मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

पंकज चतुर्वेदी पर अविनाश मिश्र

(हिन्दी में आलोचना के सामने खड़े होना एक दुरूह और उलझा हुआ निर्णय है. कई-कई बार इस निर्णय के फेर में निराशा और अविकसित गद्य ही मिले हैं. हिन्दी में रचना के साथ खड़े होने की बात अब बीते दिनों की बात हो चुकी हैं, और आलोचना पढ़ना, यहाँ तक कि उस पर लिखना तो वक्त के साथ समर करने सरीखा है. अविनाश ने यहाँ जिस तरीके और साफ़गोई से अपनी बात रखी है, वह तमाम सूक्तियों-नियमों को धता बताने के लिए काफ़ी है. इस वर्ष युवा हिन्दी आलोचना साथ ही साथ बुद्धू-बक्सा की कुछ सफल उपलब्धियों में अविनाश भी शुमार रहे हैं. बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी रहेगा.)

‘निराशा में भी सामर्थ्य’ और समीक्षा                                                                      
स्वाभावादेव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन।  
इदं ग्राहयमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधी:।।
                                                                            
(जो यह जानता है कि यह दृश्य स्वभाव से ही कुछ नहीं है, वह यह कैसे देख सकता है कि यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्यागने के योग्य है।)                                                                                
अष्टावक्र गीता : तृतीय प्रकरण-तेरहवां मूल


हिंदी आलोचना इन दिनों एक ऐसा दरवाजा हो चुकी है जिसके भीतर से होकर आने-जाने वालों का तांता लगा हुआ है। इस दरमियान नए स्पेस निर्मित हुए हैं जहां बगैर किसी रोक-टोक के युवा रचनाकार अपने हमउम्र रचनाकारों पर अपनी राय दे रहे हैं। अकादमिक आलोचना के निकम्मेपन से पूरी तरह से वाकिफ हो जाने के बाद, उसके प्रति उपेक्षा या कहें नाउम्मीदी का भाव है और इसके चलते उसे आए दिन कोसने की रवायत व जरूरत भी कम हुई है। कुल-मिलाकर इस दृश्य ने हमें संवादवंचित होने से बचाए रखा है। कई युवा आलोचकों की एक नई जमीन विकसित करती हुई किताबें आ रही हैं। बावजूद इसके कि हिंदी में अकादमिक आलोचना सा अविश्वसनीय दूसरा कुछ नहीं, यह कहना एक सुखद विरोधाभास है कि इनमें से बहुत सारे युवा अकादमिक हैं। युवा आलोचक वैभव सिंह के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि यह हिंदी आलोचना का अनदेखा किस्म का स्वर्ण काल है।

हिंदी में अकादमिक आलोचना अक्सर सामयिकता से परहेज करती आई है। सारे साहित्यिक जुर्म इसी आलोचकीय भाषा में संभव हुए हैं। यह अपने मूल चरित्र में कृत्रिम, पलायनवादी, जातिवादी, क्षेत्रवादी, संकीर्ण, सतही, वैचारिक दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों से ग्रसित अंदर और बाहर दोनों तरफ से बंद है। अंदर से इसलिए क्योंकि यह इंतहाई जटिल हो रही सामयिकता में प्रवेश करना नहीं चाहती और बाहर से इसलिए क्योंकि यह नहीं चाहती कि समझदार व्यक्तित्व इसके दायरे में आएं।

इस दृश्य में युवा कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी की पांच अप्रकाशित और 52 प्रकाशित लेखों से बनी 391 पृष्ठों की पुस्तक ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ को पढ़ना एक ऐसे आलोचकीय विवेक से गुजरना है जो सामायिक सवालों से टकराते हुए, इतिहास में अमर या निर्जीव और निकृष्ट हो जाने के फितूर से आजाद है।

इस पुस्तक की भूमिका रविभूषण ने लिखी है जो मूलतः आलोचक हैं और अकादमिक भी। वे कहते हैं- 'संभवतः यह पहली बार हुआ है कि किसी एक आलोचना-पुस्तक में, जो पांच खंडों के कुल 57 लेखों, पुस्तक-समीक्षाओं, टिप्पणियों आदि का संग्रह है- कविता, आलोचना, उपन्यास, आत्मकथा, नाटक, कहानी, पत्र, पत्रोत्तर, शिक्षा, शिक्षण-संस्था आदि के जरिए कई आवश्यक और सार्थक बातें कही गई हैं।' 32 पृष्ठों की इस भूमिका में रविभूषण ने ‘निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण (दुष्टत्रयी) के इस आततायी और विध्वंसक दौर में जहां सब कुछ दांव पर लगा हुआ है- कला, साहित्य, संस्कृति, शिक्षा और विविध ज्ञानानुशासनों की ओर थोड़ी-बहुत उम्मीद से देखने की जरूरत है’ से शुरू करते हुए ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ हमें निराश और हताश होने से बचाती है, हिंदी आलोचना के प्रति उम्मीद जगाती है और यह इस पुस्तक की उपलब्धि है’ से अपनी भूमिका समाप्त की है।  

भूमिका के बाद एक कवि का गद्य है। लेकिन इसका अलगपन यह है कि यह वैसा नहीं है जैसा कवियों के गद्य को प्रचारित किया जाता है। यह गद्य अपने सृजक के प्रकाशित काव्य-संसार के वैभव व दबाव से स्वतंत्र है। फिर भी यहां बहुत सारी काव्य पंक्तियां हैं, काव्य पंक्तियों वाले शीर्षक हैं, दार्शनिक सूक्तियां हैं, कविता की आंख से इतिहास को देखते हुए ‘रामचरितमानस’ की वर्तमान सांस्कृतिक भूमिका है, आलोचना का आत्म-संघर्ष है, जीवन और रचना के बीच मौजूद सृजक की स्थिति पर स्टैंड है, आत्म-निर्ममता का साहस है, एक नए देश की तलाश का प्रस्ताव है, कविता में छिपे असत्य हैं, समवेत मुक्ति की दलित आकांक्षा है, बदलती भारतीय स्त्री की कहानी है, आजादी की असफलता का शोक-गीत है, एक हिंदी शिक्षक का स्वप्न है, महाविद्यालयों का चरित्र है, इतिहास का इतिहास में हस्तक्षेप है, आग का वादा है, ‘आसन्न अतीत’ व ‘हाहाहूती’ जैसे शब्द हैं और वह ‘रीडिंग प्लेजर’ है आलोचना में जिसकी उम्मीद हम खो चुके हैं।

यहां पहुंचकर एक जरूरी प्रश्न यह उभरता है कि एक ऐसे समय-समाज में जहां रचना ही हाशिए पर है वहां आखिर आलोचना की जरूरत किसे है। कृष्ण बलदेव वैद एक संवाद के दौरान कृष्णा सोबती से कहते हैं- ‘आलोचना की जरूरत और अहमियत पर सोचें तो आलोचना की जरूरत पाठक को लेखक से अधिक होती है क्योंकि लेखक तो अक्सर खुद ही अपना आलोचक होता है।‘ वैद इस संवाद में आगे कहते हैं- ‘हमारी आलोचना पुस्तकों के लोकार्पण-विमोचनों के अवसरों पर सरसरी फतवों-वक्तव्यों तक ही सीमित होकर रह गई है, और वे सब भी राजनीति और साहित्यिक राजनीति से परिचालित होते हैं, उनमें खरी-खुरदरी सच्चाई का अंश बहुत कम होता है। बड़ी आलोचना तो एक तरफ, छोटी-छोटी अच्छी समीक्षाएं जो साहित्यिक पत्रकारिता की रूह कही जा सकती हैं, वे भी हमारे यहां दुर्लभ हैं।‘ यह संवाद हुए कई वर्ष गुजर चुके हैं, लेकिन दुर्भाग्य से स्थितियां अब तक नहीं बदली हैं, बल्कि और बदतर हुई हैं, भयावह और घिनौनी हुई हैं।

ज्बीग्न्येव हेबेर्त  ने कहीं कहा है कि एक समीक्षक के रूप में अर्थवत्ता की तलाश हमारा प्राथमिक कार्य है। लेकिन हिंदी की मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं और रंगीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षाएं लिखने वाले धंधेबाज समीक्षकों ने इस समग्र पद्धति को निकृष्ट साहित्येतर समीकरणों में परिवर्तित कर दिया है। बोर्हेस ने ऐसे आलोचकों की तुलना चर्च में खड़े कुत्ते से की थी। हिंदी की मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं और रंगीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में लगभग एक दशक से गंभीर और वास्तविक समीक्षा-कर्म का निर्वाह करती हुई एक भी समीक्षा पढ़ने में नहीं आई है। बावजूद इस सारी बुराई के यदि कोई इन समीक्षाओं में उतरे तो वह पाएगा कि हिंदी की हर रचना में प्रतिक्षण एक कालजयी नवोन्मेष घटित हो रहा है... सारी रचनाएं व्यापकता लिए हुए हैं और इन्हें पढ़कर चुपचाप संग्रहित कर लेने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प इस तरह के समीक्षकों ने नहीं छोड़ा है। ऐसे औसत रचनाकारों और उनके सतही समीक्षकों के लिए पिकासो का यह कथन भी याद आता है कि कुछ पेंटर सूरज को पीले धब्बे में बदल देते हैं, अन्य पेंटर एक पीले धब्बे को सूरज में...।       

ऐसी साजिशों के बरअक्स ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ के लेख न सिर्फ रचना की सार्थक समालोचना में संलग्न हैं, बल्कि साहित्य की आंतरिकता के विकृत होते दृश्य पर बेहद दायित्वपूर्ण ढंग से हस्तक्षेप भी करते हैं। इस पुस्तक में आलोचना की आलोचना का स्वर इतना प्रखर है कि वह इस तरह व्यक्त होता है- ‘हिंदी आलोचना विगत वर्षों में ज्यादा से ज्यादा केंद्राभिमुख या सत्ताकांक्षी हुई है। उसकी नैतिक चिंताएं, राजनीतिक सरोकार और साहित्यिक अभिप्राय क्षीण हुए हैं और उसने अपने व्यवहार से साबित किया है कि ‘लिखित शब्द’ में उसकी बहुत दिलचस्पी नहीं है। वह अपनी शक्ति के प्रदर्शन और अहं की तुष्टि में इतनी गर्क है कि रचना के बारे में नया कुछ कहने के लिए न उसके पास समय है, न मानसिकता।‘ पंकज चतुर्वेदी यहां मंगलेश डबराल को भी उद्धृत करते हैं- ‘मुझे लगता है, हमारे वरिष्ठ आलोचकों का मौन एक सोचा-समझा हुआ मौन है। एक ऐसी सायास कोशिश कि हमारे गोल या गुट में जो नहीं है या जो किसी भी साहित्यिक सत्ता-प्रतिष्ठान में शामिल नहीं है उसके बारे में हम कुछ नहीं बताएंगे।‘

लेकिन यहां यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि साहित्य की आंतरिकता में लेखक के हस्तक्षेप का स्वर प्रखर तो है, लेकिन उतना मुखर नहीं है, जितना साहित्य से इतर मसलों पर लिखते हुए है। लेखक आक्रामक होता है, लेकिन बेहद वैभवपूर्ण और शालीन ढंग से। यह एक बहुत आजमाया हुआ शिल्प है, जो बहुत दूर तक असर नहीं करता है, हालांकि आक्रामकता भी एक बहुत आजमाया हुआ शिल्प है, लेकिन उसमें अब भी यह गुण है कि वह यदि बेहतर तरह से बरता जाए तो कभी जाया नहीं जाता। पंकज इस पुस्तक में कई जगहों पर बगैर नाम लिए कुछ लोगों पर टिप्पणी करते हुए चलते हैं, जैसे कि वे कहते हैं- ‘एक कवि की टिप्पणी देखिए...’, ‘एक आलोचक लिखते हैं...’, ‘अभी हाल में एक कवि-आलोचक ने यह वक्तव्य प्रकाशित किया है कि...’, ‘हिंदी के एक बेहद प्रतिबद्ध और संवेदनशील आधुनिक कवि...’, ‘एक प्रसिद्ध वामपंथी कवि के इन शब्दों में...’, ‘एक वरिष्ठ आलोचक का यह जुमला...’, ‘राजधानी दिल्ली में एक कवि के यहां ठहरा था...’ ये कुछ अधूरी पंक्तियां उद्धृत करने से आशय यहां यह संकेत करना है कि पंकज नामों से बचते हैं। यहां मुझे रविभूषण रचित भूमिका से यह अंश उद्धृत करना चाहिए- ‘पंकज में विनम्रता कुछ अधिक है। वे नाम लेकर उन कवियों-आलोचकों का प्रत्याख्यान नहीं करते, जो रचना-कर्म और आलोचना-कर्म को लगातार क्षतिग्रस्त कर रहे हैं। वे ‘हिंदी साहित्य के कुछ मठाधीशों’ का नाम नहीं लेते, जिनकी ‘छत्रछाया’ में एक अंडरवर्ल्ड काफी पनप चुका है। मंगलेश जिस तरह अपनी कविता में जोर से नहीं बोलते, उसी प्रकार पंकज भी आलोचना में जोर से बोलने से बचते हैं। शायद इसकी एक बड़ी वजह यह है कि वे कवि हैं।‘ यहां संभवतः यह भी संभव है कि पंकज नाम लेकर नामों का महत्व बढ़ाना और अपने लिखे का मूल्य घटाना नहीं चाहते। यदि ऐसा है तब इस सदिच्छा का सम्मान करते हुए भी यह कहना जरूरी लगता है कि यह जिद लेखों में आस्वाद के स्तर पर समस्या खड़ी करती है। तब तो और भी जब आप केवल कवियों-आलोचकों के नामों से ही बचते हैं, बाकियों का नाम लेने से आपको कोई गुरेज नहीं और तब भी जब ये लेख तात्कालिकता के दबाव से मुक्त होकर अब पुस्तकाकार प्रकाशित हैं।

कवि प्राय: गद्य के धोखे में कविताएं बुन देते हैं। ऐसा वे शरारतन नहीं आदतन करते हैं, लेकिन ये धोखे वाकई सुखद होते हैं। प्रस्तुत पुस्तक के पहले खंड के आखिरी लेख में यह धोखादेह स्थिति अपने चरम पर है। ‘कविता की कथनी और करनी’ पर बात करते हुए पंकज एक बहुत बड़ी पंक्ति कह जाते हैं। इस पंक्ति को जिसे बेशक एक काव्य पंक्ति भी कह सकते हैं, काव्यालोचना में एक टूल की तरह बरता जा सकता है। पंक्ति यह है- ‘कवियों की भाषा में ही उनके ईमान पढ़े जा सकते हैं।‘ इस पंक्ति के सहारे कई पृष्ठ रचे जा सकते हैं, लेकिन पंकज ऐसे विस्तारों से बचते हुए इसके सहारे इस लेख का एक बेहद जरूरी अनुच्छेद रचते हैं जिसे वे यह कहते हुए- ‘दुश्मन को हमारा सबसे करारा जवाब यही हो सकता है कि हम उसकी भाषा को अस्वीकार कर दें’ समाप्त करते हैं।

अपने कुछ समकालीन अग्रजों के कविता संग्रहों पर लिखते हुए पंकज ने इनकी कविता के मूल स्वर को पकड़ने की कोशिश की है। इस कोशिश में जो निष्कर्ष आए हैं, वे इस प्रकार हैं- अशोक वाजपेयी के कविता संग्रह ‘दुख चिट्ठीरसा है’ पर लिखते हुए पंकज कहते हैं- ‘अशोक वाजपेयी की एक बड़ी और दुर्लभ विशेषता है- उनकी आत्म-निर्मम यथार्थ-दृष्टि। जहां भी यह दृष्टि सक्रिय हुई है, आत्मकथात्मकता के बावजूद उन्होंने श्रेष्ठ कविता लिखी है।‘ 

मंगलेश डबराल के कविता संग्रह ‘हम जो देखते हैं’ पर लिखते हुए- ‘मंगलेश डबराल इस समय हिंदी के उन कुछ कवियों में से हैं, जिनकी कविताएं हमें कई बार ज्यों-की-त्यों याद रह जा सकती हैं। इसलिए कि वे जीवन और समाज के सिर्फ साक्षात्कार के नहीं, बल्कि मार्मिक साक्षात्कार के कवि हैं।‘

राजेश जोशी के कविता संग्रह ‘नेपथ्य में हंसी’ पर लिखते हुए- ‘राजेश की कविता में वक्तृता मिलती है- इसकी नैतिकता वह अपनी संवेदना से अर्जित करते हैं। लेकिन जैसे ही जिए गए जीवन की पारदर्शी व्याकुलता से कविता छूट जाती है, तो महज एक निष्प्रभ भाषण या राजेश के ही दिए शब्द के सहारे कहें, तो एक पिटी-पिटाई ‘नीतिकथा’ बनकर रह जाती है।‘

यहां इन तीन बड़े कवियों पर पंकज के कथन को उद्धृत करने का आशय केवल पंकज के काबिल-ए-तारीफ काव्यालोचकीय विवेक और पकड़ को प्रकट और स्पष्ट करना है।

निराला की एक काव्य-पंक्ति ‘यह हिंदी का स्नेहोपहार’ शीर्षक चौथे खंड में हिंदी शिक्षा जगत अपनी समग्र क्रूरताओं के साथ उपस्थित है। इस खंड में इस उपस्थिति का सारांश, अपेक्षा, स्वप्न, लक्ष्य, निष्कर्ष, भाषा, हस्तक्षेप, और पक्षधरता पढ़कर इसकी दशा, दिशा और दुर्दशा समझी जा सकती है-

‘आज हालत यह है कि हिंदी संसार में सच्ची जिज्ञासा, अध्यवसाय, प्रश्नाकुलता और बहुल तथा सार्थक संवाद की संस्कृति निर्मित करने के दावे के साथ जिन लोगों ने अपने सफर की शुरुआत की थी, उनका व्यवहार सर्वसत्तावादी सामंतों जैसा है। वे किसी तरह की असहमति, विरोध या आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाते और ऐसा करने वालों को ठिकाने लगाते रहते हैं। नतीजा यह है कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग ज्यादातर उनके अयोग्य अनुयायियों से भरे पड़े हैं और सामान्य नागरिक उनसे कोई उम्मीद नहीं रखता है। पचास करोड़ हिंदी-भाषियों के इस देश में क्या एक भी विश्वविद्यालय ऐसा बचा है, जिसकी समूची हिंदी ‘फैकल्टी’ पर हम वास्तविक गर्व कर सकें और हमारे नौजवानों में वहां पढ़ने की हसरत हो?’ (पृष्ठ-280)

इस दृश्य में ऐसे प्रश्न उपजते हैं कि ‘शिक्षक आखिर हमें देते ही क्या हैं?’ और इस पर विचार करते करते हुए यह निष्कर्ष प्रकट होता है- ‘यह लालच और उपभोग का समय है। हमें वह शिक्षा चाहिए, जो ज्यादा से ज्यादा रुपए कमाने की तरकीब सिखाती हो। उसके जरिए हम अधिकाधिक सत्ता, सुख, सम्मान और समृद्धि चाहते हैं। इसलिए वह शिक्षा हमें नहीं चाहिए जो मानव-मूल्यों की बात करती हो, उनके संस्कारों से हमें अनुप्राणित करती हो। आखिर करुणा, दया, क्षमा, प्रेम, सत्य और अहिंसा आदि का हम करेंगे भी क्या? मूल्य तो हमें मर्यादित ढंग से रहने और चुपचाप समाज की सेवा करने के लिए विवश करेंगे! कभी शिक्षा मनुष्यता की रक्षा और विकास के लिए जरूरी एक सुंदर कार्रवाई समझी जाती थी। आज वह व्यक्तिगत तृप्ति और व्यक्तिगत पोषण के संकीर्ण भौतिक मतलबों की दासी बनकर रह गई है।‘ (पृष्ठ-305)   

इस पुस्तक के लेखों में उद्धरण बहुत ज्यादा हैं। एक भी ऐसा लेख नहीं है जो इनसे मुक्त हो। यह एक अलग कल्पना का विषय हो सकता है कि बगैर कोटेशंस के ये लेख कैसे होते और प्रस्तुत समीक्षा भी। ये लेख अलग-अलग जगहों से संग्रहित किए गए हैं, इसलिए कोटेशंस का दोहराव भी है। लेकिन ऐसे उद्धरणों से संपृक्त ये लेख लेखक के अध्यवसाय की गंभीरता, वैविध्य और विस्तार से परिचित कराते हुए अपने आस्वादक को समृद्ध करते हैं। कुछ लेख तात्कालिक दबावों के तहत उपजे हैं, लेकिन इसके बावजूद इनमें अखबारीपन नहीं है। वे अपने मूल प्रभाव में अब भी बेहद प्रभावी और महत्वपूर्ण हैं। यहां आकर अब यह कहने का कोई अर्थ नहीं है कि ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ इस दौर में क्यों पढ़ी जानी चाहिए...।