गुरुवार, 25 जुलाई 2013

महेश वर्मा की नई कविताएँ

[चूंकि हिन्दी साहित्य में अभी का समय किसी और तरीके के सावन से गीला हो रहा है, मौसम पर कविताएँ देखने को नहीं मिल रही हैं, नदी और पहाड़ गायब ही हो चुके हैं और हिन्दी का समूल नाश फेसबुक से हो ही रहा है, ऐसे में इन्हीं चीज़ों से निकल कर आते कवि महेश वर्मा को देखकर सुकून तो ज़रूर होता है. महेश वर्मा का पिछला लिखा बुद्धू-बक्सा पर यहाँ पढ़ा जा सकता है. यह बात बार-बार कहना नाकाफ़ी ही है, लेकिन हिन्दी के समकालीन 'युवा रचनाकारों', जिनमें कई सारे क़ायदों और लहज़ों के साथ संशोधन मुमकिन है, को महेश वर्मा की कविताओं जैसी देशजता लाने का प्रयास ज़रूर करना चाहिए, नहीं तो वे प्रेम, जीवन, स्मृति, माँ-बाप पर कविताएँ लिखकर हिन्दी और विषय, दोनों को खर्च कर देंगे. बहरहाल, कविताएँ सामने हैं, और बुद्धू-बक्सा महेश वर्मा का आभारी है]

Siddhant - voids of memories


इस तस्वीर में मैं भी हूँ                                                                                

इस तस्वीर में बीस साल से
उस आदमी की ईर्ष्या जस की तस है जो तस्वीर उतरवाते
लोगों के मुस्कुराते समूह के पीछे से उन्हें देखता गुजर रहा है

बीस वर्षों के पीलेपन ने इस दृश्य में थोड़ी भव्यता लेकिन जोड़ दी है.

बीस साल से लुढ़के हुए गुलदान से गिरे पानी से कालीन
बीस साल से गीला है
किसी की बात खत्म होने की प्रतीक्षा में
अपनी जमुहाई से टक्कर लेती लड़की का धैर्य
बीस साल से अडिग है .

बीस साल से घड़ी उतना ही बजा रही है
उतना ही चमक रहा है फर्नीचर

ईर्ष्या से देखता आदमी शायद उतना ईर्ष्यालु न रहा हो जितना
बारिश के देर से रुकने या छतरी के खो जाने ने
उसे चिडचिडा बना दिया है , कोई उसका रकीब न रहा हो
तस्वीर खिंचाते लोगों में .

कुछ अनुमान और हम लगा सकते हैं कि इस तस्वीर के
बीस ही सेकेण्ड के बाद गुलदान को उठा लिया गया था
इसे चोरबाजार में गलाया नहीं जा चुका ,
यह अब भी उसी घर में चमक रहा है ,
इसे चमकाए रखने वाली बूढ़ी नौकरानी अलबत्ता
पिछले बरस मर गई सर्दियों में.

कालीन अब भी किसी खानदानी रईस के घर में है
वे इसे पुराने सामानों के बाजार से पुरानी इज्ज़त की तरह
घर ले गए थे धुंधलके में .

घड़ी का कोई सुराग नहीं मिलता न उस समय का
जो इसमें ठहरा हुआ था .

इस तस्वीर के एक आदमी की तबीयत खराब रहती है
दो मर चुके, एक अब भी वैसे ही शराब पी रहा है बदस्तूर
एक अब कम चिडचिडा रह गया है
एक अब भी नहीं सीख पाया है कविता लिखना .


सुन्दर नहीं है                                                                                             

कोई चीज़ सुन्दर और विश्वसनीय नहीं है पूरे तौर पर
उदाहरण के लिए कुञ्ज में
उस वृक्ष के पीछे एक दूसरे को चूमते हुए प्रेमी

वे भी पूरा विश्वास नहीं कर पा रहे एक दूसरे पर
साँसों में आपेक्षित सुगंध होने न होने की शंका में
उनका अस्तित्व घुल नहीं पा रहा आपस में
कि पता नहीं दूसरे ने क्या सोचा होगा इस अनगढ़ता को-
                            फूहड़ता या उत्कंठा का उत्कर्ष !

कोई फूल
कोई शहादत
वे बर्फीली चोटियाँ
वह संगीत
           हम इनके नज़दीक जायेंगे और इनका कोलाहल
                                    इसकी अश्लीलता ,
                                    इसका क्षरण और बेतुका रंग- सामने आएगा और निराश कर देगा .


वह भोलापन जो विश्वास करता है और सलोना है
वह भी अविश्वसनीय हो सकता है – सहज अभिनेत्रियों से भरे इस संसार में
उस सलोनेपन के धब्बे आत्मा की जीर्ण देह पर देखे जाएँ बाद के किसी वर्ष .
सूर्यास्त भी विश्वसनीय नहीं है आकाश में
उसका सुबह का आश्वासन भी मारा जा सकता है
अंतरिक्ष या मनुष्य की सनक में .

यह हवा क्या सिर्फ जीवन लेकर आई है और कुछ भी नहीं?

यह सुन्दर बच्चा, यह पानी,
यह स्थापत्य और यह भाषा
इनके हर विचार में अधूरेपन की जगहें हैं
जहाँ से ठंडी हवा सरसराती गुजर रही है .


अंतिम रात                                                                                         

अंतिम वाक्य बोला जा चुका
अंतिम प्रश्न के अंतिम उत्तर में

आखिरी दरवाज़ा बंद हो चुका

उधार की शराब और उधार की रात के लिए ये शहर जैसे है ही नहीं 
इतना ज्यादा नहीं है यह शहर
कि अंतिम सीढियां जो मैं उतर रहा हूँ के बाहर
कोई पृथ्वी नहीं होगी पाँव रखने को
अँधेरे की गहराई होगी बाहर उसके अतल में गिरने को

घटिया टाकीज़ के अंतिम शो के घटिया दृश्य में
गिरते हुए चीखने की आवाज़ मद्धम पड़ती हुई अस्त हो रही
मध्यांतर रात का है

अंतिम सपनों के बदले मिली अंतिम लकडियों की
अंतिम राख को अंतिम हवा उड़ा के ले जा चुकी

सपने दर्ज करने का कागज सट्टा पट्टी लिखने के लिए दे चुके बहुत पहले ही

मैं बराबर तेरह के अंक पर दांव लगाता था
वहां तो मेरी नास्तिकता ने भी साथ नहीं दिया कहते – कहते
पागल होने वाला मेरा दोस्त ज़मीन पर कोयले से लिख देता है १३ हिंदी अंकों में
इस तरह कि तीन की पूंछ लहराकर घूमती हुई, सूर्य को सही दिशा बता देती है
पागल तो वह भी हुआ जो अपना नंबर तोते से पूछता था, फिर तोता किताब से

ना नौ, न सात, न तेरह, न तीन
धार्मिक भी मारे गए अधार्मिक भी

अंतिम संदूक समुद्र में फेंका जा चुका जिसमें अंतिम किताबें थीं

आख़िरी सिक्के के बदले मिला नमक का अंतिम कण
आंसुओं के नमक से महँगा है, इसके बाद नमक
सिर्फ ज़िंदगी के बदले मिलेगा प्राचीन तुला पर तौलकर .

अंतिम स्मारक ढहाया जा चुका इतिहास का
मिथक के अंतिम नायक का देवालय गढ़ रहा शिल्पी
मरकर किसी पत्थर पर ढह चुका है .


आओ                                                                                                     

कोई दिन ऐसा नहीं आयेगा जिसकी धूप
आज की धूप में शामिल नहीं है
आने वाले दिनों की हवा कुछ इस हवा में भी है
कुछ इस धूल में अगले बरस की धूल
ऐसे ही घंटे का अनुरणन
इसमें आगे की आराधनाओं की भी ध्वनियाँ हैं
कि कोई किसी भविष्य के मंदिर में प्रवेश करेगा .

आज की सुबह में भविष्य के पक्षी चहचहा रहे हैं
इस इस्तीरी की हुई कमीज़ में भविष्य की कलफ है
आज का भोजन करके आचार्य भविष्य की सींक से निकाल रहे हैं
दांतों में फंसा दाना .

इसी चाँद के पास है भविष्य के प्रेमियों का उन्माद
इसी समुद्र के पास भविष्य की गर्जना है और भविष्य का नमक
यह पर्वत बहुत दिनों तक भविष्य का भी पर्वत रहेगा
हस्तरेखाशास्त्री की हथेली पर नहीं आज की ज़मीन पर .

भविष्य की ध्वनियाँ और चित्र
इस कविता में आओ .

***घंटे का अनुरणन महाकवि विनोद कुमार शुक्ल की पंक्ति है , उनसे क्षमापूर्वक .


पारा – पारा                                                                                                 

उसका चेहरा खुद बन जाता है एक दर्पन
पैंतालीस साल की औरत जब दर्पन देखती है

उसे नहीं देखना है अपना कुछ : न लकीरें
                         : न निशान कोई और

बहुत दिनों से उसने अपना वह तिल भी छूकर नहीं देखा
दर्पन हो गयी है कि दुनिया देख सके अपना अक्स उसके भीतर

उसकी औलाद
उसका महबूब
उसके समय की खूबसूरत औरतें
और ये कायनात
उसमें देखने को झांकते हैं अपना चेहरा
            : वहाँ सबकुछ जला जला हुआ क्यूं दिखाई देता है?
वे अपने चेहरे को छूते हैं कि अक्स कोई सपना हो
उधर अक्स भी छूने लगता है अपना चेहरा 

औरत तो आईने के आरपार देखती हो जैसे
कि वह एक शीशे का टुकड़ा है बेचारा
    और बेपारा.

5 टिप्पणियाँ:

विमलेश त्रिपाठी ने कहा…

अच्छी कविताएं.... महेश भाई को बहुत बधाई....

आशुतोष कुमार ने कहा…

इस दौर के अटूट ठहराव और स्वप्नहीनता की जमीन पर पांव टिकाये , फिर भी भविष्य के अदृश्य झरोखों से आ रही रौशनी पर नज़रें गड़ाए ये कवितायें संवेदना और चेतना के दो आयामों में एक साथ गतिशील होती हैं . हिन्दी कविता की श्रेष्ठ विरासत को सहेज उस पर मौलिकता की सान चढाती हुई .बोलती कम हैं , दिखती ज़्यादा हैं , चलती और ज़्यादा हैं . कवि को , और आरम्भिक अर्थहीन टिप्पणी के बावजूद इस सार्थक प्रस्तुति के लिए सम्पादक को बधाई .

shesnath pandey ने कहा…

इन कविताओं को पढ़कर कमाल की कविताएं,बहुत अच्छी,बेहतरीनत जैसे विशेषण दे कर निकलना नहीं चाहता. ऐसा भी नहीं है कि मेरे पास कहने के लिए शब्द नहीं है; हैं, बहुत है. लेकिन फिलहाल इस पर कुछ लिखने के उपक्रम करने से ज्यादा अच्छा लग रहा है कि एक बार और इसे पढ़ लूं. और यह "एक बार" अपनी आवृति दुहरा रहा है. बधाई महेश भाई और सिद्धांत को भी जिनकी वजह से इस ब्लाग पर फिक्शन को अच्छी जगह मिलती है.

बेनामी ने कहा…

Sunder. madhdhim swar me samwad kerti ak naya aaswad .badhai mahesh ji. Keshav.tiwari

neelotpal ने कहा…

हर विचार में अधूरेपन की जगहें हैं....

सुंदर और समर्थ कविताएँ.