ी नहीं करने दी जा सकती. लेकिन कुछ लेखकविशेषों को अपनी कोठियों या क्लबों में बुलाकर एंटरटेन करने के लाभ यह होते हैं कि उससे वे स्वयं अपने अधिकारों से वंचित होते जाते हैं, ऐसे फरागदिल, क़द्रदां प्रकाशक से वे रॉयल्टी सरीखे टुच्चे, भुक्खड़ विषय पर बात करना बिलो डिग्निटी समझने लगते हैं, वह भी उन्हें कभी-कभार बिना मांगे कुछ रक़म थमा देता है जिसे वे अपने मधुर संबंधों और रोब-दाब का नतीजा समझते हैं और फिर जब ग़ैर-मुसाहिब या युवा लेखक उसी प्रकाशक की बेईमानियों और बद्तमीज़ियों की शिकायत करते हैं तो यह कुलीन-कुलक वर्ग कह देता है कि भाई जाने क्या वजह है, हमसे तो बहुत इज्ज़त से पेश आता है. यही नहीं, वे प्रकाशकों की व्यावसायिक दिक्कतों को गिनाने लगते हैं, उनके हाउस-जर्नलों में उनकी ठकुरसुहाती करते हैं, उनके बचाव में खड़े हो जाते हैं. हालाँकि हिंदी प्रकाशक इतना मौकापरस्त और एहसानफरामोश भी है कि अपने ऐसे मोहसिनों को कभी-भी पटकनी दे देता है और तब ये अपने सुरुचिपूर्ण ड्राइंगरूमों में एकांत गिले-शिकवे करते हैं. वह तो अपने भले शुभचिंतकों को भी नहीं बख्शता.

महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी और हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यिक-अकादमिक प्रतिष्ठान-व्यक्तित्वों के सम्बन्ध व्यावसायिक प्रकाशकों से कैसे थे यह हम नहीं जानते, अलबत्ता मैंने एकाध बार हजारी बाबू को, उनके मानसपुत्र रामू काका की तरह, राजकमल में शीला संधू के सान्निध्य में पाया है. प्रेमचंद, जैनेन्द्र और अश्क जैसे लेखक स्वेच्छा या विवशता से स्वयं प्रकाशक बन गए थे लेकिन लेखक का अपना प्रकाशन चलाना एक अलग, हालाँकि दिलचस्प और अविश्लेषित, विषय रहा चला आता है. छिटपुट संकेत अवश्य मिलते हैं लेकिन खड़ी बोली हिंदी के प्रादुर्भाव से लेकर आज़ादी हासिल होने तक हिंदी प्रकाशकों की क्या हालत थी, प्रकाशक-लेखक सम्बन्ध कैसे थे इसकी कोई गहरी पड़ताल या जानकारी नहीं मिलती. उस युग के अधिकांश बड़े लेखकों के आत्मकथ्यों, टिप्पणियों, जीवनियों से यह स्पष्ट संकेत अवश्य मिलते हैं कि प्रकाशकों के साथ उनके रिश्ते कभी-भी बहुत अच्छे नहीं रहे. निराला को क्यों और किस तरह कैसे-कैसे प्रकाशकों के लिए क्या-क्या काम करने पड़े थे यह एक कलेजा चीर देने वाला आख्यान है.

आज कतिपय सत्ताधारी आलोचकों और लेखकों का एक नैक्सस प्रकाशकों से है जिसकी शुरूआत हम ऊपर देख चुके हैं. इसमें चालीस वर्षों से अफसर-लेखक तो शामिल हैं ही, कई सरकारी, अर्ध-सरकारी, सार्वजनिक और निजी संस्थानों के सभी स्तरों के वे कारकुन भी हैं जिनके पास पुस्तकें छपवाने, खरीदने और चैकों पर दस्तखत और उन्हें इश्यू करने-करवाने के पॉवर्स हैं. अक्सर चपरासी और बाबू भी शक्ति-संपन्न हों उठते हैं.  यही नहीं, जब एक वरिष्ठ अधिकारी, जो पहले ही ताक़तवर था, किसी अत्यंत संदिग्ध केन्द्रीय विश्वविद्यालय का कुलाधिपति हो जाता है जिसकी कक्षाएं भी शुरू नहीं हुई होतीं तो सबसे पहले वह प्रकाशकों में खुद के या अपने कृपापात्रों द्वारा संपादित या अनूदित पाठ्य-पुस्तकें आउटसोर्स करता या बंटवाता है, और लाखों रूपए उन किताबों के प्रकाशन पर खर्च करता है जिन्हें उसके उत्तराधिकारी कुलपति देखना तक नहीं चाहेंगे, कोर्स में लगाने की संभावना का कोई प्रश्न ही नहीं उठता.लेकिन ऐसा करके वह उन प्रकाशकों को अपना आजीवन क्रीतदास बना लेता है.यही नहीं,वह बहुत सूक्ष्म या स्थूल तरीके से यह तक नियंत्रित करने लगता है कि वे प्रकाशक किसे छापेंगे और किसे नहीं.

बल्कि इसकी ज़रुरत भी नहीं पड़ती. आज स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि हिंदी प्रकाशक बखूबी जानता है कि हिंदी साहित्य की माफ़िया के चहेते और अनचाहे लेखक कौन हैं और वह अपने स्तर पर ही उनसे यथायोग्य सुलूक कर लेता है. सिंहों और वाजपेयियों जैसों की दोस्तियाँ और अदावतें, मेहरबानियाँ और नाराजगियां वह हस्तामलकवत् जानता है. फिर ऐसे लोगों द्वारा पत्रिकाओं, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, निजी और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों आदि में रखे गए पारिवारिक सदस्यों, झोलाउठाऊ मुत्तवल्लियों, चरनछूऊ चारणों आदि की उप-माफ़िया अपने बुजुर्गों और आक़ाओं के प्रति अतिरिक्त वफादार है. यह समूचा गिरोह मिलकर यू पी एस सी से लेकर स्कूलों तक पाठ्यक्रमों, पाठ्य-पुस्तकों, रिसर्च, सेमीनार, व्याख्यानों, विभिन्न इम्तहानों के प्रश्न-पत्रों,परिणामों आदि को नियंत्रित कर रहा है.ज़ाहिर है इसमें प्रकाशकों का करोड़ों रुपयों का स्वार्थ नत्थी है.

आप देखें कि राजकमल और वाणी प्रकाशन अपनी-अपनी पत्रिकाएँ निकालते हैं जिनके सम्पादक हिंदी के बलशाली  पूर्व या वर्तमान प्रोफ़ेसर हैं, एकाध चिरकुट सहायक भी है, जिन्हें “अवैतनिक” लिखा जाता है. मैंने पश्चिम की कोई ऐसी निजी पत्रिका नहीं देखी जिसका सम्पादन ऐसे फ़ोकटे प्रोफ़ेसर कर रहे हों. जिन प्रोफेसरों को अपने विश्वविद्यालयों की अपनी पत्रिकाएँ निकालनी चाहिए, जैसा कि विदेशों में होता है और उनकी बेहद प्रतिष्ठा है, वे प्रकाशकों के यहाँ बर्तन माँज रहे हैं. लेकिन इन्हें झूठ ही एज़ाज़ी लिखा जाता है. इन्हें नक़द और जिंस (कैश एंड काइन्ड) की शक्ल में भुगतान होता ही है. स्पष्ट है कि ऐसी पत्रिकाओं में इनके संपादकों और प्रकाशनों की कोई ईमानदार, तीखी आलोचना या समीक्षा नहीं हो सकती और जो लेखक-आलोचक-अध्यापक अन्य पत्रिकाओं में वैसा कर चुके हों उन्हें यह कतई नहीं छापेंगे. अहम बात यह है कि उनकी एज़ाज़ी मुलाज़िमत एक अनियमितता और भ्रष्टाचार है. सब जानते हैं कि किसी-भी स्तर का सरकारी अध्यापक अपने विभागाध्यक्ष, प्राचार्य या कुलपति की लिखित अनुमति के बिना कोई दूसरा वैतनिक-मुफ़्तिया, अंश- या पूर्णकालिक काम नहीं पकड़ सकता. लेकिन यदि वह और उपरोक्त-जैसी पत्रिकाओं के प्रकाशक मिलकर उन वरिष्ठों को कुछ प्रलोभन दे दें, जिनमें उनकी कूड़ा किताबों का प्रकाशन भी शामिल हों, तब तो शायद यू जी सी, एच आर डी के अधिकारी भी उनके अवैतनिक टहलुए हो जाएँ. और यदि आप किसी मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक या उनके परिजनों-कृपापात्रों-राज़दानों की कोई घटिया पुस्तक छाप-छपवा दें तो फिर क्या संभव नहीं है.

जब से हिंदी की कॉलेजस्तरीय अकादमिक दुनिया में नए वेतनमान लागू हुए हैं,प्राध्यापक-प्रकाशक मिलीभगत प्रगाढ़तर-जटिलतर हुई है और इन दोनों की दूरी मात्र मसिजीवी लेखक से और बढ़ी है. आज यदि किसी दईमारे  प्राध्यापक को अपनी कोई पुस्तक पैसे देकर भी छपानी पड़े तो उसे उसमें अपनी एक महीने की तनख्वाह जितना भी निवेश नहीं करना पड़ता. उधर कोई स्वतंत्र हिंदी लेखक किसी महानगर में जानलेवा मेहनत भी कर ले, पंद्रह हज़ार रुपये महीने से ज्यादा नहीं कमा सकता. पिछले छप्पन वर्षों में मेरे निजी स्वतंत्र लेखन और अपनी पुस्तकों का कुल औसत पारिश्रमिक छह हज़ार रूपए प्रति वर्ष भी नहीं ठहरता. संघर्षरत लेखक, युवा हों या प्रौढ़, अधिकांश समृद्धतर प्राध्यापक-लेखकों के उपहास, उपेक्षा और अपमान के पात्र बनकर रह गए हैं. आज दिल्ली, नेहरू और जामिया आदि विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध हिन्दी प्राध्यापकों का रूतबा प्रकाशकों के यहाँ बहुत बढ़ गया है क्योंकि हिंदी के इतिहास में पहली बार प्राध्यापक उनका और पैसों का मोहताज नहीं रहा.यह पहला मौक़ा है कि उन सब के सामने पहली बार प्रकाशक गुर्राना भूलकर दुम हिलाना सीख रहा है. यूं तो यह हर्ष और गर्व की बात होती लेकिन इससे प्रकाशक-प्राध्यापक नैक्सस बढ़ा ही है और पूर्व-प्रतिबद्ध शिक्षकों के विचारधारा-दुग्ध में भी पर्याप्त पनियलपन देखा जाने लगा है.

प्रकाशकों और अकादमिक दुनिया पर जितना आतंक और दबदबा हिंदी के अब लगभग पूर्ण-विस्मृत, घोर प्रगतिशीलता-विरोधी प्राध्यापक नगेंद्र का था उतना कभी देखा नहीं गया. स्वयं शीला संधू उनसे अदब-कायदे से पेश आती थी. दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने छोटे भाई काशीनाथ सिंह की नौकरी लगवाने के लिए नामवर सिंह सरीखे गर्वीले आदमी को शायद उनके अंडर रिसर्च और अध्यापन कर रहीं निर्मला जैन के माध्यम से उनके सामने गिड़गिड़ाना पड़ा था. नगेन्द्र ने कभी प्रकाशकों की वैसी गुलामी नहीं की जैसी नामवर,और उनसे सबक़ लेकर उनके बीसियों चिरकुट मुसाहिब,अब तक बजा ला रहे हैं.नगेन्द्र देश-भर की हिंदी-सम्बंधित संस्थाओं और कमेटियों पर काबिज़ थे जिनमें, ज़ाहिर है, पुस्तक-खरीद चयन समितियां भी होती थीं. लेकिन न तो नगेन्द्र ने और न नामवर सिंह ने कभी प्रकाशकों को अनैतिक कार्यपद्धति से रोका और न प्रकाशक-लेखक संबंधों को लेखकों के पक्ष में मानवीय और लाभकर बनाने की कोई पहल की. उनके बाद के प्रोफ़ेसर तो प्रकाशकों के पैंट की जेबों की चिल्लर हैं.

अनेक विदेशी साहित्यों के बाज़ार के मुकाबले हिंदी प्रकाशन की पूंजी को खुर्दा ही कहा जाएगा फिर भी वह करोड़ों को छू रही है और कुछ प्रकाशक वाकई नौदौलतिये हो चुके हैं. लेकिन यह असली मेहनत की वह उपलब्धि नहीं है जिस पर वे स्वयं, हिन्दी संसार या भारत गर्व कर सकें. यह लाइब्रेरियनों, क्लर्कों, प्रिंसिपलों, प्रोफेसरों,  अफसरों, मिनिस्टरों को घूस दे कर बनाई गयी लक्ष्मी है. सामूहिक पैसे खिलाए जाते हैं, ऑर्डरों की सामूहिक सप्लाइ की जाती है और फिर सामूहिक बंदरबाँट होती है. एक-एक प्रकाशक बीसियों, तीसियों, सैकड़ों जाली प्रकाशनों के नाम से किताबें सबमिट करता है. नुस्खा यह है कि पुरानी पुस्तक के पहले चार पेज निकालकर नए प्रकाशन के नाम से नए प्रकाशन-वर्ष की किताब रातोंरात तैयार कर ली जाती है, जिसे ट्रेड की कूट-भाषा में चाँपा लगाना कहा जाता है,कवर,पेस्टर और जिल्द बदल दिए जाते हैं और रंग चोखा हो जाता है. केन्द्रीय हिंदी निदेशालय की एक पुस्तक-खरीद समिति का मैं भी सदस्य था. देखता क्या हूँ कि मेरी अनूदित दो विदेशी पुस्तकें मेरे ही प्रकाशक वाणी ने किसी और प्रकाशन के नाम से जमा कर रखी हैं. राजेन्द्र यादव की भी एक समूची सीरीज भी ऐसी-ही सब्मिटेड थी. मैंने अर्जुन सिंह के मन्त्रालय में सुदीप बनर्जी को तत्काल लिखित सूचना दी. इस पर वाणी ने कहा कि विष्णु खरे हमसे किताबें अनुमोदित करने के बीस हज़ार रूपए माँग रहा था, जब हमने नहीं दिए तो उसने शिकायत कर दी. मंत्रालय ने वाणी के साथ क्या किया यह मालूम नहीं पड़ा लेकिन मुझे एच आर डी मिनिस्ट्री से कोई चिट्ठी नहीं आई. राजेन्द्र यादव को बताया तो ठहाका लगाकर बोले कि तुम भी यार पता नहीं क्यों सर फोड़ते फिरते हो, इन चीज़ों से क्या दुनिया बदल डालोगे. राजकमल के अशोक महेश्वरी ने एक जर्मन अनुवादक महेश दत्त से मिलकर एक अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक जालसाजी करवाई और शायद ब्लैक-लिस्ट हुए. बाद में सुना है किसी और स्वतंत्र प्रकाशन-जालसाजी के मामले में  महेश दत्त जेल भी गए. यह साहब वाणी के यहाँ भी अपनी सेवाएँ दे चुके थे. मैं दोनों भाइयों को महेश दत्त के बारे में बहुत पहले चेतावनी दे चुका था लेकिन ऐसे लोगों के बीच एक जटिल स्वार्थ-जाल विकसित हों जाता है. यह लोग धोखा देने के साथ-साथ गच्चा खाने के आदी भी हो जाते हैं. कुछ वर्षों पहले अरुण महेश्वरी ने उत्तर प्रदेश के किसी मंत्री को पुस्तक खरीद के किए पंद्रह लाख रूपए दिए थे. मंत्री बदल गया, पुस्तक खरीद नहीं हो पाई लेकिन खुर्राट और ख़तरनाक़ मंत्री ने पंद्रह रुपट्टी तक नहीं लौटाई. पेशेवर प्रकाशक जानता है कि ऐसे हादसे पी जाने में ही भलाई है – क्या पता कल वही मिनिस्टर किस काम आ जाए. ट्रेड में खरीद-अधिकारियों द्वारा प्रकाशकों को इस तरह डबल-क्रास किए जाने के कई किस्से प्रचलित हैं. लेकिन सारा बड़ा हिंदी प्रकाशन अन्ततः थोक खरीद पर ही फल-फूल रहा है. हिंदी के संभ्रांत कर्णधार इसकी चर्चा करने को ही वल्गेरिटी और अपनी महानता और गरिमा के विरुद्ध समझते हैं. दरअसल वे हिन्दी प्रकाशन के नरक को जानना-स्वीकारना ही नहीं चाहते.उन्हें अपनी अक्सर बोगस पुस्तकों के लोकार्पण, और विशेषतः उसके बाद के ज़लील रसरंजन, में ही अपना टुच्चा स्वर्ग दीखता है.

पिछले करीब ढाई दशकों से हिंदी दैनिकों में साहित्य के लिए लगातार जगह और सम्मान कम हुए हैं और अब तो शायद हैं ही नहीं, किन्तु एक प्रबुद्ध चालाकी के तहत ओम थानवी ने, जो व्यावसायिक रूप से एक घटिया और नाकाम सम्पादक साबित हुए हैं, रविवारीय ‘जनसत्ता’ के पन्नों पर साहित्यिक सामग्री, भले ही वह कुल मिलाकर दोयम दर्जे की क्यों न रही हो, और साहित्यकारों द्वारा गैर-साहित्यिक विषयों पर टिप्पणियाँ छाप कर दिल्ली की अदबी माफिया में एक अद्वितीय स्थान बना लिया. चूंकि दिल्ली का कोई भी दूसरा अखबार साहित्यिक घटनाओं की कोई खबर नहीं देता और ‘जनसत्ता’ देता है लिहाज़ा ओम थानवी का रसूख हिंदी साहित्य जगत में बढ़ता चला गया. ’जनसत्ता’ आम तौर पर दोयम दर्जे की पुस्तक-समीक्षाएं छापता है, लेकिन छापता तो है, इसलिए वह प्रकाशकों को भी मैनिपुलेट करने लगा. ओम थानवी गद्य अच्छा लिख लेते हैं, विश्व-सिनेमा में उनकी रूचि और गति हिंदी पत्रकारिता में अद्वितीय है, लेकिन मुएँजोदड़ो पर लिखी उनकी खफीफ किताब को जिस फुगावे के साथ छापा गया वह प्रकाशन जगत में उनके क्लाउट को अधिक दर्शाता है, पुस्तक की गुणवत्ता को कम.यही नहीं, पिछले जन्मशतियों वाले वर्ष में उन्होंने विस्मृत वात्स्यायन को लगभग एक मनोरोगग्रस्त निजी अभियान में कई स्तरों पर जीवित करने की असफल कोशिश की जिसमें प्रकाशकों से ‘अज्ञेय’ पर कुछ महंगी जिल्दें छपवा लेना भी शामिल था. हिंदी पत्रकारिता, साहित्य और प्रकाशन के इतिहास में यह पहली बार है जो अखबार दिल्ली तक में नहीं बिकता, जिसके सम्पादन का दर्ज़ा साहित्य की बैलगाड़ी के नीचे चलनेवाले स्वामिभक्त या अधिकतम पांचवें सवार का हो, वह किताबों की दुनिया पर भी निगरानी करने की महत्वाकांक्षा पाले.

इधर एक और घटना हुई है जिसकी भयावहता का पूरा अहसास हिंदी के कथित लेखकों को शायद ही हो पाए और यदि हुआ भी तो उसके बारे में कुछ कर पाने का साहस वे बटोर पाएं. एक कल्पनातीत विकृत, भ्रष्ट नियम के तहत साहित्य अकादेमी ने एक नया, प्रकाशकों का, निर्वाचन-समूह निर्मित किया है जिसने वाणी प्रकाशन के अरुण महेश्वरी को भारत की इस सर्वोच्च साहित्यिक संस्था का सदस्य चुन लिया है. अरुण महेश्वरी को मैं वर्षों से जानता हूँ, उनमें कुछ सुपरिचित, सामान्य मानवीय गुण हैं, व्यावसायिक चातुर्य प्रचुर मात्रा में है लेकिन बौद्धिकता और साहित्यिक समझ से उनका लगभग जन्मजात मूषकविडालवैर है. अंग्रेजी लिख, पढ़ और बोल पाने का तो सवाल ही नहीं उठता, अच्छी हिंदी का एक इमला भी ठीक से वे ले नहीं सकते और उनसे अपने दिमाग से एक पृष्ठ लिखने को कहना उनपर भारतीय पुलिस की सुपरिचित कम्बल-परेड करवाने जैसा है.विश्वास नहीं होता वे अदिति जैसी प्रखर, होशियार बिटिया के पिता हैं, जो लगता है अपनी माँ पर गयी है. दिलचस्प यह भी है कि कुछ वर्षों पहले अलाहाबाद के एक संदिग्ध संस्थान के शेडी, प्रकाशनातुर निदेशक ने उन्हें अपने एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में यह आश्वासन देकर बुलाया था कि आप आ तो जाइए, आपका पर्चा मैं लिख-लिखवा दूंगा.अरुण महेश्वरी ने न जाकर बौद्धिक जगत पर जो उपकार किया उसका वह चिर-ऋणी रहेगा.

बहरहाल, साहित्य अकादेमी की स्थापना का एक महती उद्देश्य यह भी था कि जिन पुस्तकों को व्यावसायिक प्रकाशन नहीं छापते उन्हें अकादेमी बहुत कम दामों पर छापे और अखिल भारतीय स्तर पर स्वयं बेचे. आज भी उस तरह की पुस्तकें वैसी कीमतों पर प्रकाशक नहीं छापना चाहते. यानी अकादेमी और आम प्रकाशकों के सम्बन्ध मूलतः प्रतिपक्षी (एड्वर्सेरियल) और तनावग्रस्त होते हैं. फिर, अकादेमी पुस्तकों और लेखकों को ही पुरस्कृत करती है जिनका सीधा सम्बन्ध प्रकाशकों से होता है. एक प्रकाशक के अकादेमी का सदस्य बनने के बाद पुरस्कारों की गोपनीयता पर दूरगामी असर पड़ेगा क्योंकि नियमानुसार हर सदस्य सम्बंधित भाषा के प्राथमिक या अंतिम निर्णायकों में अनिवार्यतः होता है और आप अरुण महेश्वरी को हिंदी की उन सूचियों में से एक से बाहर नहीं रख सकते. उन्हें मालूम रहेगा कि वाणी प्रकाशन सहित हिन्दी के किन प्रकाशकों की कौन सी पुस्तकें या कौन से लेखक-लेखिकाएँ किस पुरस्कार के लिए विचाराधीन हैं. वे २०१३ से पांच वर्षों के लिए हमेशा इंटरेस्टेड पार्टी या स्टेकहोल्डर रहेंगे. यही नहीं, कई तरह की मित्रताएं साध कर वे अन्य भाषाओँ के पुरस्कारों और अकादेमी के अन्य सभी कार्यक्रमों को प्रभावित कर सकेंगे.अकादेमी के प्रकाशनों-पत्रिकाओं में उनका दखल हो सकेगा.

अरुण महेश्वरी एक स्ट्रीट-स्मार्ट, चलता-पुर्जा व्यक्तित्व के धनी हैं. करोड़पति तो वे हैं ही. यदि वे अपने पत्ते ठीक से खेलें और सही लोगों को सही प्रलोभन दें तो बहुत संभव है लीलाधर जगूड़ी, अरुण कमल और गोविन्द मिश्र सरीखे भ्रातृवत् नए सदस्य उन्हें ही अकादेमी की सर्वशक्तिमान कार्यकारिणी का सदस्य बनवाकर दम लें. पहले दो को तो राजकमल वाले बड़े भाई अशोक महेश्वरी ने और स्वयं वाणी ने छापा है और अरुण कमल अपने पूर्वपरिचित रामू काका के “अवैतनिक” अंगोछालंगोटबरदार हैं ही. इन दोनों की हिम्मत भला अरुण महेश्वरी की हुक्मउदूली की कैसे हो सकती है? कोई  भी शातिर प्रकाशक हिंदी के दयनीय रीढ़हीन लेखक-लेखिकाओं से किसी भी तरह का विनिमय कर सकता है. उनमें से अब अनेक वाणी की निर्लज्ज या गुप्त गुलामी करेंगे क्योंकि अब सवाल महज़ प्रकाशन का नहीं,अकादेमी पुरस्कारों का भी है. सबसे कॉमिकल बात यह है कि नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडे जैसे बड़बोले छद्म सरगनाओं, गाडफादरों, विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरादिकों और उनके गिरोहों और सुपारीवालों के बावजूद अरुण महेश्वरी अकादेमी में चुने गए. अब एक प्रकाशक इनकी बराबरी में बैठ गया बल्कि कुल मिलाकर हिंदी के रेआलपोलिटीक में इनसे कुछ आगे ही निकल गया. लेकिन यह संकर नस्ल महीन चापलूसी करने में भी निष्णात है. अब साहित्य अकादेमी के मंचों पर और उनसे परे सार्वजनिक दिल्ली में और लखनऊ, पटना, भोपाल वगैरह में अरुण महेश्वरी की उपस्थिति में ऐसे लोगों की और अन्य लेखक-लेखिकाओं की शक्लें, देह-भाषा और व्यवहार को देखना ठकुरसुहाती, मुसाहिबी और चापलूसी का एक जीवंत पॉवर-पॉइंट प्रेजेंटेशन होगा.

१. जानकार सूत्रों को ऐसा शक़ है कि हिंदी प्रकाशक अपनी पुस्तकों के दाम लागत से कम-से-कम छः गुना रखते हैं. इससे वे सिर्फ संस्थागत या/और थोक खरीद के लायक रह जाती हैं. हिन्दीभाषी मध्यवर्ग, जो करोड़ों में है लेकिन हिंदी साहित्य को जानना-खरीदना जिसकी ‘संस्कृति’ में नहीं है, इतनी महँगी किताबें यही बहाना बनाकर नहीं खरीदना चाहता. शायद यही प्रकाशकों का उद्देश्य भी रहता हो. पुस्तकें नहीं बिकतीं ऐसा अपवाद फैलाकर वे किताबें नहीं छापते, कम-से-कम छापते हैं ताकि पूरा “संस्करण” दो-तीन थोक खरीदों में ही निपट जाए, प्रतियाँ विक्रेताओं को न भेजनी पड़ें और खुर्दा काउंटर-सेल या डाक-कूरिअर से भेजने से बचा जा सके. प्राथमिक उपाय यही है कि प्रकाशकों को पुस्तकों के दाम एक उचित स्तर तक रखना चाहिए. ज़रूरी हों तो इसके लिए एक पहरुआ समिति का गठन किया जाए जिसमें लेखकों,प्रकाशकों और सरकार के प्रतिनिधि हों.
२. वामपंथी लेखकों के तीन संगठन और कई उप-संगठन हैं. कुछ स्वयं प्रकाशन-क्षेत्र में हैं. उनके कुछ सदस्यों के निजी या निजी-जैसे प्रकाशन भी हैं. इन्हें अपने रथ ज़मीन पर उतार कर सबसे पहले लेखकों के साथ अपने संबंधों को उजागर करना चाहिए. फिर, चूँकि वे प्रकाशन की सारी पेंचीदगियाँ जानते हैं, उन्हें मूल्य-निर्धारण सहित व्यावसायिक प्रकाशकों की सारी सचाई सामने लानी चाहिए, किसी भंडाफोड़ या स्टिंग के रूप में नहीं, बल्कि एक दृढ़ सहानुभूति के साथ.नए लेखक-संगठन बनने चाहिए जिनका रुझान भले ही प्रगतिकामी न हों, आधुनिक और प्रबुद्ध अवश्य हों. पाठकों के हितों की रक्षा के लिए सभी लेखकों और उनके संगठनों को वैचारिक-राजनीतिक मतभेद अस्थायी रूप से भुलाते हुए लगातार ऐकमत्य से काम करना होगा.
३. बर्न कॉपीराइट कन्वेंशन के भारतीय संस्करण का देशी प्रकाशन वास्तविकताओं के बरक्स संशोधन किया जाना चाहिए. लेखक (जिसमें मूल लेखक, अनुवादक, रूपान्तरकार, सम्पादक, चयनकर्ता और उनके वारिस आदि सभी शामिल समझे जाएँ) और प्रकाशक के बीच एक न्यूनतम, मानक कन्ट्रैक्ट का मसव्विदा तैयार हो जिसे सख्त़ी से लागू किया जाए लेकिन लेखक उसमें निजी तौर पर तभी परस्पर-संशोधन पर सहमत हो जबकि वह असंदिग्ध रूप से उसके और लेखक-बिरादरी के हित में हो.
४. पुस्तकों की सरकारी-अर्ध-सरकारी खरीद तुरंत बंद हों. राजा राममोहन फाउंडेशन, जो नामवर सिंह के ज़माने से ही भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात हो चुका है और सुदीप बनर्जी तथा अर्जुन सिंह द्वारा उनके वहाँ से हटाए जाने का कारण बना था, और जिसने प्रधानमंत्री की बेटी की पुस्तक की संदिग्ध खरीद की है, को तत्काल वाइंड-अप कर दिया जाना चाहिए और उसके अब तक के सारे कार्य-कलाप की जांच के लिए एक ईमानदार सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट जज की अविलम्ब नियुक्ति होनी चाहिए.
५. वैकल्पिक रूप से यह भी हो सकता है कि सभी स्तरों की सरकारी पुस्तक-खरीद के सारी शर्तों सहित  विज्ञापन बड़े हिंदी दैनिकों और प्रतिष्ठित, नियमित मासिक पत्रिकाओं में सही समय पर छपें, जिन प्रकाशकों की जो भी पुस्तकें खरीद के लिए चुनी जाएँ उनकी पूरी सूचियां प्रति-संख्या सहित सम्बद्ध अनिवार्य वेबसाइटों पर शीघ्रातिशीघ्र उपलब्ध हों तथा चयन-समिति के नाम भी साथ-साथ प्रकाशित किए जाएँ. लेखकों-प्रकाशकों से आपत्तियां, यदि हों तो, आमंत्रित की जाएँ. खरीदनेवाली संस्थाएं लेखक या उसके उत्तराधिकारियों को स्वयं सूचना दें और उन्हें ही उस खरीद की रॉयल्टी भेजें.
. प्रकाशक अपना कारोबार बढ़ाने के लिए हर वैध, पेशेवर और नैतिक क़दम उठाएं लेकिन साहित्यिक रेआलपोलिटीक में पहलक़दमी, हिस्सेदारी, पक्षपात आदि न करें. उनका एकमात्र ध्येय स्तरीय साहित्य का प्रकाशन, विक्रय, वितरण हो. हाउस-जर्नल के अलावा वे कोई भी “साहित्यिक” पत्रिका निकालने से बचें. अकादमिक दुनिया और पुरस्कारों की राजनीति से दूर रहें.
७. प्रकाशकों के पास सक्षम अंश- या पूर्णकालिक प्रूफ-रीडर और सुयोग्य कॉपी-एडीटर हों जो साहसपूर्वक लेखकों से उनकी स्वीकार्य पांडुलिपियों की गुणवत्ता पर बात कर सकें. सारे लेखक, जो कितने भी “वरिष्ठ” या “प्रतिभाशाली” क्यों न हों, स्वयं को पैदाइशी अल्लामियाँ न समझें और ऐसे संपादकों की राय और सुझावों को समुचित सौहार्द और खुले दिलो-दिमाग़ से लें. ज़रूरी हो तो ‘पिअर-रिव्यू’ भी की जानी चाहिए. आज हिंदी में लगभग हर साहित्यिक विधा की अधिकांश प्रकाशित पुस्तकें निर्मम,निर्भीक पुनर्सम्पादन की मांग करती हैं.
८. जो प्रकाशक ईमानदारी से पुस्तकों का मूल्य निर्धारित न करता हो, लेखक को उसकी कॉम्प्लिमेंटरी प्रतियां न या कम देता हो, उसे रियायती मूल्य पर अतिरिक्त प्रतियां न बेचता हो, समीक्षार्थ प्रतियाँ पत्र-पत्रिकाओं में न भेजता हो, लेखकों के बीच भेदभाव और वैमनस्य को बढ़ावा देता हो, लेखकों को उसके लंचों, डिनरों, कॉकटेलों, माता-पिता आदि के जन्मदिनों-पुण्यतिथियों के विज्ञापनों आदि में दिखाई देने से इनकार करना चाहिए.
९. यह एक कटु सत्य है कि आज जो हिंदी में प्रकाशक-लेखक सम्बन्ध वैमनस्य, घृणा और एकतरफ़ा मोहताजी के हो गए हैं उनके लिए अधिकतर प्रकाशक ही ज़िम्मेदार हैं, फिर भी दोनों का कर्तव्य यही है कि उन्हें मानवीय और सौहार्दपूर्ण बनाया जाए. इसके लिए अनिवार्य है कि सभी विधाओं और पीढ़ियों के स्त्री-पुरुष लेखकों और छोटे-बड़े प्रकाशकों का एक सम्मेलन आयोजित किया जाए जो एक सर्वसम्मत, व्यवहार्य घोषणापत्र के साथ समाप्त हो. इसके लिए पहले से ही सभी समुत्सुक लेखकों और प्रकाशकों से लिखित वक्तव्य आमंत्रित किए जा सकते हैं जो बहस की नींव का काम करें.
१०. प्रकाशकों और लेखकों को एकजुट होकर हिन्दीभाषी प्रदेश में हिंदी की बेहतर, साहित्यिक पुस्तकें खरीदने और पढ़ने की संस्कृति का विकास करना होगा. यह तभी संभव हो पाएगा जब हमारे यहाँ एक मज़बूत लोकप्रिय साहित्य हो और सभी विषयों पर विशेषज्ञता से लेकर “मेड ईज़ी” स्तर तक की वाजिब किताबें उपलब्ध हों.

उपरोक्त और अन्य ऐसे कई संभव सुझाव न तो नए होंगे और न आसान, किन्तु यदि शुभस्य शीघ्रम् न किया गया तो स्थिति सिर्फ बदतर होती जाएगी.

*****
('समकालीन सरोकार' के नवंबर अंक में प्रकाशित)




गुरुवार, 1 नवंबर 2012

विष्णु खरे की नई कविताएँ

[हम विष्णु खरे की कुछ नई कविताओं से मुखातब हैं. सभी कविताओं की अपनी एक भिन्न कैफ़ियत है. वे एक बिलकुल ताज़ा और समग्र रचनात्मक फ़ासला तय करती हैं. ये कविताएँ ऐसे समय में हमारे सामने आई हैं जब हिन्दी का काव्य एक बड़ी क्राइसिस से जूझ रहा है और जो मौजूद है उस पर ख़राब व इंटरनेटीय रचनाओं का अतिक्रमण हो रहा है. जो अन्य युवा कवि और अर्ध-युवा कवि हैं, उनके लिए ये कविताएँ मानक हो सकती हैं. आत्मारोपों और जीवन-संघर्षों की गुत्थमगुत्थी के बीच के पुल पर इन कविताओं का विचरण होता है. अपनी बेबाकी के कारण लोगों की तल्खी का सामना करते विष्णु खरे की यह कविताएँ डॉ. जय नारायण बुधवार - संपादित पत्रिका "कल के लिए" में प्रकाशित हैं. इन कविताओं का यहाँ पुनर्प्रकाशन कवि और संपादक की सहमति से किया जा रहा है. इनसे अलग एक कविता "नई रोशनी" भी है, जो पहले सबद पर प्रकाशित हो चुकी है, उसे यहाँ नहीं दिया जा रहा है.] 



गोया - कोलोसस



असह्य

दुनिया भर की तमाम प्यारी औरतो और आदमियो और बच्चो
मेरे अपने लोगो
सारे संगीतो महान कलाओ विज्ञानो
बड़ी चीज़ें सोच कह रच रहे समस्त सर्जको
अब तक के सारे संघर्षो जय-पराजयो
प्यारे प्राणियो चरिन्दो परिंदो
ओ प्रकृति
सूर्य चन्द्र नक्षत्रों सहित पूरे ब्रह्माण्ड
हे समय हे युग हे काल
अन्याय से लड़ते शर्मिंदा करते हुए निर्भय ( मुझे कहने दो ) साथियो
तुम सब ने मेरे जी को बहुत भर दिया है भाई
अब यह पारावार मुझसे बर्दाश्त नहीं होता
मुझे क्षमा करो
लेकिन आख़िर क्या मैं थोड़े से चैन किंचित् शान्ति का भी हक़दार नहीं

तभी

सृष्टि के सारे प्राणियों का
अब तक का सारा दुःख
कितना होता होगा यह मैं
अपने वास्तविक और काल्पनिक दुखों से
थोड़ा-बहुत जानता लगता हूँ

और उन पर हुआ सारा अन्याय?
उसका निहायत नाकाफ़ी पैमाना
वे अन्याय हैं जो
मुझे लगता है मेरे साथ हुए
या कहा जाता है मैंने किए

कितने करोड़ों गुना वे दुःख और अन्याय
हर पल बढ़ते ही हुए
उन्हें महसूस करने का भरम
और ख़ुशफ़हमी पाले हुए
यह मस्तिष्क
आख़िर कितना ज़िन्दा रहता है

कोशिश करता हूँ कि
अंत तक उन्हें भूल न पाऊँ
मेरे बाद उन्हें महसूस करने का
गुमान करनेवाला एक कम तो हो जाएगा
फिर भी वे मिटेंगे नहीं
इसीलिए अपने से कहता हूँ
तब तक भी कुछ करता तो रह

संकल्प

सूअरों के सामने उसने बिखेरा सोना
गर्दभों के आगे परोसे पुरोडाश सहित छप्पन व्यंजन
चटाया श्वानों को हविष्य का दोना
कौओं उलूकों को वह अपूप देता था अपनी हथेली पर
उसने मधुपर्क-चषक भर-भर कर
किया शवभक्षियों का रसरंजन

सभी बहरूपिये थे सो उसने भी वही किया तय
जन्मान्धों के समक्ष करता वह मूक अभिनय
बधिरों की सभा में वह प्रायः गाता विभास
पंगुओं के सम्मुख बहुत नाचा वह सविनय
किए जिह्वाहीन विकलमस्तिष्कों को संकेत-भाषा सिखाने के प्रयास
केंचुओं से करवाया उसने सूर्य-नमस्कार का अभ्यास
वृहन्नलाओं में बाँटा शुद्ध शिलाजीत ला-लाकर 
रोया वह जन-अरण्यों में जाकर

स्वयं को देखा जब भी उसने किए ऐसे जतन
उसे ही मुँह चिढ़ाता था उसका दर्पन
अन्दर झाँकने के लिए तब उसने झुका ली गर्दन
वहाँ कृतसंकल्प खड़े थे कुछ व्यग्र निर्मम जन

उसाँस

कभी कभी
जब उसे मालूम नहीं रहता कि
कोई उसे सुन रहा है
तो वह हौले से उसाँस में सिर्फ
हे भगवन हे भगवन कहती है

वह नास्तिक नहीं लेकिन
तब वह ईश्वर को नहीं पुकार रही होती
उसके उस कहने में कोई शिकवा नहीं होता

ज़िन्दगी भर उसके साथ जो हुआ
उसने जो सहा
ये दुहराए गए शब्द फ़क़त उसका खुलासा हैं

पर्याप्त

जिस तरह उम्मीद से ज्यादा मिल जाने के बाद
माँगनेवाले को चिंता नहीं रहती
कि वह कहाँ खाएगा या कब
या उसे भूख लगी भी है या नहीं
वही आलम उसका है
काफ़ी दे दिया जा चुका है उसके कटोरे में
कहीं भी कभी भी बैठकर खा लेगा जितना मन होगा
जल्दी क्या है
बच जाएगा या खाया नहीं जाएगा
तो दूसरे तो हैं
और नहीं तो वही प्राणी
जो दूर बैठे उम्मीद से देख रहे हैं

और नाज़ मैं किस पर करूँ
(भगवत रावत और चंदकांत देवताले को)

बुजुर्गों के नाम पूछने का चलन अब जाता रहा

पहले कहीं भी जाओ
टिक्कू के यहाँ कटिंग कटाने
गफूर टेलर के पास कमीज़ सिलवाने
मोतीलाल सेठ की दूकान पर सौदा लेने
जमना की चक्की पर आटा पिसवाने
राशन से गेहूं-चावल लेने
नाजिम के टाल पर लकड़ी-फर्रे तुलवाने
गुप्ता या वर्मा बुक डिपो से कोई किताब-कापी खरीदने
बाबूलाल पेंटर की पान की गुमटी के सामने
सिवनी पिपरिया नागपुर की किसी गाड़ी में बैठने
या यूं ही किसी दोस्त के यहाँ भी
तो बस्ती का कोई न कोई ऐसा आदमी मिल जाता था
जो पूछ ही लेता था किसके लड़के हो

तुम उस अटपटाहट से पिता का नाम बतलाते थे
जो उनका नाम लेते या लिखते वक़्त अब तक नहीं गयी है

फिर वह कहता अच्छा तो सुन्दर के बेटे हो
और खेल स्कूल या कालेज में उनकी बड़ाई करता पूछता
अपने बाप पर गए हो या नहीं
क्लास में कौन सा नंबर आते हो
सुन्दर तो हाइस्कूल तक कभी सेकण्ड नहीं आया

अजीब लगता कि तुम्हारे पिता कभी छोटे भी थे
और स्कूल जाते थे और खेलते भी थे
और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उनके बारे में
सुन्दर ऐसा था सुन्दर यह करता था वह करता था
सरीखे लहजे में बात कर सकते हैं
फिर उनके पैर छूना पड़ता था
और वे और आशीर्वाद देते थे
लेकिन कहते थे
अब तुम्हारा बाप किसी से मेल-जोल क्यों नहीं रखता बेटे

तुम्हें यह बहुत अच्छा भी लगता था
तब तक माँ नहीं रहीं थीं
सो तुम अपनी बुआओं से बतलाते थे
और वे उदास कुंआरे गर्व से भरी एक सुदूर मुस्कान के साथ
अपने भाई तुम्हारे पिता के अतीत में खो जातीं
एकाध और अनजानी बात बतलाती हुईं

कभी कोई बुज़ुर्ग पकड़ लेते तो इसी खानदानी जिरह के बाद
देर तक देखते रहते और कहते
अच्छा तो मुरलीधर नाज़िर के पोते हो
अरे वाह अरे वाह
तुमने तो नहीं देखा होगा बेटे अपने आजा को
सारा शहर अब भी याद करता है उनको

रमेश सुरेश सुरेन्द्र निर्मल संतोष प्रमोद प्रेमकुमार हरिशंकर इंद्रवीर बरकत विष्णु
शेख नूर अशफाक हुसैन शेख इसहाक़ फ्रांसिस अलेक्सेंडर
यह सिर्फ हमारे आपसी नाम थे
वरना तो दरअसल हम किसी के बेटे थे या नाती थे या पोते थे
जो महज़ अपने शज़रे से जाने जाते थे
कम से कम तीन पीढ़ियों के नाम याद रखना फख्र की बात समझी जाती थी
फिर दूसरे असली और मुँहबोले रिश्तों की एक अलग फेहरिस्त थी
बीस हज़ार की आबादी में हर कोई हर किसी का कुछ न कुछ लगता था
कस्बा कहाँ था वह कुटुंब था

बरसों तक पिता या आजा को जाननेवाले
कभी न कभी मिलते रहे
पिपरिया जबलपुर बैतूल खंडवा इंदौर रायगढ़ अंबिकापुर में
एकाध तो दिल्ली तक में

आज किसी भी बच्चे किशोर युवक से उसके पिता या आजा का नाम पूछते डरता हूँ
अव्वल तो इसलिए कि मुझमें अब तक बैठा हुआ है वह लड़का
जो कभी अपने पिता या आजा के नाम के लायक हो नहीं पाया
जबकि उनके इस्म भी अब कितने अजीब लगते हैं
दूसरे न जाने अपरिचित नौउम्र वह क्या सोचे या क्या सुनने को मिले उससे
कई वजहों से अब वल्दियत बताई नहीं जाती
आज फख्र कुछ और बातों पर किया जाता है
किसके पास कितना है कौन किस-किस को जानता है
किस-किस तक पहुँच है किस की
सब यही दरियाफ़्त करते हैं अब
और पलटकर कहीं उसने मुझसे कुछ पूछ लिया
तो बताने को मेरे पास वैसा कुछ भी नहीं है

इत्तिफ़ाक़न

मूलतः दिया इसलिए जलता होगा
कि अपनी रोशनी में –
वह निष्कंप लौ हो या ज़र्द या आख़िरी भभक –
खुद कमोबेश अपना आसपास देख सके

यह कि उसके वैसे उजाले में
दूसरे भी देख सकते होंगे
इसमें शायद उसकी दिलचस्पी न रहती हो

यही क्या कम है
कि वह जान भी जाए
कि उसके उतने नूर का
लोग भी थोड़ा-बहुत इस्तेमाल कर लेते होंगे
तो भी तेज़तर जल कर
वह खुद को बुझा नहीं सकता –
अपने को फूँकने की भी एक गति होती है

और यूँ भी एक चिराग़ का उजाला आख़िर टिकता ही कितना है
और जाता भी होगा तो भला कितनी दूर

सरोज-स्मृति

वे मिले संयोग से उस सँकरी अदृश्य-सी गली के बीच
जो अब भी पाटनी सिनेमा तिराहे को जोड़ती है
छोटे राममंदिर वाले बुधवारी के ढलान से

किशोरी वह वही काम कर रही थी
जो उसकी माँ देउकी और बाप लक्खू गोंड करते थे
सिर या काँवड़ पर मीठे कुओं से
घरों में पीने का पानी भरने का

कनकछरी जैसी अब वह
उसका चेहरा और गर्दन कँपते थे हल्के-हल्के
चुम्हरी पर रखी भरी गगरी के छलकने से
किसी नर्तकी या गुड़िया सरीखे
हाँ में या ना में समझना मुश्किल था

पहचान लेने पर जो कुछ भी आँखों में आ जाता है
उससे उसने पूछा
कहाँ चला गया तू

पिपरिया और बैतूल तो वह जानती थी
खंडवा उसके लिए नया था
बहुत दूर होगा
इतना तो नहीं मगर आमला से दूसरी गाड़ी लेनी पड़ती है

तो तू नौकरी नहीं करता कालेज जाता है
हम तो अब धोबियों के मोहल्ले में चले गए
हौले से हाँफते हुए उसने बताया

कभी ये लोग उसके यहाँ पांच रुपए किराए से रहते थे
और वह पढ़ाने के बहाने उसे सरोता कहकर चिढ़ाता था

सिर पर कँसेड़ी रखे
जो हर बोल पर उसके माथे आँखों और पोलके तक छलक आती थी
उसे और उस लड़के को
अब चौराहे के नुक्कड़ों के पानवालों
और बनारसी होटल के गाहक
कुछ अजीब निगाहों से देखने लगे थे
कब तक इस तरह दोपहर बारह बजे बजार के पास बात करते

उसके मन में आया
कि चुम्हरी समेत उसकी गागर अपने सिर पर रख ले
और उसके साथ बरौआ बन कर उस घर तक चला जाए
जहां उसे यह पानी भरना था
लेकिन उससे तमाशा खड़ा हो जाता

आना उसने कहा था बऊ दद्दा अब भी तेरे को याद करते हैं
हाँ के सिवा वह और क्या जवाब देता

अपने पुराने घर की तरफ
जिसमें अब कोई नहीं रहता था
और जिस पर किसी और का ताला लगा रहता था
कुछ क़दम बढ़ा कर वह पलटा

दूसरे छोर पर वह भी थम गयी थी
उसे अपना सारा बदन घुमाना पड़ा था पीछे देखने के लिए
उसका मूरत-सरीखा चेहरा दुगना दमकता था कड़ी धूप में
दिवा का तमतमाता रूप
उसकी मुस्कान की चमक और ललाई उतनी दूर से भी झलकीं

दोनों को जाना ही था अपनी अपनी दिशा में

दुबारा वे कभी नहीं मिले

फिर भी इन पछ्पन बरसों में
वह अब भी वहाँ न खड़ी है न ओझल होती है
उसका गगरीवाला ललाट धीरे-धीरे हिलता जैसे चिढ़ाता बरजता या हाँ कहता हुआ
वह भी वहीं ठिठका हुआ है अब भी उसे देख सकता हुआ
जबकि उसका वह पुराना घर बुलाता रहा है
एक बार फिर सामने से गुज़र जाने को


सर्पसत्र

जिस परम्परा में
एक महादेवता के कंठ पर लिपटा रहता हो विषधर
और दूसरे की शय्या ही हो एक महानाग
जिसके फण पर टिकी रहती हो धरित्री
जिसमें पूजे जाते हों सर्प
उन्हें दुग्धानुपान करवाया जाता हो
वहां कोई अकारण क्यों शत्रुता करेगा भुजंगों से

हाँ यदि कोई कद्रू
अपनी भगिनी-सपत्नी को ही दासी बनाए रखने
और मानवता को हलाहल से आतंकित और निष्प्राण करने के लिए
सहस्रों नाग-पुत्रों को जन्म दे उन्हें प्रेरित प्रशिक्षित करे
तो वह चुनौती खड़ी होगी
जो विनतानंदन गरुड़ के समक्ष प्रस्तुत हुई थी

अपनी ही सौत-बहन की बाँदी थी विनता
तब भी अपने कुत्सित पुत्रों की सहायता से
कद्रू ने उसे और धोखा देना चाहा

नाग न केवल डस रहे थे अन्य प्राणियों को
अपितु स्वर्ग से अमृत पीकर अमर होना चाहते थे
किन्तु पक्षिराज ने पराभव किया स्वर्ग में ही देवेन्द्र का
फिर नष्ट किया नागवंश को
और अपनी माता और मानवता को
पन्नगों के भय और दास्य से मुक्त किया

सुदीर्घ और जटिल होते हैं ऐसे आख्यान
सारांश यह कि उसके पश्चात्
जनमेजय का सर्पयज्ञ भी निर्विघ्न संपन्न हुआ
अग्नि में गिरते गए हर प्रकार के उरग
वातावरण में व्याप्त हुए उनके चीत्कार और चिरायंध

महाभाग वैनतेय के नभचर वंशज
बने तब से अहिकुल के शाश्वत शत्रु
अज्ञात है कि उनमें कब और कैसे आ जुड़े
नकुल जैसे थलचर प्राणी भी
जिन्हें अब फणिधरों की किंवदन्तियों से भय नहीं लगता
कभी-कभी वे करालतम महानागों को
अपना आखेट बना लेते हैं
मुक्ति के किसी अभियान में उन्हें अपने नखों में जकड़ कर
आकाश या धरती के किन्हीं अदृष्ट ठिकानों से
उनपर छापा मारते हुए झपटते हुए

इसीलिए नाग बचते भागते रहे हैं खगेन्द्र के उत्तराधिकारियों से
मार्ग देते रहे हैं भूमिगत नकुलों
और अन्य सर्पाहारियों को
जब तक कोई आत्महंता प्रलोभन या विवशता ही न आन पड़े
कि अनचाहे उन्हें करना पड़े कोई अभिशप्त आक्रमण
अन्यथा सदा से जानते आए हैं वे
कि गरुड़ के वंशजों और सुह्रदों पर
असंभव है विषधरों की विजय

बजाए-ग़ज़ल
(शमशेर से मुतास्सिर एक ज़ाती हिमाक़त)

जो न झेले हरेक वार सीने पर
हज़ार लानतें हों ऐसे जीने पर

दिले-मजलूम को रफू न कर पाए
वो क्या फख्र करे अपने ज़ख्म सीने पर


नहाती मजदूरने पखारें एड़ियाँ जिससे
वो ठीकरा भारी है हर नगीने पर

हर कोई निराला हो नहीं जाता
लाख कड़ी मारें पड़ें सीने पर

ताउम्र पोंछती रही है अपने पल्लू से
तमाम शाइरी कुर्बान उस पसीने पर

कहीं मुझसे उनका बदन न छिल जाए
दीवार से सट के वो यूँ चढ़ते हैं जीने पर

हमें गाड़ी बदलनी थी बीना में
चढ़ी हुई थी उतर पड़े बबीने पर

निकलने हैं जिससे झूठे बुतो-फतवे
क्यों हो ग़ारत उस खूनी दफीने पर

नाख़ुदाओ बाज़ आओ तकरारो-बग़ावत से
टूटा चाहते हैं बर्को-तूफाँ इस सफीने पर


जो भूखों-बेघरों से उनके हक छीने
कभी रहम न हो उस निज़ामे-कमीने पर

बदन से उसके गमकता है जो अब तक
मैं रहा मस्त उसी इत्र भीने-भीने पर

कहीं से किसी मुआवजे की उमीद नहीं
ढूँढता हूँ नया पठान हर महीने पर


ताबीर

इसके आगे कुछ और नहीं कहना चाहूँगा

बस यह तसव्वुर किया था
कि पता नहीं क्यूँकर हम साथ बैठ सके हैं किसी जगह
जो मेरे लिए पुरआसाइश है
और हैरत यह कि दूर तक कोई और नहीं था

मैंने अनधिकार उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया होगा
वह उसे छुड़ा नहीं रही थी यही क्या कम था
हम कुछ बोल भी नहीं रहे होंगे
मुझमें एक जगमगाता नक्षत्र रख देने के लिए
मैं उसका कितना एहसानमंद रहूँगा क्या बताता उसे
मेरे मन में जो रहा होगा उससे मैं रुंध चुका हूँ
जो मेरी आँखों में थे काश वे फ़क़त आँसू होते

किस बिलकुल सही लम्हे पर वह हौले से हाथ अलग कर
फिर वह कब लौट गयी
उस अपने दावेदार अविभक्त महापरिवार में
जहां उसकी कितनी दरकार और प्रतीक्षा रहती होगी
कोई जान नहीं पाएगा

लगता है मैं वहाँ देर तक वैसा ही बैठा रहा फिर चला भी आया
लेकिन वह मौजूद रही थी लिहाज़ा उधर अँधेरा न हुआ

पीछे मुड़ सकता तो पाता
किसी विग्रह की तरह वह अब भी वहीं सस्मित दिखती होगी
बड़ी आँखों में सरस करुणा सख्य संकल्प लिए
सिर्फ मेरे लिए ही नहीं
मुझसे कहीं परे देखती हुई


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