मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

पंकज चतुर्वेदी पर अविनाश मिश्र

(हिन्दी में आलोचना के सामने खड़े होना एक दुरूह और उलझा हुआ निर्णय है. कई-कई बार इस निर्णय के फेर में निराशा और अविकसित गद्य ही मिले हैं. हिन्दी में रचना के साथ खड़े होने की बात अब बीते दिनों की बात हो चुकी हैं, और आलोचना पढ़ना, यहाँ तक कि उस पर लिखना तो वक्त के साथ समर करने सरीखा है. अविनाश ने यहाँ जिस तरीके और साफ़गोई से अपनी बात रखी है, वह तमाम सूक्तियों-नियमों को धता बताने के लिए काफ़ी है. इस वर्ष युवा हिन्दी आलोचना साथ ही साथ बुद्धू-बक्सा की कुछ सफल उपलब्धियों में अविनाश भी शुमार रहे हैं. बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी रहेगा.)

‘निराशा में भी सामर्थ्य’ और समीक्षा                                                                      
स्वाभावादेव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन।  
इदं ग्राहयमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधी:।।
                                                                            
(जो यह जानता है कि यह दृश्य स्वभाव से ही कुछ नहीं है, वह यह कैसे देख सकता है कि यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्यागने के योग्य है।)                                                                                
अष्टावक्र गीता : तृतीय प्रकरण-तेरहवां मूल


हिंदी आलोचना इन दिनों एक ऐसा दरवाजा हो चुकी है जिसके भीतर से होकर आने-जाने वालों का तांता लगा हुआ है। इस दरमियान नए स्पेस निर्मित हुए हैं जहां बगैर किसी रोक-टोक के युवा रचनाकार अपने हमउम्र रचनाकारों पर अपनी राय दे रहे हैं। अकादमिक आलोचना के निकम्मेपन से पूरी तरह से वाकिफ हो जाने के बाद, उसके प्रति उपेक्षा या कहें नाउम्मीदी का भाव है और इसके चलते उसे आए दिन कोसने की रवायत व जरूरत भी कम हुई है। कुल-मिलाकर इस दृश्य ने हमें संवादवंचित होने से बचाए रखा है। कई युवा आलोचकों की एक नई जमीन विकसित करती हुई किताबें आ रही हैं। बावजूद इसके कि हिंदी में अकादमिक आलोचना सा अविश्वसनीय दूसरा कुछ नहीं, यह कहना एक सुखद विरोधाभास है कि इनमें से बहुत सारे युवा अकादमिक हैं। युवा आलोचक वैभव सिंह के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि यह हिंदी आलोचना का अनदेखा किस्म का स्वर्ण काल है।

हिंदी में अकादमिक आलोचना अक्सर सामयिकता से परहेज करती आई है। सारे साहित्यिक जुर्म इसी आलोचकीय भाषा में संभव हुए हैं। यह अपने मूल चरित्र में कृत्रिम, पलायनवादी, जातिवादी, क्षेत्रवादी, संकीर्ण, सतही, वैचारिक दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों से ग्रसित अंदर और बाहर दोनों तरफ से बंद है। अंदर से इसलिए क्योंकि यह इंतहाई जटिल हो रही सामयिकता में प्रवेश करना नहीं चाहती और बाहर से इसलिए क्योंकि यह नहीं चाहती कि समझदार व्यक्तित्व इसके दायरे में आएं।

इस दृश्य में युवा कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी की पांच अप्रकाशित और 52 प्रकाशित लेखों से बनी 391 पृष्ठों की पुस्तक ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ को पढ़ना एक ऐसे आलोचकीय विवेक से गुजरना है जो सामायिक सवालों से टकराते हुए, इतिहास में अमर या निर्जीव और निकृष्ट हो जाने के फितूर से आजाद है।

इस पुस्तक की भूमिका रविभूषण ने लिखी है जो मूलतः आलोचक हैं और अकादमिक भी। वे कहते हैं- 'संभवतः यह पहली बार हुआ है कि किसी एक आलोचना-पुस्तक में, जो पांच खंडों के कुल 57 लेखों, पुस्तक-समीक्षाओं, टिप्पणियों आदि का संग्रह है- कविता, आलोचना, उपन्यास, आत्मकथा, नाटक, कहानी, पत्र, पत्रोत्तर, शिक्षा, शिक्षण-संस्था आदि के जरिए कई आवश्यक और सार्थक बातें कही गई हैं।' 32 पृष्ठों की इस भूमिका में रविभूषण ने ‘निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण (दुष्टत्रयी) के इस आततायी और विध्वंसक दौर में जहां सब कुछ दांव पर लगा हुआ है- कला, साहित्य, संस्कृति, शिक्षा और विविध ज्ञानानुशासनों की ओर थोड़ी-बहुत उम्मीद से देखने की जरूरत है’ से शुरू करते हुए ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ हमें निराश और हताश होने से बचाती है, हिंदी आलोचना के प्रति उम्मीद जगाती है और यह इस पुस्तक की उपलब्धि है’ से अपनी भूमिका समाप्त की है।  

भूमिका के बाद एक कवि का गद्य है। लेकिन इसका अलगपन यह है कि यह वैसा नहीं है जैसा कवियों के गद्य को प्रचारित किया जाता है। यह गद्य अपने सृजक के प्रकाशित काव्य-संसार के वैभव व दबाव से स्वतंत्र है। फिर भी यहां बहुत सारी काव्य पंक्तियां हैं, काव्य पंक्तियों वाले शीर्षक हैं, दार्शनिक सूक्तियां हैं, कविता की आंख से इतिहास को देखते हुए ‘रामचरितमानस’ की वर्तमान सांस्कृतिक भूमिका है, आलोचना का आत्म-संघर्ष है, जीवन और रचना के बीच मौजूद सृजक की स्थिति पर स्टैंड है, आत्म-निर्ममता का साहस है, एक नए देश की तलाश का प्रस्ताव है, कविता में छिपे असत्य हैं, समवेत मुक्ति की दलित आकांक्षा है, बदलती भारतीय स्त्री की कहानी है, आजादी की असफलता का शोक-गीत है, एक हिंदी शिक्षक का स्वप्न है, महाविद्यालयों का चरित्र है, इतिहास का इतिहास में हस्तक्षेप है, आग का वादा है, ‘आसन्न अतीत’ व ‘हाहाहूती’ जैसे शब्द हैं और वह ‘रीडिंग प्लेजर’ है आलोचना में जिसकी उम्मीद हम खो चुके हैं।

यहां पहुंचकर एक जरूरी प्रश्न यह उभरता है कि एक ऐसे समय-समाज में जहां रचना ही हाशिए पर है वहां आखिर आलोचना की जरूरत किसे है। कृष्ण बलदेव वैद एक संवाद के दौरान कृष्णा सोबती से कहते हैं- ‘आलोचना की जरूरत और अहमियत पर सोचें तो आलोचना की जरूरत पाठक को लेखक से अधिक होती है क्योंकि लेखक तो अक्सर खुद ही अपना आलोचक होता है।‘ वैद इस संवाद में आगे कहते हैं- ‘हमारी आलोचना पुस्तकों के लोकार्पण-विमोचनों के अवसरों पर सरसरी फतवों-वक्तव्यों तक ही सीमित होकर रह गई है, और वे सब भी राजनीति और साहित्यिक राजनीति से परिचालित होते हैं, उनमें खरी-खुरदरी सच्चाई का अंश बहुत कम होता है। बड़ी आलोचना तो एक तरफ, छोटी-छोटी अच्छी समीक्षाएं जो साहित्यिक पत्रकारिता की रूह कही जा सकती हैं, वे भी हमारे यहां दुर्लभ हैं।‘ यह संवाद हुए कई वर्ष गुजर चुके हैं, लेकिन दुर्भाग्य से स्थितियां अब तक नहीं बदली हैं, बल्कि और बदतर हुई हैं, भयावह और घिनौनी हुई हैं।

ज्बीग्न्येव हेबेर्त  ने कहीं कहा है कि एक समीक्षक के रूप में अर्थवत्ता की तलाश हमारा प्राथमिक कार्य है। लेकिन हिंदी की मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं और रंगीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षाएं लिखने वाले धंधेबाज समीक्षकों ने इस समग्र पद्धति को निकृष्ट साहित्येतर समीकरणों में परिवर्तित कर दिया है। बोर्हेस ने ऐसे आलोचकों की तुलना चर्च में खड़े कुत्ते से की थी। हिंदी की मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं और रंगीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में लगभग एक दशक से गंभीर और वास्तविक समीक्षा-कर्म का निर्वाह करती हुई एक भी समीक्षा पढ़ने में नहीं आई है। बावजूद इस सारी बुराई के यदि कोई इन समीक्षाओं में उतरे तो वह पाएगा कि हिंदी की हर रचना में प्रतिक्षण एक कालजयी नवोन्मेष घटित हो रहा है... सारी रचनाएं व्यापकता लिए हुए हैं और इन्हें पढ़कर चुपचाप संग्रहित कर लेने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प इस तरह के समीक्षकों ने नहीं छोड़ा है। ऐसे औसत रचनाकारों और उनके सतही समीक्षकों के लिए पिकासो का यह कथन भी याद आता है कि कुछ पेंटर सूरज को पीले धब्बे में बदल देते हैं, अन्य पेंटर एक पीले धब्बे को सूरज में...।       

ऐसी साजिशों के बरअक्स ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ के लेख न सिर्फ रचना की सार्थक समालोचना में संलग्न हैं, बल्कि साहित्य की आंतरिकता के विकृत होते दृश्य पर बेहद दायित्वपूर्ण ढंग से हस्तक्षेप भी करते हैं। इस पुस्तक में आलोचना की आलोचना का स्वर इतना प्रखर है कि वह इस तरह व्यक्त होता है- ‘हिंदी आलोचना विगत वर्षों में ज्यादा से ज्यादा केंद्राभिमुख या सत्ताकांक्षी हुई है। उसकी नैतिक चिंताएं, राजनीतिक सरोकार और साहित्यिक अभिप्राय क्षीण हुए हैं और उसने अपने व्यवहार से साबित किया है कि ‘लिखित शब्द’ में उसकी बहुत दिलचस्पी नहीं है। वह अपनी शक्ति के प्रदर्शन और अहं की तुष्टि में इतनी गर्क है कि रचना के बारे में नया कुछ कहने के लिए न उसके पास समय है, न मानसिकता।‘ पंकज चतुर्वेदी यहां मंगलेश डबराल को भी उद्धृत करते हैं- ‘मुझे लगता है, हमारे वरिष्ठ आलोचकों का मौन एक सोचा-समझा हुआ मौन है। एक ऐसी सायास कोशिश कि हमारे गोल या गुट में जो नहीं है या जो किसी भी साहित्यिक सत्ता-प्रतिष्ठान में शामिल नहीं है उसके बारे में हम कुछ नहीं बताएंगे।‘

लेकिन यहां यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि साहित्य की आंतरिकता में लेखक के हस्तक्षेप का स्वर प्रखर तो है, लेकिन उतना मुखर नहीं है, जितना साहित्य से इतर मसलों पर लिखते हुए है। लेखक आक्रामक होता है, लेकिन बेहद वैभवपूर्ण और शालीन ढंग से। यह एक बहुत आजमाया हुआ शिल्प है, जो बहुत दूर तक असर नहीं करता है, हालांकि आक्रामकता भी एक बहुत आजमाया हुआ शिल्प है, लेकिन उसमें अब भी यह गुण है कि वह यदि बेहतर तरह से बरता जाए तो कभी जाया नहीं जाता। पंकज इस पुस्तक में कई जगहों पर बगैर नाम लिए कुछ लोगों पर टिप्पणी करते हुए चलते हैं, जैसे कि वे कहते हैं- ‘एक कवि की टिप्पणी देखिए...’, ‘एक आलोचक लिखते हैं...’, ‘अभी हाल में एक कवि-आलोचक ने यह वक्तव्य प्रकाशित किया है कि...’, ‘हिंदी के एक बेहद प्रतिबद्ध और संवेदनशील आधुनिक कवि...’, ‘एक प्रसिद्ध वामपंथी कवि के इन शब्दों में...’, ‘एक वरिष्ठ आलोचक का यह जुमला...’, ‘राजधानी दिल्ली में एक कवि के यहां ठहरा था...’ ये कुछ अधूरी पंक्तियां उद्धृत करने से आशय यहां यह संकेत करना है कि पंकज नामों से बचते हैं। यहां मुझे रविभूषण रचित भूमिका से यह अंश उद्धृत करना चाहिए- ‘पंकज में विनम्रता कुछ अधिक है। वे नाम लेकर उन कवियों-आलोचकों का प्रत्याख्यान नहीं करते, जो रचना-कर्म और आलोचना-कर्म को लगातार क्षतिग्रस्त कर रहे हैं। वे ‘हिंदी साहित्य के कुछ मठाधीशों’ का नाम नहीं लेते, जिनकी ‘छत्रछाया’ में एक अंडरवर्ल्ड काफी पनप चुका है। मंगलेश जिस तरह अपनी कविता में जोर से नहीं बोलते, उसी प्रकार पंकज भी आलोचना में जोर से बोलने से बचते हैं। शायद इसकी एक बड़ी वजह यह है कि वे कवि हैं।‘ यहां संभवतः यह भी संभव है कि पंकज नाम लेकर नामों का महत्व बढ़ाना और अपने लिखे का मूल्य घटाना नहीं चाहते। यदि ऐसा है तब इस सदिच्छा का सम्मान करते हुए भी यह कहना जरूरी लगता है कि यह जिद लेखों में आस्वाद के स्तर पर समस्या खड़ी करती है। तब तो और भी जब आप केवल कवियों-आलोचकों के नामों से ही बचते हैं, बाकियों का नाम लेने से आपको कोई गुरेज नहीं और तब भी जब ये लेख तात्कालिकता के दबाव से मुक्त होकर अब पुस्तकाकार प्रकाशित हैं।

कवि प्राय: गद्य के धोखे में कविताएं बुन देते हैं। ऐसा वे शरारतन नहीं आदतन करते हैं, लेकिन ये धोखे वाकई सुखद होते हैं। प्रस्तुत पुस्तक के पहले खंड के आखिरी लेख में यह धोखादेह स्थिति अपने चरम पर है। ‘कविता की कथनी और करनी’ पर बात करते हुए पंकज एक बहुत बड़ी पंक्ति कह जाते हैं। इस पंक्ति को जिसे बेशक एक काव्य पंक्ति भी कह सकते हैं, काव्यालोचना में एक टूल की तरह बरता जा सकता है। पंक्ति यह है- ‘कवियों की भाषा में ही उनके ईमान पढ़े जा सकते हैं।‘ इस पंक्ति के सहारे कई पृष्ठ रचे जा सकते हैं, लेकिन पंकज ऐसे विस्तारों से बचते हुए इसके सहारे इस लेख का एक बेहद जरूरी अनुच्छेद रचते हैं जिसे वे यह कहते हुए- ‘दुश्मन को हमारा सबसे करारा जवाब यही हो सकता है कि हम उसकी भाषा को अस्वीकार कर दें’ समाप्त करते हैं।

अपने कुछ समकालीन अग्रजों के कविता संग्रहों पर लिखते हुए पंकज ने इनकी कविता के मूल स्वर को पकड़ने की कोशिश की है। इस कोशिश में जो निष्कर्ष आए हैं, वे इस प्रकार हैं- अशोक वाजपेयी के कविता संग्रह ‘दुख चिट्ठीरसा है’ पर लिखते हुए पंकज कहते हैं- ‘अशोक वाजपेयी की एक बड़ी और दुर्लभ विशेषता है- उनकी आत्म-निर्मम यथार्थ-दृष्टि। जहां भी यह दृष्टि सक्रिय हुई है, आत्मकथात्मकता के बावजूद उन्होंने श्रेष्ठ कविता लिखी है।‘ 

मंगलेश डबराल के कविता संग्रह ‘हम जो देखते हैं’ पर लिखते हुए- ‘मंगलेश डबराल इस समय हिंदी के उन कुछ कवियों में से हैं, जिनकी कविताएं हमें कई बार ज्यों-की-त्यों याद रह जा सकती हैं। इसलिए कि वे जीवन और समाज के सिर्फ साक्षात्कार के नहीं, बल्कि मार्मिक साक्षात्कार के कवि हैं।‘

राजेश जोशी के कविता संग्रह ‘नेपथ्य में हंसी’ पर लिखते हुए- ‘राजेश की कविता में वक्तृता मिलती है- इसकी नैतिकता वह अपनी संवेदना से अर्जित करते हैं। लेकिन जैसे ही जिए गए जीवन की पारदर्शी व्याकुलता से कविता छूट जाती है, तो महज एक निष्प्रभ भाषण या राजेश के ही दिए शब्द के सहारे कहें, तो एक पिटी-पिटाई ‘नीतिकथा’ बनकर रह जाती है।‘

यहां इन तीन बड़े कवियों पर पंकज के कथन को उद्धृत करने का आशय केवल पंकज के काबिल-ए-तारीफ काव्यालोचकीय विवेक और पकड़ को प्रकट और स्पष्ट करना है।

निराला की एक काव्य-पंक्ति ‘यह हिंदी का स्नेहोपहार’ शीर्षक चौथे खंड में हिंदी शिक्षा जगत अपनी समग्र क्रूरताओं के साथ उपस्थित है। इस खंड में इस उपस्थिति का सारांश, अपेक्षा, स्वप्न, लक्ष्य, निष्कर्ष, भाषा, हस्तक्षेप, और पक्षधरता पढ़कर इसकी दशा, दिशा और दुर्दशा समझी जा सकती है-

‘आज हालत यह है कि हिंदी संसार में सच्ची जिज्ञासा, अध्यवसाय, प्रश्नाकुलता और बहुल तथा सार्थक संवाद की संस्कृति निर्मित करने के दावे के साथ जिन लोगों ने अपने सफर की शुरुआत की थी, उनका व्यवहार सर्वसत्तावादी सामंतों जैसा है। वे किसी तरह की असहमति, विरोध या आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाते और ऐसा करने वालों को ठिकाने लगाते रहते हैं। नतीजा यह है कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग ज्यादातर उनके अयोग्य अनुयायियों से भरे पड़े हैं और सामान्य नागरिक उनसे कोई उम्मीद नहीं रखता है। पचास करोड़ हिंदी-भाषियों के इस देश में क्या एक भी विश्वविद्यालय ऐसा बचा है, जिसकी समूची हिंदी ‘फैकल्टी’ पर हम वास्तविक गर्व कर सकें और हमारे नौजवानों में वहां पढ़ने की हसरत हो?’ (पृष्ठ-280)

इस दृश्य में ऐसे प्रश्न उपजते हैं कि ‘शिक्षक आखिर हमें देते ही क्या हैं?’ और इस पर विचार करते करते हुए यह निष्कर्ष प्रकट होता है- ‘यह लालच और उपभोग का समय है। हमें वह शिक्षा चाहिए, जो ज्यादा से ज्यादा रुपए कमाने की तरकीब सिखाती हो। उसके जरिए हम अधिकाधिक सत्ता, सुख, सम्मान और समृद्धि चाहते हैं। इसलिए वह शिक्षा हमें नहीं चाहिए जो मानव-मूल्यों की बात करती हो, उनके संस्कारों से हमें अनुप्राणित करती हो। आखिर करुणा, दया, क्षमा, प्रेम, सत्य और अहिंसा आदि का हम करेंगे भी क्या? मूल्य तो हमें मर्यादित ढंग से रहने और चुपचाप समाज की सेवा करने के लिए विवश करेंगे! कभी शिक्षा मनुष्यता की रक्षा और विकास के लिए जरूरी एक सुंदर कार्रवाई समझी जाती थी। आज वह व्यक्तिगत तृप्ति और व्यक्तिगत पोषण के संकीर्ण भौतिक मतलबों की दासी बनकर रह गई है।‘ (पृष्ठ-305)   

इस पुस्तक के लेखों में उद्धरण बहुत ज्यादा हैं। एक भी ऐसा लेख नहीं है जो इनसे मुक्त हो। यह एक अलग कल्पना का विषय हो सकता है कि बगैर कोटेशंस के ये लेख कैसे होते और प्रस्तुत समीक्षा भी। ये लेख अलग-अलग जगहों से संग्रहित किए गए हैं, इसलिए कोटेशंस का दोहराव भी है। लेकिन ऐसे उद्धरणों से संपृक्त ये लेख लेखक के अध्यवसाय की गंभीरता, वैविध्य और विस्तार से परिचित कराते हुए अपने आस्वादक को समृद्ध करते हैं। कुछ लेख तात्कालिक दबावों के तहत उपजे हैं, लेकिन इसके बावजूद इनमें अखबारीपन नहीं है। वे अपने मूल प्रभाव में अब भी बेहद प्रभावी और महत्वपूर्ण हैं। यहां आकर अब यह कहने का कोई अर्थ नहीं है कि ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ इस दौर में क्यों पढ़ी जानी चाहिए...।                                                             

बुधवार, 20 नवंबर 2013

मनोज कुमार झा की नई कविताएँ

(इस बार हम मनोज कुमार झा की नई कविताओं के साथ आप सब के बीच आए हैं. इस काव्यहीन समय में मनोज कुमार झा की कविताएँ अपनी मौजूदगी के साथ प्रतिवाद के लिए आश्वस्त रखती हैं. हिन्दी के एक वरिष्ठ कवि ने कहा है कि कुछेक युवा कवियों को छोड़कर बाकी सभी नया नहीं रच रहे हैं. उन सभी की कविताएँ एक ही कक्षा से निकली कविताएँ लगती हैं, और यही आज की कविता का नुकसान है. मनोज कुमार झा की कविताएँ ऐसी कविताओं के जवाब के रूप में खड़ी होती हैं. जिस समय फेसबुक रचनाशील होने के मानक तय कर रहा है, जहाँ कृपालु ब्लॉगों पर 'उबाल मार रही', 'खौल रही', 'चौंका देने वाली' और ऐसे ही अन्य उपमानों से सम्मानित रचनाएँ छप रही हैं, वहाँ मनोज कुमार झा भाषा और शिल्प के आविष्कार से इन सभी उपमानों-सैलाबों को ध्वस्त कर देते हैं. अटल रहते हुए यहाँ यह भी जोड़ना ज़रूरी है कि मनोज स्वतंत्र स्मृतियों से ज़्यादा गूढ़ विचारों के कवि हैं. इन कविताओं के लिए बुद्धू-बक्सा मनोज कुमार झा का आभारी. मनोज की पिछली कविताएँ यहाँ.)


चली जाओ तुम
चली जाओ तुम
इस रात का रंग थोड़ा और गाढ़ा कर दो
तुम्हारे पास अभी रंग अनेक
और हमारा कागज जला हुआ, छुओ तो चूर
तुम्हारे पास समुद्र की प्यास के लिए पर्याप्त नमक है
मेरे पास मात्र एक पुराना जलपात्र
हमारे बीच एक नदी बह रही
तुम उड़ेल दो इसमें अपना ऐश्वर्य का मधुपात्र मैं अपनी नींद की सलवटों में
जमी नमक का चूर सौंपता हूँ.


मैं सबसे आखिर में कहूँगा मुक्ति 
लड़की ने जिन्स पहनी लड़के ने चाय बनाया
दोनों ने साथ-साथ बदला कपड़ा
लड़की जल्दी में थी फटाफट लड़के ने लगा दी लिपस्टिक
लड़के को भी वक्त कम था लड़की ने टार्इ का नाट बांधा
दोनों साथ साथ हँसते निकले अपने अपने काम पर
एक और सुखी परिवार थोड़ा और सुखी हुआ।

यह तो बस थोड़ा है
परिवार की पूँछ की तरह स्लिम और साफ करती थोड़ी धूल
मैं इसे मुक्ति तो पुनर्जन्म के वादे पर भी नहीं कहूँगा
घेर लिया गया तो आखिर में उठाउँगा हाथ।


धीमापन 
मैं झूठ बोलता हूँ मगर धोखा नहीं देता
कहते हुए दूरी ज्यादा बताकर वाजिब किराया मांगा रिक्शेवाले ने
अपने बाल को संवारते हुए हाथों से वो मुस्काया
तुम्हारा सोचना धीमा सोचना है कहा था एक साहिब ने
मैनें सोचा साहिब कि क्या जरूरी हर कोर्इ पकड़ ले एक ही गति


अपूर्ण
कष्ट देता है देह नृत्यमग्न
मैं वहाँ से आया हूँ जहाँ विकलांगों की आँते बिकल
अकबकाता हूँ कहता त्राहिमाम जब
तिल सी श्यामल देह को
कोर्इ कहता है सुंदर
मैं वहाँ से आया हूँ जहाँ
कोयले के टुकड़े और सुश्याम
आदिवासी युवतियाँ बोरे में भर दी जाती हैं
खुली उज्जवलता वाला चेहरा भी मुझे सुख
नहीं पहुँचाता
मैं उस रात स्टेशन पर था
जब एक गौरवर्णा विक्षेपपथा कन्या
को खदेड़ रहे थे पाँच-दस शोहदे।


दूसरी तरफ से
सिर्फ होने से मैं
बहुत सी सुन्दरताएँ नष्ट कर देता हूँ
कुछ नष्ट करता है मेरा मनुष्य होना
विचरण करना धरती पर
पुरूष होना
किसी परिवार का होना
किसी का पुत्र होना
मेरे लिए एक ही श्रम बचता है
मैं अपने होने को इस तरह झुकाऊँ
कि कुछ कुरूपताएँ भी नष्ट कर सकूँ


मूर्तियाँ जो पूजी नहीं जाती
इन मूर्तियों को लत नहीं लगी है अक्षत चंदन की और कैमरे के फ्लैश की
ये प्रस्तर-मूर्तियाँ मुझे आर्शीवाद देती हैं
कि जिओ कैमरों के फ्लैशों पर पीठ देकर
मैं कृतज्ञ हूँ इनका
कि ये नहीं कहती कि
तुम मुझे नहीं पूजोगे
तो साँप बनकर तुम्हारी आस्तीन में घुस जाऊंगी
मैं प्रणाम करता हूँ इन्हें कि
न ये मक्खियों की शत्रु हैं और न चमगादड़ों की
दिन और रात की बेजौक क्रीड़ा से बहुत दूर
ये हमें मुक्त करती हैं कि उपेक्षा भी करोगे तो भी
मैं जीवित रहूँगी
अपनी ऊब से और मजबूत होती एक पत्थर।


यह सरल शांति बारिश की
वृक्षों पर बारिश झहर रही है
अच्छा कि नहीं कोर्इ भी साथ यहाँ
चुन सकता हूँ बारिश की एक एक ध्वनि
दीवार के पार जो पानी का प्रदेश है
मैं सदा से उसी में रहना चाहता था
पानी के पंखों को सहलाता, उनकी चोंच से करता आँखें स्वच्छ
मगर एक दीवार तक नहीं तोड़ पाया पचास साल के जीवन में
अच्छा है कोई नहीं अभी यहाँ
और जल-प्रहार ने उठाए हैं सुगात एकांत।

(तस्वीर सिद्धान्त मोहन द्वारा खींची गयी)

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

राजेन्द्र यादव पर विष्णु खरे

(राजेन्द्र यादव की मृत्यु के साथ भद्रलोक में उनसे सीधे तौर पर जुड़े विवाद अंतिम रूप में सुकर्मों में तब्दील हो गए. लोगों ने फेसबुक ट्रायल तक को राजेन्द्र यादव की मृत्यु का कारण घोषित कर दिया और कुछ अवसरवादी यह तक तलाश करने लगे कि ज्योति कुमारी राजेन्द्र जी को श्रद्धांजलि देती हैं या नहीं. वैचारिकता और संसारिकता में काफ़ी अंतर व्याप्त है. बुद्धू-बक्सा उस अंतर को भांपते हुए राजेन्द्र यादव के बाद भी उन्हें संजोए रखने की कामना करता है. राजेन्द्र यादव की मृत्यु एक क्षति तो है ही, लेकिन इस क्षति की विराटता का अंदाज़ कुछ समय बाद 'राजेन्द्र-यादव-विहीन' समय में ही लगाया जा सकता है. वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णु खरे ने तवे के दोनों पृष्ठों को सामने रखकर एक आत्मीय बातचीत की है, जो कहीं न कहीं से राजेन्द्र यादव को सही तराजू पर तौलती है. यह लेख आज के नवभारत टाइम्स के सभी संस्करणों में प्रकाशित. इसे छापने की अनुमति देने के लिए बुद्धू-बक्सा लेखक और सम्पादक का आभारी. तस्वीर दिनेश खन्ना की.)


आज की युवा लेखक-और-पाठक पीढ़ी तथा अगली नस्लों के लिए राजेंद्र यादव मुख्यतः क्या रहेंगे – कहानीकार-उपन्यासकार या नए ‘हंस’ के वह सम्पादक जिसका खंडन-मंडन से भरा अपना एक निजी दलितवाद-नारीवाद-सेकुलरवाद था? जिस तरह राजेंद्र ने दशकों पहले सर्जनात्मक साहित्य छोड़ दिया था उसी तरह शायद पाठकों ने भी तभी उनके गल्प को तज दिया था – ‘नई कहानी’ की अकादमिक और साहित्यिक-राजनीतिक चर्चा अब कमोबेश अप्रासंगिक हो चुकी है, आम पाठक पहले भी सिर्फ़ ‘अच्छी’ कहानी पढ़ना चाहता था - और दुर्भाग्यवश आज तो कोई भी ढंग से मोहन राकेश और (‘कितने पाकिस्तान’ को छोड़ कर) कमलेश्वर तक को पढ़ना नहीं चाहता. यह याद करने से कोई फ़ायदा नहीं है कि राजेंद्र ने ‘प्रेत बोलते हैं/सारा आकाश’, ‘उखड़े हुए लोग’, ‘कुलटा’, ‘शह और मात’, ‘अनदेखे अनजान पुल’, ‘मंत्र-विद्ध’, ‘एक था शैलेन्द्र’ जैसे उपन्यास और बीसियों कहानियाँ लिखी हैं क्योंकि एक तो वे आसानी से उपलब्ध नहीं हैं और दूसरे उन्हें लेखक की मृत्यु के दुखद प्रसंग पर ही सायास याद किया और झाड़-पोंछ कर कहीं से निकाला जाएगा. शायद कोई चैनल कहीं से ‘सारा आकाश’ की डीवीडी हासिल कर के देर रात दिखा दे तो दिखा दे. राजेन्द्र ने साहित्य में बिना लिखे बने रहने के दो नुस्ख़े आज़माए – पहले ‘अक्षर प्रकाशन’ खोला लेकिन वह बेवकूफ़ी, बदनामी और घाटे के साथ बंद हुआ. दूसरा फ़ॉर्मूला अलबत्ता कामयाब रहा. प्रेमचंद द्वारा स्थापित किन्तु दशकों से बंद मासिक ‘हंस’ का पुनर्प्रकाशन शुरू किया गया जबकि राजेंद्र सहित सभी जानते थे कि न तो नया सम्पादक प्रेमचंद का सही वारिस है (न होना चाहता है) और न नया ‘हंस’ असली ‘हंस’ का, जो दरअसल बगुले, कौए और चील का विचित्र संकरश्लेषावतार है. उसमें छपी पाँच प्रतिशत कहानियाँ भी टिक पाएँगी इसमें संदेह है. हाँ, बेशक़, दलितों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के कुछ प्रश्नों पर ‘हंस’ के जोशीले सम्पादकीयों ने मिश्रित स्तरों की लेकिन व्यापक बहसें चलाईं और कभी-कभी उसके वार्षिकोत्सव पर राजेन्द्र से श्रेष्ठतर बुद्धिजीवी सार्थक बहस-मुबाहिसा कर लेते थे. दुर्भाग्यवश, नारी के अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य को वामपंथी कहलाए जाने वाले राजेन्द्र ने लेखिकाओं से यौन-तथा-बलात्कार-स्वीकारोक्ति की उत्तेजक-चटखारेदार कहानियाँ लिखवाने तक सीमित कर दिया – वह 1968 में पहली भेंट से ही मुझे नारियों का शौक़ीन लगा था, उनके बीच लोकप्रिय भी था और ‘हंस’ के पृष्ठ इस तरह से उपलब्ध हो जाने के बाद कुछ अभागी लेखिकाओं के लिए अपनी असामान्य शारीरिक दिक्क़तों और उम्र के बावजूद वह आकर्षक होता चला गया जिससे उसका अच्छा-खासा, मन्नू भंडारी सरीखी प्रेम-विवाहिता पत्नी वाला, पारिवारिक जीवन बर्बाद हो गया और अंतिम कुछ वर्षों में तो वह कई अशोभनीय, लगभग आपराधिक, विवादों में भी पड़ गया जिन्होंने उसका पीछा अभी उसकी मृत्यु तक नहीं छोड़ा. इसके लिए राजेन्द्र की लम्पटता और उसके जीवन या ऑफिस में आने-जाने वाली कुछ औरतों का विकृत, विवश, दुचित्ता और पाखंडी मनोलोक दोनों उत्तरदायी हैं. यह तो आगामी कुछ दशक तय करेंगे कि राजेंद्र को एक गल्पकार की हैसियत से याद रखा जाता है या सार्थक, उत्तेजक बहस उठानेवाले एक साहसी सम्पादक के रूप में - वैसे उसने चेखौफ़, लेर्मोंतौफ़, तुर्गेन्येफ़, स्टाइनबैक और कामी के अनुवाद भी किये थे और बहुत खराब कविताएँ भी लिखी थीं - या महज़ एक यौनलालसी की तरह. उससे मैं सघन संपर्क में तब आया था जब उसके और मेरे अभिन्न मित्र शानी साहित्य अकादेमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के संस्थापक-सम्पादक नियुक्त हुए थे. राजेन्द्र के साथ मैंने कई नारीविहीन किन्तु रंगारंग शामें बिताई हैं जिनमें अलीगढ का युवा साहित्यप्रेमी साजिद, नैशनल प्रकाशन के प्यारे मालिक कन्हैयालाल मलिक और शानी हुआ करते थे. राजेन्द्र को आप कुछ भी कह लीजिए, उसमें परिहास-भाव अद्वितीय था, उसे गुस्सा नहीं आता था, वह मुस्कराता रहता, कभी-कभी अपनी विशिष्ट शैली में ताली बजाता और विस्की के साथ मेरे द्वारा उसके लिए जर्मनी से लाया गया पाइप पीता रहता. वह मुझे हमेशा ‘राक्षस’ या ‘दानव’ कहता था और मैंने उसे कभी भी ‘लम्पट’ के सिवा कुछ नहीं कहा, ‘आप’ से भी संबोधित नहीं किया. उसके सम्पादकीय पढ़कर ‘टुच्चा जीवन उच्च विचार’ भी कहे बिना नहीं रहता था. लेकिन वह ‘हाँ बेटा राक्षस’ कह कर हँसता ही रहता था. कुछ भी हो, 83 वर्ष की उम्र में भी शानी के शब्दों में वह इतनी ‘’उछलकूद’’ करता हुआ गया कि हिंदी परिदृश्य को और मनहूस छोड़ गया.

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

युवा कविता पर अविनाश मिश्र

(यह लेख कई कारणों से ज़रूरी है. इसकी ज़रूरत पड़ने का सबसे मासूम कारण तो यही है कि समकालीन युवा कविता पर लिखने के दिन लद गए से लगते हैं. युवा-कवियों की फ़ेहरिस्त में शामिल होने की दौड़ अभी सबसे आगे चल रही है. उग्राग्र आलोचक अविनाश ने पाँच कवियों के ज़रिये बात की है. इन पाँच में एक नाम ऐसा भी है, जिसे न रखने से लेख का कोई नुकसान न होता. वह नाम है जितेन्द्र श्रीवास्तव. इसके साथ ही पुरस्कार, कवि और कविता में पर्याप्त अंतर व्याप्त रहना भी ज़रूरी है. हिन्दी में रचनाओं पर बात करने के बाद रचनाकार से सम्बन्ध बिगड़ने के खतरे हमेशा से मौजूद रहे हैं, इन खतरों में शामिल रचनाकार सबसे पहले गिरावट का शिकार होते हैं. यह लेख पहले सदानीरा में प्रकाशित, वहीं से साभार.)

कविगण कृपया ध्यान दें... 
अविनाश मिश्र

यहां हिंदी के चार युवा कवि हैं-- गीत चतुर्वेदी, निशांत, मनोज कुमार झा और व्योमेश शुक्ल। इनके एक-एक कविता संग्रह हैं। यहां कोई ‘वह’ नहीं है, बस एक ‘मैं’ है जो इन चारों को पढ़ रहा है। यह ‘मैं’ चर्चित युवा कवि-आलोचक जितेंद्र श्रीवास्तव हैं। इस ‘मैं’ में ‘मैं’ बहुत है। इससे पहले कि हिंदी आलोचना की ‘तिवारी-त्रयी’ जितेंद्र की कविताओं को केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन से जोड़ने के बाद जल्द ही आक्टिवियो पॉज या पाब्लो नेरूदा से जोड़ दे, हिंदी साहित्य संसार में एक अनौपचारिक सहमति से भरे इस सच का सार्वजानिक प्रकटीकरण बेहद जरूरी है कि जितेंद्र श्रीवास्तव तैयार कवि नहीं हैं। बेहद मामूली कविताओं और जनसंपर्क का आधार लेकर जितेंद्र ने हिंदी से उठाए जा सकने वाले सारे फायदे उठा लिए हैं। अब बस उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान और ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रतीक्षा है, बाकी जो कुछ भी है वे उसे ग्रहण कर चुके हैं और जो फिर भी शेष है वे उसे एक नैरंतर्य में चुंबक की तरह आकर्षित कर रहे हैं। यहां 1984 में आई एक हिंदी फिल्म याद आ रही है-- ‘आज का एम.एल.ए. रामावतार’। फिलहाल यहां प्रस्तुत लेख में काल्पनिक ‘मैं’ के रूप में मौजूद जितेंद्र श्रीवास्तव एक आलोचक की भूमिका में भी हैं और आत्मालोचक की भी। अब बस इसमें इतना और जोड़ देना चाहिए कि इस ‘मैं’ में उस गुण का नितांत अभाव है जिसे अंग्रेजी में ‘कॉस्मिक कांशसनेस’ कहते हैं...

इतनी गर्द भर गई है दुनिया में                                                    
कि हमें खरीद लाना चाहिए एक झाड़ू                                            
आत्मा के गलियारों के लिए                                                     
और चलाना चाहिए दीर्घ एक स्वएच्छ ता अभियान                                             
अपने सामने की नाली से उत्तएरी ध्रुवांत तक...

(केदारनाथ सिंह)  


हर आलाप में गिरह पड़ी है


...हालांकि यहां यह एक अलग बहस का विषय हो सकता है कि अब कितने लोग विष्णु खरे के लिखे को गंभीरता से ले रहे हैं, लेकिन यदि किसी कविता संग्रह की कविताओं के साथ 16 पृष्ठों का एक प्रशस्ति पत्र नत्थी हो, और वह भी विष्णु खरे का लिखा हुआ, तो उस कविता संग्रह की कविताओं पर एक आलोचनात्मक प्रयास के अंतर्गत बहुत कुछ कहने-करने को रह नहीं जाता।

दो सुपरिचित युवा रचनाकारों गीत चतुर्वेदी और व्योमेश शुक्ल के कविता संग्रहों क्रमशः ‘आलाप में गिरह’ और ‘फिर भी कुछ लोग’ में कई समानताएं हैं। जैसे दोनों ही कवियों के ये पहले कविता संग्रह हैं, दोनों ही कविता संग्रह ‘राजकमल प्रकाशन’ से प्रकाशित हैं, दोनों ही कविता संग्रहों के कवि ‘भारत भूषण अग्रवाल स्मृति युवा कविता पुरस्कार’ हासिल कर चुके हैं, दोनों ही कविता संग्रहों के अंत में विष्णु खरे रचित प्रशस्ति पत्र है और दोनों ही कविता संग्रहों के कवि अपने आस्वादक को यदि वह कहीं है तो अविश्वसनीय समझते हैं।

इन समानताओं को विष्णु खरे की कविता और गद्य के व्यवहार का अनुकरण करने वाली उस युवा पीढ़ी के संदर्भ में समझा जाना चाहिए जिसका उदय ‘बाबरी मस्जिद विध्वंस’ के आगे-पीछे के वर्षों में हुआ। इस कविता ने बहुत देर तक प्रभावित किया, लेकिन इस प्रभाव से आगे जाने की असल जद्दोजहद कई कवियों के लिए कविता में उनके इंतकाल का सबब बनी। इस दौर में कई कवि तारे की तरह टूटते हुए दिखाई दिए, लेकिन इस टूटन के बावजूद विष्णु खरे की कविता और गद्य के व्यवहार को फॉलो करने वाली युवा पीढ़ी हिंदी में लगातार विस्तृत होती रही, इस तथ्य के समानांतर कि विष्णु खरे के भाषिक व्यवहार के तेवर और उसकी काव्यात्मकता को बरतने की सलाहियत खुद विष्णु खरे में ही दिन-ब-दिन क्षीण होती गई। हालिया दौर में तो यह भाषा पूरी तरह से अपनी मारकता खोकर अविश्वसनीय और हास्यास्पद हो गई है। यहां यह भी गौरतलब है कि एक वक्त यही मारकता इस भाषा की अस्मिता थी।

विष्णु खरे के काव्य व्यवहार का अनुकरण करने वाली इस कथित युवा पीढ़ी के ही एक सदस्य हैं-- गीत चतुर्वेदी। इनके पहले कविता संग्रह ‘आलाप में गिरह’ की कई कविताएं बेहतरीन होने के बावस्फ इस दिक्कत से मुंसलिक हैं कि वे विष्णु खरे की कविताओं से आगे का फॉर्म नहीं खोज पा रही हैं। इस वजह इनमें व्याप्त सामयिक सरोकार और समस्याएं भी बेअसर हैं। यहां कोई नवाविष्कृत चमक नहीं है। कोई नया काव्य विवेक, नया काव्य विमर्श नहीं है। मैं हिंदी कविता के हित में ये जायज मांगें गीत के कवि से इसलिए कर रहा हूं क्योंकि गीत में इन्हें संभव कर सकने की सामर्थ्य है।

गीत के ही हर्फों में कहें तो कह सकते हैं कि बहुत ज्यादा खरा बोलना बहुत ज्यादा आपदाएं बुलाना है, लेकिन यह कहे बगैर रहा नहीं जाता कि कविता लिखते-लिखते लंबी कहानियों की ओर शिफ्ट हुए रचनाकारों ने हिंदी कविता को बहुत खराब किया है। कविताएं अंततः लय में लीन होना चाहती हैं, लेकिन उन्होंने इसकी लय, इसकी उदात्तता, इसके सौंदर्य और प्रभाव को सीमित या कहें समाप्त किया है।

यहां ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि इस कविता संग्रह में कई कविताएं ऐसी हैं कि इनकी पंक्तियों को कहीं से भी तोड़िए या जोड़िए, वे कविताएं नहीं हैं, लघुकथाएं हैं। और इस कदर होने पर इन्हें इस कविता संग्रह में नहीं होना चाहिए। इसके उदाहरण के लिए देखें: ‘पिथौरागढ़-दिल्ली डाइरेक्ट बस’, ‘अरब सागर’, ‘पांच रुपए का नोट’, ‘सिंधु लाइब्रेरी’, ‘साइकिल के डंडे पर बैठी लड़की’, ‘लुक्खे’, ‘मालिक को खुश करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाला मानवीय दिमाग और अपनी नस्ल का शुरुआती जूता’।

शब्दों के क्रम को महज पलट देने भर से लघुकथाएं कविताएं नहीं बन जातीं। बतौर एक रचनाकार आपकी काव्य समझ लंबी कहानियां रचने में आपकी मददगार हो सकती है, लेकिन आपके कहानीकार होने का कोई फायदा आपकी उन रचनाओं को कभी भी नहीं मिलता है, जिन्हें आप कविताएं कहकर अपने आस्वादक को सौंपते हैं।

इसके बावजूद गीत के इस काव्य संग्रह को हम ‘सेब का लोहा’, ‘पोस्टमैन’, ‘मदर इंडिया’, ‘कागज’, ‘आलू खाने वाले’, ‘खुद-ब-खुद खत्म’, ‘ठगी’, ‘माउथ आर्गन’, ‘अनलिखी कविताओं में’, ‘अलोना’, ‘फीलगुड’ जैसी कविताओं के लिए याद रखेंगे। गीत की ही एक कविता में आए हर्फों के सहारे कहें तो कह सकते हैं कि इन कविताओं में वह कड़वाहट है जो जुबान को मीठे का महत्व समझाती है, एकदम नीम की हरी पत्तियों की मानिंद...।

यहां प्रेम पर, लड़कियों पर, अपरिचितों पर, हिंसा-प्रतिहिंसा पर और रोज प्रकट हो रहीं नई-नई लड़ाइयों पर जो कविताएं हैं, वे आज की युवा हिंदी कविता के मध्य अपने अलग और अनूठे स्वर के कारण बेहद मुतासिर करती हैं और साथ ही अपने पढ़ने वाले को भीतर तक भरती भी हैं।

इसके अतिरिक्त गालिब, व्हिटमैन, शिम्बोर्स्का, नेरूदा की याद में ले जाने वालीं और संगीत और संगीतकारों से संबंधित/समर्पित कविताएं भी उल्लेखनीय हैं।

हालांकि इस संग्रह से इतर इधर पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में प्रकाशित गीत की कविताएं उनके काव्यात्मक विकास के प्रति बहुत आश्वस्त करने वाली नहीं हैं, लेकिन यह बेहद खुशी की बात है कि उनके द्वारा किए जा रहे अनुवाद और उनका गद्य हिंदी को सतत सृमद्ध कर रहा है।
  
‘मैं आंखों पर विश्वास नहीं करता/आंखें सिर्फ फिल्म देखती हैं...’ और ‘ये दोस्ती बड़ी महंगी चीज है...’ और ‘खुद आग में ही होता है बुझ जाने का हुनर...’ और 'जिसके पीछे पड़ते हैं कुत्ते वह उसी लायक होता है...' जैसी और भी कई काव्य पंक्तियां हैं ‘आलाप में गिरह’ में जो स्मृति में स्थाई हो जाती हैं, लेकिन वे एक समग्र कविता में ‘पैच वर्क’ सरीखी जान पड़ती हैं। वे स्वयं में ही पर्याप्त दृश्य होती हैं, ऊपर-नीचे बुन दी गई समग्रता को निर्जीव और गैरजरूरी करती हुईं। यहां भी गीत के ही हर्फ लेकर कहें तो कह सकते हैं कि ये काव्य पंक्तियां उस गजल की शे’र हैं, जिसका काफिया टूटकर कहीं छूट गया है। और यहां अब अंत में यह भी जोड़ना चाहिए कि--

तीन शब्द में होना था काम 
तीन लाख शब्द जाया हो गए 
क्या मुझे जोर से चिल्लाना चाहिए ?


यह कवि क्यों लिख रहा है 


निशांत एक ऐसे कवि हैं जिन्हें कविताएं परेशान नहीं करती हैं। दो किताबों और लगभग इतने ही पुरस्कारों वाले इस कवि के काव्य-लोक में दस बेहतर कविताएं तक नहीं हैं। जो कुछ एक ठीक-ठाक कविताएं निशांत ने रचीं और जिनके आधार पर वे पुरस्कृत-चर्चित-प्रकाशित हुए, वे अब तक उनकी चौंध में हैं।

वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जिसे लगातार यह महसूस हो रहा है कि वह कवि है। और संयोग से समग्र कविता न भी सही एकाध बेहतर काव्य पंक्तियां अब भी उससे गाहे-ब-गाहे संभव हो जाती हैं। लेकिन इन काव्य पंक्तियों का जो हासिल है वह बराबर उसके कवि को खारिज या कहें खत्म कर रहा है। वह कवि है महज यह सोचकर वह कविताओं पर कविताएं लिखता जाता है, लेकिन संभवत: वह इन्हें लिखकर इन पर लौटता नहीं है।

यहां यह इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि 'जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा' में मौजूद खामियां कवि के दूसरे काव्य संग्रह में भी बरकरार हैं। इस कवि के अब तक शाया समग्र काव्य से वाकिफ होने के बाद, इसके दूसरे संग्रह का शीर्षक 'जी हां लिख रहा हूं' पढ़कर कोई भी पूछ सकता है कि भाई आप अब तक क्यों लिख रहे हैं?

निशांत जैसे तमाम युवा कवियों के यहां 'काव्यात्मक रियाज' जैसे कोई चीज नहीं है, बस है तो केवल एक गैरजिम्मेदार किस्म की जल्दबाजी। सब कवियों की रचना-प्रक्रियाएं अलग-अलग होती हैं... इस तथ्य में भले ही संशय की कोई गुंजाइश हो, लेकिन यह सामयिक तथ्य एकदम तर्कातीत है कि आज हिंदी के कई युवा कवि 'काव्यरचनाप्रक्रियावंचित' कवि हैं।

यदि आपके जीवनानुभवों से हम कुछ ग्रहण नहीं कर पाते, तो इन्हें काव्य रूप में अभिव्यक्त करने का अर्थ समझ से परे है। तब तो और भी जब ये संदेहास्पद जीवनानुभव अकविता के दौर और उसके बाद उभरे समस्त समर्थ हिंदी कवियों की याद दिलाते हों, साथ ही बारहा यह शक भी होता हो कि क्या वाकई ये कविताएं 2012 में आए एक काव्य संग्रह में संग्रहित हैं।

यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये कविताएं समय की बर्बादी हैं। निशांत जैसे कवियों को यह भी समझना चाहिए कि कविता में 'मैं' अब इतनी लंबी यात्रा कर चुका है कि थक कर बिलकुल चूर है। यहां यह भी गौरतलब है कि इस थकान में वह हिंदी के साठ पार आलोचकों की मानिंद ही गैरजरूरी हो गया है। 

मैं समझाने की लाख कोशिश करता हूं अपने आपको
और हर बार कुछ न कुछ छूट जाता है मेरे हाथ से... 
 ...

मैं मार्क्सवादी हूं
और मैंने पहली बार जाना है
कि पेट से बड़ा तो मार्क्स भी नहीं है
लेकिन क्या करूं थक गया हूं और समझ गया हूं
कि कुछ शब्दों के भरोसे नहीं काटी जा सकती जिंदगी...

'जी हां लिख रहा हूं' से ये ली गईं और ऊपर दी गईं काव्य पंक्तियां ऐसी हैं कि इन्हें उद्धृत करने के लिए इन्हें सुधारना पड़ता है। वहीं- 'एक 'किताब' लिखने से बेहतर है/एक 'लंबी कविता' लिखी जाए/और 'मर' जाया जाए...' जैसी पंक्तियां भी हैं जिनमें आगे कवि कहता है कि उसकी जिंदगी महज तीन शब्दों 'किताब', 'कविता' और 'मरना' से ही चल रही है। यहां अनुभव से ऊपर किताब, विचार से ऊपर कविता और जीवन से ऊपर मृत्यु को आंका गया है। ऐसी काव्य दृष्टि हिंदी के एक युवा कवि के जीवन व काव्यबोध को हास्यास्पद बनाने के लिए पर्याप्त है, इसके बावजूद भी कि 'कबूलनामा' शीर्षक इसी तवील कविता में कवि- 'मोटी-मोटी किताबों को पढ़ने से बेहतर है/पढ़ी जाए जिंदगी की मुकम्मल किताब/और इसके लिए लौटना पड़ेगा/सबसे पहले अपने 'मैं' के पास...' जैसी लाइनें भी ले चुका होता है। इस कबूलनामे का कमबख्त 'मैं' पांच लंबी कविताओं से 'रचे' गए इस दीवाने के दीवान में बेहद लंबा होकर अपने पढ़ने वाले को बेहद ऊबाता है। 
'मैं में हम-हम में मैं' कहने के बावस्फ निशांत के ही हर्फों में कहें तो कह सकते हैं कि इस कवि के पास सिर्फ 'मैं', सिर्फ 'मैं' है।

'नागार्जुन' को समर्पित कविता 'फिलहाल सांप कविता' सामयिक हिंदी कविता समय का अपठनीय रिपोतार्ज है... 'बहुत गर्मी पड़ रही है/जंगल में आग लग गई है/यहां कमरे में कविता मर गई है...' टाइप। इसमें रिपोतार्ज के साथ-साथ गौर से नहीं भी देखने पर पत्र, डायरी, संस्मरण और रेखाचित्र भी नजर आ सकते हैं, लेकिन कविता नहीं। 'दुनिया के सारे कवियों का भविष्य गद्य लेखकों के पास सुरक्षित है...' जैसी 'लाइन' भी इसी कविता में है।

‘कैनवास पर कविता' मशहूर चित्रकारों की पेंटिंग्स देखकर उपजे प्रभावों की कविता सीरीज है। वैसे अगर इस सीरीज की एक-दो कविताओं को त्याग दें, तो इस सीरीज की बाकी कविताओं का चित्रकला या चित्रकारों से कोई खास लेना-देना नहीं है, ये शीर्षक बदलने पर अलग-अलग छोटी कविताएं भी हो सकती थीं, लेकिन तब शायद कवि अमित कल्ला और कुमार अनुपम जैसे कवियों को चित्रकार न बता पाता और यह भी कि वह चित्रकला से ज्यादा चित्रकारों में गहन दिलचस्पी रखता है।

लंबी कविताओं के संग्रह के रूप में प्रचारित इस काव्य संग्रह के भीतर कई खराब लघुकथाएं हैं। वस्तुओं, मित्रताओं, संबंधों, नगरों और प्रेम को लेकर बुनी गई कविताओं में निशांत के कवि की समझ बेहद नाराज करती है।

कवि के पहले कविता संग्रह में मौजूद मध्यवर्गीय अनुभव, नगरबोध, प्रेम, संबंध, लड़कपन, बेरोजगारी से बुना हुआ काव्य संसार कुछ खामियों के बावस्फ अपने सादेपन में भी बेहद प्रभावी है, लेकिन दूसरे संग्रह में यह सादगी एक किस्म की चालाकी में बदल गई है। दूसरे संग्रह के बाद प्रकाशित हुईं निशांत की कविताएं भी बेहद सामान्य प्रभाव वाली हैं, हालांकि अपने काव्य विकास के प्रति छटपटाहट वहां देखी जा सकती है, लेकिन आस्वादक के लिए आश्वस्ति वहां नहीं है। 


हर कविता की तरह हर कविता से अलग 

जैसे सबकी तरह की मेरी नींद सबसे अलग
सबकी तरह का मेरा जागना सबसे अलग
रोज की तरह रहना यहीं पर 
हर रोज की तरह हर रोज से अलग
पर एक कांप अलग होने से जीने का मन नहीं भरता
कोई अंधड़ आए सारे पीले पत्ते झर जाएं पेड़ दिखे अवाक् करता अलग
मनुष्य होने का कुछ तो सुख मिले बसा रहूं मकई के दाने सा भुट्टे में
और खपड़ी में पड़ूं तो फूटूं पुराने दाग लिए मगर बिलकुल अलग

(मनोज कुमार झा के कविता संग्रह ‘तथापि जीवन’ की एक कविता ‘नया’) 


स्वरों को यात्राएं करने के लिए हवाओं की जरूरत होती है। इस तरह ही कुछ ऐसे काव्य स्वर भी होते हैं जिन्हें समझने के लिए भारमुक्त होने की जरूरत होती है। इस यात्रा में अगर ऐसा न किया जाए तब यात्रा का मूल आस्वाद खो जाता है। मनोज कुमार झा की कविताएं आस्वाद के इसी धरातल की कविताएं हैं। ये सामान्य में अलग से सामान्य हैं और असाधारण में अलग से असाधारण। इस तरह ये हर कविता की तरह और हर कविता से अलग हैं। यहां नयापन सायास नहीं है, यह युवा कवि व्योमेश शुक्ल के नएपन की तरह बहुत अध्यवसाय और श्रम से अर्जित किया हुआ भी नहीं लगता है। यह नयापन गहरी दृष्टि और जीवनानुभव से उत्पन्न हुआ है और कवि के काव्य लोक में अनायास विन्यस्त हो गया है। बहुत दार्शनिक या वैचारिक ढंग के साथ बहुत भाषा या बहुत कम भाषा लेकर, इन कविताओं पर समालोचनानुमा कुछ करने में इनकी मूल संवेदना और सौंदर्य की प्रखरता और सत्य के आगे समालोचकीय कर्म के अपाठ्य होकर नष्ट हो जाने का संकट है। ये खुद कहती हैं--

इस तरह न खोलें हमारा अर्थ 
कि जैसे मौसम खोलता है बिवाई 
जिद है तो खोलें ऐसे
कि जैसे भोर खोलता है कंवल की पंखुड़ियां


इन्हें पढ़ते हुए इन पर कुछ नोट्स जरूर लिए जा सकते हैं, लेकिन वे कतई काम नहीं आएंगे जब इन पर समालोचना कर्म में संलग्न होने की नौबत आएगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन पर लिए गए नोट्स ही इनकी वास्तविक समीक्षा होंगे। ये नोट्स आस्वाद के जिस तात्कालिक प्रभाव में उत्पन्न होंगे, वह प्रभाव देने वाली कविताएं इधर की हिंदी कविता में दुर्लभ नजर आएंगी। इस काव्य-लोक में कुछ इस प्रकार की उदात्तता है कि वह कविता में रहने के लिए ज्यादा, उस पर कुछ कहने के लिए कम बाध्य करती है। इसलिए इन पर लिए गए नोट्स के बाहर के समग्र वाक्य कविता के अर्थ को खोलने के लिए नहीं हैं, वे इन नोट्स के जरिए इस काव्य स्वर को समझने की यात्रा में हवा की तरह हैं। इस अर्थ में ये वाक्य अनुपस्थित समझे जाएं और नोट्स उपयोगी। 

आंखें खुलती जाती हैं उस दुनिया की तरफ
जहां सर्वाधिक स्थान छेक रखा है 
जीवन को अगली सांस तक 
पार लगा पाने की इच्छाओं ने 

ये कविताएं सुंदर हैं, क्योंकि ये उन मूल उद्गमों से आई हैं जहां सारी स्थानीयताएं एक सार्वभौमिकता में स्वयं को व्यक्त करती हैं। ये आदर्श भी हो सकती हैं और जीवन भी। ये अपने आस्वादक के तलवों से झुरझुरी के रूप में उठती हैं और उसकी बेचैन आत्मा का एक अंश उसकी आंखों की कोरों से बह उठता है। कविता के अंतिम अक्षर से गुजर चुकने के बाद आस्वादक इधर-उधर देखता है और कुछ क्षण ठहरकर पुन: कविता पर वापस लौट आता है। वह ऐसी ही कविताएं कब से खोज रहा था, लेकिन इनकी दुर्लभता बढ़ती ही जा रही थी। 

मैं अपनी सांस किसी सुदेश को झुकाना चाहता था 
नहीं कि कहीं पारस है जहां मैं होता सोना 
बस, मैं अपना लोहा महसूस करना चाहता था        

निकृष्ट कविताएं संग्रहों में छूट जाती हैं, वे अपने आस्वादक के अंतर में प्रवेश नहीं करतीं, वे आस्वादक के साथ बाहर नहीं आतीं।

पृथ्वी घर है तो और क्या चाहिए किसी को एक घर से                                                       
मगर एक हाथ बढ़ाने में भी लगता है जोर कितना
  
‘तथापि जीवन’ की यात्रा में मनोज कुमार झा की कविताएं अपने आस्वादक के अंतर में प्रवेश पाती हैं, उसके साथ बाहर भी आती हैं। ये संग्रह में ही छूट जाने वाली कविताएं नहीं हैं। प्रस्तुत संग्रह के बाद प्रकाशित हुई कविताएं भी कवि के काव्य विकास के प्रति बेहद आश्वस्त करती हैं, जहां कवि कह रहा है- 

लुप्त होना दृश्य से घर ने सिखाया मुझको 

और यह भी- 

कभी आना इस पार                                                                   
जब कोई राह फूटे                                                                  
देखना तब इन शब्दों की नाभि में कितनी सुगंध है...
 

बिलकुल बदल गया है बिलकुल बदलना 


इस पंक्ति को यदि अतिशयोक्ति न समझा जाए तब यह कहने में कोई उज्र नहीं है कि व्योमेश शुक्ल के पहले कविता संग्रह ‘फिर भी कुछ लोग’ की सारी कविताएं यादगार हैं। इनसे गुजरना एक बेहतर सफर की स्मृति है। ये कविताएं घोषित प्रगतिशीलों और घोषित कलावादियों के बीच से राह बनाती हुई कविताएं हैं। ये अपने कला और वस्तुपक्ष दोनों के प्रति सजग हैं। इस तरह ये एक पैमाना बनती हैं आगामी हिंदी कविता के लिए जिसमें खुद इनके कवि की भी अगली कविताएं शरीक होंगी। इस अर्थ में इन्हें पढ़ना आधुनिक हिंदी कविता के विकास व विस्तार को पढ़ना है। 

स्मृति रशेज की तरह बची रहती है 
विस्मरण उसे एडिट कर डालता है 
फिर असंबद्ध तर्कातीत फ्रेम बचे रहते हैं 
जिनमें कल्पना की मदद से
और स्मृति पर जोर डालने से हम कुछ जोड़ते हैं  


स्मृति इन कविताओं में एक अनिवार्य तत्व है, इतना अनिवार्य की कवि की काव्य पंक्तियों से कवि की स्मृतियों को अलग नहीं किया जा सकता। ऐसा करने पर उनका संप्रेषण समाप्त होगा और वहां जो शेष बचेगा वह केवल कला होगी, वहां जीवन नहीं होगा। यहां अगर रघुवीर सहाय अपनी बहुउद्धृत काव्य पंक्तियों के साथ याद आते हैं, तो यह कोई संयोग नहीं है, बल्कि उद्देश्य है। भाषा का वैभव कैसे स्मृतियों को एक विन्यास में सृजित करता है और कैसे इस विन्यास में सार्वभौमिकता प्रवेश पाती है और कैसे यह सार्वभौमिकता राजनैतिक चेतना संपन्नता के साथ मानवीयता के पक्ष में संवेदित व प्रतिबद्ध होती है, इस प्रक्रिया को समझने के लिए इन कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए।


ये कविताएं इस अर्थ में भी प्रभावी है कि इनमें बहुत सारी कला और भाषा के बावस्फ समयहीनता नहीं समय है।

बाएं से चलने के नियम से ऊबे हुए लोग दाहिने चलने की मुक्ति चाहते हैं बाएं से काफी शिकायत है सबको इस पुराने नियम से होकर वहां नहीं पहुंचा जा सकता जहां पहुंचना अब जरूरी है 


यहां कला बहुत क्यों है इसे इस सरलीकरण से समझा जा सकता है कि व्योमेश की कविता मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय के प्रभाव से कुछ बाहर निकलने की कोशिश में कलावादियों के असर में आ जाती है। वह इस असर से कुछ बच सके इसके लिए विष्णु खरे, विनोद कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल और देवी प्रसाद मिश्र के सामीप्य से भी बहुत कुछ ग्रहण करती है, लेकिन अंतत: वह कलावादियों के तेवरों के भी नजदीक है। ऐसे में इन कविताओं के आस्वादक को कभी-कभी ऐसा भी लग सकता है कि कवि दो कठिन पाटों के बीच पिस रहा है। यह त्रासदी कवि ने खुद क्रिएट नहीं की है। यह कृत्रिम कवियों की देन है। छद्म वैचारिक-विमर्शों के बीच सर्वथा परंपरावंचित और भाषा व शिल्पमुक्त काव्य व्यवहारों से उत्पन्न होकर लगातार सार्वजनिक होती कविता का प्रतिपक्ष रचना भी कवि-कर्म का अनुषंग है।  व्योमेश बेहद सलीके से यह प्रतिपक्ष संभव करने की कोशिश करते हैं। वे इस मायने में उस परंपरा के कवि है जिसके कवि अपने बारे में कोई राय बनाने की छूट नहीं देते। लेकिन व्योमेश के पहले कविता संग्रह के बाद प्रकाशित हुई कविताओं और उसके बाद आए एक काव्यांतराल में लोग उनके बारे में राय बनाने लगे हैं। 

यदि स्मृति के रशेज से फिल्म बनानी है तो नैरंतर्य लाने के लिए 
कल्पना का इस्तेमाल करना होगा नहीं तो
ऊटपटांग दृश्यों का कोलाज बन जाएगा 
जिसे खुद के अलावा कोई समझ नहीं पाएगा 
यह फिल्म बहुत अमूर्त हो जाएगी 
क्योंकि इसके मूर्त दृश्यों का तात्पर्य नहीं होगा 
या उतना ही मूर्त होगी जितना ऊटपटांग में ऊंट        


ऊपर दी गई काव्य पंक्तियों में जहां-जहां ‘फिल्म’ है यदि वहां-वहां ‘कविता’ रखें और फिर इन पंक्तियों को व्योमेश की संग्रह पश्चात प्रकाशित कविताओं के संदर्भ में पढ़ें, तब व्योमेश के बारे में इन दिनों बन रही राय के मंतव्य स्पष्ट होते हैं। व्योमेश की इधर की कविताओं में आए ‘ऊटपटांग’ में कल्पना का हाथ कितना बड़ा है, इस पर फौरी तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसके लिए खुद व्योमेश को एक कल्पनातीत और लंबा अनुच्छेद रचना होगा।

और अंत में ‘मैं’

कल हमारे बच्चे हमसे हमारी कविताओं का अर्थ पूछेंगे                                   
(संजय चतुर्वेदी एक कविता में) 


मैं तार्किकता के आगे नतमस्तक हूं। मैं बहसों में हार जाता हूं। मैं शर्त लगाता हूं और शर्तिया हार जाता हूं। मैं वहीँ बेहतर महसूस करता हूं जहां हार-जीत की कोई गुंजाइश नहीं। यहां इम्बर्तो इको की वह बहुउद्धृत पंक्ति याद आती है कि पराजित नायक अच्छे विचारक हुआ करते हैं। लेकिन मैं विचारक नहीं हूं, मैं तो नायक भी नहीं हूं। व्यंग्यकार शरद जोशी के शब्दों में कहूं तो मैं बगैर कविता के कवि हूं।  इस तरह मैं ‘रचना’ के मूल आस्वाद को पाता हूं। मैं रचना पढ़कर रचना नहीं बन जाता, क्योंकि मैं जानता हूं कि तार्किकता कभी रचना में लीन नहीं हो सकती। ये मेरी ही पंक्तियां हैं--

चुप रहो, बस चुप रहो                                                             
यह रात की धुन है इसे यूं ही बजने दो                                                    
आहिस्ता चलो इस बेला में                                                            
समय को मौन का उपहार दो                                                               
छू सको तो छुओ उसे त्वचा की तरह                                                     
पर चुप रहो                                                                    
तुम्हारी इस चुप्पी में                                                               
दूसरे के अस्तित्व का सम्मान है   


मैं आज का कवि हूं, कल नहीं रहूंगा। मैं उस युवा पीढ़ी का प्रतिनिधि हूं जो कविता में कुछ अचीव करने के लिए कविता नहीं लिखती है, कविता से कुछ अचीव करने के लिए कविता लिखती है। मैं सबसे तुच्छतम अर्थों में खुद के लिए और पुरस्कारों के लिए लिखता हूं। मैं कवि हूं और कविता में गद्य रच रहा हूं। मैं नहीं जानता काव्य पंक्तियों को कहां ब्रेक किया जाए, कहां कॉमा, कहां तीन डॉट्स और कहां पूर्ण विराम देना है... मैं नहीं जानता। कहां कविता को खत्म कर देना चाहिए और कहां से वह शुरू हो तो कुछ बेहतर बनेगी इस संसार में इस संसार के लिए इस संसार की तरह... मैं नहीं जानता। प्रेम कविताएं, पक्षधर कविताएं, वैचारिक-विमर्श वाली कविताएं, आंचलिक शब्दों का आश्रय लेकर अपने स्थानीय परिवेश का छद्म रचने वाली कविताएं, घर-नदी-चिड़िया-बच्चों-सड़कों वाली कविताएं सबकी कलई खुल गई... नई सदी में मैं क्या रचूं मैं नहीं जानता।

मैं जानता हूं मैं जो कविता रच रहा हूं, मेरे सिवाए कोई अन्य उससे हार्दिक तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता। अगर कोई कविता पढ़ना जानता है तो वह यह भी जानता होगा कि एक बेहतर कविता लिखे से ज्यादा अनलिखे में वास करती है। फिर ये प्रवचनात्मकता क्यों है मेरे पड़ोस में और मुझमें भी क्यों है इतना अनलिखा कि जो है लिखा वह भी पढ़े जाने के काबिल नहीं...। यह जानने मैं ‘जरूर जाऊंगा कलकत्ता’ और लौटूंगा नहीं दिल्ली...।

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

समझ लो कि वही ठरकी बुड्ढा हूँ - राजेन्द्र यादव

(ज्योति कुमारी और राजेन्द्र यादव प्रकरण में कुछ बातें और कुछ जवाबदेही इतनी ज़रूरी हो गयीं कि मानो उनके बिना प्रसंग की प्रासंगिकता नहीं बन पाएगी. इन्हीं सब के फेर में 'फेसबुकी तुरत-फुरत विरोध जताऊ' वर्ग ने मामले को ज्योति कुमारी के 'विक्टिम्स स्टेटमेंट' को अंतिम सच मानना शुरू कर दिया. हो भी क्यों नहीं, भारत में पीड़ित से सहानुभूति रखने की परम्परा रही है. ये सही भी है, लेकिन एक-पक्षीय नज़रिया एक ऐसा घातक फ़ैसला है जिससे घटना से जुड़े सभी पक्ष किसी न किसी तरीके से लाभान्वित होते रहते हैं. 'ऐसे में' ज्योति पर कोई आरोप लगाना बेसमय शोर सरीखी बात हो सकती है, लेकिन ज्योति ने राजेन्द्र यादव का चेहरा पूरी तरह से सामने नहीं रखा. ये ज्योति की नादानी है या चालाकी इसका निर्णय पाठक करें, लेकिन कहानीकार अनिल यादव एक गहरी नज़र से मामले को देख रहे हैं.साथ की चित्र-कृति गोया की.)

कोलाहलमय कारस्तानियों पर चुप्पी के खतरे

अनिल यादव



जानता हूं, ज्यादातर लोगों की दिलचस्पी सिर्फ जल्दी से उस वीडियो को देखकर भर्त्सना में छिपी उत्तेजित किलकारी मारते हुए आगे बढ़ लेने में है ताकि प्रधानमंत्री, पड़ोसन, चुनिंदा मॉडलों और धर्माचार्यों के अलग-अलग रस देने वाले अन्य वीडियो देखने के लिए आंखे मुस्तैद रख सकें. फिर भी कभी न कभी मुझे इस व्यापार में पड़ना ही था. तो आज ही क्यों नहीं?

बीती मई में राजेन्द्र यादव से जिन्दगी में पहली बार कायदे से मुलाकात हुई. साल के शुरू में उन्होंने अपनी बेटी रचना के जरिए मेरा ट्रैवलॉग मंगाकर पढ़ा था, पाठकों से उसे पढ़ने की सिफारिश करते हुए प्रशंसा के झाग से उफनाता संपादकीय ‘हंस’ में लिखा था. उससे पहले दुआ सलाम भर थी. उन्होंने दो बार मेरी लंबी कहानी ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ को यह कहते हुए कहानी मानने से ही इनकार कर दिया था कि इसमें कोई नायक नहीं है. मेरा कहना था, नायक समाज में ही नहीं है तो कहानी में जबरदस्ती चला आएगा?

मैने पहले ही शर्त रख दी थी कि मैं आपसे सिर्फ महिला लेखिकाओं और सेक्स व क्रिएटिविटी के बीच के धागों पर बात करना चाहता हूं. वे राजी थे और जरा खुश भी.

मयूर विहार के उनके घर में अभी अंडे की भुजिया से भाप उठ रही थी, पहला पेग हाथ में था, कान भी गरम नहीं हुए थे कि हिन्दी की नई सनसनी ज्योति कुमारी का जिक्र चला आया. पैतृक पृष्ठभूमि, कलही दाम्पत्य, अलगाव, बीमार विचार का डिक्टेशन, बेस्ट सेलर लेखिका, नामवर सिंह की समीक्षा, महत्वाकांक्षा वगैरा से ऊबा डालने की सीमा पर (मैं पहले कुछ पुरानी लेखिकाओं के बारे में सुनना चाहता था) उन्होंने कहा, उसके बिना अब मेरा काम नहीं चलता. उस पर बहुत निर्भर हो गया हूं. सोती बहुत है. मैं ही रोज फोन करके जगाता हूं.

‘अच्छी लड़की है’...उन्होंने गर्व से कहा. उसके बिना मैं अब कुछ नहीं कर पाता.

मैने सुना...मेरे अनुकूल लड़की है. इन दिनों जीवन में जो अच्छा है उसी की वजह से है.

‘अब तो शरीर निष्क्रिय हो चुका होगा. आप क्या कर पाते होंगे’.

‘तुम्हारा क्या मतलब है?’ उन्होंने मुझे मोटे लेंसों के कारण और बड़ी दिखती, थकी आंखों से मुझे घूरा.

‘ये तो कोई चमत्कार ही होगा कि आप इस उम्र में भी सेक्सुअली एक्टिव होंगे.’

मन नहीं मानता... उन्होंने कुर्ते के गले के ऊपर ऊपर बेचैनी से पंजा हिलाते हुए कहा, ‘कभी सीने से चिपका विपका लिया, सहला दिया. और क्या होना है.’

‘गिल्ट फील नहीं होता आपको?’

‘नहीं तो. क्यों होगा. मैं जबरदस्ती नहीं करता. किसी को ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं करता.’

‘मन्नू जी से बात होती है.’

‘उससे...आज ही हुई थी. बायोडाटा का सही अनुवाद क्या होगा. इस पर हम दोनों देर तक माथापच्ची करते रहे.’

थोड़ा ठहर कर  गिलास को देखते हुए सहज भाव से उन्होंने कहा, ‘पंजाबी में एक शब्द है ठरक. सुना है कभी.’

फिर मुझे देखा, ‘समझ लो कि वही ठरकी बुड्ढा हूं.’

‘हमारे यहां भोजपुरी में इसका पैरेलल है ‘हिरिस’. ऐसी दुर्निवार कामना जो कहते हैं कि कपाल क्रिया के बाद भी खोपड़ी में बची रहती है.’
*
अस्मिता बचाने के साहसिक अभियान पर निकली ज्योति कुमारी सबको बता रही हैं कि राजेंद्र यादव उन्हें बेटी की तरह मानते थे. और इसके अलावा कोई रिश्ता नहीं था. वह ऐसा करके एक कल्पित नायिका स्टेटस और शुचिता की उछाल पाने के लिए एक संबंध और अपने जीवन को ही मैन्यूपुलेट कर रही हैं. वह उस असल तथ्य को ही झूठ के नीचे दफन कर दे रही हैं जो वीडियो बनाने, ब्लैकमेल की कोशिश, झगड़ा, कपड़े फटने और प्रमोद नामक युवा के जेल जाने की वजह है. यह अस्वाभाविक नहीं है कि लोग मानते हैं कि एक कहानीकार के तौर खुद को धूमधड़ाके से प्रचारित करने के लिए उन्होंने ऐसा ही एक और मैन्यूपुलेशन किया होगा. दूसरी ओर राजेंद्र यादव एक बमुश्किल परिचित आदमी के सामने खुद को ठरकी बुड्ढा कहते हुए ज्योति के साथ अपनी अंतरंगता को स्वीकार करते हैं. इस पेंचीदगी और खुलेपन के बीच एक बड़ा समकालीन सच फंसा हुआ है.
*
ज्योति कुमारी अकेली नहीं हैं. हमारे बौद्धिक तबके द्वारा उपलब्ध कराया जीवन का पुराना मॉडल यही है. हिन्दी का विचारक, लेखक, बुद्धिजीवी ऐसे जीता है जैसे बेचारा जन्मते ही बधिया कर दिया गया हो. जो यौन आवेग उसके मन और शरीर के सबसे अधिक स्पेस में दनदनाते रहते हैं और उसका रोजमर्रा का व्यवहार निर्धारित करते हैं वही लेखन और वक्तव्यों से नदारद हो जाते हैं. यह ऑटो सेन्सर है जिसका काम हर तरह के खतरे से सुरक्षित रखना और भली छवि के साथ कल्पित कीर्ति दिलाना है. वह अपनी रचनाओं में एक अधकचरा, लिजलिजा जीवन प्रस्तुत करता है जो दरअसल कहीं होता ही नहीं. इसीलिए पाठक उसकी ओर आंख उठाकर देखता भी नहीं क्योंकि वह कहीं अधिक मुकम्मल जीवन को भोग रहा होता है.

जिस देश में सेक्स के मंदिर हों, शास्त्र सम्मत चौरासी आसन हों, कामसूत्र हो, कालिदास जैसा कवि हुआ हो, सर्वाधिक प्रकार के विवाहों और संतानोत्पत्ति के प्रयोगों का अतीत हो वहां के लेखक की सांस शरीर के अंगों, चुंबन, हस्तमैथुन, सोडोमी के जिक्र से उखड़ने लगती है. वह आतंकित होकर कलम फेंक देता है. साहित्य की एक नकली भाषा ईजाद की गई है जिसमें वे गालियां तक नहीं है (मंटो, इस्मत चुगताई, उग्र, काशीनाथ सिंह, राजकमल चौधरी जैसे कुछ अपवाद भी हैं) जिन्हें घरों, खेतों, सड़कों पर सुनते हुए हर भारतीय बच्चा बड़ा होता है. हमारे लेखक की हालत हिन्दी भाषी देहाती महिला से भी गई बीती है जो स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर के सामने समझ ही नहीं पाती कि अपनी समस्या कैसे कहे. पूछा जाना चाहिए कि बातूनी होने के लिए निन्दित हिन्दी पट्टी की महिला के अंतर को किसने लकवाग्रस्त कर डाला है?

ज्योति कुमारी और बुद्धिजीवी ही नहीं पूरे हिन्दी समाज में शरीर, सेक्सुअलिटी समेत हर ऐसी चीज के आसपास चुप्पी से गूंजता हुआ ब्लैकहोल है जिसे कहने के लायक नहीं समझा जाता है. पूजा पंडाल, संतों के प्रवचनस्थल, मंदिर, बस, ट्रेन या किसी भी भीड़ वाली जगह पर एक बिडंबना को मंचित होते देखा जा सकता है. पुरूष शातिर चोरों की तरह औरतों को टटोलते, मसलते रहते हैं, औरतें बुत की तरह अनजान बनी खड़ी रहती हैं क्योंकि जो चल रहा है उसके बारे में बात करने का रिवाज नहीं है. शारीरिक जरूरतें अदम्य हैं लेकिन उन पर समाज गूंगा है लिहाजा वे पूरा होने के लिए ताकत, तिकड़म, प्रलोभन के आदिम, बर्बर, निःशब्द रास्ते खोजती हैं. यह चुप्पी ही वह जगह है जहां औरतों पर सेक्सुअल हमलों, बलात्कार, योजनाबद्ध यौनशोषण के समीकरण बनाए और अमल में लाए जाते हैं। अगर सेक्सुअलिटी की अभियक्ति हमारे जीवन का हिस्सा होती तो शायद किसी महिला या पुरूष के साथ जोर जबर्दस्ती की स्थितियां ही नहीं बनतीं. सबसे पहले तो यही होता कि हम सिनेमा के परदे पर बलात्कार से कामुक उत्तेजना की खुराक खींचना बंद कर देते.

देर सबेर युवाओं को समाज और हिंदी साहित्य में सेक्सुअलिटी पर एक दिन खुलकर बात करनी ही पड़ेगी क्योंकि बलात्कार, शोषण और यौन हमले असंख्य सुराखों वाले हमारे जर्जर लोकतंत्र में कानून और पुलिस के रोके रूकने वाले नहीं हैं. यौन अपराधों को रोकने वाले खुद यौन हिंसा के अलावा और कोई तरीका नहीं जानते. अभी तो पुलिस वाले समलैंगिकों से बलात्कार और बलात्कारियों की गुदा में पेट्रोल टपकाने और उत्पीड़ित महिलाओं से बलात्कार का पुनर्मंचन कराने में ही व्यस्त हैं. मिशेल फूको ने किसी और से अधिक हिन्दी की सबसे नई पीढ़ी से ही कहा था- एक रोज लोग ये सवाल पूछेंगे कि अपनी सबसे कोलाहलमय कारस्तानियों पर छायी चुप्पी को बनाए ऱखने पर हम इतने आमादा क्यों हैं?
*
इसमें कोई शक नहीं राजेन्द्र यादव हिन्दी के अकेले संपादक हैं जिन्होंने महिलाओं, दलितों की फुसफुसाहटों को मुखर बनाने के साथ ही इस चुप्पी को तोड़ने के सर्वाधिक साहसिक प्रयोग किए हैं और उसकी कीमत भी चुकाई है. उनके बनाए कई वीर बालक और बालिकाएं हैं जो सीमाएं तोड़ने के संतोष और निन्दा के अभिशाप के बीच आगे का रस्ता खोज रहे हैं.

लेकिन उनका कसूर यह है अपनी ठरक को सेक्सुअल प्लेजर तक पहुंचाने की लालसा में उन्होंने आलोचकों (जिसमें नामवर सिंह भी शामिल हैं), प्रकाशकों, समीक्षकों की मंडली बनाकर ढेरों अनुपस्थित प्रतिभाओं के अनुसंधान का नाटक किया, चेलियां बनाईं और साहित्य के बाजार में उत्पात मचाने के लिए छोड़ दिया जो खुद उन्हें भी अपने करतबों से चकित कर रही हैं. जनपक्षधरता, नाकाबिले बयान समझी जाने वाली चीजों को व्यक्त करने के प्रयोगों, डेमोक्रेटिक टेम्परामेन्ट, लेखकीय ईमानदारी और लगभग बिना संसाधनों के जनचेतना को प्रगतिशील बनाने की कोशिशों का क्या यही हासिल होना था. ऐसा क्यों हुआ कि विवेक के फिल्टर से जो कुछ जीवन भर निथारा उसे अनियंत्रित सीत्कार और कराहों के साथ मुंह से स्खलित हवा में उड़ जाने दिया. अगर वे मूल्य इतने ही हल्के थे तो राजेंद्र यादव को हंस निकालने की क्या जरूरत थी किसी सांड़ की तरह यौनेच्छाओं की पूर्ति करते और मस्त रहते. जिस तरह आसाराम बापू नामक संत से अनपेक्षित था था कि वह समस्याग्रस्त भक्तिनों को सेक्स के लिए फुसलाएगा और धमकाएगा वैसे ही हंस के संपादक से भी उम्मीद नहीं थी कि वह किसी लड़की को दाबने-भींचने के लिए जीवन भर की अर्जित विश्वसनीयता, संबंधों और पत्रिका की सर्कुलेशन पॉवर को सेक्सुअल प्लेजर के चारे की तरह इस्तेमाल करने लगेगा. ज्योति कुमारी का महत्वाकांक्षी होना अपराध नहीं था लेकिन उन्होंने इसे उसकी कमजोरी की तरह देखा, उसे साहित्य का सितारा बनाने के प्रलोभन दिए और उसका इस्तेमाल किया. अब भी राजेन्द्र यादव को पिता बताकर ज्योति कुमारी उनकी मदद ही कर रही हैं. अगर वाकई उन्हें स्त्री अस्मिता के लिए लड़ना है तो पहले वात्सल्य और कामुकता में फर्क को स्वीकार करना पड़ेगा. वरना इस समाज को तो देवी और देवदासी, बहन और प्रेमिका, सेक्रेट्री और रखैल के बीच के धुंधलके में चलने वाले खेलों से मिलने वाली उत्तेजना पर जीने की आदत पड़ चुकी है.

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

अनिल यादव के कहानी संग्रह से गुज़रकर

(यूँ तो अनिल यादव का कहानी संग्रह किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है और ना ही नया है...लेकिन रीडर्स प्लीज़र भी कोई चीज़ होती है भाई. इसी रीडर्स प्लीज़र की आड़ में बुद्धू-बक्सा आपके सामने कहानी संग्रह 'नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं' की इसी शीर्षक की कहानी का एक बेहद मार्मिक अंश आपसे साझा कर रहा है. ये कहानी इसलिए ज़रूरी है क्योंकि ये वहीं से निकलती है, जहाँ से सृष्टि का निर्माण होता है और जिसके भीतर हर पौरुष-पुरुष की परिणति सिमटी होती है, जहाँ से हम सब का जन्म-निर्माण-उत्थान प्रकाश पाता है. इस महिला-महिला कोलाहल से सिक्त देशकाल में इतनी जगह तो बची ही है कि फांसी और जनदनाशन जैसी कठिन और बर्बर मांगों के बीच एक कहानी का हिस्सा पढ़ा जा सके, जहाँ थोड़ी सी चेष्टा और थोड़ा साहस बरकरार है, जहाँ एक सच भी छिपा हुआ है और गल्प की परेशानियां भी हैं. जिन्होंने इस कहानी संग्रह को अभी तक नहीं पढ़ा है, वे नई-युवा कहानी के एकदम नए नज़रिए को जानने-समझने के लिए इसे पढ़ सकते हैं. बुद्धू-बक्सा अनिल यादव का आभारी, और ये आशा कि वे और ज़्यादा पक्के और मजबूत कामों के साथ आते रहेंगे. संचालन की अनियमितता के लिए बुद्धू-बक्सा क्षमाप्रार्थी है.)


रंडियाँ... रंडियाँ... देखो, रंडियाँ

लेकिन वे किसी को देख नहीं रही थीं! उनकी आँखों में भीड़ से घिरे जानवर के भय की परछाई थी और रह-रहकर गुस्सा भभक जाता था. लड़ेंगे... जीतेंगे, लड़ेंगे... जीतेंगे वे किसी का सिखाया हुआ, अजीब सा नारा लगा रही थीं जिसका उनकी ज़िंदगी और हुलिए से कोई मेल नहीं था. ज़्यादातर औरतें बीमार, उदास और थकी हुई लग रही थीं. मामूली साड़ियों से निकले प्लास्टिक की चप्पलों वाले पैर संकोच के साथ इधर-उधर पड़ रहे थे मानो सड़क में अदृश्य गड्ढे हों, जिनमें गिरकर समा जाने का ख़तरा था. बच्चे और कुत्ते भी सहमे हुए थे. नारे लगाते वक्त उठने वाले हाथों में भी लय नहीं झिझक और बेतरतीबी थी. लेकिन उनकी चिंचियाती, भर्राई आवाज़ों में कुछ ऐसा मार्मिक ज़रूर था जो रह-रहकर कचोट जाता था. उनके साथ-साथ सड़कों के किनारे-किनारे लोग भी गरदनें मोड़े चलने लगे.

लोगों के घूरने से घबराकर गले में हारमोनियम और ढोलक लटकाए साजिंदों ने तान छेड़ी और वे चौराहों पर रुक-रूक कर नाचने लगीं. झिझकते, नाचते-गाते यह विशाल जुलूस जब कचहरी में दाखिल हुआ तो वहाँ भी सनसनी फ़ैल गई.

वे नारे लगाती कलेक्टर के दफ़्तर के सामने के बरामदे और सड़क पर धरने पर बैठीं. चारों ओर तमाशबीनों का घेरा बन गया. जल्दी ही वकील, मुवक्किल, पुलिसवाले और कर्मचारी कागज़ की पर्चियों पर गानों की फरमाईशें लिखकर उन पर फेंकने और नोट दिखाने लगे. कुछ ढीठ किस्म के वकील हाथों से मोर और नागिन बनाकर भीड़ में बैठी कम उमर की लड़कियों को नाचने के लिए इशारे करने लगे. वेश्याओं ने उनकी ओर बिलकुल ध्यान नहीं दिया, वे अपने बच्चों को संभालती नारे लगाती बैठी रहीं.

दो-ढाई घण्टे बाद जिलाधिकारी के भेजे प्रोबेशन अधिकारी ने आकर कहा कि विभाग के पास वेश्याओं के पुनर्वास के लिए कोई फंड और योजना नहीं है. इसके लिए केन्द्र और राज्य सरकार को लिखा गया है. उनकी मांगें सभी सम्बंधित पक्षों तक पहुंचा दी जाएंगी. नारी संरक्षण गृह में इतनी जगह नहीं है कि सभी को रखा जा सके. ज़िलाधिकारी ने आश्वासन दिया है कि अगर वे धंधा नहीं करें तो अपने घरों में रह सकती हैं, उनके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं की जाएगी.

ज़िलाधिकारी ने राहत फंड की उपलब्धता जानने के लिए समाज कल्याण अधिकारी को बुलावा भेजा था, लेकिन पता चला कि वे इन दिनों जेल में हैं. उनके विभाग के क्लर्कों और स्कूलों के प्रधानाचार्यों ने मिलकर हज़ारों दलित छात्रों के नाम से फर्ज़ी खाते खोल उनके वजीफे हड़प लिए थे. मामले का भंडा फूटने के बाद कल्याण विभाग पर इन दिनों ताला लटक रहा था.

भीड़ में से एक बुढ़िया प्रोबेशन अधिकारी के आगे अपनी मैली धोती का आँचल फैलाकर खड़ी हो गई और भर्राई आवाज़ में कहने लगी... ‘जब तक जवानी रही सरकार आप सब लोगन की सेवा किया. ऊपर वाले ने जैसा रखा, रह लिए. अब बुढ़ापा है. सरकार उजाड़ीए मत! कहाँ जाएंगे, कहीं ठौर नहीं है.’ वेश्याएं हंसने लगी, बुढ़िया प्रोबेशन अधिकारी को ही कलेक्टर समझकर फ़रियाद कर रही थी. बुढ़िया बोले जा रही थी, ‘जब तक जवानी रही आपकी सेवा किया सरकार.’ तमाशबीन भी हंसने लगे. प्रोबेशन अधिकारी के चेहरे का रंग उतर गया. वह जल्दी से कुछ बोलकर मुड़ा और अंग्रेजों के जमाने की कचहरी के बरामदे के विशाल खम्भों के पीछे अदृश्य हो गया. 


(इसके बाद ब्रह्मचारी बटुकों और साधुओं ने सामाजिक पर्यावरण की शुद्धि के लिए आटे से वेश्याओं के पुतले बनाकर उन्हें सिन्दूर-रोरी, चन्दन और कच्चे सूत से सजाकर हवन-कुण्ड में स्वाहा किया.)

सोमवार, 26 अगस्त 2013

साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार २०१३ पर अविनाश मिश्र

(साहित्य अकादमी का बहुप्रतीक्षित और अपने पुराने फैसलों में विवादास्पद 'युवा पुरस्कार' अभी दो रोज़ पहले ही अर्चना भैंसारे को देने की घोषणा हुई. इसके साथ ही 'माफ़ करिये, कभी नाम नहीं सुना'. 'कभी पढ़ा नहीं', 'कभी नज़र के सामने से गयी नहीं' को समेटे हुए पुरस्कार की बधाई भी दी गयी. मेरे और अविनाश सहित कुछेक लोगों पर यह आरोप लगे कि हमने इस पुरस्कार को एक युवा कथाकार को मिलने देने से रोका है. इसके साथ यह अंदाज़ लगाना ज़रूरी बन जाता है कि क्या अकादमी एक पुरस्कार का निर्णय एक अनुमान के आधार पर करती है? या अमुक कथाकार का कैनन क्या इतना कमज़ोर है कि उसे बस एक अनुमान के आधार पर काट दिया जाता है? रूपकों की बात क्या है? बात कहीं किसी से छिपी नहीं होगी. सभी रूपकों के तह खोल दिए गए हैं, चाहे वह 'कुत्ता' हो या 'हाथी' हो. बुद्धू-बक्सा इस लेख के लिए अविनाश का आभारी. हालांकि यह कोई स्टिंग नहीं है, लेकिन रहस्योद्घाटन तो है ही. इसी के साथ बुद्धू-बक्सा अपने साथियों-पाठकों से अनुरोध करता है या उन्हें आगाह करता है कि वे पुरस्कारों के लिए नहीं, रचने के लिए लिखें.)

सचमुच वे हत्यारे मेरे अपने थे बहुत 
अविनाश मिश्र 

माफ करना मेरे दोस्त
कि हम तुम बंधे हैं नियमों से 
इतना कि जब कभी टूट जाता है 
एक भी नियम अनजाने में 
तब, और भी ज्यादा पैनी हो जाती हैं 
लोगों की नजरें... 

युवा साहित्य अकादमी सम्मान-2013 घोषित हो चुका है। जैसी ‘भविष्यवाणियां’ और अनुमान थे उन्हें एकदम गलत सिद्ध करते हुए इस वर्ष यह सम्मान युवा कवयित्री अर्चना भैंसारे को उनके 2009 में प्रकाशित हुए कविता संग्रह ‘कुछ बूढ़ी उदास औरतें’ के लिए प्रदान किया गया है। यह दिलचस्प है कि इस घोषणा के बाद बहुत सारे लिखने-पढ़ने वाले लोगों ने इस नाम को अनसुना बताया। यहां बताते चलें कि यह नाम इतना भी ‘अनसुना’ नहीं है। अर्चना की कविताएं नया ज्ञानोदय, वसुधा, वागर्थ, साक्षात्कार, रचना समय, सर्वनाम, कृति ओर और सूत्र जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित और प्रशंसित हो चुकी हैं। 

पुरस्कृत संग्रह की कविताएं अपने सपाटपन के बावजूद इस अर्थ में सामयिक युवा हिंदी कविता और कहानी से अलग दिखती हैं कि इनमें कोई उलझाव नहीं है। यह अपनी कहन में बेहद प्रभावी हैं। इनमें भाषा का खेल न होकर कथ्य का उजलापन है। इन कविताओं की सहजता, सजगता और सादगी ने इस वर्ष के साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार के निर्णायकों को कैसे प्रभावित किया इस पर कुछ अनुच्छेदों के बाद आएंगे। पहले कुछ काव्य पंक्तियां-

तुम्हें फूलदान में ही सजा रहना चाहिए
यह जो तुम उचक-उचककर 
खिड़की से बगीचा देखती हो
यह तुम्हारे लिए नहीं है 

तुम्हें रखा गया है इसलिए कि महकाती रहो कमरा 
पर तुम बाज ही नहीं आतीं 
फैल जाने से यहां-वहां 
भरपूर रोशनी के लिए 
सिर पर जला छोड़ा है ट्यूब लाइट...
दिया जाता है जार से भरपूर पानी 
पर तुम हो कि निकाल ही लेती हो गर्दन 
खिड़की के बाहर 
खींच लेने को बेहिसाब हवा  

यकीनन अर्चना भैंसारे की कविताएं सामान्य होने का एहसास देती हैं, लेकिन ये औसत नहीं हैं। यहां सामान्य होना एक अनायास कर्म की तरह है जिसे बाद में एक सायास दृष्टि से देखकर भी सामान्य ही छोड़ दिया गया है, इस सदिच्छा के साथ कि इसे इस रूप में ही समझा जाए और इस यकीन के साथ कि इस रूप में ही यह ज्यादा प्रभावी, बेहतर और संप्रेषित है। अर्चना के ही शब्दों में कहें तब कह सकते हैं कि ‘शब्दों के अभाव में नहीं पूरी हो रही कविता’ को यहां पूरा करने के लिए अधूरा ही छोड़ दिया गया है। यह कविता अपने आस्वादक से यह मांग करती है कि वह इन्हें इनके अधूरेपन में ही पूरा समझे। 

नसीहतों का हर लम्हा 
मेरी डायरी में मौजूद है 

पर याद नहीं आता वह क्षण 
जब थपथपाई गई हो 
मेरी 
पीठ 
कभी... 

ये पंक्तियां रचने वाली कवयित्री के जीवन में अब वह क्षण आ गया है जब उसकी पीठ थपथपाई जा रही है। नसीहतों के सब लम्हें पीछे छूट चुके है, अब संभवत: नई नसीहतों का दौर शुरू हो। यह सचमुच सुखद है कि हिंदी के प्रतिष्ठित और प्रचलित युवा स्वरों को छोड़कर एक ऐसे स्वर को तरजीह दी गई है, जिसकी चर्चा का शोर होते ही उसके अनसुने होने का खेद प्रकट किया जाने लगा। कवयित्री की पीठ इसलिए भी थपथपाई जानी चाहिए कि उसने केवल अपनी कविता से तीन में दो निर्णायकों को प्रभावित किया। हालांकि कुछ कुढ़न के मारे साहित्यिक समाजवादी इस घोषणा के सूत्र, स्रोत और संपर्क भारत भवन, भोपाल, मध्य प्रदेश में खोज रहे हैं।  

चाहकर भी कभी जुटा नहीं पाती 
दृढ़ हो जाने का साहस 
और ताकती रहती हूं उस तम को 
जिसका आधार सघन अंधेरा है

अब और दृढ़ होना होगा मुझे 
ताकि पा सकूं 
प्रकाश का मार्ग ठीक से...

तीन में से जिन दो निर्णायकों को अर्चना की कविताओं ने प्रभावित किया उनके नाम और उस परिस्थिति को यहां उजागर करने से पहले जरूरी है कि साहित्य अकादमी युवा सम्मान से जुड़ी हुई एक अफवाह और एक भ्रम को दूर कर लिया जाए। निर्णायक समिति की बैठक के दौरान एक निर्णायक का सेल फोन बार-बार बज रहा था। ऐसी एक अफवाह ही है कि इसके पीछे एक ऐसे युवा कहानीकार की उंगलियां हैं जिसका कहानी संग्रह निर्णायकों ने इस पुरस्कार के लिए ‘नकार’ दिया। एक भ्रम यह है कि इस सम्मान के लिए अपनी किताब लेखक को खुद ही भेजनी होती है, वह भी एक ऐसे स्व-रचित निबंध के साथ जिसमें आपकी किताब में क्या-क्या है यह बताया गया हो। कुछ रचनाकारों का मानना है कि इस तरह सम्मानित होना अपमानित होने जैसा है, लेकिन यहां इस भ्रम को दूर करें, क्योंकि ऐसा कुछ नहीं है। इस सम्मान के लिए पहले कुछ ऐसी किताबों को ग्राउंड लिस्ट किया जाता है जिनके रचनाकार की उम्र दिए जाने वाले पुरस्कार के वर्ष की एक जनवरी तक 35 वर्ष हो, किताब किसी भी वर्ष प्रकाशित हुई हो इससे फर्क नहीं पड़ता। बाद में ग्राउंड लिस्ट किताबों में से कुछ किताबों को शार्ट लिस्ट किया जाता है। इसके बाद ज्यूरी निर्णय देकर किसी एक किताब को सम्मान के लिए चुनती है। यह पूरी प्रक्रिया ऐसा कहा जाता है कि ‘जानकार’ लोगों की देख-रेख में घटित होती है। बावजूद इसके यह समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे इस पुरस्कार को इस बार तय तिथि से चार महीने पहले घोषित कर दिया गया। यहां आकर अफवाहें और भ्रम नए सिरे से जन्म लेते हैं...। इन्हें दूर करना फिलहाल मुश्किल है।      

इस वर्ष नौ किताबों को शार्ट लिस्ट किया गया, लेकिन अंतत: वे आठ ही रह गईं क्योंकि ‘आलाप में गिरह’ के कवि गीत चतुर्वेदी 27 नवंबर 2012 को जीवन के 35 वसंत पूरे कर चुके हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि वे एक महीना चार दिन के फासले से चूक गए। शेष आठ किताबों में चंदन पांडेय का कहानी संग्रह ‘भूलना’, विमल चंद्र पांडेय का कहानी संग्रह ‘डर’, इंदिरा दांगी का कहानी संग्रह ‘बारहसिंहा का भूत’, कुमार अनुपम का साहित्य अकादमी से ही प्रकाशित कविता संग्रह ‘बारिश मेरा घर है’, निशांत का कविता संग्रह ‘जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा’, प्रदीप जिलवाने का कविता संग्रह ‘जहां भी हो जरा-सी संभावना’, अच्युतानंद मिश्र का कविता संग्रह ‘आंख में तिनका’ और अर्चना भैंसारे का कविता संग्रह ‘कुछ बूढ़ी उदास औरतें’ शामिल थीं।

...और अब अंत में तीन निर्णायकों और उस ‘परिस्थिति के बारे में एक चर्चा’-

भारत भारद्वाज : मैं चंदन पांडेय के कहानी संग्रह ‘भूलना’ का नाम प्रस्तावित करता हूं। 

रामदरश मिश्र : मैं इससे सहमत नहीं हूं। चंदन की कहानियां बहुत अमूर्त हैं, मुझे समझ में नहीं आतीं।

हरिमोहन (दिल्ली विश्वविद्यालय वाले नहीं, आगरा के के.एम. मुंशी संस्थान के निदेशक जो इससे पहले गढ़वाल विश्वविद्यालय में थे।) : मेरी भी कुछ ऐसी ही राय है। 

भारत भारद्वाज : विमल चंद्र पांडेय ?

रामदरश मिश्र : इसकी कहानियां भी वैसी ही हैं, अमूर्त और न समझ में आने वालीं। 

भारत भारद्वाज : कुमार अनुपम ?

रामदरश मिश्र : मैं बताता हूं- अर्चना भैंसारे। इसकी कविताएं बहुत अच्छी और अलग हैं।

भारत भारद्वाज : मैं इस नाम पर असहमत हूं। 

हरिमोहन : मुझे लगता है यह नाम ठीक है। 

भारत भारद्वाज : आप लोगों को पूरी हिंदी पट्टी देख रही है। सोच-समझकर निर्णय दीजिए।

हरिमोहन : सर, (रामदरश मिश्र) नोट लिख दिया जाए।

रामदरश मिश्र : हां। 

हरिमोहन : आप बोल दीजिए, मैं लिख देता हूं।

रामदरश मिश्र : लिखो, अर्चना भैंसारे की कविताएं बेहद सहज हैं। ( इसके बाद के तीन वाक्यों में छह बार ‘सहज’ आता है।)

हरिमोहन : सर, थोड़ा स्त्री-संघर्ष वाला भी लिख दें। 

रामदरश मिश्र : हां... हां..., लिखिए, इन कविताओं में स्त्री-संघर्ष अलग से रेखांकित किए जाने योग्य है। 

भारत भारद्वाज : मैं असहमति मैं दस्तखत करता हूं और अध्यक्ष से दरख्वास्त करता हूं ऐसी बैठकों की वीडियो रिकार्डिंग कराई जानी चाहिए, ताकि साहित्य अकादमी के निर्णयों की विश्वसनीयता और पारदर्शिता बनी रहे...। 

(‘परिस्थिति के बारे में एक चर्चा’ एक निर्णायक के मुख से सुनी गई आपबीती पर आधारित है, प्रामाणिकता जांच लें। इस टिप्पणी का शीर्षक और इसमें प्रयुक्त काव्य-पंक्तियां अर्चना भैंसारे के कविता संग्रह ‘कुछ बूढ़ी उदास औरतें’ से ली गई हैं )