सोमवार, 30 जून 2014

हिन्दी कहानी के युवा स्वर पर अविनाश मिश्र

[इस कड़ी में अविनाश मिश्र ने हिन्दी कहानी के उस अध्याय पर लिखा है, जहां देखकर भी अनदेखा कर देने की रीति चली आ रही है. दृश्य अब ऐसा भी हो चुका है कि युवाओं को दखल से रोका जा रहा है, उन्हें विभागगत मूर्खताओं से रचनात्मकता का अनुवाद करवाने की सलाहें दी जा रही हैं. ऐसे में हिन्दी के ये कुछ मुट्ठी भर युवा लेखक 'कहां जाएं?' के मसले से जूझ रहे हैं. परदे के पीछे इन्हें दृश्य से दूर रखने की भी क़वायद चलती ही रहती है. २१वीं शताब्दी में हिन्दी सिनेमा का जो बैरियर टूटा है, वह कमोबेश कहानी में हो रहे बदलावों की वजह से ही है. फ़िर भी यह बदलाव पठन और प्रकाशन के स्तर पर अलक्षित है. एक अखबारी मजमून होते हुए यह लगभग अपर्याप्त-सा है. पाठकों के आग्रह को ध्यान में रखते हुए बुद्धू-बक्सा अविनाश से इन प्रयासों को और विस्तार देने का आग्रह करता है. और हमेशा की तरह बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी. पेंटिंग रॉथ्को की.]




भविष्य का आश्वस्तीकरण
अविनाश मिश्र 

हिंदी कहानी का सामयिक यथार्थ एक नए शैथिल्य से ग्रस्त है। कथा-केंद्रित मासिक साहित्यिक पत्रिकाएं नैरंतर्य के बावजूद अप्रासंगिक और जड़ हो चुकी हैं। दृष्टिहीनता का आलम यह है कि ‘नवलेखन विशेषांक’ की सतत उपलब्धता पर भी यहां नवोन्मेष की गुंजाइश अब लगभग नहीं है। इस परिदृश्य में कथा-पीढ़ियां बहुत जल्दी-जल्दी तैयार हुई हैं। आगे यहां पांच युवा कहानीकारों की बातें हैं। इनमें हिंदी में युवा और कहानीकार होने के बाद इस प्रसंग में केवल एक ही समानता और है, वह यह कि इनकी कहानियों का कोई संग्रह अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। लेकिन अपनी कुछ कहानियों से ही इन्होंने एक ऐसे कथा-कौशल का परिचय दिया है, जो बेहद प्रामाणिक और प्रभावी है। यह असर हिंदी कहानी के आगत के प्रति आश्वस्त करने वाला है। सिवाए इसके इन कहानीकारों की ओर यकीन और उम्मीद से देखने का एक सबब यह भी है कि इनके पास पाने के लिए अभी बहुत कुछ है और खोने के लिए भी...। इस अर्थ में ये अपने से एकदम पूर्व उदय हुए उन कहानीकारों से अलग हैं जो बहुत कुछ पाकर और अपना प्रकाश खोकर अब लगभग निस्तेज हो चुके हैं। 

भिन्न होने के लिए भिन्न 

रविंद्र आरोही की अब तक नौ कहानियां प्रकाशित हुई हैं। वर्ष 2007 में प्रकाशित पहली कहानी ‘जादू : एक हंसी, एक हिरोइन’ से लेकर 2013 में आई ‘बारिश की रात, छुट्टी की रात’ तक रविंद्र ने अपनी किस्सागोई और कहन से हिंदी कहानी पर एक खास असर डाला है। रविंद्र की कहानियों में सबके बारे में जानने की सदिच्छा और सबके बारे में बताने के सरोकार हैं। लेकिन इसके बावजूद ये कहानियां बहुत कुछ बदलने के मुगालते में नहीं हैं। ये जो बदला जा सकता है, उसे बदलने के लिए अपने अनुभवों को व्यापक अर्थ-विस्तार देने का प्रयास करती हैं। ये खुद भाषा में धोखा नहीं देतीं, लेकिन यह शक जाहिर करती हैं कि ऐसा किया जा सकता है। ये भाषा की सामर्थ्य से वाकिफ और शिल्पनिष्ठ होना चाहती हैं। ये अपने पूर्वकालीनों से भिन्न हैं, लेकिन और भिन्न होने के लिए प्रयोगों का उपक्रम करती हैं। यह भिन्नता पर संदेह है जो कहानीकार की अपने कथा-अभ्यास को लेकर उपजी बेचैनी को दर्शाता है। ये कहानियां लंबी होने की कोशिश में वाग्जाल के नजदीक नहीं जातीं और अपने कथ्य के अनुरूप ही व्यापकता ग्रहण करती हैं। इनमें स्थितियां और ब्योरे किरदारों पर हावी नहीं होते। कहानी-दर-कहानी रविंद्र एक परिष्कृत परिपक्वता की ओर बढ़े और बढ़ रहे हैं, यह बढ़ना उनके भावी कहानीकार की उज्ज्वल संभावनात्मकता की ओर संकेत करता है।  

व्यापक संवेदन और दृष्टिसंपन्नता 

उपासना की अब तक पांच कहानियां प्रकाशित हुई हैं। 2008 में प्रकाशित पहली कहानी ‘कैनवास की लकीरें’ और 2013 में आई पांचवीं कहानी ‘एगही सजनवा बिन ए राम!’ के मध्य उपासना की छवि चुपचाप अपने कथा-कर्म में संलग्न एक खामोश कहानीकार की बनी है। इस खामोशी का जिक्र यहां इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यह एक ऐसे दौर में सलामत है, जब रचनात्मकता के वास्तविक अर्थ और लक्ष्य को वाचाल आत्ममुग्धता, प्रलोभन और प्रसिद्धि के आगे नतमस्तक और क्षीण होते हुए देखना आए दिन का तजुर्बा बन चुका है। उपासना की ‘एक जिंदगी... एक स्क्रिप्ट भर!’, ‘अनभ्यास का नियम’ और ‘एगही सजनवा बिन ए राम!’ जैसी कहानियों में बेकार, बेमतलब, बेशऊर चीजों और अनायास बिंबों के माध्यम से जिंदगी की मुश्किलों, तल्खियों और हकीकत को बयान कर देने का हुनर मौजूद है। इन कहानियों में एक अंचल की स्त्रियों का दुःख-दुविधापूर्ण वह जीवन है जो कथा में अभिव्यक्त होकर जागतिक हो गया है। उपासना ने इस जीवन को व्यापक संवेदन और दृष्टिसंपन्नता के साथ अपनी कहानियों में जगह दी है। इन कहानियों में रूढ़ हो चुके शब्दार्थों के लिए नए शब्द-विन्यास चुने गए हैं। उपासना की ही एक कहानी ‘एक जिंदगी... एक स्क्रिप्ट भर!’ के एक किरदार के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि इन कहानियों को नहीं पता कि शब्दों को चाशनी में लपेटकर कैसे परोसा जाता है। इनमें अपनी स्थानिकता, अपने संबंधों, अपनी चिंताओं, अपने अनुभवों और अपने भदेस से प्रेम है। अपने कुल योग में यह कथा-प्रभाव हिंदी कहानी के भवितव्य को संभावनायुक्त बनाता है।  

मनचाही शुरुआत और मनचाहे अंत 

दुर्गेश सिंह की अब तक सात कहानियां प्रकाशित हुई हैं। लेकिन वह हिंदी कथा-वृत्त और पाठकों के बीच 2010 में प्रकाशित अपनी पहली कहानी ‘जहाज’ से ही चर्चा में आ गए थे। दुर्गेश की ‘हटिया एक्सप्रेस का डिपार्चर’, ‘खदेरूगंज का रूमांटिक ड्रामा’, ‘स्टे ऑर्डर’ और ‘चियर्स धर्मराज’ जैसी कहानियां पढ़कर लगता है कि ये एक फिक्स-फ्रेम में न सोचती हुई कहानियां हैं। इनमें उदारीकरण के नाम पर हुए नुकसानों की बानगी है तो मानवीय-व्यवहार का विचलन और अंतरंगता भी। इन कहानियों की सोच और इनमें बद्ध वाक्य कॉमनसेंस के विरुद्ध हैं। दुर्गेश के ही कहानीकार के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि इन कहानियों में हर उम्र, हर दुनिया के लोगों का अपना आसमान है— जहां कहानी की मनचाही शुरुआत और मनचाहा अंत हो सकता है। लेकिन इस मनचाहे कथ्य की खासियत यह है कि यह बेमकसद नहीं है। यहां केवल मनचाही शुरुआत और मनचाहा अंत ही नहीं हैं और भी बहुत सारे मनचाहे पड़ाव हैं जो कहानी की मनचाही शुरुआत और मनचाहे अंत के मध्य में आते हैं। दुर्गेश की कहानियों की दुनिया गत्यात्मक और बहुत तेज है, इसकी रफ्तार को साधने के लिए कहानीकार के पास एक भागती हुई उत्तर-आधुनिक भाषा, अनुभव की अराजकता और ब्योरे हैं। ये कहानियां उस सफर की तरह हैं जिसकी जानिब जब कदम उठ जाते हैं तो कोई ठहराव या वापसी उनके नसीब में नहीं होती। उन्हें बस चलते चले जाना होता है, तब तक जब तक कि सफर खत्म न हो जाए। दुर्गेश हिंदी के उन चुनिंदा युवा कहानीकारों में हैं जिनकी नई कहानी की प्रतीक्षा की जाती है।   

रोजमर्रा का समस्याग्रस्त समाज 

पल्लवी प्रसाद की अब तक तीन कहानियां प्रकाशित हुई हैं और वे यहां काबिले-जिक्र क्यों हैं, इसके लिए मात्र यह कहना पर्याप्त होगा कि इनमें इधर की हिंदी-कहानी के प्रचलित दुर्गुण अनुपस्थित हैं। 2013 में प्रकाशित पल्लवी की पहली कहानी ‘मोहल्ला और मास्टरजी’ और इस वर्ष आई ‘बादशाह नहीं, मैं औरंगजेब!’ अपने आस्वादक को आक्रांत करने और उस पर किसी किस्म का अतिरिक्त दबाव डालने में यकीन नहीं रखतीं। यह इनकी दुर्बलता नहीं इनकी साहसिकता है कि ये ब्योरों, पर्यावरण या परिवेश के सुदीर्घ और सुचिंतित वर्णन, स्मृतियों, घोषित वैचारिकता और चालू विमर्श से एक सम्मानजनक दूरी बनाती हैं। इस दूरी की वजह से ये कहानियां लंबी होने से भी बच गई हैं। इन कहानियों में रोजमर्रा का वह समस्याग्रस्त समाज है जो कथा-लेखिका का बिलकुल आंखों देखा है। पल्लवी के पास एक व्यंग्यात्मक और चुटीली भाषा है जो मध्यवर्गीय पाखंड के नए सिलसिले को नए ढंग से जाहिर करने में कारगर है। ‘बादशाह नहीं, मैं औरंगजेब!’ शीर्षक कहानी में पल्लवी ने एक ऐतिहासिक चरित्र को जीवंत करते हुए उसे तात्कालिक प्रसंगों से जोड़ा है। कहानी में यह कोशिश इसलिए भी अर्थपूर्ण है कि यह प्रासंगिकता की खोज में है। पल्लवी की कहानियां एक सजग प्रेक्षक के नजरिए से व्यक्त हुई लगती हैं और उनका अब तक का कथा-कर्म इस बात की उम्मीदें उत्पन्न करता है कि वह आगामी दिनों में और भी बेहतर कहानियों के साथ सामने आएंगी।   

लोक का प्रासंगिक पुनर्वास 

शिवेंद्र की कहानियां हिंदी में एक ऐसे वक्त में जाहिर हुई हैं, जब कहानियां हमें फरेब दे रही हैं। शिवेंद्र की अब तक तीन कहानियां प्रकाशित हुई हैं और केवल इनसे ही शिवेंद्र ने एक ऐसी परिपक्वता प्रदर्शित की है जो इस बात के लिए बाध्य करती है कि उनकी इस काबिलियत को पक्की स्याही से रेखांकित किया जाए। शिवेंद्र के कहानीकार ने ‘सच्चाइयों को सबसे लंबे समय के लिए, कहानियों में बचा ले जाने का’ जो विश्वास अभिव्यक्त किया है, वह उनकी कहानियों को मर्मस्पर्शी और यादगार बनाता है। 2013 में प्रकाशित ‘ए घुटरु! कहनी कहो न...’ और ‘चांदी चोंच मढ़ाएब कागा उर्फ चॅाकलेट फ्रेंड्स’ शिवेंद्र की क्रमशः पहली और दूसरी कहानी हैं। ये कहानियां विस्थापन के विभिन्न आयामों से वाकिफ हैं और लोक में अविचल आस्था रखती हैं। इन कहानियों की संवेदनशील भाषा, प्रस्तुति और शिल्प में अपने लोक को एक आधुनिक परिप्रेक्ष्य में संप्रेषणीय, सार्थक और जीवंत बनाने का जरूरी उद्यम, अध्यवसाय और संकल्प नजर आता है। लोक-कथाओं और लोक-गीतों के पुनर्वास की इतनी प्रासंगिक और मार्मिक अभिव्यक्ति शिवेंद्र को हिंदी का एक विशिष्ट कथा-स्वर बनाती है। ‘चांदी चोंच मढ़ाएब कागा उर्फ चॅाकलेट फ्रेंड्स’ जैसी लंबी कहानी आस्वादक को उद्धरणधर्मी होने के प्रेरित कर सकती है। इसकी वजह सिर्फ इतनी है कि इस कहानी में लोकप्रेरित विषय की सघन पड़ताल और दृढ़ निष्कर्ष हैं। अनुभूतियों से उत्पन्न ज्ञान के काव्यात्मक प्रकटीकरण के बीच कुछ नए रूपकों से कथा-तत्व तैयार करने और सार्वभौमिकता देते हुए उसे आगे बढ़ाने की जो कोशिश इस कहानी में है, वह इसे इस दौर की सबसे महत्वपूर्ण कहानी बनाने के लिए पर्याप्त है।             
   
यहां उल्लिखित पांच युवा कहानीकारों के अब तक के कहानी-लेखन पर गौर करके नई बनती हिंदी-कहानी का एक जायजा लिया जा सकता है। अद्यतन हिंदी कहानी ‘कहानी’ से जुड़ी बहुत सारी बहसों को बहुत पीछे छोड़ आई है। इस दृश्य में सजग कई नए कहानीकारों के लिए मार्ग अब बहुत स्पष्ट है। कहानी में ‘क्या करना है और क्या नहीं करना है’ जैसी द्विधा उनके सम्मुख नहीं है। एक बेहतर कहानी क्या होती है और वह कैसे बनती है, यह वे जानते हैं। उनका समय और उनकी जीवन-स्थितियां इस कथा-संघर्ष के लिए उन्हें अवकाश और एकाग्रता दें, आज जरूरत बस इस बात की है। 


शनिवार, 21 जून 2014

ज्ञानपीठ पुरस्कार पर एक भिन्न पकड़ - अविनाश मिश्र

[४९वां ज्ञानपीठ पुरस्कार वरिष्ठ हिन्दी कवि केदारनाथ सिंह को दिए जाने की घोषणा हुई है. इसके साथ एक ऐसा एकाकी समाज सामने आ गया है, जहां किसी को भी इस पुरस्कार से कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन बीते कुछ वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ का हिसाब देखें तो यहां से निकलने वाले सम्मानों-पुरस्कारों के सामने दृष्टिहीन हो जाना पड़ता है. ये अनियमितता से भरे हुए हैं, यहां कुछ भी कभी भी हो जाता है और तमाम जोड़तोड़ सामने आते ही रहते हैं. इस क्रम में यदि हिन्दी के एक वरिष्ठ कवि को शामिल कर दिया जाता है तो जर्जरनामा और व्यापक हो जाता है और इस परम्परा पर अविश्वास थोड़ा और बढ़ जाता है. समय यदि उस कवि के सम्मान का होता है तो उसे कमतर आंकने का भी बन जाता है. बाहर से दिखे या न दिखे लेकिन यह कालखंड बहुकोणीय है. चुनने और लक्षित करने का यही समय क्यों? फ़िर भी कुछ प्रश्न हैं, जिन पर अविनाश मिश्र ने कलम चलाई है. बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी.]


व्यक्तिपूजन से हटकर

अविनाश मिश्र


‘अभाव से उपलब्धि उपजती है और उपलब्धि से अभाव...’
                                                                                   —लाओत्से

‘बधाई’

ऊपर उद्धृत लाओत्से के वाक्य से नहीं, मुझे ‘बधाई’ से ही शुरू करनी चाहिए यह प्रतिक्रिया, जैसे कभी-कभी कुछ प्रेमीजन अपनी प्रेमिका के तलवों शुरू करते हैं रतिक्रिया। ‘49वां भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान समादृत कवि केदारनाथ सिंह को’, इस खबर से फेसबुक के ‘भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन’ एक ‘अजीब-सी चमक’ से भर उठा। ‘बधाई’ की अंतरव्याप्ति यहां प्रस्तुत प्रसंग में बहुत अर्थपूर्ण और गहरी है। बधाइयों का सिलसिला देर रात तक चलता रहा...। युवा कवि-उपन्यासकार हरेप्रकाश उपाध्याय ने तो सारी बधाइयों को जोड़कर कुछ यूं प्रस्तुत किया—बधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाई। बाद इसके उन्होंने इसे अलग-अलग कर कई जगहों पर बांटा, जैसे यह ‘बधाई’ नहीं मिठाई हो...। यहां यह गौरतलब है कि इससे ठीक पहले हरेप्रकाश उपाध्याय को भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा हो चुकी है।

‘पहल’ के संपादक कथाकार ज्ञानरंजन ने कहा है कि ‘हिंदी में मरण का बड़ा महात्म्य है...।’ हिंदी में पुरस्कार भी सृजनात्मक रूप से रचनाकार के मरण के ही सूचक हैं और इनका महात्म्य अब हिंदी में कोई अलग से रेखांकित करने की चीज तो है नहीं, इसलिए इस पुरस्कार-प्रसंग-प्रतिक्रिया को निर्मम नहीं होना चाहिए। तब तो और भी नहीं जब यह पुरस्कार साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च भारतीय पुरस्कार हो और तब तो और भी नहीं जब यह आपकी ही भाषा के एक कवि को मिला हो और तब तो और भी नहीं जब कवि सवर्ण हो और तब तो और भी नहीं जब वह आपके के ही प्रदेश का हो और तब तो और भी नहीं जब आप उसके छात्र रह चुके हों और तब तो और नहीं जब आप उसकी कविता की भद्दी नकल करते रहे हों और तब तो और भी नहीं जब वह इस उम्र में भी आपको लाभ पहुंचाने की स्थिति में हो और तब तो और भी नहीं जब खुद उसने गए कई वर्षों से अपना आभामंडल एकदम ज्ञानपीठ पुरस्कार के सुपात्र के रूप में गढ़ लिया हो...। हालांकि यह अलग से चर्चा का विषय है, लेकिन इस तथ्य को भी यहां याद कर लेना चाहिए कि बहुतेरे प्रसंगों में केदारनाथ सिंह ने बहुतेरे निकृष्ट कवियों को पुरस्कृत किया है।


केदारनाथ सिंह के कवि पर अगर दस पंक्तियों का एक निबंध लिखना हो तो वह कुछ यूं होगा :

  1. वर्ष 1934 में जन्मे केदारनाथ सिंह ने विधिवत काव्य-रचना 1952-53 के आस-पास शुरू की।
  2. उनका पहला कविता-संग्रह ‘अभी बिलकुल अभी’ वर्ष 1960 में प्रकाशित हुआ।
  3. उन्हें एक साथ गांव और शहर का कवि कहा जाता है।
  4. उनके काव्य-संसार में एक प्रयोजनमूलक सरलता दृश्य होती है।
  5. उनकी कविता कहीं भी एकालाप नहीं है।
  6. उनकी कविता अपने समय-समाज से एक लयपूर्ण संवाद है।
  7. उन्होंने अपनी कविता में कामचलाऊ शब्दों को एक मार्मिक जीवंतता दी है।
  8. उनके काव्य-पंथ ने हिंदी में अपने कई अनुयायी उत्पन्न किए हैं। 
  9. उन्हें ‘अकाल में सारस’ के लिए वर्ष 1989 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।  
  10. समग्र साहित्यिक-अवदान के लिए उन्हें वर्ष 2013 का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।


‘अब लौट आओ
तुमने अपना काम पूरा कर लिया है
अगर कंधे दुख रहे हों 
कोई बात नहीं
यकीन करो कंधों पर 
कंधों के दुखने पर यकीन करो’ 

ऊपर उद्धृत पंक्तियां केदारनाथ सिंह द्वारा वर्ष 1977 में लिखी गई कविता ‘चट्टान को तोड़ो वह सुंदर हो जाएगी’ से हैं। इस कविता के अंत में कवि एक और नई चट्टान की खोज में अपना यकीन जाहिर करता है। आधी सदी से भी अधिक की केदारनाथ सिंह की कविता-यात्रा कई स्मरणीय कविताओं और काव्य-पंक्तियों से बुनी हुई है। मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के बाद वह आजाद भारत की हिंदी में अब तक सबसे ज्यादा बार उद्धृत किए गए हिंदी-कवि हैं। ‘हाथ’ और ‘जाना’ जैसी लगभग साढ़े तीन दशक पुरानी और शब्द-संख्या के लिहाज से बेहद छोटी कविताएं अब तक पुरानी नहीं पड़ी हैं, और लगभग इतनी ही पुरानी कविता ‘बनारस’ की फरमाइश भी अब तक जारी है। ‘सूर्य’, ‘रोटी’, ‘तुम आईं’, ‘बारिश’, ‘टूटा हुआ ट्रक’, ‘फर्क नहीं पड़ता’ जैसी कविताएं केदारनाथ सिंह की कविता के मुरीदों के लिए जीवन भर की स्मृति हैं। लेकिन लोकप्रिय-प्रासंगिकता अपना मूल्य भी मांगती है और केदारनाथ सिंह इसके प्रमाण हैं। वह निर्विवाद रूप से हिंदी के एक श्रेष्ठ कवि हैं, लेकिन एक ऐसे श्रेष्ठ कवि जिनका दशकों से कोई उल्लेखनीय काव्य-विकास नहीं हुआ है। उनके नवीनतम कविता-संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ को इस तथ्य की तस्दीक के तौर पर पढ़ा जा सकता है।


गए कुछ वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से कुछ कमतर प्रतिभाओं को भी नवाजा गया है। इस पुरस्कार की ख्याति इस रूप में भी रही है कि यह प्राय: ऐसे ही रचनाकारों को मिलता आया है जिनके बारे में साफतौर पर यह मान लिया जा चुका होता है कि रचनात्मक-उत्कर्ष के स्तर पर ये अपना चूड़ांत बहुत पहले ही छू चुके हैं...। इस तरह से देखें तो ज्ञानपीठ पुरस्कार केदारनाथ सिंह के बहुत पहले ही चुकने की पुष्टि करता है, या यह भी कह सकते हैं कि यह पुरस्कार कई वर्षों से साहित्य-समीर में व्याप्त इस तरह की तमाम वाचिक सच्चाइयों पर ऐतिहासिक और प्रामाणिक मुहर है। यहां आकर केदारनाथ सिंह का वह काव्यात्मक-संघर्ष समाप्त होता है जो एक लंबे अर्से से औसत की बहुलता से ग्रस्त रहा है।