सोमवार, 11 दिसंबर 2017

समय की पड़ताल करता देवी प्रसाद मिश्र का आलेख

इस बौद्धिक बियाबान में                                                                            

देवी प्रसाद मिश्र




अपनी कविता को मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि वह लड़ने भिड़ने वाले आदमी की बेचैनी है. मैं कह सकता हूँ कि मैं कोई शाश्वततावादी लेखक नहीं हूं. प्रतीकवादी भी नहीं. बिंबवादी वगैरह भी नहीं. मतलब कि यह सब तो कविता में कहीं न कहीं होता ही है. मैं सत्ता से चिढ़ने वाला, उसके घपलों से विचलित होने वाला, सामाजिक हेरा फेरी से विकल होने वाला, खुद और खुदी से परेशान, खस्ताहाल, हवास खो बैठने वाला, विपक्ष की सबसे आखिरी बेंच पर हूट करने के लिये बैठा आदमी हूं. मैं विरोध में रहने का आदी हूं. अभिव्यक्ति पर पहरेदारी हो तो मुझ जैसे लेखक का संकट बढ़ जाता है. पता नहीं किस तरह की बात कहने पर आपको जेल में डाल दिया जाय, झूठे केस या मुकद्दमे में फंसा दिया जाय, आपको बदनाम किया जाय, जिस हाउसिंग सोसायटी में आप रहते हैं हो सकता है वे ही एक भीड़ बन जाएं कि आप भारतीय संस्कृति के विरुद्ध हैं. यह संशय मेरे भीतर हमेशा से रहा है लेकिन हाल के दिनों में वह बढ़ा है. मोदी जब बनारस चुनाव लड़ने गये थे तभी से यह खबर आने लगी थी कि भाजपा विरोधियों की कसकर तोड़ाई की जा रही है. बाद में यह काम छात्र संगठनों, गौरक्षकों, राष्ट्रभक्तों ने उठा लिया. इस भीड़गत लंपट अराजकता के पीछे सुचिंतित राजनीतिक सत्तात्मक प्रबंधन है - अब लोगों को बरगलाया नहीं जा सकता कि ये आदेश कहां से आ रहे हैं.

अगर आप मुझसे पूछें तो मैं कहूँगा कि मैं डरा नहीं हूं. मैं क्षुब्ध हूं. मैं स्तंभित हूं और ठगा महसूस कर रहा हूं कि हिंदू - जो मैं भी हूं - के नाम पर सामाजिक और सांस्कृतिक वंचना का कौन-सा खेल खेला जा रहा है. यह कौन सी खोखली सारहीन वस्तुविहीन ज़बान बोली जा रही है. यह शंकर, गांधी और राधाकृष्णन का हिंदूवाद तो कतई नहीं है. इसकी अंतर्वस्तु असहिष्णुता क्यों है? इस आक्रामकता का उपयोग जाति हटाने के बड़े सामाजिक आंदोलन लिये क्यों नहीं किया जा रहा? क्यों दहेज के विरुद्ध एक अभियान हिंदू फोल्ड में नहीं दिख रहा? क्यों हिंदू स्त्री को संपत्ति पर पुत्र वाले अधिकार नहीं हैं? पर्दा और बाल विवाह को लेकर हिंदूवादी संगठन क्यों कुछ नहीं करते दिख रहे? क्यों हिंदू की मुस्लिम-विरोधी लंपटीय एकता के छद्म पर इतना ज़ोर है? क्यों लोकतंत्र के बरक्स एक संविधानेतर भीड़तंत्र का सतत निर्माण हो रहा है? भयावह यह है कि बहुत फालतू किस्म की अंतर्वस्तु वाली फिल्म पद्मावती पर बहस इस बात के लिये नहीं की जा रही कि उसमें सती जैसी स्त्री-विरोधी प्रथा का महिमामंडन है. यह अक्षर विरोधी, समानता विरोधी, स्वतंत्रता विरोधी, इतिहास विरोधी दुष्काल है. यह अभिव्यक्ति विरोधी काला काल है.

हम अंधेरे में हैं. इस अंधेरे में पता नहीं कितने मर्दवादी मुच्छड़, गोलीबाज़, ड्रामेबाज़, हत्यारे, दलाल, मनी लांडरर, पंडे, गुंडे, लंपट, गुरु, बाबा, पंथी अखाड़िये, तस्कर, सनातनी, कर्मकांडी, सामंत, फासिस्ट, बुद्धिविरोधी, बिचौलिये, महंत, ठाकुरवादी-ब्राह्मणवादी-वैश्यवादी, पुजारी, दंगाई जिनको विज्ञान और विमर्श के प्रवाह ने निरर्थ, अप्रासंगिक, अनुपयुक्त, और समयविरोधी बना दिया था हमारे नीतिनिर्माता, राज्यनिर्माता और चेतनानिर्माता बनते जा रहे हैं. अकारण नहीं कि बौद्धिक जिनके पास विश्लेषण के प्रामाणिक उपकरण रहे हैं इस तंत्र के निशाने पर हैं. इस हिंदुत्व की पूरी कोशिश यह है कि किस तरह से बौद्धिकों को संस्कृति विरोधी, अवैध और समाजविरोधी सिद्ध किया जा सके.

इस बात को समझने के लिये बहुत ज्ञान की ज़रूरत नहीं है कि यह हिंदू पुनरुत्थानवाद का राजनीतिक चेहरा है जो वाम की अकर्मक निरीहता और निकम्मेपन, कांग्रेस के नैतिक और राजनीतिक पतन, आप आंदोलन के बिखराव और उसके बाद आम आदमी पार्टी के एकाधिकारवादी, केजरीवाल-केंद्रित, औसतपनप्रेमी, आत्महंता राजनीति के विवर से पैदा हुआ जिसमें दिग्भ्रमित, भटके और बदहवास मुसलमानों का प्रतिशोधी आतंकवाद भी एक कारक बन गया.

इस बात पर ध्यान जाना चाहिये कि यह न तो हिंदू पुनर्जागरण है और न नवजागरण. यह हिंदू महासभा का एक प्रतिगामी राजनीतिक कार्यभार जैसा है. इसके पास सुधार आंदोलन की वह मेधा नहीं जो राम मोहन राय और विद्यासागर में थी और जिसने हिंदू नवजागरण को अंतर्वस्तु और रूप दिया था. हिंदुत्व के उभार के इस आक्रामक दौर में कोई नहीं पूछ रहा कि हिंदू स्कीम में शूद्र क्यों है. इसको लेकर न तो कोई बृहत् हिंदू शर्म है और न ही पश्चाताप - न तो दलित विमर्श है और न समानता के लिये कोई बड़ा आग्रह. यह हिंदू उत्थानवाद अपारथाइड से लड़ने को किसी भी तरह से तैयार नहीं है. साफ है कि यह हिंदुत्व यथास्थितिवादी और बदलावरोधी है और पुरोहित तंत्र को मज़बूत करता है. यहां सवर्णों का आत्मसंघर्ष नहीं है. इसीलिये यह एक सामाजिक विवेक से रहित छूंछा घृणा आंदोलन है जिसका निशाना बौद्धिक और दलित और आधुनिकता हैं - यह मुस्लिम विरोधी फाशीवाद है जो ज्ञान विरोध में पर्यवसित हो उठता है. इसीलिये इस प्रतिगामी पर्यावरण में तर्क सम्मत समाज चाहने वाले विचारकों और चिंतकों की हत्या की जाने लगी. बात बेबात लोगों पर राष्ट्रद्रोह के मुकद्दमे कायम किये जाने लगे. विमर्श सैन्यवादी हो उठा. गौरी लंकेश जैसी स्त्री जो आज़ाद और लड़ाकू स्त्री का बड़ा रूपक थी कायरता की मिसाल पेश करने वाली क्लीबता के साथ मारी गयी. बेटी बचाने का छद्म बेपर्दा हो गया. यह स्त्रीविरोध का बड़ा बिंब था. हिंदुत्व के वायरस से ग्रस्त युवक विद्याकेंद्रों में स्नायविक ताकत दिखाने लगे और सड़कों पर राष्ट्र रक्षक और धर्म रक्षक घूमने लगे.

कह लीजिये कि हिंदुत्व किसी तरह के साभ्यतिक उत्कर्ष के साथ नहीं प्रस्तुत हो रहा है. इसीलिये इस राजनीति के केंद्र में अपनी आवाज़ और रुहानियत के लिये भटकती भूखी प्यासी बदहवास हिंदुस्तानी स्त्री नहीं, गाय है. मेरे खयाल से भाजपा के कथित सांस्कृतिक आंदोलन की यह सबसे बड़ी चूक है जो हिंदू अभियान का बड़ा दार्शनिक - और राजनीतिक भी - नुकसान करने वाली है. इस नव्य गोचारण तंत्र में ऋग्वैदिक पशुचारणी सभ्यता का आरण्यक भोलापन नहीं है - यह 21वीं सदी के हिंसक भीड़ का हड़बोंगपन है जो अराजकता, अंधता और उद्वेजकता के साथ आ रहा है. परंपरा के नाम पर एक मासूम चौपाये को सांस्कृतिक विमर्श के केंद्र में लाना विवेक विरोध का अन्यतम रूपक है. यह गोशाला और पाठशाला के बीच फंसे एक पोंगापंथी, भयग्रस्त, प्रश्नहीन, विमर्शविहीन समाज बनाने की प्रस्तावना है. नव्य हिंदुत्व इंटलेक्चुअल रिवर्सल है. बोलने पर मुमानियत का ही नहीं विवेक सम्मत बात को न सुने जाने का भी पर्यावरण बना है. विवेकवाद से उपजा विचार वैभिन्य अब अपराध है - कोशिश है सांस्कृतिक सर्वानुमतिवाद और एकरूपीकरण की.

लेकिन सत्ता यह भी समझ ले कि लेखक अपनी मूल निर्मिति में प्रतिष्ठान विरोधी होता है. सत्ता का सतत विपक्ष. वह लोकतंत्र की चौकीदारी करता है और नागरिकता के बुनियादी अधिकारों की पहरेदारी. वह बड़ी मनुष्यता का पुनर्स्मरण कराता रहता है. वह राजनीति और पूंजी की दुरभिसंधियों को बेपर्दा करता है, सामंत की मूंछ खींचता है और सत्ता के सांड़ को बस में करने के नुस्खे तजवीज करता रहता है. वह कबीर और धूमिल होता है. वह पाश और ब्रेष्ट होता है. वह मुक्तिबोध होता है. इनमें से हर एक को किसी न किसी समय अपने समय की सत्ताओं को झेलना पड़ा था. लेकिन ये लोग अपनी अंतर्वस्तु को बिना किसी समझौते के प्रकट करते रहे. रचनाकार के तौर पर मैं भी अपने को इसी तरह की भूमिका में देखता रहा हूं. मुझे एक वैकल्पिक भारतीय मनुष्य चाहिये जिसे आंदोलनों से निकली वैकल्पिक राजनीति ही मुहैया करा सकती है. इसलिये भी मैं अपनी असहमति और अभिव्यक्ति स्थगित नहीं कर सकता - अपने यूटोपियाई स्वप्न के साथ किसी भी समकालीन क्रूरता के यथार्थ से भिड़ने के लिये मैं अभिशप्त हूं. बतौर कवि और नागरिक. 

[यह आलेख तो रविवार को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है. लेकिन इसे यहां रखते समय लेखकों की प्रतिबद्धता पर ध्यान जाता है. फिर यह बात दिमाग में आती है कि लेखकों - ख़ासकर हिन्दी के - की प्रतिबद्धता एक लम्बे समय से चुकी हुई रही है. बात तो ठीक है कि विरोध ही करते रहेंगे तो लिखेंगे कब? लेकिन हिन्दी के स्फीयर में इसे एक बहाने की तरह लिया गया. ज़ाहिर है कि इसीलिए हिन्दी के अधिकांश लेखक प्रतिरोध और समर्थन के वक़्त किसी लेखक को ही केंद्र में रखकर खड़े होते हैं. इस समय हिन्दू समाज के सामने समस्या तो यह आ गयी है कि मूर्खों और प्रतिक्रियावादियों द्वारा लीड किए जाने के बावजूद वे इस ख़तरे को समझ नहीं पा रहे हैं. और इस ख़तरे को भांपते हुए भी लेखक ख़ुद को एक नागरिक समझ पाने में किंचित अक्षम दिखाई दे रहा है. ऐसे में देवी प्रसाद मिश्र का यह आलेख ज़रूरी हो जाता है, जिसमें उन्हें वैकल्पिक राजनीति और वैकल्पिक मनुष्य दरकार हैं. बुद्धू-बक्सा देवी प्रसाद मिश्र का आभारी. ]

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

IFFI : वहां जो हमने बातें की थीं - अविनाश मिश्र

[यह गद्य मुझे इस बार कम परेशान कर रहा है. इस 'कम परेशानी' में मेरा उस रंग निर्देशक से कल की ही तारीख़ में हुआ सामना है, जब वह मुझसे फ़िल्में देखने-दिखाने का आग्रह करता है. वह कहता है कि उसके कलाकारों को फ़िल्मों के बारे में नहीं पता, और यह भी नहीं पता कि फ़िल्में देखकर क्या सोचा जाना चाहिए. फिर अगले वाक्य में रंग निर्देशक की ख़ुद की कलई भी खुलती है. ऐसे में एक 'कम परेशान' करने वाला गद्य और समीक्षात्मक टुकड़ा एक आश्वस्ति (और एक ईर्ष्या) के साथ आता है कि बहुत कुछ सीखना-देखना बचा हुआ है. अविनाश ने फ़िल्म महोत्सव से लौटकर दूसरी बार लिखा है. इसके लिए आभार व्यक्त करते हुए मैं यह कहूंगा कि जब यह तीसरी बार लिखा जाएगा, तो पाठकों की सिनेमाई मुस्तैदी की हमारी अभिलाषा कुछ और पूरी होगी.]


20 नवंबर 2017

‘‘प्रेम कहानियां मुझे परदे पर सुंदर नहीं लगतीं.’’


मैं चुपचाप उसके पीछे खड़ा उसे सुन रहा था. वह माजिद मजीदी की नवीनतम और 20-28 नवंबर 2017 के दरमियान गोवा में आयोजित 'भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव' के 48वें संस्करण की ओपनिंग फिल्मबियॉन्ड क्लाउड्सको प्रेम-कहानी मानने से इनकार कर रहा था

वह अपने तात्कालिक फैसलों में हांफ रहा था, जब मैंने पीछे से अपना दाहिना हाथ उसके कंधे पर रखा. उसने बहुत खुशी औरअरे...’ से मुझे देखा. हम दो बरस यानी दो महोत्सवों बाद मिल रहे थे. ‘अरे...’ इस काल और अवधि के दरमियान का एकमात्र शब्द है. ‘अरे...’ अब बढ़ता ही जाएगा...

21 नवंबर 2017 

कल माजिद मजीदी ने ओपनिंग सेरेमनी में फरमाया कि भारत में भारत के लिए फिल्म बनाना उनका स्वप्न था, लेकिन मुझे यह समझ में नहीं रहा था कि इस स्वप्न को साकार करने के लिए यह क्यों जरूरी था कि फिल्म मुंबई में और हिंदी में ही बनाई जाए? अल्बानिया-ग्रीस से आई गेंटियन कोसी की फिल्मडेब्रेक’ (2017) को अधूरा छोड़ इंडियन पैनोरमा की ओपनिंग फिल्मपुष्कर पुराणमें घुसते हुए उसने मुझसे कहा कि तुम गलती कर रहे हो, माजिद की मुंबई तुमने इससे पहले किस भारतीय या हिंदी फिल्म में देखी है, यह कहो...? 

पुष्कर पुराणसाल 1988 में आईओम दर बदरके करीब तीन दशक बाद प्रदर्शित कमल स्वरूप की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म है. यह राजस्थान में अजमेर के नजदीक बसे एक छोटे-से शहर पुष्कर को वहां हर साल अक्टूबर-नवंबर में आयोजित होने वाले मेले के बहाने खोलती है. धार्मिक और पौराणिक महत्व और मान्यताओं से जुड़ा यह मेला संसार भर में मशहूर है. आस्था यह है कि यहां ब्रह्मा का एकमात्र मंदिर है



पुष्कर पुराणअरावली की पहाड़ियों के बीच पवित्र पुष्कर झील पर हो रहे सूर्योदय से शुरू होकर अपने प्रकाश को वहां तक ले जाती है, जहां एक पुष्कर के कई चेहरे नजर आते हैं. बगैर अटैच वाशरूम और सिंगल बैड वाला कमरा दिखाती हुई स्त्री, गाय के सहारे चोरों को पकड़वाने वाला अति धार्मिक किन्नर, पुराणों के अध्ययन के जरिए पुष्कर की धार्मिक कीर्ति को बताता हुआ युवक, विदेशी पर्यटक से विवाह करके जर्मनी-फ्रांस-स्विचरलैंड घूम चुका फतेह सिंह उर्फ फत्तू और पुष्कर के घरों की प्राचीन संरचनाओं पर मंडराते हुए लंगूर, कौए और रास्ता काट-काटकर जाती हुई बिल्लियां... ये दृश्य एक अजीब संगीत के बीच माहौल को डरावना और किसी अनिष्ट की आशंका से घिरा हुआ बनाते हैं

यह चित्रात्मकता अपनी तरफ से कुछ नहीं कहती है. बस एक के बाद एक चेहरे सामने आते हैंचलते हुए और ठहरे हुए भी, दोनों तरह के. ये चेहरे अपने बारे में बताते हुए पुष्कर के बारे में और पुष्कर के बारे में बताते हुए अपने बारे में बताते हैं. शापित देवी-देवताओं, ऊंटों की खरीद-फरोख्त, विदेशी पर्यटकों, धोखाधड़ी और अंधे विश्वासों से गुजरते हुए कमल स्वरूप का कैमरा बार-बार दूर या कहें ऊपर-ऊपर से बहुत मनोहर नजर आने वाले पुष्कर को भी कैद करता है. ड्रोन कैमरे का इस्तेमाल इस काम में और मदद पहुंचाता है


वह फिनलैंड-जर्मनी से आई अकी करिस्मकी की फिल्म अदर साइड ऑफ होप’ (2017) और जापान से आई नाओमी कवासे की फिल्मरेडिअंस’ (2017) में भी साथ रहा. ‘ अदर साइड ऑफ होपखालिद नाम के एक सीरियाई शरणार्थी के सफर को कहीं बहुत तकलीफ, तो कहीं बहुत व्यंग्य से कहती हुई नजर आती है औररेडिअंसनेत्रहीनों के लिए फिल्म-लेखन करने वाली एक लड़की मिसाको की कहानी है जो अपनी पूर्णता में कविता, संगीत, दर्शन, फोटोग्राफी और पेंटिंग की ऊंचाइयों को सिनेमा के परदे पर छूती है

वह चुप था और मैं प्रसन्न कि 82 देशों की 195 फिल्मों में मेरी चुनी हुई फिल्में, उसकी चुनी हुई भी थीं

22 नवंबर 2017 
  
इस रोज की शुरुआत पोलिश फिल्मअमोक’ (2017) से और समाप्ति जर्मन फिल्मफ्रीडम’ (2017) से हुई. बीच में ईरान से आईडिसअपियरेंस’ (2017) और वियतनाम से आईफादर एंड सन’ (2017) भी देखीं

मैंने पाया कि खराब फिल्में उसे मुखर कर देती हैं, और बेहतर फिल्में मौन. वे फिल्में जो खराब होती हैं, बेहतर... उन पर वह दार्शनिक हो जाता है. उसने कहा कि आगे से वह स्क्रीनिंग शेड्यूल में ईरानियन फिल्मों की जगह फिनलैंड-फिलीपींस, और जर्मन-फ्रांसीसी फिल्मों की जगह ब्राजील-टर्की-ताईवान-कोरिया की फिल्मों को तरजीह देगा

कंट्री फोकसमें शामिल कनाडा की आठ फिल्मों, कैनेडियन फिल्म निर्देशक एटम इगोएन को लाइफटाइम अचीवमेंट सम्मान मिलने के उपलक्ष्य में उनकी तीन फिल्मों, जेम्स बॉन्ड फिल्म्स के पचास वर्ष पूरे होने के मौके पर इस सीरीज की नौ फिल्मों सहित यूके और यूएसए की एक भी फिल्म उसकी सूची में नहीं थी. उसने कहा मुझे अब उन सब फिल्मों से परहेज है जिनकी मूल भाषा अंग्रेजी या हिंदी है.

23 नवंबर 2017 

फिनलैंड की फिल्मयूथेनाइजर’ (2017) देखने के बाद उसने कहा कि यह आपको बदलती है, इसलिए इसे रचना कह सकते हैं. यह फिल्म पशुओं के अधिकारों के बहाने मनुष्यों के मूल कर्तव्यों और उनके अधिकारों की खोज करती है. भारतीय दर्शकों को यहगीता-दर्शनकी याद दिला सकती है

यूथेनाइजरसेछूटते हीफ्रांस-सेनेगल कीफेलिसिते’ (2017) की पकड़ में जाना, मृत्यु के शोक बाद शोक-गीत में डूब जाने सरीखा है और इसके ठीक बाद नीदरलैंड कीइन ब्लू’ (2017) आपको प्रेम के व्यापक अस्पष्ट में और रूस कीलवलेस’ (2017) प्रेम के व्यापक विघटन में ले जाती है. रात के बारह बज चुके होते हैं, जब जॉर्जिया कीखिबुला’ (2017) के निर्वासन से बाहर आने की कोशिश धीमे-धीमे नींद में ले चलती है

24 नवंबर 2017

स्क्वेअरकई वजहों से एक चर्चित फिल्म है. मानवीय कर्तव्यों की याद दिलाने वाले एक महानुभाव केअन्य व्यवहारको यह फिल्म बहुत प्रतीकात्मक और विसंगत ढंग से दर्ज करती है. मैंने उसके मौन को भेदकर उससे जानना चाहा कि स्क्वेअरउसे कैसी लगी? उसने कहा, ‘‘कला कर्म से मुक्त होकर कूड़ा हो जाती है...’’ इस अधूरे वाक्य को उसने अजरबेजान से आई फिल्मपोमग्रेनेट ऑचर्ड’ (2017) देखने बाद आगे बढ़ाया, ‘‘हमारी महान कला के आगे एक बहुत बड़ी आबादी अंततः इस फिल्म के बच्चे की तरह ही खड़ी हैअनारों से समृद्ध बगीचे में कलर-ब्लाइंडनेस से ग्रस्त.’’

ब्राजीलियाई फिल्मनीस : ‘ हार्ट ऑफ मेडनेस’ (2015) की कथा साल 1944 के आस-पास की है. इस कथा की नायिका नीस एक मनोचिकित्सक है. वह अपने अस्पताल में स्किजोफ्रेनिक्स के लिए बिजली के झटकों वाले हिंसक उपचार के विरुद्ध है. वह मानती है कि पागलों की भी एक भाषा होती है, हमें उसे समझकर उनके उपचार की तरफ बढ़ना चाहिए. अपने समकालीन डॉक्टरों के उपहास से आहत नीस ऑक्यूपेशनल थेरेपी के इलाके में खेल, चित्रकला, कुत्तों और स्नेह के जरिए मनोपचार में नई क्रांति ले आती है. फिल्म के अंत में अभिनीत नीस के स्थान पर वास्तविक नीस का आना और यह कहना बहुत मानीखेज है कि जिंदगी जीने के एक हजार तरीके हैं, फर्क इससे ही पड़ता है कि आप कौन-सा तरीका चुनते हैं.

25 नवंबर 2017

महोत्सव आधा बीत चुका था, जब उसने जर्मनी-फ्रांस-बेल्जियम की यंग कार्ल मार्क्स’ (2017) और ताईवान की लास्ट पेंटिंग’ (2017) पर घेरा बनाते हुए कहा, आज दो से ज्यादा फिल्में नहीं देखूंगा

26 नवंबर 2017

फिलीपींस की फिल्मवुमन ऑफ वीपिंग रिवर’ (2016) देखकर उसने कहा, ‘‘वे जिंदगियां जो सिनेमाघर के सम्मोहक अंधकार में हमारी आंखों के सामने परदे पर घूमती रहती हैं, उनके आस-पास अपार जल, अपार रेत, अपार उजाड़, अपार हरियाली, अपार प्यार, अपार उदासी, अपार दर्शन, अपार हिंसा है. संसार के अलग-अलग कोनों और भाषाओं से आई हुई इस अपारता में अपार आकर्षण है.’’ यह कहकर एक खालीपन में पूरा हंसते हुए उसने समुद्र-दर्शन की इच्छा व्यक्त की. बाद इसके कोई फिल्म देखना फिजूल था. हम समुद्र देखकर रात 10.45 पर INOX के अंधकार में लौटेनरगिस अब्यार की ईरानियन फिल्मनफ़स’ (2017) देखने के लिए

27 नवंबर 2017

टर्की से आईजेर’ (2017) देखने के बाद उसने कहा कि खोजने में उत्साह है और हर खोज में यातना, वियोग और मृत्यु शामिल है

28 नवंबर 2017

इस महोत्सव की क्लोजिंग फिल्मथिंकिंग ऑफ हिमके बाद हम इस सफर के आखिरी भोज्य के लिए गए और हमने प्रेम पर बात की

थिंकिंग ऑफ हिमपाब्लो सीजर निर्देशित अर्जेंटीनियन फिल्म है. इसमें दो कहानियां एक साथ मिलती-चलती हैं. भूगोल के अध्यापक फेलिक्स को अपने तकलीफदेह वर्तमान से मुक्ति नहीं है. उसे एक रोज रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं की एक किताब मिलती है. कहानी यों आगे बढ़ती है कि श्वेत-श्याम हो गई स्क्रीन पर रवींद्रनाथ अर्जेंटीना आते हैं और लेखिका विक्टोरिया ओकंपो के मेहमान बनते हैं, और रंगीन स्क्रीन पर फेलिक्स शांतिनिकेतन आता है और कमली का मेहमान बनता है. प्रेम यहां पूर्ण नहीं है, लेकिन वह अपने प्रभाव में समग्र मानवता के लिए कल्याणकारी होने का स्वप्न संजोए है

विदा होते हुए उसने कहा कि तुमने जो पिछली बार लिखा था, उसे मैंने पढ़ा था. मैंने सोचा था कि तुम मिलोगे तो इस पर तुमसे बात करूंगा. लेकिन तुम बराबरनहीं मिलतेरहे. दरअसल, मैं तुमसे कहना यह चाहता हूं कि तुम्हें और बेहतर गद्य के लिए कहानियों, तथ्यों, सूचनाओं औररोचक जानकारियोंसे बचना चाहिए. तथ्य सौ जगह एक-से ही हैं, उन्हें आसानी से पाया जा सकता है

तुम्हें अपने नजदीकीकाव्य-संसारसे भी बचना चाहिए. तुम्हारी कोशिश केवल यह होनी चाहिए कि जो तुम कर रहे हो, उसे सबसे पहले वैसा बनाओ, जैसा वह है. वह अलग तब ही नजर आएगा, जब तुम उसे उन बातों से भर पाओगे जिन्हें अब तक इस प्रसंग में नहीं कहा गया है. सिनेमा इसलिए ही इस समय की केंद्रीय विधा है, क्योंकि सिनेमा वह दे रहा है जो दूसरे कला-माध्यम नहीं दे पाते, और इसलिए ही मैं यह कह रहा हूं कि दूसरे कला-माध्यमों को वह देने का यत्न करना चाहिए जो सिनेमा नहीं दे पाता है