मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

लड़ाई लम्बी है, लेकिन लड़नी तो है ही - वरुण ग्रोवर

[हालाँकि, यह एक ग्लैमरस किस्म की पोस्ट है लेकिन यह एक भारतीय सिनेमा के नए दौर की एक ज़रूरी पहल है. एक नया लड़का नौकरी के बहाने मुम्बई जाता है, नौकरी करता भी है लेकिन कुछ दिनों के बाद नौकरी से बचाए पैसों से मुम्बई में लिखने-पढ़ने की ज़द्दोजहद करने लगता है. कुछ दिन बिना पैसों के काम करता है और फ़िर वह 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' के गाने लिख डालता है. इस पूरी प्रक्रिया में वह हिन्दी सिनेमा के पीछे का सच बहुत अच्छे से जान जाता है और उन्हें संजो कर सेंसरशिप के खिलाफ़ लड़ाई में उतर जाता है. लड़का है कहानीकार, कॉमेडियन और गीतकार वरुण ग्रोवर. आगे है बी.एच.यू. के आई.टी. गेस्ट हाऊस में यूँ ही किसी दोपहर हुई बातचीत. पहले डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में प्रकाशित]

वरुण ग्रोवर से सिद्धान्त मोहन तिवारी की बातचीत

आजकल क्या चल रहा है?
क्या चल रहा है!! आजकल एक नई फ़िल्म लिख रहा हूँ, उसी पर रिसर्च के सिलसिले में बनारस आना-जाना हो रहा है. अभी तो सिर्फ़ कहानी सामने आ रही है, उस पर स्क्रिप्ट लिखना बाक़ी है. बॉलीवुड में फ़िल्मों का हिसाब बड़ा जटिल है, हर साल सौ फ़िल्में बनना चाहती हैं तो उनमें से ५-६ ही सामने आ पाती हैं. मैं ऐसी पचास फ़िल्मों के बारे में बात कर रहा हूँ, जिन पर असल में काम हुआ है, जिनकी कहानी लिखी गई है और जो प्रोड्यूसर और कलाकार तक जा चुकी है. नहीं तो खयाली तरीके से मैं अभी तक पचास फ़िल्में दिमाग में ही बना चुका होता. मेरी अपनी जो समझ है और जो मेरा हिसाब है उस हिसाब से बनी और देखी गई फ़िल्मों का यही अनुपात होता है. अब आप खोसला का घोसला जैसी फ़िल्म को ही ले लीजिए, बनने के बाद यह चार-पाँच साल तक पड़ी रही. अब आप देखिए कि उस फ़िल्म में ऐसा कुछ नहीं है जिस वजह से उसे रोका जाए, लेकिन उन लोगों को लगा होगा तो उन्होनें रोक दिया. इस जेब से उस जेब भटकने के बाद यूटीवी मूवीज़ ने इसे दिखाया. अब इस लिहाज़ से यह एकदम सम्भव है कि कईयों के पास ऐसी कई “खोसला का घोसला” पड़ी हो. अभी ‘आई एम् ट्वेंटी फोर’ आई है जो तीन साल से पड़ी थी. और एक अभी ‘टेन एमएल लव’ है जो ओसियान में दिखाई गई थी, उसे भी इसी तरीके से तीन साल लग गए. और ऐसी फ़िल्मों को रिलीज़ करना भी बेमानी है. बाक़ी दो-तीन फ़िल्मों के गीत भी लिखे हैं. ‘पेडलर्स’ और ‘प्राग’ ये दोनों फ़िल्में कुछ समय में आ जाएँगी.

सेंसरशिप कितना ज़रूरी है?
मेरे ख़याल से सेंसरशिप तो बिलकुल ही ज़रूरी नहीं है. इस मामले में मैं अपने आपको बेहद रैडिकल मानता हूँ. ये रत्ती भर भी नहीं होना चाहिए, इसे बेहद प्रैक्टिकल नज़रिया मान सकते हैं, लेकिन ऐसा एकदम होना चाहिए. विदेशों में लड़का-लड़की साथ में घूमते हैं, एक दूसरे को सड़कों पर खुले-आम चूमते हैं, लेकिन उनकी तरफ़ ध्यान देने वाला कोई नहीं है. उन जगहों पर यह कल्चर उगा है, लेकिन हमारे यहाँ इस किस्म का कल्चर जहाज से गिराया गया है. आज की तारीख में उगाना बड़ा कठिन है, उसे गिराना ज़्यादा आसान और सही है. उगाने की लड़ाई बेहद लम्बी है और कोई जल्दी नहीं चाहता कि एक चीज़ जो उगाई जा रही है, पककर थाली में आये उसे सही तरीके से जल्दी की भूख होती है. असल में हमारे यहाँ के कल्चरल ठेकेदार उगने-उगाने के लिए ज़मीन छोड़ना नहीं चाहते हैं बल्कि और ज़्यादा हिस्से पर पकड़ बनाना चाहते हैं. तो आप जब उगने देने के लिए स्पेस नहीं छोड़ते हैं तो आप पर चीज़ें थोपनी ही पड़ेंगी. अभी हाल ही में बी.एच.यू. के ही एक प्रोफ़ेसर ने भाषण में सामने बैठे छात्रों से यह पूछा था, “आप क्या बनना चाहते हैं? मालवीय जी जैसा युगपुरुष बनना पसंद करते हैं? या कोई ऐसा लड़का कि जो दिन भर बाइक चलाता हो, हाथ में बीयर की बोतल रखता हो या लड़कियों के साथ घूमता हो?” यह कहकर उन्होनें बाइक, बीयर और लड़कियों को एक साथ रख दिया और सामने सारी लड़कियाँ बैठी हुई थीं. यानी वे केवल लड़कों को अड्रेस कर रहे थे. समाज में जब पढ़े-लिखों का ये रवैया है, प्रोफ़ेसरों की समझ ऐसी हो रही है तो सेंसरशिप खत्म ही हो जाना चाहिए. ऐसे लोगों को समझाने के लिए बम ही गिराना पड़ेगा, कोई और तरीका नहीं है.ऐसे लोगों को समझाने के लिए एंटी-सेंसरशिप का धमाका करना ही पड़ेगा, क्रान्ति की भाषा में बात करनी ही पड़ेगी. और हमारी चाह के उलट ही सब कुछ हो रहा है, लोग सेल्फ-सेंसरशिप लगा रहे हैं, खुद को ही कुछ भी कहने-करने से रोक ले रहे हैं. अनुराग कश्यप ने भी किसी को कोट करते हुए कहा था कि मैं ऐसे कभी भी लिखना नहीं चाहता कि मैं कमरे में अकेला बैठा लिख रहा होऊँ और बार-बार मुझे लगता रहे कि कोई मेरे पीछे खड़ा होकर लगातार मुझे देख रहा है. हम स्मोकिंग का सीन लिखने से पहले ही सोचने लगते हैं कि इसे दिखाएँगे कैसे? शीर्षक में या लीद डायलॉग में कोई शब्द.....जैसे ‘रांड’ घुसाने के पहले हम सोचने लगते हैं और साथ के लोग भी परेशान होने लगते हैं कि इसे कैसे पास करायेंगे? तो ये सेल्फ-सेंसरशिप है, जो इस सेंसर के भूत का सबसे भयावह रूप है.  हम खुद ही मान लेते हैं, कि यह कभी पास नहीं होगा, लोग नहीं पसंद करेंगे. ये सब चीज़ें इतनी कठिन हैं कि हम बस इतना चाहते हैं कि हम सेंसरशिप के खिलाफ़ जितना जा सकते हों, उतना जाएँ.

यानी लड़ाई लम्बी है?
लम्बी है लेकिन लड़नी तो है ही. शुरू तो हो ही चुकी है. मैं अकेला ऐसा कट्टर सेंसर विरोधी नहीं हूँ. इसके खत्म होने के बाद ही कुछ सही सम्भव होगा.

अनुराग कश्यप के साथ रहने वाला आदमी या उनके साथ काम करने वाला आदमी क्या अनुराग की ही तरह रेबेलियस पल्प वाला आदमी बनने लगता है?
ज़रूरी नहीं है कि ऐसा हो. बहुत सारे हैं जो वैसे नहीं हुए हैं लेकिन कुछ वैसे हैं. अमित त्रिवेदी हैं, उन्होनें अनुराग के साथ ही लगभग काम शुरू किया और अब बड़ी-बड़ी फ़िल्में कर रहे हैं. दोनों तरह के उदाहरण है. रेबेलियस हैं कुछ लोग लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा बिहैवियर अनुराग से आया है. पीयूष जी अनुराग से बहुत पहले से हैं, अनुराग उनके बाद में आये लेकिन पीयूष मिश्रा का रेबेलियस बहुत खांटी पुरनिया है. स्नेहा है, वो भी रेबेलियस है लेकिन उसका भी यह पल्प बहुत पहले से है. क्योंकि उसने अनुराग से पहले दिबाकर के साथ काम किया था और इसी पल्प के साथ वह संगीत भी रचती है. ऐसे लोग जुड़ते हैं क्योंकि अनुराग ऐसे लोगों को जोड़कर सहज महसूस करते हैं. ऐसे लोगों को अलग और नया काम करना होता है शायद इसीलिए वे अनुराग से जुड़ते हैं. पीयूष मिश्रा को छोड़कर शायद किसी को उन्होंने अपनी प्रिंसिपल कास्ट में नहीं दुहराया है. उनकी हर फ़िल्म के संगीतकार अलग होते हैं. आप देखिए, गुलाल में पीयूष मिश्रा, देव डी में अमित त्रिवेदी, दैट गर्ल इन येलो बूट्स में नरेन चंद्रावरकर - बेनेडिक्ट टेलर और गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में स्नेहा. इससे पिछली फ़िल्म अगली फ़िल्म से अलग भी तो होती है.

आई.टी से पास होने के बाद क्या एजेंडा रहा?
२००३ में मैं यहाँ से पास हुआ है मैनें पूना के एक कम्पनी ज्वाइन कर ली, पूना में नौकरी करने का मेरा मकसद भी यही था कि बम्बई के क़रीब रहूँगा, देखूँगा कि फ़िल्में कैसी बनती हैं? क्या हिसाब है यहाँ का? सोचा था दो साल काम करूँगा, कुछ पैसे बचाऊँगा, फ़िर काम शुरू करूँगा. लेकिन मुझे छः महीने में ही लगने लगा कि मैं तो यहाँ ऐसे मर जाऊँगा, तो मैं वीकेंड-वीकेंड बम्बई जाकर काम ढूँढने लगा, ऑनलाईन लोगों से जुड़ने का प्रयास करने लगा. ग्यारह महीने में मैनें नौकरी छोड़ दी, एक एड कम्पनी में तीन महीने बतौर कॉपीराईटर काम किया फ़िर वो कंपनी बंद हो गई और पैसे भी नहीं मिले. फ़िर बम्बई में ही रुक गया और वहीँ सेटल होने के प्रयास करने लगा.

पैसा?
ग्यारह महीने में इतनी सेविंग की थी कि पाँच-छः महीने चल जाए, दो-तीन लोगों के साथ रहता था और स्ट्रगल किया और फ़िर एकाध साल बाद काम मिल गया. ‘द ग्रेट इन्डियन कॉमेडी शो’ में काम मिला और वो बहुत बड़ा स्टेज था मेरे लिए. उसमें उस दौरान के बड़े एक्टर शिरक़त करते थे, उस समय के संपर्क आज भी मेरे साथ हैं. मेरी पहचान उसी से बनी किसी फ़िल्म से भले ही न बनी हो. राइटिंग बिगड़ने लगी और शो को टीआरपी का बहाना देकर बंद कर दिया गया. सभी को टीआरपी का ही कीड़ा है. टीआरपी के चक्कर में हिन्दुस्तानी टीवी बर्बाद हो चुका है. बहरहाल, फ़िर गाड़ी आगे चल निकली. मैनें फ़िर आगे कई कार्यक्रमों के लिए लिखा लेकिन ‘द ग्रेट इन्डियन कॉमेडी शो’ की टीम और उतना फ्रीडम कहीं दोबारा नहीं मिला.
  
लिखना-पढ़ना कब से लगा रहा?
आईटी के वक्त से ही शुरू हो गया था लिखना. बचपन में एक कहानी लिखी थी, घर में भी लिखने-पढ़ने को लेकर बढ़िया माहौल था. पापा नंदन, चम्पक, बालहंस जैसी पत्रिकाएँ लाया करते थे. तो पहली कहानी और पहली कविता, तुकबंदी वाली, बालहंस में ही छपी. कॉमिक्स पढ़ी, लेकिन वे बड़ी महँगी हुआ करती थीं, उन्हें जितना किराए पर ले सकते थे, लेते थे और पढ़ते थे. वह भी सिर्फ़ इसलिए कि दोस्तों से पीछे न रह जाऊं. मैं और मेरा भाई सोचते थे कि नन्हे सम्राट के साथ आने वाले दो पेजों के मूर्खिस्तान को हम एक-एक लाइन करके बीस-बाईस दिनों में खत्म करते थे, ताकि महीने का एक वक्त भी कट जाए और हम बोर भी न हों.

अपनी लिखी सबसे ख़राब चीज़ के बारे में बताइये?
अरे! ऐसी बहुत सारी चीज़ें हैं. मैं भूल भी गया हूँ. लेकिन फ़िल्म समीक्षाएँ हैं, जो बेहद कच्ची थीं. कुछ कहानियाँ भी थीं, जिनके अंत में एक सन्देश देना ज़रूरी था. तो मैनें सिनेमा पर ही सबसे खराब लिखा और उन्हें कहीं भी दिखाया-छपाया नहीं. शाहरुख-सलमान के दीवाने होने का वक्त था, तो ऐसे ही स्टार दे दिया करता था फ़िल्मों को. अब उन चीज़ों को देखता हूँ तो बड़ा ख़राब लगता है.

स्टैण्ड-अप कॉमेडी अच्छी कर लेते हैं या लिख अच्छा लेते हैं?
लिखता ही हूँ. स्टैण्ड-अप की न तो ट्रेनिंग है और ना ही मैं उसे करियर बना सकता हूँ. मुझसे बड़े-बड़े और धाँसू-धाँसू कॉमेडियन हैं, मैं जल्दी डर जाता हूँ स्टैण्ड-अप के वक्त. लिखने की ही ट्रेनिंग मिलती रहती है और लिखता भी रहता हूँ. उसी में अच्छा हूँ.

‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के जो गाने हैं, उन पूरे गानों को कैसे समझा आपने? कैसे उस दुहरे अर्थ वाली भाषा का इस्तेमाल किया? यानी, रचना-प्रक्रिया क्या थी?
बहुत लंबा वक्त लगा. दो साल लगे पूरे गानों को बनाने में. स्नेहा ऐसे ही बिहार चली गई, घूम-घूमकर लोगों से जानकारी लेती थी और कुछ चीज़ें-बातें जानकारियाँ जुटाती थी. बरास्ते स्नेहा, एक मास्टर साहब यशवंत जी से मुलाक़ात हुई. उन्होनें ही कई लोगों के नाम-पते दिए, और उन्हीं लोगों से चालीस-पैंतालीस घंटों का रिकार्ड मिला. काफ़ी कुछ रिसर्च के बाद ही मैं फ़िल्म से जुड़ा और काम बनता गया. एक थिएटर ग्रुप से मुलाक़ात हुई, वहीँ से ‘हंटर’ और ‘भूस’ के हिस्से मिले. आम फ़िल्मों में गीत फ़िल्म से अलग भागते हैं, लेकिन अनुराग ने साफ़ कहा था कि गाने फ़िल्म से दूर भागें. स्नेहा ने एल्बम को कंटेम्पररी बनाना चाहा कि इसे सभी सुनें. अगला दारोमदार मेरे पर आया कि शब्द कंटेम्पररी न हो, वे फोक हों या देशज हों. अनुराग ने लगभग तीन सौ पेजों की स्क्रिप्ट सौंप दी और कहा कि कहीं भी गाना लगाओ, आगे जो होगा देखेंगे. सरदार खान के मरते समय ‘बिहार के लाला’ लाया गया, क्योंकि उस वक्त का विरोधाभास दिखाना था लेकिन असल में वह गाना फैज़ल खान के चुनावी दौरे के लिए लिखा गया था. सरदार खान की मौत के लिए दूसरा गाना लिखा गया था, लेकिन अंततः वह गाना फ़िल्म में आ ही नहीं पाया.

ये आपका पहला फ़िल्म ब्रेक था न?
नहीं, इसके पहले ‘दैट गर्ल इन येलो बूट्स’ के लिए एक गाना लिखा था, चूंकि कभी एल्बम रिलीज़ नहीं हुआ तो सामने भी आ नहीं पाया. ‘नो स्मोकिंग’ के लिए भी एक गाना लिखा था, वह गाना अनुराग को काफ़ी पसंद आया था. लेकिन अंततः वह गाना फ़िल्म में नहीं लिया जा सका.

वासेपुर का काम कैसे मिला?
‘नो स्मोकिंग’ और ‘दैट गर्ल इन येलो बूट्स’ के बहाने अनुराग से परिचय हो गया था. मैं जब वासेपुर के लिए अनुराग से मिलने गया तो उन्होनें कहा कि इसमें तो अधिकतर गाने भोजपुरी हैं, तुम कैसे लिखोगे? मैनें कहा कि लिखूँगा, रीसर्च करूँगा. तो उन्होनें कहा कि स्नेहा से मिल लो, वही म्यूज़िक पर काम कर रही है. तो मैं स्नेहा से मिलने गया तो ये बात सामने आ गई कि वह एक फोक नहीं कंटेम्पररी एल्बम तैयार कर रही है. फोक का टच कहीं-कहीं ही होगा. पहला गाना ‘भूस’ सामने आया, तो अनुराग को पसंद आया कि ये लोग बिना फोक के फोक गाने तैयार कर सकते हैं. वहीँ से गाड़ी आगे चल निकली. स्नेहा को भी लगा मैं गाने लिख सकता हूँ और मुझे भी लगा कि मैं सही में लिख सकता हूँ. इस तरह से पूरा एल्बम तैयार हुआ.

नए लोगों के लिए फ़िल्म इंडस्ट्री कैसी जगह है?
सबके लिए एक जैसी है, लेकिन अच्छी तभी है जब आपके भीतर का स्वाभिमान कम हो. आप स्वाभिमान जितना कम रखकर चलेंगे, यहाँ उतना ही काम और इज्ज़त पाएंगे. मैनें कई नए-नए लोगों को देखा है, जो जितना काम नहीं करते उससे ज़्यादा इज्ज़त बचाना चाहते हैं, उससे कहीं ज़्यादा स्वाभिमान रखते हैं और यही उनके लिए आगे चलकर बेहद घातक होता है. पानी न लाने पर अपने स्पॉटबॉय को पीट तक देने वाले लोग हैं. लेकिन किसी को भी सम्मान ज़रूर मिलना चाहिए, आप जो काम करें, उससे आगे चलकर आपकी पहचान होनी ज़रूरी है पर मैं ऐसा अपने लिए नहीं मानता हूँ. मैं दूसरों के लिए ज़रूर लड़ता हूँ, लेकिन अपने लिए जिरह नहीं करता हूँ.

इंडस्ट्री में स्ट्रगल कितना है?
ज़्यादा नहीं है, फ़िर भी है. अगर आपके पास काबिलियत है तो वह ज़रूर पहचानी जाएगी लेकिन अगर नहीं है तो सब कुछ मुश्किल ही है. मुझे इंडस्ट्री में उन लोगों पर तरस आता है, जो फ़िल्म-सीरीयल में बतौर नायक काम करने की इच्छा लेकर आते हैं. क्योंकि उनकी कहीं सुनवाई नहीं होती है, वे भागे-भागे फिरते हैं. मेरे साथ जो लोग मुम्बई आए थे, वे अभी तक उसी स्ट्रगल में लगे हुए हैं. इससे ज़्यादा डरावनी बात है कि उनकी उम्मीद भी बंधी हुई है कि उन्हें एक दिन काम ज़रूर मिलेगा. यही उम्मीद आपको और ज़्यादा बदतर स्थितियों में ले जाती है.

पढ़ने-लिखने में क्या पसंद है?
सब कुछ. कोई ऐसा एजेंडा नहीं रहा कि पहले क़िताब के लेखक का नाम पढूँ, फ़िर क़िताब. जो भी क़िताब हाथ लगती है, उसे ले लेता हूँ और पढ़ डालता हूँ. बुकसेल में से कुछ भी उठा लेते हैं और पढ़ लेते हैं. कुछ न कुछ मिल ही जाता है. कभी कभी कोई क़िताब एकदम ही समझ नहीं पाता, तो उसे ऐसे ही रख देता हूँ. अब तो ऑनलाइन ही ज़्यादा पढ़ता हूँ.

*****

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

कुणाल सिंह के संग्रह/ सम्मान पर अविनाश मिश्र

[पिछले महीने अविनाश मिश्र ने संज्ञा-क्रिया-तथाकथित परम्परा उमाशंकर चौधरी पर बेबाक़ आलोचनात्मक लेखन किया था. इस दफ़ा उनकी नज़र समकालीन कहानी पर है, बहाना हैं कुणाल सिंह, उनका संग्रह और सभी पुरस्कार. यहाँ युवा कथाकारों का दो टूक विश्लेषण उपस्थित है, एक नए और बेहद पाक़ खून ने कहानियों में हो रहे या नहीं हो रहे समझौते अपने सामने देखे हैं, इस लिहाज़ से यह यहाँ नामित हर कथाकार का एकदम अन-बायस्ड और नेकदिल विश्लेषण है. 'समकालीन सरोकार' में कुछ दिनों पहले इसी लेख का संपादित रूप प्रकाशित, लेकिन यहाँ उपस्थित टेक्स्ट पूर्णतः असंपादित. बुद्धू-बक्सा आलोचना के ऐसे प्रयासों में हमेशा साथ रहा है, और हिन्दी की उस सभ्यता का पुरज़ोर विरोध करता है जिसमें आलोचनाएं व्यक्तिगत हो जाती हैं. बहरहाल, अविनाश सामने हैं, बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी]

नई उम्र की नई फसल
    
‘आप सबका शुक्रिया, आज के अखबार से पता चला कि मुझे 'साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार' मिला है, इस बार अपने उपन्यास 'आदिग्राम उपाख्यान' पर।‘ युवा कहानीकार और अब उपन्यासकार भी कुणाल सिंह 21 दिसंबर 2012 को अपनी फेसबुक वॉल पर यह लिखते हैं।

यह 'समाचार' लिखे जाने तक इस स्टेटस पर आए लगभग एक जैसे 235 कमेंट्स में से एक कमेंट यह था- 'झूठ क्यों बोलते हो कुणाल? मैंने तो तुम्हें कल ही बधाई दे दी थी।' हालांकि इस कमेंट के अंत में ‘स्माइली’ लगाकर इसमें मौजूद सच को दबाने की गैरजरूरी और नाकामयाब कोशिश की गई है, लेकिन फिर भी सच छुपता नहीं है, इन दिनों में तो और भी नहीं। यह कमेंट कुणाल सिंह से थोड़े उम्रदराज युवा कहानीकार शशिभूषण द्विवेदी का था।  

हिंदी साहित्य में इस वर्ष का पुरस्कार घोषित होते ही, अगले वर्ष का पुरस्कार किसे मिलेगा यह तय हो जाता है। मुझे पढ़ रहे दोस्तों को शायद इस बात का यकीन नहीं हो रहा होगा, हालांकि यह मानने की कोई वजह नहीं है, मगर फिर भी मैं बताता हूं कि कैसे- अगले वर्ष का 'साहित्य अकादमी युवा सम्मान' चंदन पांडेय को, 'भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता पुरस्कार' अच्युतानंद मिश्र को और 'लमही सम्मान' जिसके निर्णायक विजय राय, आलोक मेहता, महेश भारद्वाज और सुशील सिद्धार्थ जैसे 'महान' लोग हैं, मनीषा कुलश्रेष्ठ को मिल जाने के बाद आगामी ‘कथा यू.के. सम्मान’ भी उन्हें ही मिलेगा। मनीषा जी को इसके लिए अग्रिम बधाई। खुलासे तो अभी और भी बहुत से किए जा सकते हैं, लेकिन तथ्य को प्रामाणिक बनाने के लिए मुझे लगता है कि इतने ही काफी हैं। ऐसे में जो पहले भी कहीं कहा है उसे यहां फिर दोहरा देना जरूरी लगता है कि हिंदी साहित्य को अब एक बड़े 'पुरस्कारातीत संघर्ष' की जरूरत है।

इस युवा-युवा कोलाहल में हिंदी साहित्य के कुछ युवा रचनाकार बहुत जल्द ही वह सब कुछ 'झपटने' में कामयाब हुए हैं, जो इनके ढीठ, दंभी, कटखने पूर्वजों को वर्षों के अनथक अध्यवसाय व श्रम के बाद प्राप्त हुआ या नहीं हुआ था। युवावस्था की इन गलतियों और कुसंगति के उलट यदि इनके पूर्वज संयम की जगह खुशामद, रियाज की जगह छपास और विनम्रता की जगह पलटवार को तरजीह देते या इसमें यकीन रखते तब शायद आज की यह युवा पीढ़ी अपने जीवन और लेखन दोनों में ही इतनी अविश्वसनीय, भ्रष्ट व चालू प्रतीत न होती।

2006 में कहानी विधा में और 2010 में उपन्यास विधा में 'भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार' हासिल करने वाले कुणाल सिंह के उपन्यास 'आदिग्राम उपाख्यान' पर कुछ कहने से पहले थोड़ी सी बातें इस उपन्यास को और 'महत्वपूर्ण' बनाने वाले 'साहित्य अकादमी युवा सम्मान-2012' पर। इस पुरस्कार के लिए उस दिन से ही लॉबिंग शुरू हो गई थी, जिस दिन यह पुरस्कार उमाशंकर चौधरी ने ‘हासिल’ किया था। इसमें सबसे बड़ी रुकावट था कुणाल सिंह की ही तरह युवा कहानीकार और उनके ‘भूतपूर्व’ यार गौरव सोलंकी का कहानी संग्रह 'सूरज कितना कम' जिसे आज के वक्त में एकदम बेमानी 'अश्लीलता' का आरोप लगाकर प्रकाशन से रोका गया। इस किताब की कहानियां 'आदिग्राम उपाख्यान' को पछाड़ कर रख देने वाली हैं। इस दुरभिसंधि पर विस्तार से बात होनी चाहिए। और उस दुरभिसंधि पर भी जिसके चलते उपन्यास विधा पर ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार पंकज सुबीर को 'आदिग्राम उपाख्यान' से बांटना पड़ा था, वर्ना 'ये वो सहर तो नहीं' को यह पुरस्कार पूरा मिल रहा था। 

फिलहाल अब बातें 'आदिग्राम उपाख्यान' की। 2010 में आए इस उपन्यास को 2009 में आई युवा पत्रकार पुष्पराज की 'नंदीग्राम डायरी' का आभार अदा करना चाहिए था, जोकि इस उपन्यास ने नहीं किया। इस उपन्यास का क्लाईमेक्स 'नंदीग्राम डायरी' से हद से ज्यादा मुतासिर है, इतना कि संदेह होता है। 'आदिग्राम में नंदीग्राम की छायाएं हैं' यह कहते हुए इस उपन्यास की भाषा पर बात करें तो यह रेणु, निर्मल वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल का घोल है, जिन्हें लिक्विड में इंटरेस्ट नहीं है वे इसे मिक्सचर भी कह सकते हैं।

'आदिग्राम उपाख्यान' इसी शीर्षक से प्रकाशित कुणाल की पहली कहानी और उनके पहले कहानी संग्रह 'सनातन बाबू का दाम्पत्य' में शामिल एक लंबी कहानी का विस्तार व परिमार्जन है। लेकिन कुणाल सिंह जैसे कहानीकारों को यह समझना होगा कि उपन्यास एक जटिल और श्रमसाध्य विधा है। ऐसे में उस हाथ को जो अभी लंबी कहानी में ही ठीक से साफ नहीं हुआ है, उपन्यास में आजमाना उचित नहीं है।

जादुई यथार्थवाद जैसे फैशनेबल टूल और किरदारों के अंधविश्वासों के सहारे आगे बढ़ते इस उपन्यास में जबरन बिगाड़ दिए शब्द और वाक्य हैं जो पेज दर पेज प्रभाववंचित पैराग्राफ्स रचते हैं। बकौल रवींद्र कालिया, कुणाल शब्दों से खेलने वाले कहानीकार हैं, लेकिन कुणाल को अब यह अच्छी तरह से जानना होगा कि शब्द खेलने की चीज नहीं हैं। जब आप कहानियों के भीतर कई कहानियां सुनाना चाहते हैं, तो किस्सागोई का जरूरी हुनर भी आपको आना चाहिए, अन्यथा कहानियां ब्यौरों से आगे नहीं बढ़ पातीं। यहां असर साफ पहचाने जाते हैं और मौलिकता दगा दे जाती है। और फिर यह खबरों या घटनाओं को इस तरह से साहित्य में 'सेव' करने का दौर भी नहीं है। यह रीत बीत गई मेरे दोस्त। यह सुविधा आपको अपनी कहानियों को लंबी करने और लंबी कहानियों को उपन्यास करने की छूट तो दे देती है, लेकिन कथ्य में कुछ अनूठा करने की गुंजाइश नहीं रहने देती। इस वजह बेवजह दोहराव भी बेहद आते हैं और भटकाव भी। 

कहानी में एक और कहानी। कथा के पीछे एक दूसरी ही कथा। पहली की पूरक नहीं, एक बिलकुल ही अलग। इस तरह कथाओं का अनुवर्तन करतीं एक पर एक कई कथाएं, कि कोई ओर-अंत ही न सूझता। और कथाएं भी कैसी ? सुनने वाले को एकबारगी विश्वास ही न हो, ऐसी एकदम से अनोखी। कई बार तो लगता, परिमलेंदू दा अपनी इन कथाओं की अविश्वसनीयता को खुद ही भांप जाते हैं और जान-बूझकर एक दूसरी कथा के उड़ते रेशे पकड़ने लगते हैं। कहानी कहते हुए ही उनके मुंह में संशय का एक छिछोरा स्वाद घुलने लगता होगा। उन्हें महसूस होता होगा कि सामने वाला उनकी कथा की नंगई अचानक साफ-साफ देखने लगा है।

परिमलेंदू दा में ‘उपन्यासकार’ की छवि है और पता नहीं किस 'लेखक' ने इस उपन्यास का ब्लर्ब लिखा है जो कहता है कि इस उपन्यास में कुणाल की लेखनी का जादू अपने उत्कर्ष पर है। यहां इतना और जोड़ देना चाहिए कि कहीं-कहीं यह उपन्यास इतना उबाऊ है कि इसके अंतिम पृष्ठ तक पहुंचने की पाठकीय चाह इसके कुछ पृष्ठ छोड़ देने पर विवश करती है। और यहां आकर यह कहना पड़ता है कि 'क्या 'आदिग्राम उपाख्यान' उपन्यास है।' मैं इनवर्टेड कॉमा में लिखे गए इस वाक्य के आगे प्रश्नचिन्ह(?) नहीं लगा रहा हूं, मैं इसका जवाब भी दे रहा हूं... दरअसल, यह उपन्यास है नहीं इसे उपन्यास बनाया गया है।

उपन्यासों सरीखी लंबी कहानियां लिखने वाले और लंबी कहानियों को उपन्यास कहकर छपवाने वाले हिंदी साहित्य के युवा रचनाकारों में 'स्मार्टनेस' ज्यादा है, 'जेनुइननेस' नदारद। नामालूम इस 'फेकनेस' में वह 'रीडिंग प्लेजर' कहां बिला गया है जो इन युवाओं की शुरुआती कहानियों की जान हुआ करता था। इस संदर्भ में मुझे सीधे-सीधे पांच नामों से शिकायत है। इनमें सबसे पहले कुणाल सिंह का नाम है, इसके बाद जैसा कि 'परंपरा' है कि कुणाल सिंह के बाद चंदन पांडेय का नाम लेना ही लेना पड़ता है, सो यहां भी है। तीसरा नाम नीलाक्षी सिंह का है। चौथा  नाम शशिभूषण द्विवेदी का है और पांचवां प्रत्यक्षा का। 

इसके अतिरिक्त कुछ कहूं तो राकेश मिश्र सिर्फ दो कहानियों के कहानीकार हैं, हालांकि यह भी कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन उनसे उम्मीदें वैसे ही पाली जा सकती हैं, जैसे चार कहानियों के कहानीकार मनोज कुमार पांडेय से और केवल एक कहानी के कहानीकार विमल चंद्र पांडेय से। श्रीकांत दुबे नाम का भी एक 'कहानीकार' है, लेकिन वह नाराज क्या करेगा जब उसने कभी खुश ही नहीं किया। दुर्गेश सिंह और रविंद्र आरोही अभी साहिब-ए-किताब नहीं हैं, लेकिन संभावनाशील हैं। मैं जानता हूं कि यहां कुछ नाम छूट रहे हैं, चलिए ले लेता हूं- मनोज रूपड़ा, सत्यनारायण पटेल, भालचंद्र जोशी, मनीषा कुलश्रेष्ठ, पंकज मित्र, अल्पना मिश्र, प्रभात रंजन, गीत चतुर्वेदी, रवि बुले, राजीव कुमार, उमाशंकर चौधरी... जैसे प्रौढ़ युवाओं की बहुत लंबी होती जा रहीं कहानियों का स्तर एक निरंतरता में गिर रहा है। और ऐसे में ज्योति कुमारी जैसी अन्य कुमारियां हिंदी कहानियों के साथ वही कर रही हैं, जो 'हंस' ने स्त्री-विमर्श के साथ किया।

मैं जानता हूं कि अब भी बहुत कुछ छूट रहा है। चंदन पांडेय ने अपनी किसी कहानी में कहा है कि नाम गिनवाने में नाम छूटने के खतरे ज्यादा रहते हैं। मैं ऐसा महसूस करता हूं कि यह बात बिलकुल ठीक है, फिर मैं नाम गिनाने वाला, शिकायत करने वाला होता भी कौन हूं। और फिर इस दौर के एक सबसे जुदा युवा कहानीकार अनिल यादव इस बात के मोहताज तो हैं नहीं कि कोई कहीं उनका नाम गिनवाए, उन्हें 'साहित्य अकादमी युवा सम्मान' दिलवाए... न दिलवाए... वैसे इस यायावर लेखक को मेरा सुझाव है कि वे दिल्ली को छोड़कर फिर कहीं और की यात्रा पर निकल लें क्योंकि फिलहाल दिल्ली में विचारों की कमी है...। 

*****