सोमवार, 22 दिसंबर 2014

पीके पर विष्णु खरे

कोई अच्छा-सा लेकिन एलिअन भेज दे
विष्णु खरे



मानव शुरू से ही अपने अस्तित्व की समस्याओं से इतना आक्रान्त रहा है कि उसे हर जगह और हर शय में अपने ईश्वर, बुत, फ़रिश्ते, उद्धारक, अवतार स्त्री-पुरुष और नबी-मसीहा खोजने पड़े हैं. विडंबना यह है कि समस्याएँ उतनी ही बढ़ती गई हैं जितने भगवान और पैग़म्बर आए हैं. बल्कि शायद यदि वे कम आए होते, या आते ही नहीं, तो इंसानियत की ऐसी दुर्दशा न होती. अभी जो डेढ़ सौ बच्चे मारे गए हैं उनके पीछे मजहबी थे. मेरठ-गुजरात में भी चोटी-जनेऊ-तिलक-कलावे वाले धर्मप्राण लोग ही बसते हैं. नाइजीरिया में इस्लामी ‘बोको हराम’ ने मानवता का जीना हराम कर रखा है.

जबसे ब्रह्माण्ड के आयामों का पता चला है तबसे यह उम्मीद भी बाँधी गई है कि शायद कहीं ऐसी नस्लें हों जो हम जैसी हों, हम से हजारों गुना विकसित हों, जो हमसे रूबरू या इलेक्ट्रॉनिक तरीकों से संपर्क साधें और हमारे वुजूद की हिफ़ाज़त करें. हाय रे शिकस्ता ज़ेहनी गुलामी की मजबूरियाँ! लेकिन उसमें यह ख़तरा भी है कि कोई तालिबान, आइ.एस. या हिंदुत्वी-नुमा घुमंतू कायनाती आतंकवादी दस्यु बेड़ा भी हो, जो टेक्नोलॉजी में हमसे सदियों आगे हो लेकिन हर तरह के दूसरे प्राणियों को वाक़ई खाकर ही जिंदा रहता हो, तब हम क्या करेंगे?

जब ‘गाँधीगीरी’ फिल्मों में सुपरहिट रही और भारतीय यथार्थ में सुपरफ्लॉप, तो अब बारी आई है दूसरे ‘गोले’ से आए ‘नेकेड फ़कीर’ ‘पीके’ की. यह भी इसलिए आ सकी कि हमारी दोग़ली इंडस्ट्री के असली गोरे हॉलीवुडी अब्बामियाँ बरसों से विज्ञान-कथा (साइंस-फ़िक्शन) और अच्छे-बुरे एलिअनों का मुफ़ीद इस्तेमाल कर रहे हैं. यह बात अलग है कि अपने भोलेपन में पहली ग़लती सत्यजित राय ने की और हमने अपना ‘महाभारत’ सही ढंग से अब तक नहीं पढ़ा. वैसे हिन्दू मिथकों में सारे भगवान, देवी-देवता, अवतार, ऋषि-मुनि आदि मूलतः एलिअन ही हैं, वह स्वर्ग से आते हैं और स्वर्ग को ही लौटते हैं या सारे ब्रह्माण्ड में इच्छानुसार पलक-झपकते डोलते रहते हैं.

तो माजरा यह है कि तीन पर्वताकार रकाबीनुमा खगोलयान राजस्थान पर मँडरा कर अपने एक यात्री को थार में दिगंबर छोड़ जाते हैं. नंगा-पुंगा सिर्फ़ इसलिए नहीं कि उसके गोले के निवासी ऐसे ही रहते हैं, बल्कि यूँ भी कि स्वानंद किरकिरे को एक और घटिया ‘लिरिक’ लिखने का मौक़ा मिल सके. सिर्फ़ उसकी गर्दन में एक स्फटिक का कोई स्वदेश-संपर्क-यंत्र है जो ऐसे एलिअन-नेटिव टूरिस्टों को चूतिया बनानेवाले जयपुर-जैसलमेर-बाड़मेर के किसी रँग-रँगीले शरारती एम्पोरियम से खरीदा हुआ लगता है. एक बदमाश राजस्थानी गाँववाला उसे ही झपट कर भाग जाता है. अब हमारा  पीके एलिअन ‘फ़ोन होम’ नहीं कर सकता लेकिन उस के पास खोने के लिए सिर्फ़ ऑडियो-कैसेट वाला एक प्राचीन टू-इन-वन है. एक ईमानदार, जीवनदानी राजस्थानी बैंडबाजेवाला वचन देता है कि वह उसे उसका तावीज़ लौटवा कर ही दम लेगा.

राजकुमार हिरानी और आमिर ख़ान की फ़िल्म इसके बाद अपना मक़सद हासिल करती दिखाई गई है. पीके एलियन के गृहग्रह पर हिंदुस्तान जैसे हालात नहीं हैं. वहाँ भाषा नहीं है, लोग टेलीपैथी से बात करते हैं, वहाँ धर्म-कर्म नहीं हैं, ईश्वर या तो बहुत कम है या है ही नहीं, किसी किस्म की मूर्तियाँ और इबादतगाहें नहीं हैं, बाबा-साधू नहीं हैं, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, ऊँच-नीच आदि का नामोनिशान नहीं है और स्त्री-पुरुषों को परस्पर प्रेम और विवाह करने की पूरी आज़ादी है, परिवार और समाज उसके आड़े नहीं आते. जब पीके एलियन भारत में यह सब होते देखता है तो तत्काल अपना अजेंडा तय कर लेता है.

सबसे पहले तो उसे यहाँ की कोई भाषा सीखनी है. इसका एक ही तरीक़ा है कि वह किसी सुन्दर औरत के दोनों हाथ पकड़े और छः घंटे तक दोनों ऐसे ही चुप बैठे या लेटे रहें ताकि उस महिला की पूरी भाषा किसी परामनोवैज्ञानिक, स्थायी पाणिनीय अष्टाध्यायी स्थानान्तरण के माध्यम से उसके मस्तिष्क में अंकित हो जाए. सच्चरित्र हिन्दू नारियाँ तो किसी पराये मर्द को अपना हाथ तक छूने नहीं देतीं, लिहाज़ा एक चकले में जाकर इसे अंजाम दिया जाता है, और आश्चर्य! वह उदारचरिता भोजपुरी मातृभाषा वाली है, तो हमारा चरितनायक उसी में निष्णात हो उठता है और जब तक भारतीय धरती पर रहता है, सबसे वही बोलता है. यह बात अलग है कि हिरानी-आमिर-पीके की भोजपुरी बहुतै गड़बड़ बा.

उपरोक्त अजेंडे में भारतीय समाज-सुधार तो शामिल करना ही है, साथ में उत्तरी यूरोप के ब्रूष शहर में पढ़ने वाली एक भारतीय हिन्दू युवती का मिलन और विवाह उसके उतने ही युवक किन्तु वहीं रहने और पाकिस्तानी एम्बेसी में काम करनेवाले मुस्लिम नौजवान प्रेमी से करवाना भी है. इसके लिए सारे धर्मों के पाखण्ड और अन्याय को बेनक़ाब करना होगा और सबसे ज़्यादा उन हिन्दुत्ववादी बाबाओं को, जो ऐसे प्रेम और विवाह को महापाप मानते हैं और हिन्दू परिवारों और समाज को वर्गलाते-भड़काते हैं. कहानी बताना हमारा उद्देश्य नहीं. उसके लिए फिल्म देखनी होगी जो उस लायक है.

फिल्म में ऐसी कई स्थितियाँ और संवाद हैं जिनसे किशोर और युवा दर्शक बहुत खुश होते हैं और तालियाँ-सीटियाँ बजाते हैं. यह आमिर खान के फर्स्ट-डे-फर्स्ट-शो वाले फैन हैं या पूरी फिल्म से प्रसन्न दर्शक जो इसे रिपीट करेंगे या वर्ड-ऑफ़-माउथ से इसका व्यापक प्रचार करेंगे यह कहना मुश्किल है. इसमें हिंसा, वल्गेरिटी, सस्तापन, नंगई, अर्ध-अश्लीलता आदि सलमानी-रजनीकान्तीय-प्रभुदैवीय तत्व नहीं हैं. एक लिहाज़ से यह फिल्म पारिवारिक और हर उम्र के ‘बच्चों’ के लिए भी है.

लेकिन यह कारुणिक और दयनीय है कि हमारे फिल्म-समीक्षक और दर्शक बेहूदा हिंदी फिल्मों से इतने आजिज़ आ चुके हैं, जबकि उन्हें देखते भी हैं और ‘हिट’ भी करवाते हैं, कि इसे एक महान या कालजयी फिल्म मानने-मनवाने पर आमादा हैं. जहालत इतनी है कि कहा जा रहा है कि राज कपूर, बिमल रॉय और गुरुदत्त इसे बनाकर गर्व महसूस करते. जबकि पीके ठीक उन्हीं मसलों से भागती है जिनसे सीधी मुठभेड़ ऐसे निदेशकों ने की थी. यह श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलाणी, एम.एस. सत्यु, मुज़फ्फर अली, प्रकाश झा, तिग्मांशु धूलिया, विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप आदि का भी सिनेमा नहीं है.

आप देखें कि एलियन को इसलिए नायक बनाया गया है कि उसके राष्ट्र, कौम, नाम, धर्म, जात-उपजाति-खाप आदि की ज़रूरत ही न पड़े. वह जो उपदेश देता है या हरकतें करता है वह इस सन्दर्भहीनता में स्वीकार्य हो जाती हैं. जादूगरी की भाषा में इसे ‘स्लाइट-ऑफ़-हैण्ड’ – हाथ की सफ़ाई – कहते हैं. यह सही है कि कुछ दुस्साहसपूर्ण बातें कही गई हैं लेकिन वह एक आसाराम-रामदेव-राजपाल आदि जैसे एक ‘तपस्वीजी’ बाबा को लेकर हैं और वैसी बातों से खुद उनके असली अनुयायियों को लेकर कोई आपत्ति नहीं होती, जो मानते हैं कि ‘हमारे अवतारी बाबा ऐसा नहीं करते’.

राजनीति, हिंसा और आतंकवाद आदि को लेकर इस फिल्म में एक भयावह डरी हुई चुप्पी है. देश में इतना बड़ा राजनीतिक बदलाव आया जिस पर पीके कुछ नहीं कहती. भारत-पाकिस्तान के हिन्दू-मुसलमानों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता न हो पाना क्या सियासत का एक नतीजा नहीं? और क्या हिन्दुस्तान में ही ऐसी मुहब्बतें और निकाह गली-गली हो रहे हैं? क्या हिन्दू-ईसाई-सिख-जैन-बौद्ध शादियाँ आसान हैं? अभी कल ही जो हाइकोर्ट का शादी बरक्स धर्म-परिवर्तन वाला लव-जिहादी फ़ैसला आया है, उसका क्या? एक अजीब बम-विस्फोट दिखाकर आप क्या साबित करना चाह रहे हैं? आतंकवाद के सवाल पर एलियन चुप क्यों है?

यह फिल्म हिन्दुस्तान की ग़रीबी, भुखमरी और गलाज़त के मामलों पर गूँगी है. बलात्कार और भ्रूण-हत्याएँ भारतमाता के देश में होते ही नहीं. इस देश का एक भी नेता, अफ़सर और पुलिसवाला इसका बड़ा किरदार नहीं. यहाँ मीडिया के नाम पर एक टीवी चैनल है, अखबार हैं ही नहीं. मॉल और मल्टीनेशनल्स और कैपिटलिज्म का नामोनिशान नहीं. माफ़िया और बिल्डर इसमें नहीं होते. भ्रष्टाचार की हमने सफाई कर दी. स्विस खतों का भंडाफोड़ कभी का हो चुका. एक टुच्चे बाबा का भंडाफोड़ कर दीजिये, एक टेलीफोन बेल्जियम की पाकिस्तानी एम्बेसी से मिलाइए, वह आपको पिंडी से कनेक्ट कर देंगे, कुछ गिले-शिकवे-आँसू करवा दीजिए और सरफ़राज़ और उस जग्गो की शहनाइयाँ बजवा दीजिए जो पीके एलियन के लिए भी तड़पना शुरू कर चुकी है.

चूंकि मूलतः यह एक असंभव, फील-गुड, मॉडर्न परी-और-फ़ंतासी कथा है इसलिए हम इस तरह के सवाल ही नहीं उठा रहे हैं कि जो सभ्यता इतनी एडवांस्ड और संपन्न है कि तीन खगोलयान धरती के एटमोंस्फियर में भेज कर अपने एक ‘आदमी’ को यहाँ उतार सकती है उसने अपने ‘गोले’ में बैठ कर बरसों पहले सारी रेकी क्यों नहीं की. उनके यहाँ ‘औरतें’ होती हैं या नहीं? अपनी एक मादा को लेकर पीके यहाँ क्यों नहीं आया? क्या उसे भारत की बलात्कार हॉबी का पता था?

हिरानी और आमिर कहेंगे – फिल्म देखते हो या भाड़ झोंकते हो? आख़िरी शॉट में हमने नंगे पीके के साथ नंगा रणबीर और पांच-छः और नंगे एक्स्ट्रा भेजे हैं. यह पीके पार्ट वन है. रणबीर पार्ट टू होगा. एक्स्ट्रा अलग. पीके एक बहुत बड़ा फ्रेंचाइज़ बनने जा रहा है. पार्ट सिक्स के बाद यह सारे अच्छे एलियन धरती के गोले की सारी प्रॉब्लमें सॉल्व कर देंगे –इंसानियत समेत. अभी तो तपस्वीजी वाला. इंडो-पाक वाला वगैरह कई मसले बचे हुए हैं. देखना, अभी तो जग्गू सरफ़राज़ को छोड़ेगी और पीके के साथ उड़ जाएगी. तुम बस खुद टिकट लेते रहो और दर्शकों से लिवाते रहो. द गुड एलियंस आर लैंडिंग.

(यह टिप्पणी नवभारत टाइम्स में कुछ परिवर्तनों के साथ प्रकाशित है. तस्वीर के लिए डीएनए का आभार. बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे और अन्य सभी का आभारी.)

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

पंकज चतुर्वेदी की कविताएं


[पंकज चतुर्वेदी की एक कविता 'पुरुषत्व एक उम्मीद' में मोबाइल फ़ोन के ख़तरों के सन्दर्भ में एक उच्चस्तरीय भारतीय संस्थान के बुद्धिजीवी तय करते हैं कि वे मोबाइल को पैंट की जेब में नहीं, बल्कि दिल के पास ऊपरी जेब में ही रखेंगे; ताकि उनके पुरुषत्व में कोई कमी न आने पाये, दिल को नुक़्सान भले ही हो. मोबाइल फ़ोन को विभिन्न अंगों के क़रीब रखने के नतीजों और बच्चों पर उसके प्रभावों का यह वर्णन अंतिम हिस्से में एकाएक मोबाइल को छोड़कर उसके उपभोक्ताओं की मानसिकता पर आ जाता है, एक गंभीर सामाजिक टिप्पणी का रूप ले लेता है और हम एक ऐसी दुनिया से घिर जाते हैं; जो प्रेम, संवेदना और आत्मा को खोकर भी अपने 'पुरुष' होने के सामंतीपन, दंभ और यौन वर्चस्व को बरक़रार रखना चाहती है. शुरू में सहज-निरापद-सी लगती यह कविता अंत में हमारे भीतर एक भय पैदा कर देती हैः “इस तरह मैंने जाना/पुरुषत्व एक उम्मीद है समाज की/जिसके पास दिल नहीं रहा.” दरअसल, तथाकथित पुरुषत्व का विरोध-प्रतिरोध या उसकी आलोचना या उपहास पंकज चतुर्वेदी की कविता का एक प्रमुख कथ्य है, जिसकी चीर-फाड़ वे कई तरह के दृष्टान्तों और मामूली दिखने वाले प्रसंगों के ज़रिए करते हैं. गाँव से आनेवाले एक भ्रष्ट और सम्मानित रईस हों या विभागाध्यक्ष न बन पाने की शिकायत करनेवाले हिन्दी के एक प्रोफे़सर हों या दिन के समय भयानक दिखनेवाले एक कुत्ते 'टैरू' की रात में याचना-भरी मुद्रा को समझ पाने में कवि की अक्षमता का मार्मिक प्रकरण - पंकज के व्यंग्य की ज़द में एक 'पुरुष' हमेशा रहता है. पंकज ने प्रेम-सम्बन्धों पर कई कविताएँ लिखी हैं, जो मर्म को छू जाती हैं; लेकिन उनमें भी वे स्त्री की तुलना में 'पुरुष मानसिकता' की कमतरियों को आँकते चलते हैं.
अपने आलोचनात्मक नज़रिये में पंकज जिस तरह तमाम धंधई समीक्षात्मकता से अलग हैं, वैसे ही उनकी काव्यात्मक संवेदना और शिल्प भी अपने समकालीनों में सबसे अलग है. वे साधारण जीवन-स्थितियों के माध्यम से जीवन और समाज की बड़ी सचाइयों को बेहद सहजता से उद्घाटित कर जाते हैं. यह उद्घाटन आम तौर पर कविता के अंत में होता है, जहाँ वे सूक्तिपरकता या दार्शनिक कथन की भंगिमा में किसी बुनियादी या तात्त्विक स्थिति को दर्ज करते हैं. मसलन, समाज के दर्द और कैंसर जैसी बीमारियों पर बात करते हुए पंकज उनके फ़ौरी समाधानों की जटिलता और महँगी भूलभुलैया की बाबत कहते हैं: “पर वह संघर्ष नहीं/उसका मिथ होता है/वह इतना निजी होता है/कि कैंसर होता है.” सईद अख़्तर मिर्ज़ा की फ़िल्म 'नसीम' को देखकर लिखी गयी एक मार्मिक कविता में पंकज देश के बँटवारे से लेकर बाबरी मस्जिद के ध्वंस की घटनाओं के ज़रिये राज्यसत्ता को सवालों के दायरे में लाते हैं: “जब बाबरी मस्जिद का/दूसरा गुम्बद भी ढहा दिया गया/तो पहले और दूसरे गुम्बद के बीच/सरकार कहाँ थी/कहाँ था देश/और संविधान?” इसी कविता की कुछ और पंक्तियाँ भी याद रखने लायक़ हैं: “फिर भी तुम पूछो/क्यों नीला है आसमान/तो उसकी यही वजह है/कि दर्द के बावजूद/मुस्करा सकता है इंसान" या "दरअसल बाहर से आया हुआ/किसी को बताना/उसे भीतर का न होने देना है.”
पंकज चतुर्वेदी की संवेदना का एक आयाम 'कला का समय', 'कमीनों का क्या है', 'आभार' और 'वृक्षारोपण' जैसी कविताओं में दिखता है, जहाँ वे अच्छे अर्थों में रघुवीर सहाय की-सी व्यंग्य-विरूप प्रविधि की याद दिलाते हुए समाज और मनुष्य के किसी 'एब्सर्ड' अमानवीय पक्ष की तहों में जाते हैं. 'रक्तचाप', 'शमीम', 'तुम जहाँ मुझे मिली थीं' और 'पाँच महीने के अपने बच्चे से बातचीत के बहाने' जैसी कविताएँ उनकी संवेदना का दूसरा आयाम हैं, जहाँ वे कभी सीधी राजनीतिक बहस करते हैं या कभी उन अत्यंत बारीक मानवीय क्षणों को पकड़ते हैं, जो कोई मार्मिक कहानी कह जाते हों. पाँच महीने के अपने बच्चे के बारे में उनकी कविता इसका एक अद्भुत उदाहरण है. पंकज एक फ़्लैट के भीतर, बिना बाग़ीचे, बिना आकाश के इस बच्चे के रोने के कारणों को खोजते हुए 'खुले आसमान, ठंडी हवा, सड़क पर बचे रह गए सघन वृक्षों, ऊँचे और भव्य लैम्प-पोस्टों और चन्द्रमा और नक्षत्रों' और उनके विस्मय और सौन्दर्य तक चले जाते हैं और इस पूरी कायनात को 'एक “ज़रूरी काम” की तरह देखते' हैं, “जिसके बिना/मनुष्य होने में/संपूर्णता नहीं.”
ऐसी ही मार्मिक कहानियाँ और ऐसी ही व्यंग्य-वक्रता पंकज चतुर्वेदी की कविता को विलक्षण बनाती हैं.]


                                                                                                              - व्यंग्य का मर्म, मंगलेश डबराल.


कला का समय

रामलीला में धनुष-यज्ञ के दिन
राम का अभिनय
राजकुमार का अभिनय है
 
मुकुट और राजसी वस्त्र पहने
गाँव का नवयुवक नरेश
विराजमान था रंगमंच पर

सीता से विवाह होते-होते
सुबह की धूप निकल आयी थी
पर लीला अभी जारी रहनी थी
अभी तो परशुराम को आना था
लक्ष्मण से उनका लम्बा संवाद होना था

नरेश के पिता किसान थे
सहसा मंच की बग़ल से
दबी आवाज़ में उन्होंने पुकारा:
नरेश! घर चलो
सानी-पानी का समय हो गया है

मगर नरेश नरेश नहीं था
राम था
इसलिए उसने एक के बाद एक
कई पुकारों को अनसुना किया

आखि़र पिता मंच पर पहुँच गये
और उनका यह कहा
बहुतों ने सुना-
लीला बाद में भी हो जायेगी
पर सानी-पानी का समय हो गया है


वह इतना निजी

आॅपरेशन के बाद
डाॅक्टर कहते हैं:
आॅपरेशन की जगह पर
दर्द बिलकुल न होता हो
तो वह किसी ख़तरनाक
बीमारी का लक्षण है
वह कैंसर भी
हो सकता है

दर्द है इस समाज को
बहुत है
पर उस दुख के
कारणों पर कोई
रैडिकल बहस नहीं है
न उसके पीछे छिपी
ताक़तों को पहचानने
और उनका प्रतिकार करने जितनी
युयुत्सा है

सिर्फ़ फ़ौरी समाधान
और इलाज हैं
और वे ही इतने महँगे
और जटिल हैं
कि उनमें एक भूलभुलैया है
जिसमें चलते हुए हमें लगता है
कि हम वस्तुतः
संघर्ष कर रहे हैं

पर वह संघर्ष नहीं
उसका मिथ होता है
वह इतना निजी होता है
कि कैंसर होता है

 
पाँच महीने के अपने बच्चे से बातचीत के बहाने

जब भी तुम रोते हो
मैं जानता हूँ, मेरे बच्चे
तुम कुछ कहना चाहते हो
और उसे कह नहीं पा रहे

मसलन अपनी नींद, भूख
किसी और इच्छा, ज़रूरत
या तकलीफ़ के बारे में कुछ

भले ही कुछ कवियों को लगता हो
कि बच्चे अकारण रोते हैं
और कुछ और कवि
ग़ालिब की कविता में आये दुख को
महज़ ‘होने’ का अवसाद
बताते हों
मगर ऐसी शुद्धता
मुमकिन नहीं है

दुख के कारण होते हैं
और उसके रिश्ते
हमारे समय
और जि़न्दगी के हालात से
चाहे कोई उन्हें देख न पाये
और अगर देख पा रहा है
तो इस तरह के झूठ का प्रचार करना
किसी सामाजिक अपराध से कम नहीं है

मैं जानता हूँ, मेरे बच्चे
एक फ़्लैट के भीतर
जिसका अपना कोई बाग़ीचा नहीं
आकाश भी नहीं
तुम सो नहीं पाते

तुम्हें नींद आती है
खुले आसमान के नीचे
जहाँ ठंडी हवा चलती है
उन सघन वृक्षों की छाँह में
जो सड़क पर बचे रह गए हैं

उनसे पहले आते हैं
वे इक्का-दुक्का
ऊँचे और भव्य लैम्प-पोस्ट-
जो सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं
इसलिए शायद जले रह गए हैं-
उन्हें देखते हो तुम
अपार कौतूहल से
अपनी ही नज़र में डूबकर
मानो यह सोचते हुए-
यह रौशनी इतनी उदात्त
आखि़र इसका स्रोत क्या है?

और वे चन्द्रमा और नक्षत्र-
खगोलविद् उनके बारे में
कुछ भी कहें-
मगर जो न जाने कितनी शताब्दियों से
दुनिया के सबसे सुखद
और समुज्ज्वल विस्मय हैं

उनके सौन्दर्य में जब तुम
निमज्जित हो जाते हो
मुझसे बहुत दूर
फिर भी कितने पास मेरे
तब मुझे लगता है, मेरे बच्चे--
यह भी एक ज़रूरी काम है
जिसके बिना
मनुष्य होने में
संपूर्णता नहीं

1947 में
(सईद अख़्तर मिर्ज़ा की फि़ल्म ‘नसीम’ देखकर)

1947 में जो मुसलमान थे    
उन्हें क्यों चला जाना चाहिए था
पाकिस्तान ?

जिन्होंने भारत में ही रहना चाहा
उन्हें ग़रीब बनाये रखना
क्यों ज़रूरी था ?

जिस जगह राम के जनमने का
कोई सुबूत नहीं था
वहाँ जब बाबरी मस्जिद का
दूसरा गुम्बद भी ढहा दिया गया
तो पहले और दूसरे गुंबद के बीच
सरकार कहाँ थी
कहाँ था देश
और संविधान?

फिर भी तुम पूछो
क्यों नीला है आसमान
तो उसकी यही वजह है
कि दर्द के बावजूद
मुस्करा सकता है इंसान

मगर इससे भी अहम है
हिन्दी के लेखकों से पूछो:
जब आर्य भी बाहर से आये
तो मुसलमानों को ही तुम
बाहर से आया हुआ
क्यों बताते हो
उनकी क़ौमीयत पर सवाल उठाते हुए
उन्हें देशभक्त साबित करने की
उदारता क्यों दिखाते हो ?

दरअसल बाहर से आया हुआ
किसी को बताना
उसे भीतर का न होने देना है

जबकि उनमें-से कोई
महज़ एक दरख़्त की ख़ातिर
1947 में
यहीं रह गया
पाकिस्तान नहीं गया


रक्तचाप

रक्तचाप जीवित रहने का दबाव है
या जीवन के विशृंखलित होने का ?

वह ख़ून जो बहता है
दिमाग़ की नसों में
एक प्रगाढ़ द्रव की तरह
किसी मुश्किल घड़ी में उतरता है
सीने और बाँहों को
भारी करता हुआ

यह एक अदृश्य हमला है
तुम्हारे स्नायु-तंत्र पर
 
जैसे कोई दिल को भींचता है
और तुम अचरज से देखते हो
अपनी क़मीज़ को सही-सलामत

रक्तचाप बंद संरचना वाली जगहों में-
चाहे वे वातानुकूलित ही क्यों न हों-
साँस लेने की छटपटाहट है

वह इस बात की ताकीद है
कि आदमी को जब कहीं राहत न मिल रही हो
तब उसे बहुत सारी आॅक्सीजन चाहिए

अब तुम चाहो तो
डाॅक्टर की बतायी गोली से
फ़ौरी तसल्ली पा सकते हो
नहीं तो चलती गाड़ी से कूद सकते हो
पागल हो सकते हो
या दिल के दौरे के शिकार
या कुछ नहीं तो यह तो सोचोगे ही
कि अभी-अभी जो दोस्त तुम्हें विदा करके गया है
उससे पता नहीं फिर मुलाक़ात होगी या नहीं

रक्तचाप के नतीजे में
तुम्हारे साथ क्या होगा
यह इस पर निर्भर है
कि तुम्हारे वजूद का कौन-सा हिस्सा
सबसे कमज़ोर है

तुम कितना सह सकते हो
इससे तय होती है
तुम्हारे जीवन की मियाद

सोनभद्र के एक सज्जन ने बताया-
(जो वहाँ की नगरपालिका के पहले चेयरमैन थे
और हर साल निराला का काव्यपाठ कराते रहे
जब तक निराला जीवित रहे)-
रक्तचाप अपने में कोई रोग नहीं है
बल्कि वह है
कई बीमारियों का प्लेटफ़ाॅर्म
और मैंने सोचा
कि इस प्लेटफ़ाॅर्म के
कितने ही प्लेटफ़ाॅर्म हैं

मसलन संजय दत्त के
बढ़े हुए रक्तचाप की वजह
वह बेचैनी और तनाव थे
जिनकी उन्होंने जेल में शिकायत की
तेरानबे के मुम्बई बम कांड के
कितने सज़ायाफ़्ता क़ैदियों ने
की वह शिकायत?

अपराध-बोध, पछतावा या ग्लानि
कितनी कम रह गयी है
हमारे समाज में

इसकी तस्दीक़ होती है
एक दिवंगत प्रधानमन्त्री के
इस बयान से
कि भ्रष्टाचार हमारी जि़न्दगी में
इस क़दर शामिल है
कि अब उस पर
कोई भी बहस बेमानी है

इसलिए वे रक्त कैंसर से मरे
रक्तचाप से नहीं

हिन्दी के एक आलोचक ने
उनकी जेल डायरी की तुलना
काफ़्का की डायरी से की थी
हालाँकि काफ़्का ने कहा था
कि उम्मीद है
उम्मीद क्यों नहीं है
बहुत ज़्यादा उम्मीद है
मगर वह हम जैसों के लिए नहीं है

जैसे भारत के किसानों को नहीं है
न कामगारों-बेरोज़गारों को
न पी. साईंनाथ को
और न ही वरवर राव को है उम्मीद
लेकिन प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री
और योजना आयोग के उपाध्यक्ष को
बाबा रामदेव को
और मुकेश अम्बानी को उम्मीद है
जो कहते हैं
कि देश की बढ़ती हुई आबादी
कोई समस्या नहीं
बल्कि उनके लिए वरदान है

मेरे एक मित्र ने कहा:
रक्तचाप का गिरना बुरी बात है
लेकिन उसके बढ़ जाने में कोई हरज नहीं
क्योंकि सारे बड़े फ़ैसले
उच्च रक्तचाप के
दौरान ही लिये जाते हैं

इसलिए यह खोज का विषय है
कि अठारह सौ सत्तावन की
डेढ़ सौवीं सालगिरह मना रहे
देश के प्रधानमन्त्री का
विगत ब्रिटिश हुकूमत के लिए
इंग्लैण्ड के प्रति आभार-प्रदर्शन
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए
वित्त मन्त्री का निमंत्रण--
कि आइये हमारे मुल्क में
और इस बार
ईस्ट इण्डिया कम्पनी से
कहीं ज़्यादा मुनाफ़ा कमाइये
और नन्दीग्राम और सिंगूर के
हत्याकांडों के बाद भी
उन पाँच सौ विशेष आर्थिक क्षेत्रों को
कुछ संशोधनों के साथ
क़ायम करने की योजना-
जिनमें भारतीय संविधान
सामान्यतः लागू नहीं होगा--
क्या इन सभी फ़ैसलों
या कामों के दरमियान
हमारे हुक्मरान
उच्च रक्तचाप से पीडि़त थे?

या वे असंख्य भारतीय
जो अठारह सौ सत्तावन की लड़ाई में
अकल्पनीय बर्बरता से मारे गये
कर्ज़ में डूबे वे अनगिनत किसान
जिन्होंने पिछले बीस बरसों में
आत्महत्याएँ कीं
और वे जो नन्दीग्राम में
पुलिस की गोली खाकर मरे-
अपना रक्तचाप
सामान्य नहीं रख पाये?

यों तुम भी जब मरोगे
तो कौन कहेगा
कि तुम उत्तर आधुनिक सभ्यता के
औज़ारों की चकाचौंध में मरे
लगातार अपमान
और विश्वासघात से

कौन कहता है
कि इराक़ में जिसने
लोगों को मौत की सज़ा दी
वह किसी इराक़ी न्यायाधीश की नहीं
अमेरिकी निज़ाम की अदालत है

सब उस बीमारी का नाम लेते हैं
जिससे तुम मरते हो
उस विडम्बना का नहीं
जिससे वह बीमारी पैदा हुई थी


टैरू

कुछ अर्सा पहले
एक घर में मैं ठहरा था

आधी रात किसी की
भारी-भारी साँसों की आवाज़ से
मेरी आँख खुली
तो देखा नीम-अँधेरे में
टैरू एकदम पास खड़ा था
उस घर में पला हुआ कुत्ता
बाॅक्सर पिता और
जर्मन शेफ़र्ड माँ की संतान

दोपहर का उसका डरावना
हमलावर भौंकना
काट खाने को तत्पर
तीखे पैने दाँत याद थे
मालिक के कहने से ही
मुझको बख़्श दिया था

मैं बहुत डरा-सहमा
क्या करूँ कि यह बला टले
किसी तरह हिम्मत करके
बाथरूम तक गया
बाहर आया तो टैरू सामने मौजूद
फिर पीछे-पीछे

बिस्तर पर पहुँचकर
कुछ देर के असमंजस
और चुप्पी के बाद
एक डरा हुआ आदमी
अपनी आवाज़ में
जितना प्यार ला सकता है
उतना लाते हुए मैंने कहा:
सो जाओ टैरू !

टैरू बड़े विनीत भाव से
लेट गया फ़र्श पर
उसने आँखें मूँद लीं

मैंने सोचा:
सस्ते में जान छूटी
मैं भी सो गया

सुबह मेरे मेज़बान ने
हँसते-हँसते बताया:
टैरू बस इतना चाहता था
कि आप उसके लिए गेट खोल दें
और उसे ठंडी खुली हवा में
कुछ देर घूम लेने दें

आज मुझे यह पता लगा:
टैरू नहीं रहा

उसकी मृत्यु के अफ़सोस के अलावा
यह मलाल मुझे हमेशा रहेगा
उस रात एक अजनबी की भाषा
उसने समझी थी
पर मैं उसकी भाषा
समझ नहीं पाया था


वृक्षारोपण

प्रबोध जी अध्यापक हैं
जि़ला शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान में

एक दिन सरकारी निर्देशों के मुताबिक़
वहाँ वृक्षारोपण कार्यक्रम का आयोजन हुआ

मुख्य अतिथि बनाये गये
संयुक्त शिक्षा निदेशक
यानी जे.डी. साहब
प्रबोध जी को संचालन सौंपा गया

प्राचार्या ने स्वागत-भाषण में
जे.डी. साहब के लिए वही कहा
जो कबीर ने प्रभु की
महिमा में कहा था:
‘‘सात समुंद की मसि करौं,
लेखनि सब बनराइ।
धरनी सब कागद करौं,
हरि गुन लिखा न जाइ।।’’

प्रबोध जी से रहा नहीं गया
संचालक की हैसियत से वह बोले:
‘जब मुख्य अतिथि की तारीफ़ में
काट डाले जायेंगे बनराइ
तो वृक्षारोपण
क्यों करते हो भाई?’


कमीनों का क्या है

गाँव से एक महाशय आये
रईस, सम्मानित, प्रभावशाली
एक गृह-प्रवेश समारोह में
मिल गये

गाँव में उनके कई धंधे
खाद, सीमेण्ट, डीज़ल
दवाओं की बिक्री के
एक जीप किराये पर चलाने की
हर धंधे में मिलावट, बेईमानी
चोरी, जालसाज़ी और झूठ

एक और धंधा
पाँच सौ रुपये के नक़ली
नोटों का
जिनमें-से कुछ आखि़रकार
पुलिस ने ज़ब्त किये
उनके घर से
एक आधी रात
जिसका मुक़द्दमा
शायद अब भी चलता हो
किसी अदालत में

और वह ज़मानत पर छूटे हुए
उनका लाखों का कारोबार

बहरहाल, उस जलसे में मुझसे
अपनी पत्नी की
बीमारी का जि़क्र किया
पूछा: कोई डाॅक्टर बताओ
पेट का जानकार

मैंने कहा: हाँ! हैं
इस शहर में
एक बहुत बड़े डाॅक्टर
उनको दिखाइये
शर्तिया फ़ायदा होगा
डाॅक्टरी इतनी चलती है
कि अभी इनकम टैक्स का
छापा पड़ा था
करोड़ों रुपये बरामद हुए

वह सुनते रहे ध्यान से
फिर गुस्से में बोले-
कमीनों का क्या है
फिर कमा लेंगे

यह बात
ऐसे कही गयी थी
इतनी हिक़ारत और इत्मीनान से
जैसे यह ख़ुद उनके बारे में
सही नहीं थी


तुम जहाँ मुझे मिली थीं

तुम जहाँ मुझे मिली थीं
वहाँ नदी का किनारा नहीं था
पेड़ों की छाँह भी नहीं

आसमान में चन्द्रमा नहीं था
तारे नहीं

जाड़े की वह धूप भी नहीं
जिसमें तपते हुए तुम्हारे गौर रंग को
देखकर कह सकता:
हाँ, यह वही ‘श्यामा’ है
‘मेघदूत’ से आती हुई

पानी की बूँदें, बादल
उनमें रह-रहकर चमकनेवाली बिजली
कुछ भी तो नहीं था
जो हमारे मिलने को
ख़ुशगवार बना सकता

वह कोई एक बैठकख़ाना था
जिसमें रोज़मर्रा के काम होते थे
कुछ लोग बैठे रहते थे
उनके बीच अचानक मुझे देखकर
तुम परेशान-सी हो गयीं
फिर भी तुमने पूछा:
तुम ठीक तो हो?

तुम्हारा यह जानते हुए पूछना
कि मैं ठीक नहीं हूँ
मेरा यह जानते हुए जवाब देना
कि उसका तुम कुछ नहीं कर सकतीं

सिर्फ़ एक तकलीफ़ थी जिसके बाद
मुझे वहाँ से चले आना था
तुम्हारी आहत दृष्टि को
अपने सीने में सँभाले हुए

वही मेरे प्यार की स्मृति थी
और सब तरफ़ एक दुनिया थी
जो चाहती थी
हम और बात न करें
हम और साथ न रहें
क्योंकि इससे हम
ठीक हो सकते थे


आभार

एक प्रदेश की राजधानी में मिले वह
राष्ट्रीय परिसंवाद में
एक विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर
हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक

नींद से जगाकर पहली ख़बर
उन्होंने मुझे यही दी -
‘मैं विभागाध्यक्ष नहीं बन पाया’

मैं समझ नहीं सका
इस बात का
मेरी जि़न्दगी से
क्या सम्बन्ध है

तभी वहाँ आये मेरे मित्र
मैंने उनसे परिचय कराया -
ये गिरिराज किराडू हैं
युवा कवि
‘प्रतिलिपि’ के संपादक

बाद में उन्होंने पूछा -
‘किराडू क्या तमिलनाडु का है ?’

मैंने कहा: नहीं
पर आपको ऐसा क्यों लगा ?

वह बोले: किराडू
चेराबंडू राजू से
मिलता-जुलता नाम है

वैसे जो नाम वह ले रहे थे
सही रूप में चेरबंडा राजु है
क्रांतिकारी तेलुगु कवि का

फिर उन्होंने किसी प्रसंग में कहा:
स्त्रियाँ पुरुषों को
एक उम्र के बाद
दया का पात्र
समझने लगती हैं

परिसंवाद के आखि़री दिन
उन्हें बोलना था
‘आलोचना के सौन्दर्य-विमर्श’ पर
मगर उससे पहले उनकी ट्रेन थी
इसलिए आयोजकों ने चाहा
कि वह ‘आलोचना के समाज-विमर्श’ पर
कुछ कहें

यों एक सत्र का शीर्षक
‘आलोचना का धर्म-विमर्श’ भी था

उन्होंने मुझसे कहा:
इस सत्र में बोलने को कहा जाता
तो ज़्यादा ठीक रहता

फिर कारण बताया:
हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ आलोचना
धर्म ही पर न लिखी गयी है

बहरहाल। उन्होंने अपने सत्र
‘आलोचना का समाज-विमर्श’ में
जो कुछ कहा
उसका सारांश यह है:
पहले भी दो बार बुलाया था यहाँ
व्यवस्था अच्छी है
आभारी हूँ
इस बार भी
आभार


शमीम

जाड़े की सर्द रात
समय तीन-साढ़े तीन बजे
रेलवे स्टेशन पर
घर जाने के लिए
मुझे आॅटो की तलाश

आखि़र जितने पैसे मैं दे सकता था
उनमें मुझे मिला
आॅटो-ड्राइवर एक लड़का
उम्र सत्रह-अठारह साल

मैंने कहा: मस्जिद के नीचे
जो पान की दुकान है
ज़रा वहाँ से होते हुए चलना

रास्ते में उसने पूछा:
क्या आप मुसलमान हैं?

उसके पूछने में
प्यार की एक तरस थी
इसलिए मैंने कहा: नहीं,
पर होते तो अच्छा होता

फिर इतनी ठंडी हवा थी सख़्त
आॅटो की इतनी घरघराहट
कि और कोई बात नहीं हो सकी

लगभग आधा घंटे में
सफ़र ख़त्म हुआ
किराया देते वक़्त मैंने पूछा:
तुम्हारा नाम क्या है?

उसने जवाब दिया: शमीम ख़ान
 
नाम में ऐसी कशिश थी
कि मैंने कहा:
बहुत अच्छा नाम है

फिर पूछा:
तुम पढ़ते नहीं हो?

एक टूटा हुआ-सा वाक्य सुनायी पड़ा:
कहाँ से पढ़ें?

यही मेरे प्यार की हद थी
और इज़हार की भी


पुरुषत्व एक उम्मीद

मोबाइल आप कहाँ रखेंगे?

क़मीज़ के बायीं ओर
ऊपर जेब में?
तो दिल को ख़तरा है

कान से लगाकर रोज़ाना
ज़्यादा बात करेंगे
तो कुछ बरसों में
आंशिक बहरापन
आ सकता है

सिर के पास रखने से
ब्रेन ट्यूमर का अंदेशा है

टेलीकाॅम कम्पनियों के
बेस स्टेशनों के
एंटीना से निकलती ऊर्जा
कोशिकाओं का तापमान बढ़ाती है
बड़ों की बनिस्बत बच्चे इससे
अधिक प्रभावित होते हैं

मोबाइल के ज़्यादा इस्तेमाल से
याददाश्त और दिशा-ज्ञान सरीखी
दिमाग़ी गतिविधियों पर
व्यवहार पर
बुरा असर पड़ता है
ल्यूकेमिया जैसी ख़ून की बीमारी
हो सकती है

इसलिए डाॅक्टर कहते हैं:
कुछ घण्टे मोबाइल को
पूरे शरीर से ही
दूर रखने की आदत डालें

और अगर पैंट की जेब में रखेंगे
तो पुरुषत्व जा सकता है

इस पर एक उच्च-स्तरीय भारतीय संस्थान में
कुछ बुद्धिजीवी
अपने एक सहधर्मी के सुझाव से
सहमत और गद्गद थे
कि दिल भले जाय
हम तो पुरुषत्व को बचायेंगे

इस तरह मैंने जाना
पुरुषत्व एक उम्मीद है समाज की
जिसके पास दिल नहीं रहा


[यह अप्रतिम कविताएं और मंगलेश जी की टिप्पणी 'उद्भावना' में प्रकाशित हैं. तस्वीर पावेल कुचिंस्की की. बुद्धू-बक्सा सभी के प्रति आभारी]

सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

'हैदर' पर विष्णु खरे

['हैदर' एक कथानक के साथ-साथ कई और भी कहानियां कहती है. एक संवेदनशील मुद्दे को अपना केन्द्र बनाने वाली फ़िल्म की सभी दिशाओं से समीक्षा होनी चाहिए. उसे बस फ़िल्म मान लिखकर छोड़ देना और उससे भी बुरा कि कुछ तारों से नवाज़ देना शर्तिया एक घटिया प्रैक्टिस है. इससे बाज़ आना होगा. इसी बीच जब विष्णु खरे फ़िल्मों पर लिखते या बात करते हैं, तो व्यक्तिगत राय से अलग यह तो साफ़ हो ही जाता है कि किसी भी फ़िल्म इतने व्यापक तरीके से बात करने को ही सिनेमा के कल्चर पर बात हुआ माना जाएगा. बाकी सब तो उधड़े हुए धागों के रंग उतारने सरीखा होता है, उसमें कोई जगह नहीं होती कि कोई प्रश्न उपजे. पिछले दिनों हुई बातों-बहसों में यह बात तो सामने आई कि हिन्दी के बहुत बड़े समाज को पता भी नहीं कि विष्णु खरे की सिनेमा पर लेखन की दो क़िताबें हमारे बीच मौजूद हैं. लेकिन अंधी बहस में तथ्य कहां काम आते हैं, को कमोबेश एक 'अलौकिक' 'सचाई' मानते हुए बुद्धू-बक्सा आप सभी के सामने यह लेख प्रस्तुत कर रहा है. नवभारत टाइम्स में इस आलेख का संपादित रूप प्रकाशित. बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे का आभारी.]

शेक्सपिअर और कश्मीर के बीच विशाल-हैदरी ‘टु बी ऑर नॉट टु बी’


सबसे पहले तो यह कि विशाल भारद्वाज की फिल्म में एक सम्मोहन और ताक़त है और वह आज की अधिकांश हिंदी, अनुराग कश्यप की भी, फिल्मों से बेहतर है, लेकिन जब वह खुद कहते हैं और पोस्टरों पर छपवाते हैं कि ‘हैदर’ काफ़ी पुरानी और कठिन अंग्रेज़ी में लिखे गए, विश्व के महानतम नाट्यलेखक शेक्सपिअर के अभी-तक विवादास्पद विश्वविख्यात (एलिज़ाबेथ-प्रथम-अकबरयुगीन) नाटक ‘हैम्लैट’ पर आधारित है, तब भारतीय फिल्म-अध्येता और सामान्य दर्शक क्या करें? भारत में आज मूल ‘हैम्लैट’ को पढ़े और याद रखे हुए दस लाख लोग भी होंगे यह मानना कठिन है.

ऐसा नहीं है कि हिंदी-उर्दू पट्टी ‘हैम्लैट’ से नितांत अपरिचित रही है. वह ‘ख़ूने-नाहक’ नाम से पारसी-उर्दू-थिएटर शैली में ख़ूब खेला गया है. हिंदी में अमृतराय और हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने - दोनों अंग्रेज़ी साहित्य में अच्छे एम.ए., ‘बच्चन’ तो अलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक भी रहे – ‘हैम्लैट’ के अनुवाद किए हैं, जिनमें से बच्चन वाला तो खासा खराब है, उसकी एक सख्त समीक्षा भी हुई थी, लेकिन अमृतराय का निस्बतन बेहतर है और दोनों बाज़ार में हैं. अगर मैं बातिल नहीं हूँ तो ‘बच्चन’ वाला दिल्ली में खेला भी गया था और उसमें तब शायद उनके बेटे, कॉलेज-छात्र अमिताभ बच्चन हैम्लैट बने थे जिनकी अप्रतिम सुन्दरी माँ तेजी ने उनकी नाट्य-मातृ गरट्रूड की भूमिका निबाही थी. यह जानना भी अनिवार्य है कि इन अनुवादों और मंचनों से बहुत पहले मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ की बहुमुखी, सुस्थापित सिने-प्रतिभा किशोर साहू, जिनका जन्मशती वर्ष लगने ही वाला है, ‘हैम्लैट’ पर इसी नाम से पहली हिंदी फिल्म बना चुके थे. वह उसके निर्माता-निदेशक तो थे ही, लेखक भी थे और सुपरिचित अभिनेता होने के नाते स्वयं उन्होंने हैम्लैट के किरदार का जिम्मा ले लिया था. लोगों को जानकर हैरत होगी कि उन्होंने फिल्म की ट्रैजिक युवा नायिका ओफ़ेलिआ के रूप में माला सिन्हा को इंडस्ट्री में इंट्रोड्यूस किया था. किशोर साहू की उम्र उस समय अपने युवा नायक से कहीं ज्यादा थी लेकिन चेहरे-मोहरे से वह उस भूमिका के लिए उपयुक्त ज़रूर लगते थे. विडंबना है कि हैम्लैट का किरदार संसार के सबसे लोकप्रिय किन्तु कठिनतम नाट्य-सिने पात्रों में गिना जाता है. अभी भी कोई उसे खेल रहा होगा. किशोर साहू के दुस्साहस को सराहा गया, उनकी ‘हैम्लैट’ की नियति ठीक उनके नायक की तरह बेहद त्रासद रही.

‘हैम्लैट’ कहानी है डेनमार्क के उस युवा राजकुमार की जिसके पिता हैम्लैट वरिष्ठ की मृत्यु पर उसका चाचा क्लॉडिअस राजा बनकर अपनी सगी विधवा भाभी गरट्रूड से विवाह रचा लेता है. पिता हैम्लैट का प्रेत आकर पुत्र हैमलेट को बताता है कि क्लॉडिअस ने उसकी हत्या की है जिसका बदला उसे लेना ही है. राजमहल में एक नाटक के मंचन के ज़रिये हैम्लैट पर साबित हो जाता है कि उसका चाचा वाक़ई खूनी है. वह इसे अपनी माँ को भी बता देता है. वह राजा के मंत्री पोलोनिअस की बेटी ओफ़ेलिया से प्रेम करता है लेकिन राजा के धोखे में पोलोनिअस को मार डालता है और इस सदमे के बाद ओफ़ेलिया पागल होकर नदी में डूब जाती है. राजा समझ जाता है कि हैम्लैट पागल होने का अभिनय कर रहा है. ओफ़ेलिया का भाई लेअर्टीज़ हैम्लैट को द्वंद्व युद्ध की चुनौती देता है लेकिन ज़हर-बुझी तलवार से. कोई जोखिम न उठाने के लिए क्लॉडिअस भी हैम्लैट के लिए विषैली शराब तैयार रखता है लेकिन धोखे से गरट्रूड ही उसे पीकर मर जाती है. लेअरटीज़ और हैम्लैट उसी ज़हरीली तलवार से मरणान्तक रूप से घायल हो जाते हैं लेकिन मरणासन्न लेअरटीज़ हैम्लैट को राजा के षड्यंत्र से आगाह कर देता है और मरने से पहले हैम्लैट अपने सौतेले पिता राजा को मौत के घाट उतार देता है.

‘हैम्लैट’ के साथ सैकड़ों अच्छे-बुरे, संजीदा-मज़ाहिया, बहुविध प्रयोग हुए हैं और होते रहेंगे. उनके विवादास्पद मूल्यांकन भी ख़त्म नहीं हुए है. ‘हैम्लैट’ का सबसे संगीन, विस्फोटक  और ‘कुख्यात’ जायज़ा बीसवीं सदी में शायद शेक्सपिअर से कुछ ही कम समादृत विश्व-साहित्य-प्रतिभा, नोबेल पुरस्कार विजेता टी.एस.एलिअट ने लिया था जब उन्होंने अपने नामस्रोतीय निबंध में कहा था कि ‘(Hamlet) is most certainly an artistic failure.’ {“(हैम्लैट) नितांत निश्चित रूप से एक कलात्मक विफलता है”}. ऐसा उन्होंने ‘Objective Correlative’ (‘विषयनिष्ठ सह-सम्बन्ध’) का अपना विश्वविख्यात आलोचना-सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए घोषित किया था जो उनकी इस मान्यता से उपजा था कि हैम्लैट नाटक की कहानी और सम्बद्ध चरित्र हैम्लैट पात्र की भावनाओं को कोई औचित्य या सहारा नहीं देते. चाचा से विवाह करने का अपराध करने वाली अपनी विधवा माँ को लेकर हैम्लैट की भावनाएँ बहुत अतिरंजित हैं. माँ और चाचा से बदला लेने में हैम्लैट इतनी देर क्यों करता है यह भी समझ में नहीं आता.

‘हैम्लैट’ की जो बीसियों सूक्तियाँ लाखों लोगों की ज़ुबान पर हैं उनमें से एक ‘Something is rotten in the state of Denmark’ (‘डेनमार्क राज में कुछ सड़ा हुआ है’) भी है, जो कोई राजनीतिक बयान नहीं है. शेक्सपिअर के कई नाटकों में प्रकट-प्रच्छन्न राजनीति है लेकिन ‘हैम्लैट’ सिर्फ़ प्रतिशोध-गाथा है. विशाल भारद्वाज ने ‘हैदर’ को 1995 के भारतीय जम्मू-कश्मीर में स्थापित किया है, जिससे साफ़ है कि वह मूल ‘हैम्लैट’ की सामंतवादी दुनिया को नकारते हुए उसके अपने रूपांतर को एक राजनीतिक फिल्म भी बनाना चाहते थे. उतना ही मानीखेज़ यह है कि ‘हैदर’ अपनी कहानी के लिए कश्मीरी मध्यवर्गीय ‘मुख्यधारा’ मुस्लिम परिवारों को चुनती है. सभी जानते हैं कि कश्मीर में एक उग्र, लगभग दहशतपरस्त, अलगाववादी आन्दोलन बरसों से चल रहा है जिसकी सही-ग़लत माँग भारत से ‘आज़ाद’ होने की है, स्वतंत्र जम्मू-कश्मीर राष्ट्र के रूप में या/यानी पाकिस्तान में विलीन हो जाने के लिए. इसमें पकिस्तान की केन्द्रीय भूमिका तो है ही, यह वैश्विक दिग्भ्रमित जिहादी आतंकवाद के एजेंडा पर भी आ चुकी है. सभी शामिल पक्षों द्वारा आपस में काफ़ी नाइंसाफ़ी, हिंसा, साज़िशें, दरिन्दगियाँ और इल्ज़ामबाज़ियाँ की जा रही हैं. भारत के लिए कश्मीर को आज़ादी देना नामुमकिन है क्योंकि उसके व्यापक परिणाम दक्षिण एशिया, इस्लामी कौम और दुनिया तथा शेष सारे संसार के लिए विनाशकारी सिद्ध होंगे.

कोई भी भारतीय निदेशक चाहे तो भी ऐसी फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं कर सकता जो खुल्लमखुल्ला कश्मीर को भारत से अलग करने की माँग करे. सवाल सिर्फ़ सेंसर या सी.पी.सी., सी.आर.पी.सी. का नहीं है, अकल्पनीय राजनीतिक, सामाजिक, सैन्य और धार्मिक समस्याओं का है. दक्षिण एशिया सरीखे बारूदी और ऐटमी क्षेत्र में एक सीमा के बाद अलगाववाद या उग्रवाद को लेकर सदाशयता और आदर्श काम नहीं आते. इसीलिए ‘हैदर’ सरीखी फिल्म एक सीमा के बाद अनेकार्थी या दोमुँही हो जाने के लिए अभिशप्त है. उसकी समस्या हैम्लैट के अमर जुमले To be or not to be, that is the question की बन जाती है. अंत में हैदर की माँ उसे समझाती है कि इन्तेकाम से इन्तेकाम ही पैदा होता है, लेकिन वह हैण्ड-ग्रेनेडों का आत्महंता काली-नरमुण्ड-हार क्यों पहने हुए है जिससे वह खुदकुशी करती है और अन्य कई को मारती है? यदि हैदर इतना मानवीय आदर्शवादी है कि अपने पिता के हत्यारे चाचा को मार ही नहीं पाता तो फिर सारा रोना किस बात का है? क्या वह यही पैग़ाम लेकर पाकिस्तान चला जाता है? उसे वहाँ या तो आतंकवादी बन जाना है या एक सदाशय लाश. और वह सौतेला पिता-चाचा जो बख्श दिया गया, उसका मुस्तक़बिल क्या है? जम्मू-कश्मीर का मुजरिम मुख्यमंत्री बनना, या वही लाश? ग़ज़ाला की बेमक़सद कुर्बानी, जिसने कई तात्कालिक ‘बेकुसूरों’ की जान ली, न अपने बेटे को बचा पाएगी न अपने पहले शौहर के क़ातिल दूसरे शौहर को.

क्या कश्मीर में कभी ऐसे डॉक्टर को पुलिस या सेना ने मरवाया है जिसने किसी खूँख़्वार उग्रवादी सरग़ना को मौत से बचाने के लिए ही सही लेकिन हिपोक्रेटीय शपथ को निभाते हुए उसके ऑपरेशन का जुर्म किया हो? यूँ तो दुनिया में क्या नहीं होता, लेकिन क्या कोई भाई अपनी भाभी को हासिल करने के लिए अपने कुल मिलाकर मामूली बड़े भाई की मुख़बिरी कर सकता है, यह जानते हुए कि हिरासत में मार डाले जाने में उसे कुछ वक़्त लगेगा? ख़ाविन्द के गुम होने लेकिन लाश बरामद न होने पर एक मुस्लिम औरत किन रस्मों-रिवायतों के बाद दूसरी शादी कर सकती है? अपने देवर-शौहर के खूनी साबित हो जाने के बाद उसे वह कम-से-कम तलाक़ ही क्यों नहीं देती? ईडिपसीय-फ़्रोइडीय इशारे किए गए हैं कि ख़ुद हैदर बेटे की हद से बाहर जाकर अपनी माँ को चाहता है और शायद इसी तरह माँ भी उसे. क्या इसीलिए वह अपनी माँ के चहेते को मारने में इतनी देर कर रहा है? फिर उसके वालिद की रूह रूह्दार के लाए गए इन्तेकाम के पैग़ाम को इतना तूल देने का भला क्या मतलब? रूह्दार लंगड़ा क्यों है – इसलिए कि कश्मीरी अलगाववाद के पैर नहीं हैं? क्या इस्लाम में कब्र खोद कर कंकाल से खेलना जायज़ है?

‘हैदर’ अधिक तार्किक फिल्म हो सकती थी यदि डॉक्टर पिता को एक ‘भला’ और वकील चाचा को एक ‘चालाक-खतरनाक’ पुलिस या सेना अधिकारी दिखाया जाता और शायरमिजाज़ हैदर अपनी माँ को याद करता हुआ बेमन से ख़ुद पारिवारिक परम्परा में पुलिस या फ़ौज की ट्रेनिंग ले रहा होता. उसका यदि बचपन का फोर्टिर्न्ब्रास–जैसा हिन्दू पंडित दोस्त भी होता तो तो फिल्म की एक बड़ी खला भर जाती लेकिन ‘हैदर’ नए और निदेशक के लिए कठिन आयाम हासिल कर लेती. तब शायद उसमें ‘ऑब्जेक्टिव कोर्रेलेटिव’ की क़िल्लत न होती और वह शेक्सपिअर की ‘आत्मा’ के नज़दीक होती. उसमें वह यहूदी ‘खुत्स्पा’ या ‘हुत्स्पा’ भी होता जिसे शायद सनी लेओने आंटी की आमद के बाद ‘हैदर’ के कुछ किरदार ‘चुत्सपा’ कहने के चक्कर में पड़ गए हों. हैदर अलीगढ़ में पढ़ता है जहाँ संसार की सारी इस्लामी गतिविधियों की ताज़ातरीन ख़बरें माहौल में रहती हैं लेकिन उसे कश्मीर की भयावह सचाइयों, खुद अपने बँगले के बर्बाद हो जाने का पहला इल्म अनंतनाग उर्फ़ इस्लामाबाद लौट कर ही क्यों होता है – क्या इसलिए कि वह एक अंग्रेज़ी शाइर है? फिल्म का सबसे कमज़ोर और गड्डमड्ड किरदार उसकी प्रेमिका का है जिसकी मौत क़तई विचलित नहीं करती, जबकि ओफ़ेलिया की मिनी-ट्रेजेडी विश्व-साहित्य में अमर है. उसकी कब्र पर हुए ‘कन्फ्रंटेशन’ को स्टंटबाज़ी में बदल दिया गया है और योरिक की खोपड़ी के साथ हैदर की बातचीत बेअसर है. दरअसल ‘हैम्लैट’ को पढ़े बिना कब्रिस्तान के ‘ब्लैक ह्यूमर’(‘विकट-विनोद’) के दृश्यों को समझना नामुमकिन-सा है.

‘हैदर’ में सभी ने अच्छा ‘आँसाँब्ल’ काम किया है लेकिन अपने ‘पागलपन’ और उसके बाद शाहिद कपूर ने अदाकारी के हैरतअंगेज़ नए मयार क़ायम किए हैं. ‘अंदाज़’ के दिलीप कुमार की याद आती है. गाने और धुनें अलबत्ता कमज़ोर और ग़ैर-ज़रूरी हैं लेकिन फिल्म का बहुत नुकसान नहीं कर पाते क्योंकि वह बाँधे रखती है. कश्मीरी-कल्चर की मौजूदगी त्रासद रूप से सुखद है लेकिन पता नहीं महजूर और लल्ला आरिफ़ा का इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया. ‘हैदर’ का ‘Artistic failure’ इस बात में है कि नायक की निजी और पारिवारिक कहानी की वेल्डिंग कश्मीर-समस्या के साथ सफाई से कर नहीं पाई लेकिन एक फिल्म की सार्थकता और सफलता इसमें भी है कि वह देखने-लायक़ तो हो ही, कुछ कमाई भी कर ले, नया पढ़ने-जानने-समझने-देखने की चुनौती दे और संभव हो तो एक व्यापक और लम्बी बहस को जन्म भी दे. विशाल भारद्वाज की ‘हैदर’ इन कसौटियों पर अठारह-बीस कैरेट भी ख़री उतरती है तो वह फिर मक़बूल है. यूँ भी उन्होंने शेक्सपिअर के अपने तीन स्तरीय सिने-रूपांतरों के ज़रिये एक विश्व-कीर्तिमान जैसा कुछ स्थापित कर डाला है, अब ‘किंग लिअर’, ‘कोरिओलेनस’ और ‘जूलिअस सीज़र’ को उनकी प्रतीक्षा है.

सोमवार, 8 सितंबर 2014

ख़्वाजा अहमद अब्बास की जन्मशती पर विष्णु खरे

[सिनेमा क्या, कहां, कैसे और कितना है? ऐसे प्रश्नों के उत्तर कमोबेश सभी को मालूम हैं. न मालूम हों, तो उत्तर उपलब्ध कराने के लिए एक लंबे स्तर की बहस बहुत दिनों से चल रही है, वहां जाकर गिरा जा सकता है. लेकिन सिनेमा किस हाल में रहकर आया है, 'हाल' को 'स्थायित्व' या 'ऊंचाई' से तब्दील भी कर सकते हैं, यह जानना थोड़ा ज़्यादा ज़रूरी है. ऐसे में हिन्दी के पाठकों के लिए विष्णु खरे से बढ़िया रास्ता और बहाना ढूंढ पाना थोड़ा मुश्किल है. विष्णु खरे सिनेमा, जो खुद में एक बहुत विराट संस्था है, पर बहुत समय से लिख रहे हैं, जिसे पढ़ना बहुत कुछ सीखना है. यह ख़्वाजा अहमद अब्बास की जन्मशती है. सचाई के मलबे पर खड़े होकर कहा जाए तो ख़्वाजा अहमद अब्बास को स्मृति में अंकित करने का दौर बहुत बाद में आया, जब यह जानना शुरू किया कि आज से पन्द्रह-बीस साल पहले जो झिलमिलाती फ़िल्म देखी थी, उसे अब्बास ने लिखा था. तो ऐसा कहना यह बताना है कि इस लेख की सबसे ज़्यादा ज़रूरत किस पीढ़ी को है, बीते समय का हिसाब लगाना किसका काम है? यह लेख पहले दृश्यान्तर में प्रकाशित. बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे और दृश्यान्तर का आभारी.] 

वह अपनी हर विधा में प्रगतिकामी मूल्यों पर अडिग रहे

ख्वाज़ा अहमद अब्बास को ‘बहुमुखी प्रतिभा का धनी’ कहना एक पिष्टोक्ति है लेकिन उसके सिवा उन्हें कुछ कहा भी नहीं जा सकता – आप चाहें तो उसमें सिर्फ़ कहीं ‘प्रतिबद्ध’ जोड़ सकते हैं. उन्होंने 20 की उम्र के आसपास उर्दू कहानीकार के रूप में अपनी सृजन-यात्रा शुरू की, फ़क़त 27वें बरस में सार्थक सिनेमा से आजीवन जुड़ाव का आग़ाज़ किया, साथ-साथ उर्दू-हिंदी और अंग्रेज़ी पत्रकारिता में गहरा सक्रिय दख़ल दिया और 1935 के इर्द-गिर्द अदीब की हैसियत से तरक्क़ीपसंद तहरीक़ (प्रगतिशील आन्दोलन) और उसकी जन्मदात्री वैश्विक वामपंथी राजनीति से वाबस्ता हुए. यह सब करते हुए उन्हें चौतरफ़ा मुसीबतों और विवादों का सामना करना पड़ा लेकिन वह डटे रहे और वैसा आत्मपावन, शहीदाना पलायन नहीं किया जो उनके पहले और समान्तर प्रेमचंद या अमृतलाल नागर आदि कर चुके थे.

समस्या यह है कि अब्बास को मुख्यतः क्या माना जाए – मुख्तलिफ़ हैसियतों से उनके नाम पर क़रीब पाँच दर्ज़न फ़िल्में दर्ज़ हैं, अलग-अलग ज़ुबानों में कोई पचहत्तर किताबों पर उनके दस्तख़त हैं, उनके लिखे सियासी-ग़ैरसियासी अख़बारी कॉलमों की सही-सही शुमारी कठिन है और प्रगतिशील आन्दोलन और ‘इप्टा’ वगैरह में उन्होंने कौन-से कारनामे अंज़ाम दिए इसी के दस्तावेज़ मिलना मुश्किल है. फिर भी सच यही है कि 1941-91 की (‘नया संसार’ से ‘बॉबी’ तक की) अर्धशती में अगर संसार-भर के करोड़ों लोगों ने उनका नाम जाना, जो आज डीवीडी, इन्टरनैट, एमआरक्यूई और आइऐमडीबी वगैरह के ज़रिये ‘और अमर’ है, तो वह सिनेमा के साथ उनकी सोहबत की वजह से ही है. लेकिन यह भी सच है कि अगर वह सिर्फ़ लेखक होते, पत्रकार या सांस्कृतिक-राजनीतिक-सैद्धांतिक सक्रियतावादी ही, तब भी जन्मशती मनाए जाने के अधिकारी होते.

दूसरी आलमी जंग शुरू होने से पहले ही युवा अब्बास वामपंथी हो चुके थे और मध्य-1941 में मार्शल योसिफ़ स्त़ालीन के नेतृत्व में जब सोवियत रूस विश्व-इतिहास के अब तक के सबसे बड़े हमले का मुक़ाबला कर रहा था और वर्ष के अंत तक जर्मनी की नात्सी फौजों को परास्त कर अपने यहाँ से खदेड़ देने वाला था, अब्बास ने अपने जीवन की पहली सिने-कहानी और पटकथा लिखी और इस तरह ‘नया संसार’ शीर्षक फिल्म बनी जो प्रतिबद्ध पत्रकारिता जैसे अश्रुतपूर्व विषय पर शायद पहली भारतीय फिल्म थी और अपने सामयिक आदर्शवाद के बावजूद ख़बरख़रीद के इस बेहया ज़माने में अब भी प्रासंगिक है. 1946 में चेतन आनंद ने ‘इप्टा’ की आर्थिक मदद से बनाई गई अपनी फिल्म ‘नीचा नगर’ की पटकथा लिखने के लिए अब्बास को चुना और इस फिल्म ने युद्धोत्तर पहले कान फिल्म समारोह में भारत के लिए पहला सह-ग्रांप्री हासिल कर इतिहास बनाया. अब्बास की इन दोनों उपलब्धियों ने उनके अपने हौसले और दूसरों के उनकी प्रतिभा में यकीन को इतना बढ़ाया कि उन्होंने बंगाल के दुर्भिक्ष सरीखे जोखिम-भरे विषय पर आधारित अपनी पटकथा पर ‘इप्टा’ के सहयोग से 1946 में ही ‘धरती के लाल’ जैसी कालजयी फिल्म का निर्माण और निदेशन किया. इस वर्ष को अब्बास के फ़िल्मी जीवन का परिभाषी या निर्णायक वर्ष कहा जा सकता है क्योंकि उनकी प्रतिभा को वी. शांताराम जैसे व्यावसायिक रूप से सफल, आदर्शवादी मराठी-हिंदी निर्माता-निदेशक ने पहचाना और अपनी फिल्म ‘डॉ कोटनिस (मूल मराठी में ‘कोटणीस’ है) की अमर कहानी’ की कहानी और पटकथा के लिए चुना. मुझे याद है कि 1946-47 में मुझ जैसे लाखों बच्चों तक की ज़ुबान पर इस फिल्म का नाम रहा करता था.

भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसी सार्थक शुरूआत शायद ही किसी और लेखक-निदेशक को मिली हो लेकिन आज़ादी के वर्ष 1947 में जिस ‘आज और कल’ शीर्षक फिल्म का निदेशन अब्बास ने किया उसके बारे में सिर्फ़ यही पता चलता है कि उसमें श्याम, आरिफ़, नीता और नयनतारा ने काम किया था – गानों का भी कोई वजूद बचा नहीं है. ज़ाहिर है कि फिल्म अच्छी-ख़ासी फ्लॉप रही होगी क्योंकि उसके चार बरस बाद तक अब्बास को कोई काम नहीं मिला. लेकिन जब मिला तो ऐसा कि बहुत कम को नसीब होता है. अल्लाह बेहतर जानता है कि इस पूरे किस्से में कितना सच है लेकिन अब्बास अपनी नई स्क्रिप्ट लेकर महबूब के पास गए जिन्होंने कहा कि उसमें बाप के रोल में अशोक कुमार को लेंगे और बेटे के रोल में दिलीप कुमार को. अब्बास राज़ी न हुए. नर्गिस को मालूम पड़ा कि कहानी नायाब है. उसने राज कपूर को बताया. राज कपूर अब्बास से मिलने उस होटल में गया जिसमें अब्बास आठ आने प्रति रात्रि एक खटिया पर सोते थे. राज कपूर की जेब में बयाने के लिए डेढ़ रुपये थे लेकिन अब्बास ने कहा कि इसे लौटने के किराये के वास्ते बचा ले जाओ. राज कपूर के अतिनाटकीय पापाजी पृथ्वीराज कपूर फिल्म के लिए राज़ी होंगे या नहीं इस पर भी सस्पैन्स रहा.
‘आवारा’ ने इतना इतिहास रचा जो कई सदियों पर भारी है. बेशक़ उसमें कुछ मेलोड्रामा है और कोर्ट-सीन को चीख़-पुकार के साथ खींचा गया है लेकिन वह शायद भारत की पहली ‘आधुनिक’ ‘वयस्क’ फिल्म है, जिसने सोवियत संघ और तत्कालीन कई पूर्वी और पश्चिमी विकासशील देशों के दर्शकों, सिनेमा और संगीत पर गहरा असर डाला और राज कपूर–नर्गिस की जोड़ी को भारत में ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व लोकप्रियता दी. बेशक़ ‘आवारा’ के हर 35 मि.मी. पर राज कपूर की मुहर है लेकिन खुद राज कपूर के किरदार पर अब्बास की अमिट छाप है. उसके बाद राज कपूर पहले जैसा नहीं रहा और जितना उसने बदलने की कोशिश की, ‘आवारा’ जैसा होता गया.

‘आवारा’ में अब्बास ने राज कपूर के किरदार को कैसा गढ़ा था यह देखते हुए नर्गिस ने 1952 में अब्बास से गुजारिश की वह उनके लिए एक ख़ास फिल्म लिखें और डायरेक्ट करें जिसमें बेशक़ हीरो राज कपूर ही रहे लेकिन नायिका के रूप में उनकी भूमिका ऐसी हो जैसी  पहले किसी हीरोइन की नहीं रही. अब्बास ने ठीक वही, बल्कि उससे ज़्यादा, कर दिखाया. ‘अनहोनी’ न सिर्फ़ पहली नारी-मनोवैज्ञानिक फिल्म थी बल्कि नायिका के ‘डुअल रोल’ वाली पहली ऐतिहासिक भारतीय फिल्म भी थी. हालाँकि नर्गिस बहुत बाद में ‘रात और दिन’ में भी ऐसी ही दुहरी भूमिका निभाने वाली थीं लेकिन ‘अनहोनी’ में अब्बास का यह करिश्मा खेल बदल देने वाला था. नर्गिस की वह भूमिका और अदाकारी कुछ महानतम उपलब्धियों में शुमार की जाती है और महिला-एक्टिंग की एक ‘प्रैक्टिकल’ पाठ्य-पुस्तक या ‘मास्टरक्लास’ की तरह है. सच तो यह है कि ‘अनहोनी’ में राज कपूर के साथ यह अनहोनी हुई कि वह नर्गिस के सहायक अभिनेता की तरह नज़र आया. लेकिन वह ज़माना पूर्णरूपेण टुच्चे ईगोटिज्म का न होकर कुछ ‘महान विचारों’, चुनौतियों तथा फ़न और हुनर को समर्पण का भी था. ध्यान रहे कि यह अब्बास की पहली aut फिल्म थी. 1952 में ’आन’, ’बैजू बावरा’, ’जाल’ और ‘दाग’ के बाद ‘अनहोनी’ ने बॉक्स-ऑफिस पर सबसे ज़्यादा कमाई की थी, हालाँकि वह 1950 के ‘आवारा’ से बहुत कम थी लेकिन फिल्म हिट थी.

अब्बास के फ़िल्मी जीवन में एक पैटर्न देखा जा सकता है. उन्होंने बीसियों फिल्मों का निदेशन किया और उस हैसियत से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की लेकिन उस अहंकार में उन्होंने कभी-भी दूसरों के या ‘दूसरे’ सिनेमा के लिए कहानियाँ, पटकथा या संवाद लिखने से गुरेज़ नहीं किया. इसके पीछे एक मार्क्सवादी श्रमजीवी का ‘प्रोफ़ेशनलिज्म’ तो था ही, साथ में अपनी फ़िल्में अपनी कमाई, अपनी शर्तों और अपनी मर्जी से बनाने की एक प्रतिबद्ध रणनीति भी थी. उनके नाम से जुड़ी हुई कोई भी फिल्म यदि चर्चित या सफल होती थी तो उस ख्याति का फ़ौरन फ़ायदा उठा कर वह अपनी कोई नई फिल्म की घोषणा कर देते थे जिसमें अपनी यत्किंचित् पूंजी तो लगाते ही थे, पुराने या नए मित्रों, प्रशंसकों, आशावादी फ़िनान्सिअरों से भी पैसे उगाह लेते थे. यह उन्हीं की सूझ-बूझ नहीं थी, अनेक मुसीबतज़दा निर्माता-निदेशक आज भी ऐसा ही करते हैं. एक तो वह निस्बतन सस्ती फिल्मों का ज़माना था, दूसरे अब्बास को भी (कभी-कभी ज़रूरत से ज़्यादा) किफ़ायती फ़िल्में बनाना आता था. दरअसल वह वाजिब लागत की फ़िल्में ही बनाना चाहते थे. उनकी कुछ फ़िल्में अच्छी चलीं, कुछ अपनी लागत ही वसूल कर पाईं लेकिन बहुत कम इतनी नाकामयाब हुईं कि अब्बास दीवालिया होकर सड़क पर आ जाते.

1953 की फिल्म ‘राही’ शायद उनकी सबसे महत्वाकांक्षी फिल्मों में गिनी जाए. ब्रिटिश-कालीन चाय बागान की पृष्ठभूमि पर आधारित अपने प्रगतिशील-युग के मित्र मुल्कराज आनंद के विख्यात अंग्रेज़ी उपन्यास ‘टू लीव्ज़ एंड अ बड’ पर बनाई गई इस फिल्म में उस ज़माने की बॉक्स-ऑफिस जोड़ी देवानंद-नलिनी जयवंत और हिंदी फिल्मों के पहले और आख़िरी कम्यूनिस्ट और महान अभिनेता बलराज साहनी ने काम किया था और संगीत अनिल बिस्वास का था जिनकी फिल्म के शीर्षक पर आधारित कालजयी धुन ‘इस पल रुक जाना, जाने वाले राही’ और उपन्यास के शीर्षक पर आधारित कोरल  थीम-सॉंग ‘इक कली दो पतियाँ जाने हमरी सब बतियाँ’ पुराने नहीं पड़े हैं. कहा जाता है कि फिल्म टिकट-खिड़की पर मक़बूल रही थी लेकिन याद नहीं आता कि हमारे क़स्बे छिन्दवाड़ा तक पहुँची हो. उसके बाद, दुर्भाग्यवश, अब्बास ने बिना गानों की शायद पहली फिल्म ‘मुन्ना’ बनाकर एक जुआ खेला लेकिन पाँसे उलटे पड़े. फिल्म असफल रही पर इस योग्य समझी गई कि लन्दन में ‘पथेर पांचाली’ के साथ दिखाई जाए और पॉल रोथा उसकी सराहना करें. बहुत बाद में चेतन आनंद ने ‘मुन्ना’ की कहानी का इस्तेमाल ‘आख़िरी ख़त’ के लिए किया जो अपने अमर गीत ‘बहारो,मेरा जीवन भी संवारो’ के साथ सफल रही.

‘आवारा’ के सुपर-हिट कहानी-पटकथा-संवाद के यौगिक को दुहराते हुए राज कपूर ने 1955 में यह तिहरी ज़िम्मेदारी फिर अब्बास को सौंपी, जिसका अज़ीमुश्शान नतीज़ा था ‘श्री 420’, जो ‘आवारा’ से कहीं बेहतर फिल्म तो है ही, आज साठवें साल में भी इतनी अकाट्य है कि उससे एक फ़्रेम, एक शॉट, एक डायलॉग, एक आइडिआ निकालना लगभग असंभव है. ‘आवारा’ आज एक सीमित, आरोपित और ‘लेबर्ड’ समस्या लगती है जबकि ‘श्री 420’ अपने पहले चंद लम्हों में ही सर्वहारा और पूंजी के चिरंतन द्वंद्व में कूद पड़ती है. 1955 में अलाहाबाद यूनिवर्सिटी का सिर्फ़ एक गोल्ड मैडलिस्ट मुड़-मुड़ के न देखने के लिए सेठ सोनाचंद धर्मानंद की पत्तेबाज़ बम्बैया ‘दोल्चे वीता’ दुनिया द्वारा निगल लिया गया था, आज लाखों राज इसीलिए सुनहरी तमग़ा पाना चाहते हैं कि कैम्पस पर ही ‘बॉडी स्नैचर्स’ उन्हें आकर तिब्बत में सोने की ‘स्कैम’ दुनिया में ले जाएँ, उनके द्वारा लाखों को करोड़ों-अरबों से ठगा जाए, अपने निजी घर के सपने दिखलाकर नौदौलतिए सिन्धी, पंजाबी, मारवाड़ी बिल्डर मुंबई के झोपड़पट्टीवालों को फ़ुटपाथों पर फेक दें, ईमानदार, मेहनती निम्न और मध्यवर्गीय सुफ़ैदगरेबानों की ज़िंदगी-भर की जमा-पूंजी लूट कर चम्पत हो जाएँ.

अब्बास और राज कपूर के परस्पर बहुविध सहयोग का गहरा विश्लेषण शायद अब तक हुआ नहीं है. ‘आवारा’, ‘अनहोनी’, ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’, ‘चार दिल चार राहें’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘बॉबी’ और (मरणोपरांत) ‘हिना’ के माध्यम से अब्बास ने बतौर निर्माता, निर्देशक और अभिनेता के राज कपूर की, और एक निर्माण-गृह के रूप में आर.के.फिल्म्स की, जो छवि राष्ट्रीय-वैश्विक स्तर निर्मित की वह हिंदी फिल्म के इतिहास में अद्वितीय संगत है. दुर्भाग्य यह है कि इस चार दशक लम्बे साथ पर न तो राज कपूर ने सविस्तार लिखा और न अब्बास ने, और हमारे मित्र जयप्रकाश चौकसे तो दोनों को ख़ूब जानते हुए भी  ‘भास्कर’ के अपने प्रेम-लपेटे अटपटे कॉलम में ही मगन हैं. बहरहाल, ‘आवारा’ का शीर्षक भले ही चैप्लिन के ‘ट्रैम्प’ से प्रेरित हो, उसमें राज कपूर का किरदार मार्लन ब्रैंडो या जेम्स डीन के ज़्यादा करीब है लेकिन वह पहले ही दिलीप कुमार का इलाका बन चुका था, इसलिए ‘श्री 420’ में अब्बास ने मूलतः वामपंथी चार्ली चैप्लिन से सीख कर राज कपूर को जो पहली बार आपादमस्तक ‘चैप्लिनिस्क’ ‘कॉमिक हीरो’ बनाया उसने उनकी वह छवि सदा-सर्वदा के लिए पेटेंट कर दी. यूँ राज कपूर जब भी अपनी वाली पर आते थे तो दिलीप की टक्कर के ट्रैजिक हीरो भी बन जाते थे – ‘श्री 420’ में ही उनका एक पुराना मुखौटा उतारने और नया पहनने का सीन है जो लाजवाब है, और फिल्म के टाइटिल्स के पीछे ग्रीक ट्रैजिक-कॉमिक मास्कों का बहुत सार्थक इस्तेमाल किया गया है - लेकिन उनमें थोड़ी रूमानियत रहती ही थी, दिलीप-जैसा अस्तित्ववादी ‘मिस्टीक’ आ नहीं पाता था.

‘श्री 420’ में चार्लियत और चैप्लिनीयता के इतने तत्व हैं कि उस पर सिनेमा में एम.फ़िल. की एक तुलनात्मक शोध-निबंधिका लिखी जा सकती है. अब्बास में यदि राज कपूर के क़द-बुत, शरीर-भाषा, सलाहियत, प्रतिभा वगैरह की समझ न होती और राज कपूर अब्बास के दिमाग़ और ‘कमिटमेंट’ को जान न पाया होता तो यह फिल्म जैसी बनी है वैसी बन ही न पाती. इसमें छोटे-से-छोटा ‘केमिओ’ या ‘एक्स्ट्रा’ तक लगता है हमारे छिन्दवाड़ा के कुशल, अब दिवंगत, ‘मास्टर-क्राफ्ट्समैन’ छुट्टू कुम्हार द्वारा अपने चाक पर गढ़ा गया है. मैं इसे राज कपूर की सबसे बड़ी फिल्म मानता हूँ लेकिन अब्बास की लेखनी के बिना यह इतनी बुलंदी छू ही नहीं सकती थी. अब्बास के बगैर भी राज कपूर ने सफल फ़िल्में बनाईं मगर  उनमें सार्थकता और बौद्धिक कलात्मकता का अभाव ही रहा. आज साठ वर्ष बाद भी ‘श्री 420’ का जादू कम नहीं हुआ है, जिसमें संगीत की अहम भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. लेकिन अब्बास की महान उपलब्धि है पूंजीपति खलनायक सेठ सोनाचंद धर्मानंद का किरदार, जिसके लिए नीमो को मानों स्वयं ईश्वर ने अपने हाथों से रचा था. उन्हें ‘कास्ट’ करने का कमाल किसका था यह मालूम नहीं लेकिन अब्बास ने नीमो को जो शख्सियत, दृश्य और संवाद दिए हैं वह अद्भुत हैं. उनका ‘पीपलीनगर में कपड़े ही कपड़े हैं’ और ‘नो,राज,नो’ कहने का अंदाज़ बेमिसाल है. 1955 में पता नहीं कितने सेठ सोनाचंद थे, आज तो हर कॉर्पोरेट हाउस, अखबार और टीवी चैनल का सी.ई.ओ. उसका वंशज नज़र आता है. अब्बास ने अपनी प्रतिबद्ध पत्रकारिता से ‘श्री 420’ को कितना मालामाल किया है, इसका भी विश्लेषण अभी होने को है. सेठ सोनाचंद धर्मानन्द से अधिक ‘कम्प्लीट’ खलनायक हिंदी परदे पर फिर दिखाई न दिया. सिर्फ़ नीमो के लिए यह फिल्म बार-बार देखी जानी चाहिए.

‘जागते रहो’ में राज कपूर का एकमात्र, अंतिम एकालाप फिल्म का खुलासा है. उसके बाद अब्बास ने सोवियत संघ के सहयोग से निर्मित अपनी महत्वाकांक्षी हिंदी-रूसी फिल्म ‘परदेसी’ का पटकथा-लेखन-निदेशन किया, जिसके रूसी रूपांतर के निदेशक वासिली प्रोनीन थे. अफ़ानासी निकीतीन नामक एक ईसाई रूसी व्यापारी, जो भारत आने वाला दूसरा यूरोपीय व्यक्ति था, 15वीं सदी में किसी तरह महाराष्ट्र. कहते हैं आज की मुंबई के पास के एक गाँव में, पहुँच सका और तीन बरस इस देश में रहा. निकीतीन का मृत्यु-वर्ष 1472 ही मालूम है. उन दिनों उत्तर-पश्चिमी दक्षिण भारत पर देश की पहली आज़ाद मुस्लिम, बहमनी, सल्तनत का निज़ाम था जो दिल्ली के मोहम्मद बिन तुग़लक़ से बग़ावत के बाद वुजूद में आई थी. निकीतीन ने अपने भारत-प्रवास पर रूसी में ‘खोषदेनिए ज़ा त्री मोर्या’ (‘तीन समन्दरों का सफ़र’) शीर्षक से  बहुत दिलचस्प और मूल्यवान संस्मरण लिखे हैं और ऐसा शक़ किया जाता है कि वह (सुन्नी) मुस्लिम हो गया था. बहरहाल, वह वाक़ई भारत-रूस संबंधों का पहला, असली प्रतीक और प्रतिनिधि है. ‘परदेसी’ ऐतिहासिक नहीं, तत्कालीन सामाजिक फिल्म है जिसमें अफ़ानासी को एक मराठी, हिन्दू युवती चंपा की मुहब्बत की गिरफ़्त में दिखाया जाता है. ओलेग स्त्रीषेनौफ़, जिन्होंने निकीतीन की भूमिका निबाही थी, के बारे में अब तक पता नहीं चल सका है कि सोवियत संघ में उनकी ख्याति क्या थी – दरअसल भारत में देखे गए वह पहले और अंतिम रूसी हीरो थे – लेकिन चंपा का किरदार नर्गिस को मिला जिनसे उनकी ‘आवारा’ की घनघोर लोकप्रियता की वजह से लगभग हर सोवियत नागरिक परिचित था.

‘परदेसी’ जैसी फ़िल्मों की क्या मजाल कि वे सारे जहाँ से अच्छा अरुण यह मधुमय देश हमारा में चल भी पाएँ लेकिन अपरिचित, कमज़ोर, दढ़ियल, रूसी हीरो के बावजूद वह दिलचस्प है. नर्गिस, पद्मिनी, पृथ्वीराज कपूर और डेविड तो उसमें हैं ही, लोकशाहीर की भूमिका में बलराज साहनी और अनिल बिस्वास के संगीत पर गाया गया प्रेम धवन रचित उनका मन्ना डे और शुरूआती कोरस वाला उद्बोध-गीत ‘भई तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया’, जो आज भी रोंगटे खड़े कर देता है, अविस्मरणीय हैं. सोवियत सहयोग के कारण ‘परदेसी’ पहली भारतीय रंगीन वाइड-स्क्रीन सिनेमास्कोप फिल्म होने का श्रेय भी प्राप्त कर सकी. ‘अलविदा’ के लिए रूसी शब्द ‘दस्वीदान्या’ पहली बार इसी में सुना गया. इसके बाद अब्बास साहब ने ‘ज़िन्दगी या तूफ़ान’ जैसी अकालकवलित फिल्म के कहानी-संवाद लिखकर खुद को रुसवा किया.

उनके करिअर में ऐसे उतार-चढ़ाव आते ही रहे. ऐसा लगता है कि उनके भीतर जो क्लासिकी ‘एजिटप्रॉप’ कॉमरेड बैठा हुआ था उस पर जल्द नतीज़े और असर का शैदाई मुसन्निफ़-अख़बारनवीस ज़्यादा हावी था और वह उससे जाने-अनजाने कतराते थे, या उसकी परवाह नहीं करते थे, जिसे वह अपने लिए ज़रुरत से ज़्यादा ‘कलात्मकता’ या ‘कलावादिता’ समझते रहे होंगे. मैं राज कपूर को अब्बास का एक शरारती, तेज़ शागिर्द ही समझता हूँ जो जब-जब करें इरादे अपने उस्ताद की क्लास में जा बैठता भी था और ‘बंक’ भी करता रहता था. दरअसल अब्बास को शायद राज कपूर से लोकप्रिय कला का हुनर सीखना चाहिए था और राज कपूर को अपनी ग़ैर-अब्बासीय फिल्मों में उन-जैसा ‘कमिटमेंट’. इस पर बहस हो सकती है कि यदि राज कपूर (या बिमल रॉय,या हृषीकेश मुखर्जी) ‘राही’, ’ग्यारह हज़ार लड़कियाँ’, ‘शहर और सपना’, ‘आसमान महल’, ‘बंबई रात की बांहों में’, ‘सात हिन्दुस्तानी’, ‘द नक्सलाइट्स’ या ‘लव इन गोआ’ जैसी फ़िल्में बनाना चाहते तो क्या उनमें ज़्यादा ‘सफल’ रचाव-बसाव नहीं होता?

ऐसी सारी यदिकिन्तुवादी अटकलबाज़ी के बावजूद यह लगभग तय है कि 1959 में ‘चार दिल चार राहें’ जैसी प्रतिबद्ध किन्तु प्रयोगशील फिल्म बनाने की ख़ुद्कुशीपज़ीर दीवानगी सिर्फ़ अब्बास में थी. एक चौरस्ते पर तीन प्रेम कहानियाँ और एक शहादत की कथा – चारों में कोई सम्बन्ध नहीं – रेखागणित की तरह एक-दूसरे को अनजाने काटती हुई अपनी-अपनी कभी सफल कभी असफल राहों पर निकल जाती हैं. बहुत कम लक्ष्य किया गया है कि राज कपूर–मीना कुमारी की प्रेम-कथा हिन्दू सवर्ण उत्तराधिकारी और अनुसूचित जाति-बाल विधवा  की है, अजीत एक भोला-भाला दोटूक पठान मोटर-चालक और निम्मी एक ‘संभ्रांत’ तवायफ है, शम्मी कपूर एक अनाथ ईसाई युवक है और कुमकुम एक ग़रीब और शोषित आया, और जयराज अपनी जान से ज़्यादा अपने आन्दोलन से मुहब्बत करनेवाला सक्रियतावादी. गाँव की खापें और राज कपूर का अहीर-चौधरी परिवार शादी के ख़िलाफ़ हैं लेकिन हिंदी फिल्मों के एक महानतम दृश्य में दूल्हा बना हुआ अकेला राज कपूर एक मशाल और एक ढोलची के साथ संकरी गलियों से चौड़े-धाड़े धमधमाता गुज़रता हुआ अपनी दुल्हन मीना कुमारी को लिवाने जाता है. शम्मी कपूर ने एक छोटी-सी भूमिका में अपने जीवन की पहली और अंतिम मार्मिक एक्टिंग की है. मीना कुमारी, निम्मी, कुमकुम, अजीत सभी अपने उरूज पर हैं. साहिर ने मुकेश के लिए ‘नहीं किया तो करके देख’ और लता के वास्ते ‘इन्तिज़ार और अभी’ जैसे गीत लिखे हैं जिन्हें अनिल बिस्वास ने अमर कर दिया है. लेकिन फिल्म को चलना नहीं था सो नहीं चली. ‘बॉबी’ चली जिसने नौबालिग़ ऋषि कपूर-डिंपल को और अधेड़ प्रेमनाथ को स्टार बना दिया, और ज़ेबा बख्तियार को भारत में ‘हिना’ ने. कहानियाँ अब्बास की थीं.

1942-1980 के बीच अब्बास को सिनेमा के लिए दर्ज़नों छोटे-बड़े सम्मान और पुरस्कार मिले. उनकी कई फ़िल्में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों के चक्कर लगाती रहीं. उन्होंने सिने-संसार को अनेक प्रतिभाएं दीं. लेकिन एक दोस्त फिक्रमंद बाप ने उन्हें ख़त लिखा कि उसका बेटा फिल्म-लाइन में स्ट्रगल कर रहा है, हो सके तो उसे कैसा भी कोई चांस दो. बाप खुद कोई मामूली आदमी नहीं था, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के रिश्तेदार-जैसा था. सो अब्बास ने अपने दोस्त हरिवंशराय बच्चन के बेटे अमिताभ बच्चन को एक नौजवान बिहारी मुस्लिम शायर अनवर अली ‘अनवर’ के किरदार में 1969 में ‘सात हिन्दुस्तानी’ में ‘ब्रेक’ दिया. यह एक पूरी तरह सेauteur फिल्म थी. आज की नई दर्शक पीढ़ी, जो ख्वाजा अहमद अब्बास को न जानती है, न जानना चाहती है क्योंकि शायद जानने की सलाहियत नहीं रखती, इसी से तरद्दुद में पड़ सकती है कि अमिताभ बच्चन को ‘डिस्कवर’ करने वाले इस ख्वाजा को कैसे डिस्कवर किया जाए. जबकि खुद अब्बास ने अमिताभ की अपनी ‘खोज’ को कभी तूल नहीं दिया. वह तो उनके कारनामों की किताब में महज़ एक दिलचस्प, शायद ज़रूरी भी, फ़ुटनोट है. दूसरे तो इससे एक पूरी तिजारत कर लेते. देखा जाए तो खुद अब्बास आजीवन कई स्तरों पर एक महान स्ट्रग्लर रहे. ‘द नक्सलाइट्स’ सरीखी बाद की फिल्म को लेकर भी, जिसमें मिथुन चक्रवर्ती और स्मिता पाटिल थे और इंदिरा गाँधी तब जीवित थीं, वह परेशानी में पड़ चुके थे. उनकी मृत्यु से पहले ही भारतीय सिनेमा में उन जैसा कोई दूसरा प्रतिबद्ध फिल्मकार नहीं था और उनके बाद, विशेषतः अब, सुदूर भविष्य में भी, किसी युवा अब्बास की कल्पना कठिन है. यह ज़रूर है कि उनकी फिल्मों को, उनके पैग़ामों को, जो कई मुक़ाबलों और संघर्षों में हौसलाअफ़ज़ा और कारगर रहेंगे, नेस्तनाबूद कर पाना नामुमकिन साबित होगा. अगले सौ बरसों तक हमें एक बड़ा सहारा ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्मों का भी है.

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

युवा कविता अपना मुहावरा खोज रही है - केदारनाथ सिंह

[यह बातचीत पंकज चतुर्वेदी और केदारनाथ सिंह के बीच हुई थी, जिसे 'नया ज्ञानोदय' ने अगस्त के अंक में प्रकाशित भी किया है. केदारजी को हाल ही में ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया है, जिसके बाबत बुद्धू-बक्सा पर कुछ बात भी की गयी थी. रोचक यह है कि एक सिद्ध कवि की पदवी पाने के बाद भी केदारनाथ सिंह किसी किस्म के नामोल्लेख से बचते रहे हैं. वे प्रयासों के बारे में बात करने पर आशान्वित, एम्बेरेस और युवा कविता की गति से संतुष्ट तो होते दिखते हैं, लेकिन वामपंथ, कविता के समाज से जुड़ाव और भारत के कठिन दिनों के बारे में बात करने समय वे शान्त तरीके से प्रहार कर रहे हैं. पाठक को यह किस्सा कुछ अपूर्ण भी लग सकता है या हो सकता है कि समस्या कुछ और भी हो, क्योंकि हिन्दी में साक्षात्कारों की पृष्ठभूमि तैयार हुई है, वहां मौजूद मानक हर नए साक्षात्कार से सनसनीखेज होने की मांग करते हैं. उस स्फीयर से बाहर निकलकर देखने पर इसे भली-भांति जज़्ब किया जा सकता है. बुद्धू-बक्सा पंकज चतुर्वेदी और 'नया ज्ञानोदय' का आभारी.]

केदारनाथ सिंह से पंकज चतुर्वेदी की बातचीत



आपने एक कविता में लिखा है कि रामचंद्र शुक्ल के चेहरे पर जो हँसी थी, उसमें कविता का राज़ छिपा था और मानो ‘कविता के राज़ पर/हँसती हुई मूँछें’ उनकी थीं. इससे आपने क्या कहना चाहा है और कविता के बड़े आलोचकों की जो परम्परा हिन्दी में बनी है, उसमें आप किस-किस को याद करना चाहेंगे?
‘कविता क्या है’, जो रामचंद्र शुक्ल का निबंध है, उसे पढ़कर मैंने यह कविता लिखी थी. ‘राज़’ में दो चीज़ें हैं, जो मैं कहना चाहता हूं – कविता खुद में एक बहुत रहस्यमयी निर्मिति होती है, इसीलिए आलोचना की ज़रूरत होती है, जो उसकी परतों को खोल सके. जब मैं ‘कविता के राज़ पर/हँसती हुई मूँछें’ कह रहा था, तो मेरे दिमाग में एक और बात थी और वह है रहस्यवाद पर आचार्य शुक्ल का लेख, जिसमें वे रहस्यवाद को नकारते हैं. रहस्यवाद हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसका कोई आलंबन ही नहीं है. राज़ और रहस्य – ये दोनों शब्द समानार्थक होते हुए भी भिन्न सन्दर्भ रखते हैं. हिन्दी आलोचना मुख्यतः कविता की आलोचना रही है, अब उसमें थोड़ा विस्तार आया है, आ रहा है. अगर कविता के आलोचकों की कोई सूची मुझे बनानी हो, तो बेशक उसमें पहला नाम शुक्ल जी का होगा. यहाँ एक छोटी-सी बात का ज़िक्र करना चाहूंगा.  एक जगह वे ई.ई. कमिंग्स का ज़िक्र करते हैं, जो अमेरिका के एक अतिप्रयोगशील कवि थे. उनका विरोध करते हुए उनकी एक कविता का अनुवाद भी वे प्रस्तुत करते हैं. एक ओर एक प्रवृत्ति का विरोध और दूसरी ओर उस प्रवृत्ति की अपने सबसे निकट सुलभ कविता का बहुत ही विलक्षण अनुवाद उनके जैसे कवि में गहरी पैठ के बिना सम्भव नहीं था. यह आचार्य शुक्ल की काव्य-दृष्टि की गहनता का सूचक है. उस सशक्त काव्यालोचना की परम्परा को हिन्दी में आगे बढ़ाने वाले लोगों में मैं तीन नाम जोड़ना चाहूँगा – नामवर सिंह, विजयदेव नारायण साही और मलयज. इसमें कुछ रचनाकार आलोचकों के नाम भी शामिल किये जा सकते हैं. 

आपने लगभग तीन दशक पहले लिखा था – ‘तुमने जहां लिखा है ‘प्यार’/ वहां लिख हो ‘सड़क’/ फ़र्क नहीं पड़ता/ मेरे युग का मुहावरा है/ फ़र्क नहीं पड़ता.’ क्या आपको नहीं लगता कि जैसे-जैसे समय बीतता गया है, इस कविता में व्यक्त विडम्बना भारतीय सामाजिक जीवन की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या में बदलती गयी है?
यह उस दौर की कविता है, जब ‘नयी कविता’ से हटकर एक और काव्य-धारा फूटकर सामने आ रही थी. मैं उसके पहले से लिख रहा था और मेरे भीतर जो एक काव्य-संस्कार बना था, वह ‘नयी कविता’ के हाशिए पर खड़े एक युवा कवि का संस्कार था. मैं उससे बाहर आना चाहता था और उसके लिए एक अलग ढंग से आघात देने वाली अभिव्यक्ति – ऐसी जो रूककर सोचने के लिए मजबूर करे – ऐसा कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था. फ़िर उन दिनों नेहरू युग के बाद जो एक भयावह मोहभंग से जनित शून्यता पैदा हुई थी, उसमें बहुत-से मूल्य टूटे भी थे और नए अभी बन नहीं पाए थे या बनने के क्रम में थे. मैंने अचानक एक दिन ट्रेन में लोगों की बातचीत में यह मुहावरा सुना, जो मुझे हिला गया. दो-तीन लोग मेरी बगल में बैठे किसी बात पर बहस कर रहे थे. शायद वे पंजाब की पृष्ठभूमि से थे. उनकी बातों में यह मुहावरा मैंने बार-बार सुना – ‘क्या फ़र्क पड़ता है जी?’ सामान्य जन की बातचीत में आने वाला अगर बार-बार दोहराया जाता है – किसी दबी वास्तविकता का सूचक होता है. मुझे उस समय यही लगा था. उस अनुभव का सामान्यीकरण करने की कोशिश वह कविता करती है. उसको उस सन्दर्भ में ही देखना उचित होगा. वह एक खोखला दौर था, जिसकी कोई दिशा स्पष्ट नहीं थी, जिससे फूटकर बाद में नक्सलवाद भी आया. यह दावा नहीं करूँगा कि आज के सन्दर्भ में भी लिखता, तो यही लिखता. 

मीर का एक शेर है – “मसाइब और थे, पर दिल का जाना/अजब इक सानिहा-सा हो गया.” और आपकी एक चर्चित कविता में नायिका कहती है – “मैं जा रही हूं” और कवि को लगता है कि “जाना हिन्दी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है.” क्या दोनों में आप कोई रिश्ता देखते हैं?
मीर तो मीर हैं और वे जब आपकी बात कहते हैं, तो उसमें फ़िराक़ का मुहावरा लेकर कहूं तो एक अधपकी ईंट जैसा सौन्दर्य होता है. वह अपने आप में अनूठा है, जिससे तुलना बेमानी है. मैं इतना ही कहूँगा कि मीर के शेर में जो ‘सानिहा’ शब्द है और मेरी कविता में जो खौफ़नाक आया है, उनके सन्दर्भ अलग हैं, पर अर्थ-संकेत बहुत दूर पड़ने वाले नहीं हैं. इस उदाहरण से मुझे टैगोर की अंतिम या उससे कुछ पहले की एक कविता याद आती है, जिसमें वे लिखते हैं कि ‘पेड़ की छाल में असंख्य शताब्दियों के हस्ताक्षर हैं. 

इस वक्त कम्युनिस्ट पार्टियां जिस तरह हाशिए पर चली गयी हैं, समाजवाद और अवसरवाद में गठजोड़ है, मध्यपंथ लगातार खोखला और भ्रष्ट होता गया है; क्या आज़ादी के बाद भारतीय समाज सबसे कठिन दौर का सामना कर रहा है?
भारत की नियति का सवाल है यह. तुम्हारी इस बात से शत-प्रतिशत सहमत हूं कि भारतीय समाज का यह सबसे कठिन दौर है. मैं कम्युनिस्ट आंदोलन को एक गहरी उम्मीद के साथ देखने वाला आदमी था और आज भी हूं. आज भी मानता हूं कि अगर कोई वास्तविक परिवर्तन इस देश में आएगा, तो उसी विचारधारा के सारतत्त्व से जुड़कर आएगा. जहां तक कम्युनिस्ट पार्टी की बिखराव का सवाल है, तो यह कमोबेश सारी दुनिया में है. सोवियत प्रयोग समाप्त हो चुका है और चीन में जो कुछ हो रहा है, उसके प्रति मेरे मन में गहरे संदेह हैं. पर भारत का और उस भारत का जो हाशिए पर है – उस तक इस विचारधारा की आंच ठीक-ठीक आज भी पहुंच नहीं पायी है. कुछ आदिवासी क्षेत्रों में जो संघर्ष हो रहे हैं, उन्हें मैं अपर्याप्त मानता हूं और थोड़ा-बहुत उसके अंतर्विरोध के बारे में भी जानता-सुनता हूं. जब तक कोई बड़ा प्रयास वह भी न्यूनतम हिंसा के साथ, उतनी ही जितनी कि एक डॉक्टर एक रोगी के साथ करता है आंदोलन के रूप में आगे नहीं बढ़ेगा, तब तक वह पूरी तौर से सफल होगा, इसे लेकर मेरे मन में संशय है. यहां एक बात और जोड़ना चाहूंगा और वह भारतीय समाज की अपनी बनावट से सम्बंधित है. जब बनावट की बात कहता हूं, तो मेरे मन में इस देश की संस्कृति का विशाल ताना-बाना है, जिसका एक तत्त्व धर्म भी है. इन सबसे जुड़कर ही अथवा इन सबसे ताक़त लेकर इस प्रकार का आंदोलन आगे बढ़ेगा. मुझे बार-बार निकारागुआ का प्रयोग याद आता है, जिसके एक सर्वमान्य नेता थे अर्नेस्तो कार्देनाल, जो स्पेनिश के एक बड़े कवि भी हैं. यह विचित्र विरोधाभास लग सकता है कि वे कार्डिनल, यानी चर्च के अधिकारी या कैथोलिक पार्लियामेंट के सदस्य भी हैं और महान क्रांतिकारी भी. तो कोई ऐसा प्रयोग भारत जैसी स्थिति में शायद गौरतलब हो सकता है. यहां इतना जोड़ दूं कि आज भ्रष्टाचार की इतनी चर्चा हो रही है, जो इस दौर की सबसे तकलीफ़देह सचाई है. अगर पड़ताल की जाय तो बंगाल में जो वामपंथी सरकार थी, उसकी सारी कमजोरियों के बावजूद उसमें सबसे कम भ्रष्टाचार के उदाहरण मिलते हैं. यह एक छोटा-सा संकेत है, जिसका वामपंथ से कुछ लेना-देना ज़रूर है. कैडर लेवल पर छोटे-छोटे उदाहरण मिल सकते हैं, लेकिन लीडरशिप के स्तर पर इस तरह की शिकायतें बहुत कम मिलती हैं.

गाँव और शहर के बीच जो दूरी और अपरिचय बढ़ा है, उसके कारण भारत में दो भारत पैदा हो गए हैं और संसद तथा विधानसभाओं में जो लोग बैठे हैं, वे जनता के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं. क्या आपको नहीं लगता कि आअज कवियों के साथ भी यही ख़तरा है कि वे जनता के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं?
गाँव और शहर के बीच अपरिचय को मैं अबोलापन कहता हूं, जो बढ़ा है. यह एक विचित्र विरोधाभास है कि शहर की अनेक विकृतियाँ गाँव तक पहुंची हैं और इसी के समानांतर दोनों के बीच का अबोलापन भी बढ़ता जा रहा है. गाँव की अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी हुई थी, किसी हद तक आज भी है; पर सबसे भयावह स्थिति मैंने अभी देखी कि वह समाज कृषि की जड़ों से टूट रहा है. किसान खेत छोड़कर मजदूरी की तलाश में शहरों की ओर भाग रहे हैं और उनका रूपांतरण मजदूर होने की दिशा में हो रहा है. मैंने अखबार में पढ़ा कि केन्द्र सरकार बड़े पैमाने पर कृषि फ़ार्म बड़े कारपोरेट घरानों को देने जा रही है. इसके दुष्परिणाम गाँव का समाज झेलेगा और शहर में बैठा हुआ आदमी भी उससे बहुत दूर नहीं है. यह गाँव के अस्तित्व के लिए भी बड़ा प्रश्न है. यहां अगर कोई गांधी को याद करे तो यह स्वाभाविक होगा. जहां तक साहित्य का सम्बन्ध है और सिर्फ़ कविता की बात करें, तो मुझे याद आता है कि सिर्फ़ मैथिलीशरण गुप्त थे, जिनकी कुछ पंक्तियाँ गाँव तक पहुंच सकी थीं और उसके बाद यह आवाजाही काफी हद तक बंद हो चुकी है. एक रचनाकार के रूप में मैं मानता हूं कि भारतीय भावबोध जैसी कोई एक चीज़ अगर बनती है, तो वह गाँव और शहर को मिलाकर ही बन सकती है. कुछ समय पहले जब मैं चीन गया था, तो वहां मुझे पता चला कि इस सवाल पर लेखकों के बीच गहराई से बहस चल रही है कि गाँव और शहर के बीच अनुभव का वह साझा धरातल कैसे निर्मित किया जाए, जो सही मानी में उनके पूरे समकालीन लेखन का आधार बने.

आपने बुद्ध, कबीर और तुलसी से संदर्भित कई अहम कविताओं की रचना की है. आपके बाद की कविता में एक वक्फ़ा ऐसा भी रहा, जब परम्परा के ये सन्दर्भ कुछ विस्मृत से हो गए थे. क्या यह सही है कि जातीयता या परम्परा के स्रोतों से हिन्दी कविता अब एक नए सिरे से संबोधित हुई है?
इस प्रश्न को मैं बहुत महत्त्वपूर्ण मानता हूं. ‘परम्परा’ कोई निहायत पुरानी रूढ़ि का सूचक शब्द नहीं है. वह एक जीवंत शब्द है. साहित्य के सन्दर्भ में तो और अधिक महत्त्वपूर्ण शब्द है. मैं बहुत गहराई से महसूस करता हूं कि परम्परा सिर्फ़ खाद नहीं, वह मिट्टी है, जिससे साहित्य अपना पोषण प्राप्त करता है. हम यहां बात कर रहे हैं, तो यह भी उस परम्परा का एक हिस्सा है. मेरा ख़याल है कि इस मुद्दे पर नए सिरे से विचार करने की ज़रूरत है. युवा कविता की चर्चा की है तुमने, मैंने जितना कुछ देखा है, उसमें कई बार संवेदना का एक बिलकुल नया स्वरूप और भाषा का तेवर उभरता हुआ दिखाई पड़ता है और वह मुझे गहरी आश्वस्ति देता है. अगर कोई ‘गैप’ था, तो उसे भरने की एक चुपचाप सृजनात्मक कोशिश में युवा पीढ़ी लगी है, ऐसा मुझे लगता है.

आप बहुत लोकप्रिय कवि हैं. आपकी कविता के मुहावरे, अंदाज़-ए-बयाँ, यहाँ तक कि अंतर्वस्तु का अनुकरण करती युवा कविता को पढ़कर आपको कैसा एहसास होता है?
मेरे लिए ‘एम्बेरेसिंग’ है यह, पर इतना जोड़ दूं कि अब यह प्रवृत्ति युवा कविता में मैं नहीं देख रहा हूं. वे अपना मुहावरा खोज रहे हैं. कुछ में इसके संकेत भी दिखाई पड़ रहे हैं. मैं तो बीसवीं सदी का हूं, मेरा मानना है कि इक्कीसवीं सदी की कविता अपना साँचा खोजने की दिशा में बड़ी तेज़ी से अग्रसर हो रही है.

साम्यवादी यूटोपिया के भंग होने से बीते बीस-पच्चीस वर्षों में क्या हिन्दी कविता को नुकसान हुआ है?
यह एक बड़ा सवाल है. इससे पूरी मानव-जाति और सोचने-समझने वाली सृजनकर्मी मानव-जाति को एक झटका तो ज़रूर लगा; पर साहित्य को लगने वाले झटके बिजली के झटकों जैसे नहीं होते. उनमें सृजन के नए रास्तों के बनने की एक ज़रूरत भी छिपी रहती है और एक ‘कम्पल्शन’ भी. मेरा ऐसा मानना है कि यूटोपिया को लेकर चाहे कुछ मोहभंग पैदा हुआ हो, पर उस विचारधारा के सारतत्त्व से अभी भी मोहभंग नहीं हुआ है. इसे अनेक उदाहरण सारी दुनिया में खोजे जा सकते हैं; खुद रूस से भी, जहां यह असफल हो चुका है. लैटिन अमेरिका में भी. लैटिन-अमेरिकन प्रयोग इस सन्दर्भ में मुझे बहुत महत्त्वपूर्ण लगता है.

केदार जी, अब कुछ वस्तुपरक से प्रश्न हैं. मसलन आपकी सबसे प्रिय पुस्तक?
दीवान-ए-ग़ालिब.

आपका प्रिय कवि?
निराला और अगर एक और की गुंजाइश हो, तो शमशेर.

हिन्दी में इस समय को कवि लिख रहे हैं, उनमें आपका प्रिय कवि?
विनोद कुमार शुक्ल.

अपनी कौन-सी कविता आपको प्रिय है?
इस तरह कभी सोचा नहीं, पर अगर इसका उत्तर देना ज़रूरी हो, तो ‘यहां से देखो’.

कभी आपको ऐसा लगा कि अपने स्वप्न की कविता आप लिख सके हैं?
कभी नहीं लगा, पर ‘बनारस’ कविता लिखकर थोड़ी-सी आंतरिक तृप्ति हुई थी. शायद बनारस की उस छवि को मैं साकार कर सका उसके अंतर्विरोध और बेशक उसकी गरिमा के साथ भी, जिससे मेरा गहरा सम्बन्ध है.

इस कविता में बनारस के बाबत आपने लिखा है, “अगर ध्यान से देखो/ तो यह आधा है/ और आधा नहीं है.” क्या इसका कोई वास्ता आपकी काव्य-दृष्टि से भी है? यानी कविता ‘आधा खींचा हुआ तीर’ है, जिसकी बदौलत ग़ालिब कहते हैं – ‘यह खलिश कहां से होती, तो जिगर के पार होता?’
इसे बनारस के ही सन्दर्भ में देखना उचित होगा. एक बनारस के कई बनारस हैं और अलग-अलग टुकड़ों में बनारस ज़्यादा जीवंत है. वे टुकड़े अपना ख़ास सौन्दर्य रखते हैं और कुछ ऐसा है, जिसे वे ‘लैक’ करते हैं, जो उनमें नहीं है. 

कविता-पंक्तियाँ जो अक्सर आपके जेहन में रहती हों?
ग़ालिब, तुलसीदास और कबीर बहुत याद आते हैं.

ज़िंदगी के बारे में आपका ख़याल?
इस सवाल के अनुसार मुझे असंख्य चीज़ें याद आ रही हैं, जिनसे आदमी की ज़िंदगी बनती है. कुल मिलाकर ज़िंदगी मेरे लिए एक ठोस सचाई है – अपनी सारी शक्ति और दुर्बलता के साथ. मेरे गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते थे कि ‘कामायनी’ की केंद्रीय पंक्ति है – ‘विश्व की दुर्बलता बल बने!’ मुझे लगता है कि आदमी की दुर्बलताओं के भीतर से उसकी शक्ति पैदा होती है. इसलिए ‘अतिमानव’ या सर्वोच्च-गुणसम्पन्न मानव की कल्पना मुझे स्वीकार्य नहीं लगती. मेरे गाँव का एक सीधा-सादा आदमी, जिसकी कुछ दिनों पहले मृत्यु हुई थी, उसका नाम था नन्हकू. वह मुझे गहरे अर्थ में एक जीता-जागता मनुष्य लगता था. मैं आदमी को उसी बिंदु से पहचानता हूं.

मुझे याद आता है कि टैगोर अपने अंतिम दिनों में बीमार चल रहे थे. उनके इक्यासीवें जन्मदिन पर गांधी ने उन्हें तार से शुभकामना भेजते हुए लिखा था, “गुरुदेव (शांतिनिकेतन), चार बीसी पर्याप्त नहीं, पाँच बीसी पूरी करें.” कवि ने उत्तर दिया था, “महात्मा(वर्धा), सन्देश के लिए धन्यवाद, लेकिन चार बीसी धृष्टता, पाँच बीसी असहनीय!” टैगोर की इस अभिव्यक्ति पर आपकी प्रतिक्रिया?
दो बड़े लोगों के बीच का वार्तालाप है, पत्राचार है यह. यहां एक ऐसी चीज़ है, जिस पर 2013 में अगर टैगोर होते, तो दूसरी तरह बात करते. न चाहते और चाहते हुए भी ‘मेडिकल साइंस’ के चलते आदमी की ज़िंदगी में थोड़े-से दिन और जुड़ गए हैं. मैं भी लगभग अस्सी के पास पहुँचने वाला हूं. जीने की इच्छा खोयी नहीं है मैनें और यह बचा हुआ जीवन जिस हद तक सम्भव हो, एक सार्थकता के साथ जिया जाय, यह कोशिश की जानी चाहिए, ऐसा मुझे लगता है. शायद उसका थोड़ा-सा सम्बन्ध ‘जीन’ से भी होता है. मेरी माँ अभी 102 साल जीकर गयी है, पिता भी लम्बी आयु जीकर गए थे. ज़िंदगी का ऐसा मामला है, जिसमें मेरा कोई दखल नहीं. 

क्रोध या करुणा में किसी एक को चुनने की मजबूरी हो, तो आप किसे चुनेंगे और क्यों?
मध्यम-मार्ग. इस मानी में मैं बुद्धवादी हूं. बुद्ध मुझे मानव इतिहास के सबसे बड़े मनुष्य लगते हैं और यह ‘मनुष्य’ शब्द मैं ज़ोर देते हुए कह रहा हूं.

आपका भय?
हिंसा.

कौन-सा मानवीय गुण आपको सबसे अहम लगता है?
निस्संदेह प्रेम.

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