रविवार, 26 दिसंबर 2010

गीत चतुर्वेदी

इतना तो नहीं

मैं इतना तो नहीं चला कि
मेरे जूते फट जाएँ

मैं चला सिद्धार्थ के शहर से हर्ष के गाँव तक
मैं चन्द्रगुप्त अशोक खुसरो और रज़िया से ही मिल पाया
मेरे जूतों के निशान
डि'गामा के गोवा और हेमू के पानीपत में हैं
अभी कितनी जगह जाना था मुझे
अभी कितनों से मिलना था
इतना तो नहीं चला कि
मेरे जूते फट जाएँ

मैंने जो नोट दिए थे, वे करकराते कड़क थे
जो जूते तुमने दिए, उनने मुँह खोल दिया इतनी जल्दी
दुकानदार !
यह कैसी दग़ाबाज़ी है

मैं इस सड़क पर पैदल हूँ और
ख़ुद को अकेला पाता हूँ
अभी तल्लों से अलग हो जाएगा जूते का धड़
और जो मिलेंगे मुझसे
उनसे क्या कहूँगा
कि मैं ऐसी सदी में हूँ
जहाँ दाम चुकाकर भी असल नहीं मिलता
जहाँ तुम्हारे युगों के मुक़ाबले आसान है व्यापार
जहाँ यूनान का पसीना टपकता है मगध में
और पलक झपकते सोना बन जाता है
जहाँ गालों पर ढोकर लाते हैं हम वेनिस का पानी
उस सदी में ऐसा जूता नहीं
जो इक्कीस दिन भी टिक सके पैरों में साबुत
कि अब साफ़ दिखाने वाले चश्मे बनते हैं
फ़िर भी कितना मुश्किल है
किसी की आँखों का जल देखना
और छल देखना
कि दिल में छिपा है क्या-क्या यह बता दे
ऐसा कोई उपकरण अब तक नहीं बन पाया

इस सदी में कम से कम मिल गए जूते
अगली सदी में ऐसा होगा कि
दुकानदार दाम भी ले ले
और जूते भी न दे ?

फट गए जूतों के साथ एक आदमी
बीच सड़क पैदल
कैसे गीली रुई बन जाता है

कोई मुझसे न पूछे
मैं चलते-चलते ठिठक क्यों गया हूँ

इस लम्बी सड़क पर
क़दम-क़दम पर छलका है खून
जिसे किसी जड़ में नहीं डाला जा सकता
जिससे खाद भी नहीं बना सकते केंचुए
यहाँ कहाँ मिलेगा कोई मोची
जो चार कीलें ही मार दे

कपड़े जो मैनें पहने हैं
ये मेरी आत्मा को नहीं ढँक सकते
चमक जो मेरी आँखों में है
उस रोशनी से है जो मेरे भीतर नहीं पहुँचती
पसीना जो बाहर निकला है
वह आत्मा का आँसू है
जूते जो पहने हैं मैनें
असल में वह व्यापार है

अभी अकबर से मिलना था मुझे
और कहना था
कोई रोग हो तो अपने ही ज़माने के हकीम को दिखाना
इस सदी में मत आना
यहाँ
खड़िए का चूरन खिला देते हैं चमकती पुर्जी में लपेट

मुझे सैकड़ों साल पुराने एक सम्राट और भिश्ती से मिलने जाना है
जिसके बारे में बच्चे पढेंगे स्कूलों में
मैं अपनी सदी का राजदूत
कैसे बैठूँगा उसके दरबार में
कैसे बताऊँगा ठगी की इस सदी के बारे में
जहाँ वह भेस बदलकर आएगा फ़िर पछताएगा
मैं कैसे कहूँगा रास्ते में मिलने वाले इतिहास से
कि अगली सदियों में संभलकर जाना
आगे बहुत बड़े ठग खड़े हैं
तुम्हे उल्टा लटका देंगे तुम्हारे ही रोपे किसी पेड़ पर

मैं मसीहा नहीं जो नंगे पैर चल लूँ
इन पथरीली सड़कों पर
मैं एक मामूली, बहुत मामूली इनसान हूँ
इनसानियत के हक़ में ख़ामोश
मैं एक सज़ायाफ़्ता हूँ
अबोध होने का दोषी
चौबीसों घंटे फाँसी के तख़्त पर खड़ा
एक वस्तु हूँ
एक खोई हुई चीख़
मजमे में बदल गया एक रुदन हूँ
मेरे फटे जूतों पर न हँसा जाए
मैं दोनों हाथ ऊपर उठाता हूँ
इसे प्रार्थना भले समझ लें
बिलकुल
समर्पण का संकेत नहीं


[गीत चतुर्वेदी उन नामों में से एक हैं, जिनसे हिन्दी साहित्य की युवा कविता धारा पहचानी जाती है. गीत चतुर्वेदी का आभार, उन्होंने अपनी कविता प्रकाशित करने की सहर्ष अनुमति दी. काल-यात्रा और जूते जैसे एक बेसिक एलिमेंट से झगड़ता और साम्य बैठाता एक यात्री कितनी अलग-अलग परेशानियों से गुज़रता है, इसे गीत चतुर्वेदी ने बड़े सरल तरीक़े से दिखाया है. यहाँ डि'गामा व अक़बर हैं तो ख़ुसरो और रज़िया भी हैं. एक बात तो साफ़ है, गीत चतुर्वेदी की कवितायें अत्यंत साफ़ और आत्मा की गहराइयों से निकली कवितायेँ हैं, उन कविताओं से बिलकुल भिन्न, जहाँ उपलब्ध बुद्धि और किताबी ज्ञान का बोलबाला रहता है.]

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

“इमोसनल” अत्याचार


कितनी क़िताबी भाषा का इस्तेमाल होता आया है, संगीत के लिए. लेकिन मैं इस तरह की बातों से सहमत रहता हूँ क्योंकि ये सही और ज़मीन से जुड़े शब्द होते हैं, जिनके व्यापक प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता. अभी मेरे साथ रहते हैं अमित त्रिवेदी, जिनके लिए ये कहना गलत नहीं होगा कि इनका संगीत सीधे आत्मा से छनकर बाहर आता है. जोश और नयापन, जो हर बार पिछले से अलग और ज्यादा होता है और हमेशा की तरह अपने उसी तेज़ रूप में उपस्थित होता है जहाँ ये किसी की भी उपस्थिति को सिरे से ख़ारिज करता हुआ हाला आता है.

जी हाँ, फिर से याद दिलाया जाए कि ये वही अमित त्रिवेदी हैं – तेरा इमोसनल अत्याचार. अब शायद समय आ गया है कि फिल्म संगीत की बूढी हो चुकी रीढ़ की हड्डियों को भरपूर आराम दिया जाए, जिन पर फिल्म संगीत एक लम्बे समय से घिसटता चला आ रहा है.

अब तुम चुप रहो! ये मेरा समय है! दम हो तो आओ सामने!….. अमित का संगीत सुनने के बाद ऐसा लगता है कि वे अपने आलोचकों से कुछ ऐसा ही कहते हैं, इन्होनें संगीत को एक नया आयाम दिया और उसके भिन्न-भिन्न और अपरिचित रूपों से सबको अवगत कराया.

फिल्म आमिर से शुरू हो, नो वन किल्ड जेसिका तक अमित का सांगीतिक सफ़र कितना ज़्यादा बहाव में रहा है, ये शायद किसी से छिपा नहीं है. स्कूली बैंड ओम से लाईमलाईट से आने वाले अमित को राष्ट्रीय पुरस्कार से हटकर जो भी मिला वो सिर्फ़ प्यार था, न कोई अलंकरण सम्मान और न कोई ऑस्कर, संगीत-प्रेमियों नें किसी दामाद की तरह अमित को प्यार और सम्मान दिया जो शायद किसी दूसरे ‘नये’ संगीतकार को मयस्सर नहीं हुआ.

सार्वजनिक तौर पर सक्रिय न रहने वाले इस संगीतकार नें फिल्मों को बस अपने संगीत के बल पर ही एक बने-बनाए ढर्रे से अलग हटाया. किसी दृश्य में इनके संगीत की उपस्थिति, उस दृश्य को देखने का नया दृष्टिकोण देती है. ऐसा क्यों है कि किसी दूसरे संगीतकार के गीतों पर कंधे नहीं फड़कते हैं, क्यों कोई दूसरे संगीतकार स्नायुओं में नहीं घुस पाते या कहीं और चाँद की चूड़ी का जिद्द क्यों नहीं दीखता है…और वो भी हमेशा. मेरी समझ से रॉक श्रेणी के तरीक़े का अलग और उन्मुक्त ढंग से प्रयोग अमित के अलावा किसी संगीतकार नें नहीं किया. फ्री गिटार और ओपन रिदम को अमित ने जिस खूबसूरती से अपने गीतों में उतारा है, वो बेशक़ तारीफ़ के क़ाबिल है.

रहमान मेरे प्रिय संगीतकारों में आते हैं लेकिन अमित के आने के बाद वे (मेरे लिए) दूसरे पायदान पर आ गये हैं. कॉमनवेल्थ गेम्स के संगीत को और बेहतर तरीक़े से अमित सजा सकते थे, क्योंकि ये साफ़ है कि दिल्ली एक चमचमाती नदी की तरह उनके संगीत में दीखता है, उदाहरण के लिए नो वन किल्ड जेसिका के गीत दिल्ली को सुन लीजिये, द..द..द..द..द..द..द..दिल्ली..दिल्ली..दिल दिल दिल…मेरा काट कलेजा दिल्ली ले गयी..मोहे दिल्ली ले गयी, मेरी जान भी ले जा दिल्ली ससुरी दिल्ली दिल्ली दिल्ली. इसे बस एक बार दिल्ली-६ के गीत दिल्ली के साथ रखकर देखिये, अन्तर ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आ जायेगा. मेरे दिल्ली प्रेम को अमित त्रिवेदी ही सही सुर (सुरूर) दे पाते हैं.

किसी भी तरह के प्रदूषण से बचा हुआ संगीत, अपने हर रूप के साथ आपका समझौता कराता हुआ आता है और अपने किसी भी रूप को दूसरे से कम नहीं होने देता है.

देव डी, अगर आपको देखना है कि अमित के संगीत की “रचना-प्रक्रिया” क्या है, तो सुनिए इस फिल्म को, हिक्क्नाल और पायलिया जैसे गीत, फिल्म-संगीत को आई-पॉड या कानफोडू वर्ग की पहुँच से दूर ले जाकर स्थापित करते हैं. स्ट्राईकर फिल्म का चम्-चम् गीत भी तो बढ़िया है. इसके दिल्ली प्रेम को इनकी आदतों में शुमार नहीं किया जाना चाहिए, इसका पता स्ट्राईकर के गीत बॉम्बे से अच्छे से चल जाता है.

सुनिए अमित त्रिवेदी को, जानिए अलग कुछ और जोड़िए पुराने ढर्रे में नया कुछ….बूम-बूम-बूम-बूम पारा.

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

रक़ीब से

 
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझसे
जिसने इस दिल को परीखाना बना रक्खा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रक्खा था


आशना हैं तिरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे उसी रा’नाई के

जिसकी इन आँखों ने बे-सूद इबादत की है


तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिनमें
उसकी मलबूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिसमें बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है


तूने देखी है वो पेशानी, वो रुखसार, वो होंट
ज़िन्दगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोयी हुई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने

हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ


आजिज़ी सीखी, ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिरमान के, दुख-दर्द के मानी सीखे
ज़ेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुखे-ज़र्द के मा’नी सीखे


जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आँखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तोले हुए मंडलाते हुए आते हैं


जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
या कोई तोंद का बढ़ता हुआ सैलाब लिए
फ़ाक़ामस्तों को डुबोने के लिए कहता है


आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है, न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है.



(वाबस्ता = जुड़ी हुई; दहर = दुनिया; रा’नाई = छटा; मलबूस = वस्त्र; अफ़्सुर्दा = उदास; साहिर = जादूगर; मुश्तरका = समान; आजिज़ी = विनम्रता; यास-ओ-हिरमान = निराशा और दुख; ज़ेरदस्त = अधीन; मसाइब = मुसीबत)

(कुछ दिनों पहले काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला संकाय में ३० युवा कवियों का काव्यपाठ हुआ, आयोजन शोध-छात्रों के द्वारा संपन्न हुआ. आयोजन बेशक़ बढ़िया था, लेकिन कई तरह की दिक्कतों से भरा हुआ भी. संचालक महोदय ने कई बार भाषा से जुड़ी हुई गलतियां कीं. इतने बड़े आयोजन में एक बात खुलकर सामने आई कि अभी हिन्दी साहित्य/ हिन्दी कविता को कई खतरनाक राहों से गुज़रना है, जहाँ सबसे बड़ी चुनौती है श्रोताओं की. अब ज़रूरत मालूम होती है, एक अच्छे रचनाकार के साथ एक उम्दा कोटि के श्रोता-मंडल की, और शायद अगले समय में यही एक मापदंड हो एक सफल आयोजन का (ख़ासकर छात्रों के सामने). छात्रों को दिल्लगी और सरल कविताएँ अच्छी लग रही थीं और इसी कारण कई अच्छी कविताएँ/अच्छे रचनाकार अलक्षित रह गए. आगाज़ के दौरान, एक शोध-छात्र द्वारा फैज़ अहमद फैज़ की ये नज़्म बड़े ही त्रुटिपूर्ण ढंग से पढ़ी गई, लेकिन इसका पाठ सौ खून भी माफ़ कराने के लिए काफ़ी था क्योंकि ये फैज़ की रचनाओं में ‘मेरे पसंदीदा’ वाले क्रम में से एक हैं. इस नज़्म की और इससे जुड़ी कई बातों की विवेचना बहुत अच्छी तरह से कवि केदारनाथ सिंह ने की.)

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

आलोक – २

रात का रिपोर्टर

टेलीफोन-बूथ के शीशे से बाहर वह दिखाई दी – एक छोटी-सी लड़की साइकिल के पिचके टायर को पेड़ की एक सूखी शाख से हाँकते हुए ले जा रही थी. टायर कभी आगे निकल जाता तो वह भागते हुए उसे पकड़ लेती, कभीं वह आगे निकल जाती और टायर का रबड़ कोलतार की चिपचिपाती सड़क पर अटक जाता, लड़खड़ाकर गिर जाता; वह पीछे मुड़कर उसे दुबारा उठाती, सीधा करती, अपनी शाख हवा में घुमाती और वह मरियल मेमने-सा फ़िर आगे-आगे लुढ़कता जाता.
 
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यह शुरुआत थी; सरसराते पेड़ के नीचे आतंक का एक चमचमाता चकत्ता उनके बीच चला आया. डर के आने के कितने गोपनीय रास्ते हैं, लेकिन जब वह सचमुच आता है, तो सब रास्ते अपने-आप बंद हो जाते हैं, सिर्फ़ वह रह जाता है – कैंसर के कीटाणु की तरह – जिसके आगे मरीज की सब छोटी बीमारियाँ अचानक ख़त्म हो जाती हैं. अस्पताल में उसकी पत्नी की दहशत – जैसे दीवार लांघकर – यहाँ चली आई थी, पेड़ के नीचे, सितम्बर की छाया में, जहाँ वह उसके सामने खड़े थे…. वे कुछ आगे झुक आए, बिलकुल उसके मुँह के पास, जहाँ उनकी साँस उसके चेहरे को छू रही थी ….
 
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वह लायब्रेरी की तरफ़ चलने लगा. कोई उसके पीछा नहीं कर रहा था – सिवाय उस डर के, जो वह सज्जन उसके पास छोड़ आए थे. सैंतीस साल की उम्र में उसने तरह-तरह के डर भागे थे, लेकिन वे उसके भीतर थे और उन्हें टोहने के लिए उसे नंगी सड़क पर पीछे मुड़-मुड़कर नहीं देखना पड़ता था. किन्तु यह एक बिलकुल नये किस्म का डर था, जिसका मतलब किसी भी शब्दकोश में नहीं था. उसका सीधा सम्बन्ध उसकी जन्मपत्री से था, जो उनकी फाइलों में बंद थी और जिसे वह कभी भी खोल सकते थे. वे सब निजी और प्राइवेट भेद, जिन्हें वह अब तक अपने अँधेरे में गुनता आया था, सहसा थिगलियों की तरह बाहर निकल आए थे…. अपनी गंध और गंदगी के साथ, जिसे कोई भी बाहर से देख़ सकता था, सूंघ सकता था. वह डर एक तरह का कोढ़ था, बाहर सितम्बर की धूप में बेलौस चमकता हुआ; हर कदम पर भ्रम होता था – लोग सशंकित निगाहों से उसे देख़ रहे हैं, अपने कपड़े बचाकर किनारे से निकल जाते हैं; उसकी बू सीधी आत्मा से बाहर आती है, जैसे पसीने की गंध शरीर से; ख़ुद को उसका पता नहीं चलता, लेकिन बाहर के लोग उसे एकदम सूंघ लेते हैं, चाहे वह मीलों दूर फोन पर ही क्यों न बात कर रहा हो….
 
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जिज्ञासा ? नहीं, हॉलबाख जिसे जिज्ञासा कहता था, वह कोई और चीज़ थी – जो उसे एक दुपहर स्टेट्समैन के दफ्तर ले गई थी. कितने दिन पहले की बात है ? जुलाई का शुरू रहा होगा; बारिश के पहले वाली उमस में दिल्ली उबल रही थी. दफ्तर में सिर्फ़ टाइपिस्ट थी और राय साहब अपने पेपर की डमी सेंसर के पास ले गये थे. उसके पास कुछ भी करने को नहीं था. “मैं ज़रा अस्पताल जा रहा हूँ,” उसने टाइपिस्ट से कहा और बाहर चला आया. उन दिनों सब जानते थे कि उसकी पत्नी कुछ दिन पहले ही अस्पताल में दाखिल हुई है. इसलिए कभी-कभी वह बिना किसी से कुछ कहे बाहर चला जाता था. कर्जन रोड की लाल बत्ती पर जब बस रुकी, तो वह नीचे उतर गया. तब उस क्षण उसके मन में कोई जिज्ञासा नहीं थी, न ही वह कोई संकल्प लेकर स्टेट्समैन के दफ्तर में चला आया था; सिर्फ़ अपने को थाहने की एक पागल और बेतुकी-बिलकुल बेढंगी लालसा ने जकड़ लिया था. जून की उस ‘तारीख़’ के बाद वह अक्सर सोचता था कि मेरे साथ कुछ हो रहा है…. कभी इतना हौसला नहीं होता था कि अपने से पूछ सके कि यह सब तुम्हे ही हो रहा है या कोई ऐसा ‘ग्रहण’ लगा है, जहाँ हर व्यक्ति का सूरज कुछ देर के लिए छिप गया है ? वह क्या उत्तर पाने के लिए स्टेट्समैन के दफ्तर गया था – अपनी नियति या इतिहास का अँधेरा रहस्य भेदने के लिए ?
 
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खाली मकान में कितनी आवाज़ें सुनाई देती हैं. कभी-कभी पता भी नहीं चलता, कौन-सी आवाज़ किस कोटर में छिपकली की तरह सोई थी और अब अचानक किस कमरे से लपक आई है? सब कमरों का चक्कर लगाकर वह माँ के कमरे में आता, तो एक तसल्ली-सी मिलती. वही एक कमरा बचा था, जिसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ था. अलग-थलग, मकान का भाग होता हुआ भी उसकी काल-गति से निपट अछूता, जैसे वहाँ मुद्दत से समय नें प्रवेश नहीं किया. कभी-कभी उसे आशंका होती थी कि वह दरवाज़ा खोलेगा और वहा माँ की जगह उनका अस्थि-पिंजर दिखाई देगा — पूरे एक साबुत फॉसिल की तरह ऊपर उठा हुआ….
 
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वह पलंग पर लेट गया, खिड़की के शीशों पर धीरे-धीरे सुबह की सफेदी उतर रही थी. चौकीदार के खट-खट कब की ख़त्म हो चुकी थी…सुबह की इस घड़ी में घर के सब खटके चुप हो जाते थे. न टेलीफोन की घंटी, न किसी आगंतुक की आशंका. वह चादर लपेटकर तकिये के सहारे अधलेटा-सा पसरा रहता. रात की बची-खुची नींद पलकों पर एक पर्दा-सा खींच जाती….जैसे फ़िल्म शुरू होने से पहले – सिनेमाघर के दरवाज़े बंद हो जाते है – और अँधेरे में सिर्फ़ एक चमकता स्क्रीन दिखाई देता है. वह दम रोके प्रतीक्षा करता रहता – जैसे उस पर कुछ होनेवाला हो; स्क्रीन के एक कोने में नर्सिंग होम दिखाई देता, दूसरे कोने में लायब्रेरी का कोना; नीचे बिंदु का घर और बिलकुल ऊपर राय साहब का दफ्तर – बीच में खाली जगह – जैसे नक्शों में रेगिस्तान की जगह खाली पड़ी रहती है….और तब वहाँ उसे एक भागता हु प्राणी दिखाई देता, कभी कोने की तरफ़ जाता हुआ, कभी दूसरे की तरफ़ से आता हुआ…कौन है यह ? वह अँधेरे में चमकते हुए परदे पर आँखें गड़ा देता और तब वह आदमी भागता हुआ उसकी तरफ़ आता….पास, बिलकुल पास, एकदम; और तब उसे अचानक झटका-सा लगता – यह मैन हूँ; एक ‘मैं’ दूसरे ‘मैं” की तरफ़ भागता हुआ, दोनों अलग-अलग, फ़िर भी एक चेहरे को धोरे हुए – टू इन वन. वह हडबडाकर उठ बैठा…. माँ देहरी पर खड़ी थीं, खिड़की से सुबह की रोशनी उनके सफ़ेद बालों पर गिर रही थी.
 
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सितम्बर का महीना और इतना ताप ! कभी-कभी उमस इतनी बढ़ जाती कि आकाश की जगह सिर्फ़ पीली छत दिखाई देती – धूल की छत – जिन्हें सिर्फ़ शहर की चीलें ही काट पाती थीं. वह उन्हें अखबार के दफ्तर से देखा करता था – इन चीलों को, जो कुदसिया बाग़ से होती हुई जामा मस्जिद पर आती थीं और वहाँ से उड़कर उर्दू बाज़ार की मांस की दुकानों पर चक्कर काटती थीं, शहर की उन काली अफवाहों की तरह जिन्हें हर आदमी सुनता था, सूंघता था और अनदेखा करके आगे भाग जाताथा, ताकि वे उसका पीछा न कर सकें….उन दिनों सारा शहर भागता-सा दिखाई देता था, मानो हर व्यक्ति को अंदेशा हो कि एक मिनिट कहीं ठहरे नहीं, कि पीछे आता बवंडर उस पर आ टूटेगा.
 
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क्या यह मुमकिन है ? सबकुछ भूल जाना, सिस्मृति के गड़हे में डुबो देना ? दौड़ते हुए उसे अनूप भाई का चेहरा दिखाई देता – उसे क्या मालूम था कि एक दिन वे तिहाड़ जेल में बैठे होंगे ? पता नहीं, उनके परिवार पर क्या गुज़र रही है ? क्या मैं उनसे मिलने भी नहीं जा सकता ? मुझे उन सब कामों की फेहरिस्त बनानी चाहिए, जिन्हें मैं इतने वर्षों से टालता आया हूँ; अब अधिक टालना सम्भव नहीं; अब समय इतना संकरा हो गया है कि उसमें जीवन की सबसे तात्कालिक, सबसे अर्जेंट चीज़ों को छांटकर अलग रखना होगा, जैसे हम किसी महायात्रा के लिये अपनी ज़रूरी चीज़ें छांटते हैं….लोग अमरनाथ, बदरीनाथ जाते हैं, किन्तु उसके लिये अपना शहर दिल्ली है, जहाँ हर यात्रा ऊपर हिमालय की धवल चोटी पर नहीं, कहीं बहुत नीचे पाताल में जाती है…..
 
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बिंदु को कुछ भी नहीं मालूम; दुनिया की सबसे विचित्र चीज़ यही है कि लोग, तुम्हारे निकटतम सगे-सम्बन्धी कुछ भी नहीं जानते. उन्हें आखीर तक कुछ भी मालूम नहीं होता. तुम चुप रहकर सबको अपने खतरों से बरी कर सकते हो; तुम मुस्करा सकते हो और वे सिर्फ़ तुम्हारी मुस्कराहट देख़ सकते हैं. फोन पर यह भी मुमकिन नहीं; सिर्फ़ बिंदु की आवाज़ सुनकर भीतर की दुनिया पर एक छांह-सी गिर जाती, ठंडी, तपते हुए मन पर पानी की एक बूँद, जिसे वह सँभाले रखता. रात को सोने से पहले सोचता, वह उसे कल सबकुछ बता देगा. फ़िर कल बीट जाता और उसे तसल्ली होती, एक दिन और बीत गया और उसके डर सिर्फ़ उसके भीतर है, एक छूत की बीमारी-सा, जिसे उसने अभी तक बिंदु को नहीं चूने दिया; वह अगर फैले नहीं, तो वह उसे अपने से बचा सकता है, डर सिर्फ़ दूसरे को छूकर ही आतंक बनता है….कायर आदमी की जीत सिर्फ़ इसमें है, अगर वह दूसरों को अपने डर से सुरक्षित रख सके….और वह सिर्फ़ झूठ और धोखे से संभव हो सकती है…..क्या अंतिम दिनों में भी सत्य का सहारा नहीं मिल सकता ?
 
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यह उसके लिए शरणस्थल-सा बन गया था – रात को घर, सुबह अस्पताल, और दुपहर की खाली, भायँ-भायँ करती घड़ियों में एक ऐसा घर जो उसे एक मुफस्सिल स्टेशन-सा जान पड़ता, जहाँ स्टेशन-मास्टर अपने केबिन की खिड़की से आने-जानेवाली गाड़ियों को देखता है…फर्क सिर्फ़ इतना था कि गाड़ियों के बजाय उसे शहर की बसें दिखाई देतीं, लॉन ककी फेंस के परे वे एक-दो मिनिट ठहरकर आगे बढ़ जातीं. लायब्रेरी कोई बड़ा स्टेशन नहीं था जहाँ उन्हें ज़्यादा देर ठहरना पड़ता, सिर्फ़ कोई स्कूल की लड़की या कोई दफ्तर का कर्मचारी या बेकार युवक वहाँ उतर जाते और वह उनके चेहरों से अनुमान लगाता, कौन आगे बढ़ जाएगा, कौन लायब्रेरी के गेट से भीतर आता दिखाई देगा…या कभी-कभी किसी उनींदी दुपहर के सन्नाटे में खोमचेवाले की आवाज़ या आइसक्रीम बेचनेवाले की घंटी सुनाई देती और वह चौंक जाता, रिपोर्ताज के जंगलों के बीच अचानक दिल्ली की आवाज़ें कुछ वैसी ही झिंझोड़ जातीं, जैसे शांत सुनहरी झील पर फेंका हुआ पत्थर….
 
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यह कैसा सच था जो मेरे मुँह से निकलकर इतना थोथा, इतना हास्यास्पद लग रहा था ? अगर वे उसकी बात सुनकर हँस पड़तीं, तो शायद उसे कोई आश्चर्य नहीं होता. लेकिन वे कहीं दूर देख़ रही थीं आंसुओं के झिलमिले में दिन की डूबती रोशनी को, जहाँ बच्ची थी, झाड़ियों के पीछे खेलती हुई. वे उसे भूल गयी थीं. वे अपने गुडमुड़ी रुमाल से आँखें पोंछ रही थीं. और तब सहसा मुझे लगा, इतिहास की विपत्तियाँ इसी तरह टलती होंगी – थोड़ा-सा रोने में, चुप्पी के अंतरालों में, रात की नींद और दूसरी सुबह की प्रतीक्षा में….. जब उन्होंने सिर उठाया, तो पता नहीं, बीच में कितने युग बीत गए थे.
 
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उसका सिर नींद में घूमता हुआ टाइपराइटर पर टिक गया. कुछ देर तक कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी, सिर्फ़ एक प्रश्न मक्खी की तरह उसकी थकी, उद्भ्रान्त नसों के बीच मंडराता रहा – अगर वह सच था, उस रात का, गहन, विराट अनुभव, तो वह मेरे रिपोर्ताज में कहीं कोई जगह क्यों नहीं पा सका ? उसे लिखते हुए मैं हमेशा इतना आतंकित क्यों हो जाता रहा ? और तब उसे लगा, खोट उसके रिपोर्ताज में नहीं, कहीं उसके भीतर के रिपोर्टर में है, जो पिछले वर्षों के दौरान इतने झूठों और छलनाओं के बीच पनपा है. यह बाहर का सेंसर नहीं, कहीं भीतर का पर्दा था, जो अंतिम मौके पर किसी बहुमूल्य सत्य को छिपा लेता था….. क्या इसी कारण राय साहब मुझे आत्मकथा लिखने के लिए कहते थे, ताकि मैं उस हादसे का सामना कर सकूँ, जिसने एक कैंची की तरह मेरी ज़िन्दगी को दो हिस्सों में काट दिया था ?
 
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क्या यह हॉलबाख ने दुबारा फोन किया था ? फ़िर बोला क्यों नहीं ? क्या उसे अचानक किसी खतरे की टोह मिल गयी थी – और उसने चुप रहना बेहतर समझा ? एक बेबस-सी इच्छा उठी – अभी घर से बाहर निकल जाए और
हॉलबाख के अपार्टमेन्ट में चला जाए, जैसे पिछले दिनों के सब प्रश्नों का कोई एक उत्तर – जो उसे आज तक भरमाता रहा है – सिर्फ़ हॉलबाख के पास मिल सकता है. उसने ही तो पहली बार मुझे बताया था कि दुनिया में जो कुछ अब तक घट चुका है, उसे हर आदमी अपनी छोटी ज़िन्दगी में भोगता है – चौरासी लाख योनियों की एक यातना ! क्या वह इसीलिए हिन्दुस्तान आया था ? हर जगह घूमता था, लद्दाख, नेपाल, और अब सीलोन – और जब कभी अपनी लम्बी यात्राओं से लौटता, उसके फोन की घंटी सुनाई देती, चाहे आधी रात क्यों न हो – क्या तुम आ सकते हो ? मैं सिक्किम की रम लाया हूँ….मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है, टैक्सी लो और आ जाओ…मैं कल फ़िर बाहर जा रहा हूँ, फ़िर पता नहीं कब मिलना होगा ?
 
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और तब पहली बार रिशी को लगा – वह मृत आदमी है. वह देर तक फटी चिट्ठियों के ढेर के सामने बैठा रहा….जीकर भी मृत होना, क्या यही सत्य लेकर
हॉलबाख के वाइकिंग समुद्री थपेड़ों पर अपने को छोड़ देते थे ? क्या यह वही अनमोल सत्य था, जिसे देने के लिए वह सज्जन उस दिन उसके पास लायब्रेरी आए थे ?
 
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क्या उन सबको मालूम था कि उनके साथ क्या होने वाला है ? लाखों साल पुराने पत्थर, पानी, घास, जन्तु, जंगल….सबको अपनी नियति ज्ञात है. सिर्फ़ आदमी ही एक ऐसा जीव है जो, न जाने क्यों, न जानने का बहाना करता है. कभी-कभी उसे एक पागल-सी इच्छा जकड़ लेती – वह चौराहे पर खड़ा हो जाए, ट्रैफिक पुलिसमैन की तरह हाथ उठाकर आने-जानेवाले लोगों को रोक ले, उनका कॉलर पकड़कर उन्हें घसीटता हुआ उस ज्ञान के ढेर पर ले जाए, बिलकुल वैसे ही जैसे घर के कुत्ते को हम उसके गू की ढेरी ले जाते हैं – और तब तक उस पर नाक रगड़ते हैं, जब तक उसे पता नहीं चल जाता की यह उसकी चीज़ है, उसकी देह से बाहर निकली है, वह इससे कतराकर भाग नहीं सकता. कितना अजीब है आदमी ! ख़ुद अपने ज्ञान की दुर्गन्ध से दूर भागता रहता है – ज़िन्दगी-भर.
 
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एक क्षण अजीब-सा भ्रम हुआ कि वह दिल्ली की सड़कों पर नहीं, कहीं भूले से बस्तर के जंगल में चला आया है – वैसे ही भक-भक आग जला करती थी, घोटुल के चारों ओर फैली चाँदनी, धुंए के गुंजल, दूर से ढोलक का धूमिल, मादक स्वर चला आता, जिसे सुनते ही जंगल के काले झुरमुटों से, पता नहीं कितने पुराने देवी-देवता बाहर निकल आते थे….ढोलक और चाँदनी और महुआ में महकती, लपलपाती आग के चारों ओर घूमने लगते; आग, जो सबकुछ खा लेती है – कागज़, मुर्दे, हड्डियाँ – सृष्टि का समूचा मांसल, कायलोक.

(मित्र का पूछना था कि तुमने सिनेमा और संगीत से अलग जाने का क्यों सोचा ?….मैंने कोई कसम थोड़े ही खाई थी. बहरहाल, निर्मल जी पर शुरू इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में बात हो रही है ” रात का रिपोर्टर ” के द्वारा. यहाँ ज़िक्र कर रहा हूँ उन्ही खण्डों का जो शायद इस उपन्यास को किसी हद तक स्थापित करते हैं. इस उपन्यास को मैंने काफ़ी रहस्य से भरा हुआ पाया. जहाँ ” वे दिन” में प्रेम का प्रायोगिक और सुन्दर चित्र बनाया गया है, उससे इतर यहाँ ‘ धुकधुकी ‘ जैसे अजीब-से शब्दों की बहुलता के साथ ये रहस्य और डर का भण्डार बन गया है. कहानी का नायक डाईलेक्टिक किस्म के प्रेम में फंसा हुआ जान पड़ता है, जहाँ वो कभी अपनी पत्नी के सेवाभाव को संजो कर द्रवित होता है, तो कभी अपनी प्रेमिका के “साथ निभाने ” को देख गौरवान्वित होता है. ये कुछ-कुछ अल्फ्रेड हिचकॉक की फ़िल्मों के उस हल्के से डर की याद दिलाता है जो बड़े आहिस्ता से स्नायुओं में घुल जाता है.)

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

कवि के साथ – रघुवीर सहाय

फ़िल्म के बाद चीख़

इस ख़ुशबू के साथ जुड़ी हुई
है एक घटिया फ़िल्म की दास्ताँ
रंगीन फ़िल्म की

ऊबे अँधेरे में
खड़े हुए बाहर निकलने से पहले बंद होते हुए
कमरे में
एक बार
भीड़ में
जान-बूझ
कर चीख़
ना होगा
जिंदा रहने के लिए

भौंचक बैठी हुई रह जाएँ
पीली कन्याएँ
सीली चाचियों के पास
टिकी रहे क्षण-भर को पेट पर
यौवन के एक महान क्षण की मरोड़
फ़िर साँस छोड़ कर चले
जनता
सुथन्ना सम्हालती

सारी जाति एक झूठ को पीकर
एक हो गयी फ़िल्म के बाद
एक शर्म को पीकर युद्ध के बाद
सारी जाति एक

इस हाथ को देखो
जिसमे हथियार नहीं
और अपनी घुटन को समझो, मत
घुटन को समझो अपनी
कि भाषा कोरे वादों से
वायदों से भ्रष्ट हो चुकी है सबकी

न सही यह कविता
यह मेरे हाथ की छटपटाहट सही
यह कि मैं घोर उजाले में खोजता हूँ
आग
जब कि हर अभिव्यक्ति
व्यक्ति नहीं
अभिव्यक्ति
जली हुई लकड़ी है न कोयला न राख
क्रोध, नक्कू क्रोध, कातर क्रोध
तुमने किस औरत पर उतारा क्रोध

वह जो दिखलाती है पैर पीठ और फ़िर
भी किसी वस्तु का विज्ञापन नहीं है
मूर्ख, धर्मयुग में
अस्तुरा बेचती है वह
कुछ नहीं देती है बिस्तर में बीस बरस के मेरे
अपमान का जवाब

हर साल एक और नौजवान घूँसा
दिखाता है मेज़ पर पटकता है
बूढों की बोली में खोखले इरादे दोहराता है
हाँ हमसे हुई जो ग़लती सो हुई
कहकर एक बूढा उठ
एक सपाट एक विराट एक खुर्राट समुदाय को
सिर नवाता है

हर पांच साल बाद निर्वाचन
जड़ से बदल देता है साहित्य अकादमी
औरत वही रहती है वही जाति
या तो अश्लील पर हंसती है या तो सिद्धान्त पर

सेना का नाम सुन देशप्रेम के मारे
मेजें बजाते हैं
सभासद भद भद कोई नहीं हो सकती
राष्ट्र की
संसद एक मंदिर है जहाँ किसी को द्रोही कहा नहीं
जा सकता
दूधपिये मुँहपोंछे आ बैठे जीवनदानी गोंद-
दानी सदस्य तोंद सम्मुख धर
बोले कविता में देशप्रेम लाना हरियाली प्रेम लाना
आइसक्रीम लाना है
भोला चेहरा बोला
आत्मा नें नकली जबड़ेवाला मुँह खोला

दस मंत्री बेईमान और कोई अपराध सिद्ध नहीं
काल रोग का फल है अकाल अनावृष्टि का
यह भारत एक महागद्दा है प्रेम का
ओढने-बिछाने को, धारण कर
धोती महीन सदानंद पसरा हुआ

दौड़े जाते हैं डरे लदेफंदे भारतीय
रेलगाड़ी की तरफ़
थकी हुई औरत के बड़े दाँत
बाहर गिराते हैं उसकी बची-खुची शक्ति
उसकी बच्ची अभी तीस साल तक
अधेड़ होने के तीसरे दर्जे में
मातृभूमि के सम्मान का सामान ढ़ोती हुई
जगह ढूँढती रहे
चश्मा लगाए हुए एक सिलाई-मशीन
कंधे उठाये हुए

वे भागे जाते हैं जैसे बमबारी के
बाद भागे जाते हों नगर-निगम की
सड़ांध लिये-दिये दूसरे शहर को
अलग-अलग वंश के वीर्य के सूखे
अंडकोष बाँध .
भोंपू ने कहा
पांच बजकर ग्यारह मिनट सत्रह डाउन नौ
नंबर लेटफारम
सिर उठा देखा विज्ञापन में फ़िल्म के लड़की
मोटाती हुई चढ़ी प्राणनाथ के सिर उसे
कहीं नहीं जाना है.

पाँच दल आपस में समझौता किये हुए
बड़े-बड़े लटके हुए स्तन हिलाते हुए
जाँघ ठोंक एक बहुत दूर देश की विदेश नीति पर
हौंकते
डौंकते मुँह नोच लेते हैं
अपने मतदाता का

एक बार जान-बूझकर चीख़ना होगा
ज़िंदा रहने के लिये
दर्शकदीर्घा में से
रंगीन फ़िल्म की घटिया कहानी की
सस्ती शायरी के शेर
संसद-सदस्यों से सुन
चुकने के बाद.

 
 
 (रघुवीर सहाय की यह कठिन कविता अपने लहजे में बेबाक़ है और साथ ही इस बात का भी उदाहरण है कि रघुवीर जी के बाद के कवि (कवितायें) किस हद तक इन अनूठे काव्य-गुणों से प्रभावित रहे हैं/ रहते हैं. रघुवीर सहाय की कविताओं में कठिनाई “कठिन” बनकर ही नहीं, बल्कि अपने साथ अपने “पर्यायों” को भी लेकर आती है.)

सोमवार, 27 सितंबर 2010

आलोक – १

वे दिन

यह आवाज़ उसकी है. कितनी बार उसने उसे सुना है. लगता है, उसके चले जाने के बाद भी यह आवाज़ पीछे छूट गई थी – अपनें में अलग और सम्पूर्ण. मैं खिड़की खोलता हुआ डरता हूँ….दरवाजे पर भी कोई दस्तक देता है, तो मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगता है…लगता है, ज़रा-सा भी रास्ता पाने पर यह आवाज़ बाहर निकल जायेगी और मुझे पकड़ लेगी. मैं कब तक उसे रोक सकूंगा — अधीर-आग्रहपूर्ण, आंसुओं में भीगी उस आवाज़ को, जैसा मैंने उसे रात को अकेली घड़ी में सुना था ?

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मैंने बत्ती बुझा दी. बहन का पत्र अब भी मेरी जेब में था, लेकिन मैंने उसे अगले दिन के लिए छोड़ दिया. स्लीबोवित्से के बाद कुछ भी सोचने या पढने की इच्छा नहीं रह गई थी. सिर्फ़ भीतर एक हास्यास्पद-सी गड़बड़ होने लगती थी, जैसे अंतड़ियों में कोई धीमे-धीमे गुदगुदी कर रहा हो. मुझे तब ऐसा लगता था, जैसे मैं किसी दायरे के इर्द-गिर्द एक खरगोश के पीछे भाग रहा हूँ — एक सफ़ेद मुलायम-सी चीज़, जो सिर्फ़ सिर की चकराहट थी. चकराहट का भी कैसा अजीब रंग होता है….बादल-सी हल्की और सफ़ेद — सिर की नसों के बीच तिरती हुई — तुम जानते हो, वह पकड़ के बाहर है, लेकिन उसके पीछे भागते रहते हो, जब तक नींद उसे दबोच नहीं लेती.

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धूप निकल आई थी. वैन्सलेस स्क्वायर के बीच पानी में भीगी ट्राम की लाइनें चमक रहीं थीं. आकाश इतना नीला था कि उसे देखकर यह विचार भी बेतुका-सा लगता था कि कल शहर में बर्फ़ गिरी थी. जहाँ बर्फ़ थी, वहाँ अब भी पानी के गड्ढे उभर आये थे. हवा उन्हें छूती भी नहीं थी, लेकिन वे जैसे सहमकर पहले से ही काँपने लगते थे.

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तब सहसा मुझे वह आवाज़ सुनाई दी थी. आवाज़ भी नहीं — महज़ एक सरसराहट — बर्फ़ और धूप में दबी हुई. मुझे हमेशा यह आवाज़ अचानक अकेले में पकड़ लेती थी, या शायद जब मैं अकेला होता था, तभी उसे सुन पाता था. वह दरिया की ओर से आती थी — किन्तु वह दरिया की ही आवाज़ है, इसमें मुझे सन्देह था. वह सिर्फ़ हवा हो सकती थी — तीख़ी सफ़ेद और आकारहीन. या सिर्फ़ शहर का शोर, जो पुराने मकानों के बीच आते ही अपना स्वर बदल देता था. घरों के बीच एक गिरता हुआ नोट — पेड़ों, छतों, गलियों के ‘की-बोर्ड’ पर सरसराता हुआ बर्फ़ की सफेदी पर एक भूरी-सी आहट-सा.

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पोर्च के मद्धिम आलोक में स्कार्फ़ में बँधा उसका सिर बार-बार हिल जाता था. एक अजीब-सी आकांक्षा ने मुझे पकड़ लिया. सिर्फ़ एक पल के लिए. मैंने उसे पहले नहीं देखा था — उस पगली आकांक्षा को. वह एक विस्मयकारी डर से जुड़कर ऊपर उठी थी, मैंने उसे वहीँ गिर जाने दिया — उस आदमी की तरह जो ज़रा-सा खटका होते ही चुराई हुई चीज़ को नीचे गिरा देता है…. यह दिखाने के लिए कि वह उसकी नहीं है. इस आशा में कि ख़तरा टलते ही वह उसे फ़िर उठा लेगा….
“देखो… उधर !” उसने मेरे हाथ को झिंझोड़ते हुए कहा, “पोर्च के बाहर…” एक अजीब-सा डर उसकी आँखों में सिमट आया था.
कुछ भी नहीं था. सिर्फ़ बर्फ़ गिर रही थी. लैम्प-पोस्ट के दायरे में रुई के गालो-सी सफ़ेद और खामोश.
” मैं चलती हूँ…” उसने मेरी ओर देखा. ” कल…” उसने कहा.
उसने होटल का दरवाज़ा खोला…. अपना स्कार्फ़ और दस्ताने उतार दिए… फ़िर भागते हुए सीढियां चढ़ने लगी.
मैं निश्चिन्त हो गया. उसका भय वहीँ गिर गया था, जहाँ मेरी आकांक्षा थी. दोनों उस रात वहीँ पड़े रहे…. एक-दूसरे से बेखबर.

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शायद हर शहर का अपना अलग इतवार होता है… अपनी अलग आवाजें, और नीरवता. तुम आँखें मूंदकर भी जान लेते हो. ….ये ट्राम के पहिये हैं…यह उबलती कॉफ़ी की गंध. बाहर बर्फ़ पर खेलते हुए बच्चों की चीखें…. उनके परे गिरजों के बाग़ में बूढी औरतों की फुसफुसाहट. होस्टल में जब पुरानी लिफ्ट ऊपर चढ़ती है…. खाली कमरे हिलने लगते हैं. फ़िर वह ठहर जाती है…. चौथी मंज़िल पर…. जहाँ टी.टी. का कमरा है, उसके ऊपर होस्टल की
छत है. जहाँ हर इतवार को प्राग के गिरजों की घंटियाँ तिरती आती है… तुम सोते हुए भी उन्हें सुन सकते हो. तुम उन्हें सूंघ सकते हो. उनमें चिमनियों का धुआँ है, पतझर के सड़ते पत्तों की मृत्यु…. नदी के बहते पानी की सरसराहट ! दूसरे दिन दूसरे शहरों में होते हैं…. इतवार अपना-सा होता है…. पराए शहर में भी.

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मुझे तब पहली बार उसका चेहरा इतना पास लगा — सर्दी की सूखी धूप में सुर्ख़, बड़ा और बदला-सा. ” तुम थक गई हो ? ” मैनें पूछा. ” नहीं, मैं ठीक हूँ. ” उसने कहा. हवा से उसका स्कार्फ़ बार-बार फड़फड़ा जाता था. उसके बाहर कुछ भूरी लटें माथे पर छितर आई थीं — धूप में चमकती हुई. ” पास आ जाओ, वर्ना तुम हवा में उड़ जाओगी. ” मैंने हँसते हुए कहा. वह बिलकुल मुझसे सट गई. मुझे लगा, वह ठिठुर रही है. मैंने अपना मफ़लर उतारकर उसके गले में लपेट दिया. उसने कुछ कहने के लिए मुँह उठाया. उसे मालूम नहीं था, मेरा चेहरा उसके सिर पर है… तब अचानक मेरे होंठ उसके मुँह पर घिसटते गए… फ़िर वे ठहर गए, कनपटियों के नीचे कुछ भूरे बालों पर…. ” सुनो …” उसने कहा. किन्तु इस बार मैंने कुछ नहीं सुना. मेरे होंठ इस बार उसके मुँह पर आए आधे वाक्य पर जम गए. उसका उठा मुँह निर्वाक-सा उठा रहा. कुछ देर तक मैं सांस नहीं ले सका. हवा बहुत थी, लेकिन हम उसके नीचे थे. हम बार-बार साँस लेने के लिए ऊपर आते थे…. हाँफते हुए एक-दूसरे की ओर देखते थे… दीखता कुछ भी न था — अधखुले होंठ, ओवरकोट के कॉलर का एक हिस्सा, हम दोनों पर फड़फड़ाता हुआ बेचैन-सा स्कार्फ़….

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उसके स्वर ने मुझे चौंका-सा दिया. मैंने उसकी ओर देखा. शाम की बुझती रोशनी में उसका चेहरा बहुत उज्ज्वल-सा हो आया था. आँखों में एक दूरी थी, जो अपनी होती है, जिसमें किसी दूसरे का साझा नहीं होता. पीली जैकेट के ऊपर उसकी गर्दन इतनी पतली और सहमी-सी लगती थी, मानो ज़रा-सा झटका लगते ही  समूचे धड़ से अलग हो जाएगी. पहली बार मुझे लगा जैसे उम्र को छोड़ कर उसकी हर चीज़ बहुत कम है. छोटी नहीं, लेकिन कम…. जैसे उम्र उन्हें बिना छुए बढ़ गई है.

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उस शाम की स्मृति मुझे आज भी कुछ अलग-सी लगती है… अन्य दिनों से अलग. अन्य दिनों की तरह उस शाम हमें एक-दूसरे को खोजने या जानने की इच्छा नहीं रह गयी थी. लगता था, वह है और यह झेल पाना ही एक सुख है जो इतना ज़्यादा है कि पीड़ा देता था – क्योंकि एक असह्य-सा लगता था. जब हम चुप रहते थे, जैसे पानी चढ़ता हो
और उतर जाता हो. उसमे कोई दुराव न आता था. जब बोलते थे, तब भी बीच में और अचानक – यह नहीं लगता था कि चुप्पी के बाद बोल रहे हों. मुझे उस शाम पहली बार लगा था, जैसे मैं उसके साथ वैसे ही चल रहा हूँ, जैसे मारिया या फ्रांज़ के साथ – वह मेरे साथ है, यही काफ़ी था. उसके परे कुछ भी नहीं था – उसका अतीत मेरे लिए ख़तरा नहीं था. वह कुछ भी नहीं था. वह उससे कुछ अलग थी – और चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न रहा हो – उस शाम उसका मेरे संग होना – वह उससे ज़्यादा था. वह सबसे ज़्यादा था. क्योंकि उसके बाहर जो उसका था, वह मेरे लिए कुछ भी नहीं था. और यह सोचते ही एक असम्भव-सी ख़ुशी मुझे घेर लेती थी.

*****
उसने मुस्कुराते हुए मेरा हाथ अपने हाथ में दबा लिया… हथेलियों के उस गरम दबाव में एक हल्की-सी कृतज्ञता छिपी थी… अनिर्वचनीय, अंतहीन. पहली बार मुझे लगा, जैसे इस शाम तक हम दोनों के बीच जो रिश्ता था, वह अब नहीं है. यह बदल गया था, स्वतः और अनायास. जिस चाह की एक झलक ऑडिटोरियम में मिली थी, वह अब भी थी. पहले हम उसे देखकर लज्जित और आतंकित-से हो गये थे….. अब उसका होना अनिवार्य-सा लग रहा था, हम दोनों के होने से जुड़ा हुआ.

(बुद्धू-बक्सा पर निर्मल जी के उपन्यासों पर शुरू यह सिरीज़, एक-एक कर उनके सभी उपन्यासों से अंश लेकर आएगी. निर्मल वर्मा को मैं इस तरह की भाषा का धनी मानता हूँ, जहाँ किसी भी चीज़ को समझाना या दिखाना असम्भव नहीं है. प्रेम जैसे पवित्र भाव या शहर के किसी मौसम, समय और दिन को सही-सही लिख पाने का गद्य-गुण यहाँ के अलावा इक्का-दुक्का जगहों पर ही शायद मिलता है. यहाँ कठिन अभिव्यक्ति को इस क़दर आसान बनाया जाता है कि पाठक स्वतः सहज महसूस करने लगता है.)

रविवार, 19 सितंबर 2010

पांच फ़िल्में.

सिनेमा, एक बहुत घनिष्ठ रिश्ता है हमारा सिनेमा से, जिसे बस बता देना बड़ा कठिन काम है. हम फ़िल्में देखते हैं और खूब देखते हैं और हर अच्छी फ़िल्म के बाद शायद उस फ़िल्म पर या उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर बातचीत करने के बारे में सोचते हैं. मेरे लिए तो सिनेमा देखना बड़ा संघर्ष का काम है, पहले-पहल मुझे बहुत रोका गया, बहुत डराया गया और ब्रेन वाश भी किया गया कि सिनेमा देखोगे तो बिगड़ जाओगे. ये सब शायद तभी होता है जब हम देखते हैं वे सारी फ़िल्में जो मेरी उम्र के अधिकतर युवा तो कम से कम नहीं ही देखते हैं, यहाँ दरकार होती है तड़क-भड़क वाली फ़िल्मों की, ऐसी फ़िल्मों की जिनका मूल उद्देश्य आपको जोश से भरना होता है और कभी-कभी ऐसी फ़िल्मों की जिनका कोई मूल उद्देश्य होता ही नहीं है.
 
यहाँ बस अपने मित्र से हुई बातचीत को ज़रिया बना रहा हूँ उन फ़िल्मों के सन्दर्भ में आपसे बात करने का जिनका होना, “ख़ास” सिनेमा के प्रेमियों के लिए, रोज़ सामान बेचने वाले लोगों के लिए और तेज़ बाईक चलाने और विदेशी कपड़े पहनने वाले स्कूली बच्चों के लिए ज़रूरी है… और साथ ही मेरे जैसे डरे-सहमे सिनेमा प्रेमी के लिए.

१. रंग दे बसंती : खाओ, खेलो, मस्ती करो और हमेशा रहो लड़ने के लिए तैयार. मत करो चिंता सोने और जागने की, कपड़ों के गंदे होने की और किसी के बुरा मानने की. ये सब मुझे मिला इस फिनामिनल फ़िल्म से. हाँ बेशक़, इसे फिनामिनल कहने में मुझे कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि मैं ये जानता हूँ कि इस साधारण सी फ़िल्म ने कितने बड़े स्तर पर कॉलेज के छात्रों को अपने आगोश में लिया था. पांच दोस्त, जिन्हें दुनिया की कोई फिक्र नहीं है और वे बस अपनी धुन में रहते हैं और फ़िर अचानक नींद से जागते हैं और क्रान्ति आ जाती है. फ़िल्म का संगीत रोम-रोम तक को फड़काने वाला है और रहमान को एक नये पैमाने पर ले जाकर स्थापित कर देता है. रक्षा मंत्री की ये आसान सी हत्या थोड़ा अटपटी लगती है लेकिन पूरी फ़िल्म अपने आप को स्थापित करने में सफल हुई है और साथ ही इस ध्येय में भी कि इसके माध्यम से क्या सन्देश जाना चाहिए. राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने तो इस फ़िल्म के बाद एक नितांत घटिया फ़िल्म दिल्ली की ही पृष्ठभूमि पर बनायी जिसके बारे में बात करने से बचना चाहिए. दिल्ली की ख़ूबसूरती तो रंग दे बसंती में देखने को मिलती है. संवेदना के अभाव में जीते छात्रों को केवल प्रेम और क्रांति की बात करते देख़ एक बड़ा सुकून भरा और साथ ही जोशीला एहसास होता है. ये मालूम है कि ये एक कारोबारी फ़िल्म है लेकिन एक बाज़ारू फ़िल्म द्वारा उत्तर-आधुनिक संस्कृति को इंक़लाब से जोड़ा जाना एक बढ़िया प्रयोग का पर्याय है.यहाँ पर एक विरोधाभास भी है कि क्रान्ति को एकदम खिलंदड़ी भावों से पेश किया गया है. एक दिग्भ्रमित हिंदूवादी का एक क्रांतिकारी में ट्रांजिशन फ़िल्म की जड़ की तरह प्रतीत होता है.

२. मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस./ लगे रहो मुन्नाभाई : बहुत ही गंभीर विषयों पर सफ़र करते हुए बड़ी और मक्खन जैसी तरल फ़िल्म. मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस. का मूल उद्देश्य प्रेम बांटना नहीं रहा बल्कि इससे यह पता चला कि दुनियावी भागदौड़ के बीच अपनी संवेदनाओं की हत्या को किस तरह रोका जाए. एक बड़े तंत्र से लड़ने वाला व्यक्ति कोई भी हो सकता है, बस उसके पास जीवन जीने के भाव होने चाहिए. हममें से हरेक को जादू की झप्पी की कितनी अथाह ज़रुरत है, ये हम सब जानते हैं लेकिन फ़िर भी उसके लिए खुला नज़रिया अपनाने से बचते हैं. एक कैंसर से मरते आदमी को लत लग चुकी है प्यार की, और लत ऐसी कि प्रेम उसे कैंसर की दवा की तरह लगने लगता है. एक बूढ़ा जमादार जिसे अपनी ज़रुरत का इल्म तभी हो पाता है जब उससे कोई स्नेह करने वाला हो. इस बात को मैं तो काफ़ी हद तक सत्यापित करता हूँ कि संजय दत्त ने ठेठ बम्बईया भाषा को देश के तमाम हिस्सों में संक्रमण की तरह फैलाया, और एक-दो नहीं लगभग अधिकतर फ़िल्मों के माध्यम से. हम मानते हैं कि किसी भाषा के प्रसार के लिए उसकी ब्रांडिंग की ज़रुरत होती है और “बोले तो” और “मामू” वाली भाषा की ब्रांडिंग इन्ही फ़िल्मों ने की….. ठीक उसी तरह जैसे लगे रहो मुन्नाभाई ने गांधी के विचारों की ब्रांडिंग करने के लिए “गांधीगिरी” का सहारा लिया. लगे रहो…… भी अपनी पूर्ववर्ती फ़िल्म की तरह गंभीर विषयों को सरल तरीके से लेकर आई. गांधी के विचारों का बिना किसी आन्दोलन के इस्तेमाल करना सिखाया है इस फ़िल्म नें. थ्री इडियट्स जैसी घटिया फ़िल्म के निर्देशक-निर्माता का ऐसी फ़िल्म बनाना आश्चर्यजनक और सुखप्रद लगता है.

३. चक दे ! इंडिया : वाह रे शिमित अमिन. यश राज के निर्माण यूनिट में से निकली एकाध बेहतरीन फ़िल्मों में से एक. इस फ़िल्म को देखने के बाद मैं एक बड़ी अजीब दुविधा में पडा रहता था, और वो यह कि क्या इस फ़िल्म नें शाहरुख़ खान को एक बड़ी जगह दी या शाहरुख़ ने इस फ़िल्म को लेकिन बाद में शाहरुख़ को ऊपर रखने में ही भलाई समझी. फ़िल्म के नायक के किरदार को शायद एक मुसलमान ही बेह्तरीनी से निभा सकता था. फ़िल्म खेल को बढ़ावा नहीं देती है, ये बस एक अंतर्द्वंद की कहानी कहती है जो हरेक मुसलमान के भीतर होता है. एक सुन्दर, बलशाली और अड़ियल लड़कियों की फौज़ को लेकर एक नितांत ख़ूबसूरत कोच का दिल्ली के रामलीला मैदानों से विदेशी टर्फ के मैदानों तक का सफ़र बड़ा रोमांचकारी है. आख़िरी दृश्य में घर की दीवार पर लिखे “गद्दार” का एक सिख द्वारा मिटाया जाना शायद अंत का नहीं, आरम्भ का द्योतक है. ये उस परम्परा का एहसास करती है जहां सिर्फ़ मुसलमान को ही अपने देशप्रेमी होने का या देशद्रोही न होने का साक्ष्य देना पड़ता है. शायद आप लोगों को असुविधा हो सकती है मेरे इतना ज़्यादा मुसलमान-मुसलमान कहने से लेकिन मुझे इस फ़िल्म का हर एलिमेंट इसी शब्द से जुड़ता हुआ मिलता है. फ़िल्म के शीर्षक में ” ! ” का होना, एक अलग तरीक़े से जोश को बढ़ावा देता है.

४. हासिल : एक ऐसी फ़िल्म जो सफल हुई वो सब कह पाने में, जिसे वो कहना चाह रही थी उसके मूल में. सचाई से कोई समझौता नहीं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गुंडों और क्रांतिकारी लौंडों के बीच की जबरदस्त लड़ाई के बीच प्रेम का कोंपल. प्रेमी ऐसा कि जो कलाकार है, दुश्मन ऐसा कि जो साम्यवादी/ गुरिल्ला है और प्रेमिका ऐसी कि जो मूर्ख है. क्षमा करियेगा, लेकिन इस फ़िल्म की नायिका ने मेरे दिमाग में अपनी ऐसी ही छवि बनायी है, जिसे अलग कर पाना या बदल पाना मुश्किल है. नये दौर की इसी फ़िल्म में सिर्फ़ छात्र राजनीति का मूल रूप और प्रेम का नितांत फ़िल्मी रूप देखने को मिलता है जो एक सुन्दर विरोधाभास उत्पन्न करता है. किसी छात्र के लिए ये फ़िल्म उतनी ही ज़रूरी है जितना कि उसका कोर्स या उसकी प्रेमिका या मोबाइल. तिगमांशु धूलिया ने जो बनाया, वो एक एसेंशियल फ़िल्म एलिमेंट की तरह सामने आता है जिसे इसी तरह की बाद की फ़िल्मों से अलग कर पाना मुश्किल सा साबित होता है. जिमी शेरगिल, इरफ़ान खान और आशुतोष राणा की जगहों पर किसी और को लेना शायद बेवकूफी होती. पूरी फ़िल्म का बीच में अचानक बम्बई की तरफ़ ट्रांजिशन और फ़िर से वापिस आना बड़ा रोचक है. फ़िल्म के संवाद सीधे उदाहरण हैं, तिगमांशु के अमरीका विरोधी विचारधारा का, जिसका मैं खुले दिल से समर्थन करता हूँ.

५. लव, सेक्स और धोखा : इस फ़िल्म के बारे में जितना लिखा जाए उतना कम है और ताबड़तोड़ लिखा भी गया, बिना कोई कसर छोड़ते हुए. चर्चगेट की चुड़ैल से शुरू हो, ये फ़िल्म तीन अलग-अलग कहानियों से होती हुई बढती है लेकिन तीनों कहानियां अलग होकर एक हैं. “करन गोपाल चोपड़ा” की क्या बिसात कि वो इन तरह के सस्ते कैमरों का और निहायत ही छोटी कास्ट का प्रयोग करे, ये किसी दिबाकर बनर्जी की ही हिमाक़त थी जो एक बंधे-बंधायी परम्परा को तोड़ने की हिम्मत कर सका, जो ये दिखा सका कि किसी बैनर की क्या औकात होती है. एल.एस.डी. के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि दर्शक इस समय अपने आपको ज़मीन से जुड़ा हुआ पाता है, वो नहीं देखता है अपनी प्रेमिका के साथ किसी हेलिकॉप्टर में होने के सपने, यहाँ पर उसे पता चलता है कि सिनेमा हॉल की कोने की सीट पर अपनी प्रेमिका के साथ शरारती होना ज़्यादा ज़रूरी है. इस फ़िल्म को मैं सीधे-सीधे एक नये दौर की शुरुआत मानता हूँ. ऐसी फ़िल्म का दोबारा बनना मुश्किल है लेकिन मानकों से समझौता किये बग़ैर ऐसी फ़िल्म बनाना ही अब हिन्दी सिनेमा को शायद आगे ले जा सकता है.

रविवार, 15 अगस्त 2010

गल मिट्ठी-मिट्ठी

आनन-फानन में मैंने डाउनलोड किया था गानों को…. आयशा के गाने.. मुझे नहीं पाता था कि आनन-फानन में किया गया काम भी इतना ख़ूबसूरत हो सकता है. गीतकार हैं जावेद अख्तर और संगीत की कमान है अमित त्रिवेदी के हाथों में…. अरे भाई ये वही अमित त्रिवेदी हैं…. तौबा तेरा जलवा…. इमोशनल अत्याचार … याद आया ना.

तो पहला गाना है..सुनो आयशा.. अगर दसवीं दर्जे के विद्यार्थी की किताबी भाषा में कहूं तो नायक यहाँ नायिका के गुणों का बखान कर रहा है, लेकिन यहाँ भी थोड़ी सी परेशानी है, गीत के बीच में लगता है कि सामने वाला आयशा को उसकी कुछ कमियाँ भी गिना रहा है. ये बात ज़रूर है कि मैं जावेद अख्तर को बहुत अच्छा गीतकार नहीं मानता, लेकिन इतने सरल से शब्दों में खेल दिखा पाना सुन्दर काम है. मसलन…. बातों में हो आ जाती, हो जाती हो जज़्बाती, सोचे समझे बिन कि मोहब्बत की है राह क्या…. गाने के बोल निहायत ही सरल हैं लेकिन ऐसे ही समय पर अमित त्रिवेदी का पता चलता है. हल्की-हल्की महकती आवाज़ है और फ्रेशनेस को जी भरकर गाया गया है. बेहतरीन गाना है…. बॉलीवुड के बाज़ारू संगीत जगत में गिटार को ख़ूबसूरती के साथ इस्तेमाल करना शायद दो ही संगीतकारों….शंकर-एहसान-लॉय और अमित त्रिवेदी को ही आता है, ये बस जल्दी-जल्दी संगीत बस बनाकर निकल जाने वाले लोगों में से नहीं हैं. एक ताज़गी की खनक भी पता चलती है.
 
इस गीत के लिए मैंने एक ही समय चुना है, तड़के सुबह. यहाँ की बीट थोड़ी मिलती-जुलती लगती है दोस्ताना के गीत जाने क्यों दिल जानता है…. से.

अब आते हैं निखिल डिसूज़ा अमित त्रिवेदी के साथ… फ़िर वही सब सुनाई पड़ता है…खुला गिटार, एकदम बिंदास और जो गीत की रौ में अपने लिए एक अलग स्थान बनाते हुए बनाते हुए बह रहा है. गाना है शाम भी कोई जैसे है नदी. समूचा गीत गिटार पर है और कोई भी दूसरा वाद्य यन्त्र नहीं. ये गीत जैसे मुंह बनाता है और सबको यही बताता है कि मुझे मुफलिसी में सुनो तभी शायद पता चलेगा कि मैं क्या चीज़ हूँ या किस हद तक मैं असर करता हूँ. गीत में फ्री हैण्ड गिटार के साथ अकॉस्टिक गिटार भी सुनाई पड़ता है, घुल जाता है जैसे. कानों में पड़ने वाली आवाज़ को कोई भी डर नहीं है, सुर से भटक जाने का या अपने फ्लो में ही फंस जाने का.

तो भई, अब आता है इस फ़िल्म का मास्टरपीस, गल मिट्ठी मिट्ठी बोल….गीत हवाइयन गिटार जैसे से शुरू हो, शहनाई से मिल जाता है और साथ ही तोची रैना अपनी मेटैलिक आवाज़ के साथ मौज़ूद हैं. हाँ, डीजे-वीजे सरीखे गानों की तरह लगता तो ज़रूर है, लेकिन काफ़ी दिन बाद वो भौंडापन नहीं सुनने को मिला, यही कितना अच्छा है तो क्या ये कम है… पंजाबी बोल बड़े सरल हैं लेकिन यहाँ पर फ़िर से वही अमित त्रिवेदी वाला एलिमेंट काम करता है…और धुंआधार करता है. मैं नहीं जानता कि फ़िल्म कैसी है, लेकिन ये गीत ही मेरे हिसाब से फ़िल्म के माहौल को पूरी तरह दिखाता है. सच कहूं तो बाज़ार या ऐसी ही फ़िल्मों के गीतों के नुमाइंदों को मैंने इस गीत पर सिर मटकाते हुए देखा है. मैं मोहित हूँ गीत के बीच में आने वाले ढोल की थाप और साथ की हल्की-फुल्की तालियों पर. उस ढोल का चढ़ना और झटके से ही रुक जाना बड़ा ही ख़ूबसूरत है. दिन के किसी भी समय सुनिए, थकान के बाद आपको एक नयी ताज़गी से भर देने वाला गीत है ये और आवाज़ तेज़ हो तो क्या कहने…. हो सकता है कि घर में डांट सुननी पड़े लेकिन मज़ा तो खूब आएगा. मैं तो अब सभी को चाँद की चूड़ी पहराने की जिद में आ चुका हूँ. बस एक हल्का सा टच मिलता है देव डी के माही मैनू नई करना प्यार… वाले गाने का.

तो बकिया गानों में से भी एकाध अच्छे हैं लेकिन आइये इस फ़िल्म को सुनें और या तो किसी को चाँद की चूड़ी पहरायें या फ़िर मस्त रहें…… बूम बूम बूम बूम पारा.

सोमवार, 26 जुलाई 2010

माजिद मजीदी-२

चिल्ड्रेन ऑफ़ हीवेन


साल १९९७, ईरान के अमानवीय इलाकों से डंका पीटते एक और फ़िल्म बाहर आई, चिल्ड्रेन ऑफ़ हीवेन, और सारी दुनिया में ईरान की फ़िल्मों को पहचान दिलाने का काम इस फ़िल्म ने कर दिया. रोज़मर्रा के चाय-पानी-पैसे में व्यस्त रहने वाला आदमी भी जानने लगा कि ईरान में भी फ़िल्में बनती हैं, और ऐसी फ़िल्में कि कलेजा हाथ पर रखने को जी करे.
 
 
इस फ़िल्म को देखने का मेरा अनुभव बड़ा रोमांचकारी रहा, इसे देखने के दौरान कई फ़िल्में और बातें दिमाग में आती रहीं जो हमारे यहाँ की फ़िल्मों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर ईरान की फ़िल्मों से नज़दीकी की द्योतक हैं, लेकिन उनके बारे में बात बाद में.

तो, क्या आपका जूता आपके लिए ज़रूरी है? अगर फटा-चिथड़ा हो तब भी ज़रूरी है? क्या आप जूता खो जाने पर डरेंगे? यदि हाँ तो आप इस फ़िल्म को भी देखेंगे. .

कहानी !!... क्या ये ज़रूरी है? तो ठीक है....कहानी का नायक है अली, वो छोटा बालक जो ज़रा भी शैतान नहीं है, जो बचपन में ही सीख रहा है कि मुश्किलों का सामना कैसे किया जाये. "मैं क्यों डरूं... नहीं डरूंगा.... ना ही पीछे हटूंगा..... लेकिन बस घबराता हूँ अब्बू के बारे में सोचकर, उनके पास पैसे कम हैं ना..." कुछ इसी तरह का लड़का है अपना अली. अपनी छोटी बहन को खूब प्यार करने वाला और उतना ही उससे डरने वाला लड़का है अली.

छोटी बहन है ज़ाहरा, थोड़ा सा व्यक्तिगत होकर सोचूँ तो मुझे ये बच्ची अपनी प्यारी भतीजी की याद दिला देती है. हर छोटी सी बात पर मुंह फुला लेना, डर जाना और अपने भाई को डराना.... बड़ा ही स्नेहिल व्यक्तित्व है इस बालिका का. एक और बात, इनकी माँ फ़िल्म में कुछ भी नहीं है, हाँ इनके पिता थोड़े बहुत ज़रूर हैं, ये वही व्यक्ति हैं जो द सॉन्ग ऑफ़ स्पैरोज़ में नायक के तौर पर थे.

आपको क्या चाहिए एक बच्चे से, या आप क्या कमाना चाहेंगे एक कला की शर्त पर, एक कलेजा पसीजा देने वाली कहानी के शर्त पर..... मैं तो कमाना चाहूँगा ढेर सारी खुशियाँ. और इस तरह के कठिन मूल तत्व इस फ़िल्म में बखूबी मिलते हैं.

बहरहाल, आनन-फानन में अली से अपनी बहन का जूता खो जाता है, जिसे वो मरम्मत के लिए ले गया था. घर में बवाल से बचने के लिए उसे ज़ाहरा को मनाना पड़ता है कि वो अम्मी-अब्बू से कुछ भी न कहे. एक ही जूते से काम चलाते हैं दोनों, दौड़-दौड़ कर जूते बदलना और अपने-अपने स्कूल जाना-आना, ये भाई-बहन के जीवन का हिस्सा बन जाता है. बीच में दोनों में मनमुटाव भी होता है, लेकिन समझदार अली को सब कुछ बखूबी हैंडल करना आता है. छोटी बहन को समझा कर वो मसले सुलझा लेता है.

दोनों के जीवन का एक ही उद्देश्य 'अब' रह गया है किसी भी भांति जूते हासिल करना, चाहे पुराने चाहे नये. इसी तरह की भागदौड़ में एक दिन उन्हें अपनी पुराने जूते मिलते भी हैं, ज़ाहरा के ही स्कूल में पढने वाली एक लड़की के पैर में. तहकीक़ात में पता चलता है कि उस लड़की ने ये जूते एक कबाड़ीवाले से खरीदे थे और लड़की की हालत काफ़ी ख़राब है इसलिए वे उससे जूते वापिस हासिल करने का ख्याल छोड़ देते हैं. अरे भाई, ये बच्चे भी समझदार हैं.

अली तो जैसे इस भाग-दौड़ में अपनी खुशियों को भूल चुका है, उसके दोस्त रोज़ नई-नई टीमों को फ़ुटबाल में हराने की रणनीति बना रहे हैं, जबकि अली इनसे अलग अपने आप को एक दूसरे मायाजाल में स्थापित कर चुका है. घर की हालत काफ़ी ख़राब है, छोटी-छोटी चीज़ों के लिए सोचना पड़ रहा है.

लड़के को अपनी भागाभागी पर इतना भरोसा है कि वह एक ओपन रेस में हिस्सा लेने के लिए अपने खेल के टीचर को मना लेता है, पढने में ये लड़का तो है ही लाजवाब. रेस में दौड़ने का बस एक ही कारण, तीसरे स्थान पर आने वाले प्रतिभागी को एक जोड़ी खेलने वाले जूते दिए जायेंगे, इसलिए अली दौड़ जाता है. बड़ी ही कूटनीतिक चालों का इस्तेमाल करते हुए वो ख़ुद को पहले या दूसरे स्थान पर आने से रोकता है, लेकिन इतनी लम्बी रेस में अपने दिमाग पर नियंत्रण खो बैठता है और रेस में पहले स्थान पर आ जाता है (दुःखद), लेकिन ऐसी फ़िल्मों के अंत के नियम के अंतर्गत सारी समस्याओं का अंत होता है, वो जूते नहीं हासिल कर पाकर भी काफ़ी ज़रूरी चीज़ें हासिल कर लेता है. नौकरी की तलाश में भटकता पिता अच्छी सी कमाई करके अपनी बच्ची के लिए एक जोड़ी जूते भी ले आता है और वो सारी चीज़ें भी, जिसके लिए उसने अली से साइकिल दुर्घटना के ठीक पहले वायदा किया था.

फ़िल्म की शूटिंग तेहरान की तंग गलियों में हुई है, यहाँ आपको एक खुला माहौल देखने को नहीं मिलेगा, जहां लैंडस्केप की उन्मुक्तता नहीं होगी. यहाँ कई अलग-अलग और छोटी-छोटी समस्याएँ नहीं हैं पूरी कहानी जूते पर केन्द्रित है और उससे जुड़ी समस्याओं पर. एक बड़ा आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि मजीदी ने इस फ़िल्म की अधिकतर शूटिंग के दौरान कैमरे और क्रू को छिपा के रखा था ताकि लोगों के सामान्य भाव कैमरे में कैद हो सकें.

फ़िल्म में आये कुछ प्रकरण-दृश्य (बड़े ही साधारण से) दिमाग के एक बड़े हिस्से में घर कर गये हैं, लेकिन इनका अपना प्रभाव बड़ा ही व्यापक है. जैसे, अच्छे नंबरों के लिए मिली पेन की अहमियत अली के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए वो ज़ाहरा को पेन एक रिश्वत के तौर पर दे देता है. एक बार अपनी-अपनी कापियों पर लिख-लिख कर एक दूसरे से वार्तालाप करते हैं कि अब आगे स्कूल बिना जूतों के स्कूल कैसे जाया जाये और वे दोनों अपने अब्बू के द्वारा ध्यान से 'वॉच' किये जाते हैं.  जूते का नाली में गिर जाने वाला सीन भी सुन्दर है, लेकिन इस दृश्य की तीन-चार फ़िल्मों में वाहियात नक़ल देख़ मूल सीन कलेजे से उतर गया.

एक मित्र से बात हो रही थी कि मजीदी की फ़िल्में मूलतः कैसी हैं? जनाब ने क़ाबिल-ए-तारीफ़ ज़वाब दिया...उनके अनुसार इनकी फ़िल्में कम मसालेदार गोश्त की माफ़िक हैं, जिनके पाचन में कोई समस्या नहीं आती है. इस जवाब को मैं आजकल कुछ दोहराने लगा हूँ.

प्रियदर्शन की हाल ही में एक फ़िल्म आई है बम बम बोले.... ये फ़िल्म मूलतः क्या है इसका कोई अंदाज़ नहीं लग पाता है. डायलॉग तक नक़ल किये गये हैं और नाम दिया गया कि यह फ़िल्म चिल्ड्रेन ऑफ़ हीवेन से प्रभावित है, क्या प्रभावित फ़िल्में इस हद तक प्रभावित होती हैं? इतना ही या कहें एकदम ऐसा ही प्रभाव किसी दक्षिण भारतीय फ़िल्म में मैंने देखा था, जिसका नाम याद नहीं है और याद रखना चाहता भी नहीं हूँ.

एक बात तो इस तरह की बातों से खुलकर सामने आई कि ईरान की फ़िल्में किस तरह से दुनिया भर की फ़िल्मों को "प्रभावित" कर रही हैं और फ़िल्मों के लिए नये मानकों की स्थापना कर रही हैं .

रविवार, 18 जुलाई 2010

माजिद मजीदी – १

(माजिद मजीदी, एक ऐसा शख्स जिसे ईरान के सिनेमा से, या कहें सिनेमा से प्यार करने वाला हर शख्स प्यार करता है. ईरान में कलाओं के प्रति शासन के ख़तरनाक़ रवैये से हमें पहले विष्णु खरे ने अवगत कराया और फ़िर इसका इल्म हुआ कि ऐसे माहौल में फ़िल्म निर्माण किसी चुनौती से कम नहीं. माजिद मजीदी के सिनेमा को देखना सरल है. यहाँ, बहस की इस श्रृंखला में, हम मजीदी को करीब से देखने कोशिश करेंगे. मजीदी की फ़िल्म का वातावरण इतना कम प्रदूषित होता है कि कभी-कभार विश्वास नहीं होता कि सिनेमा इतना साफ़-सुन्दर भी हो सकता है.)
मोहसिन मखमलबाफ की फ़िल्म बॉयकॉट  में अभिनय कर चुके मजीदी का जन्म और पालन-पोषण तेहरानके एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ. इंस्टीट्यूट ऑफ़ ड्रामैटिक आर्ट्स में पढ़ाई और १९७९ की ईरान की क्रान्ति के बाद सिनेमा की दुनिया में शॉर्ट फ़िल्म्स और डाक्यूमेंट्री से मजीदी ने मजबूत क़दम रखा और बहुत ही कम फ़िल्मों से दुनिया में अपनी पहचान बनाई.
द सॉन्ग ऑफ स्पैरोज़
२००८ में बनी ये फ़िल्म मजीदी की अन्य फ़िल्मों की तरह मानवीय संवेदना को एक अलग ऊंचाई पर ले जाकर स्थापित करती है, ऐसी ऊंचाई कि जिस तक पहुँचाने का रास्ता ही दूसरा है, और हमारे हिन्दी सिनेमा में ऐसे रास्ते काफ़ी पहले खुले थे लेकिन अब ऐसा हो पाना मुश्किल है. 
क़रीम एक अपनी छोटी-छोटी समस्याओं से भी गंभीरता से जूझने वाला पुरुष है, जो शुतुरमुर्गों के फार्म पर काम करता है और साथ ही शुतुरमुर्गों से बड़ा ही घनिष्ठ रिश्ता क़ायम कर चुका है. उसे नहीं पसंद है कि कोई अनजान कर्मी शुतुरमुर्ग की आदतों के बारे में जानकारी ना होते हुए भी उनसे सम्बन्ध बनाये. घर में एक ख़ूबसूरत बीवी नरगिस, दो निहायत ही प्यारी लडकियां और शैतानों का शैतान लड़का हुसैन है. कहानी के नायक करीम और हुसैन हैं. पहले तो बड़ी लड़की के कान की मशीन खो जाती है, वो गिर गयी है उस कुण्ड में जो करीम के घर के पिछवाड़े है और हुसैन, उसके दोस्त और करीम बाबू मिल कर मशीन को खोज निकालते हैं. मशीन भीग कर ख़राब हो चुकी है, जब घरेलू नुस्खों काम नहीं करते हैं तो ज़रुरत पड़ती है उसे बनवाने की, जिसके लिए करीम को अपने चेतक (दुपहिया) के साथ शहर जाना होगा. 

बहरहाल, अगले ही दिन फार्म से एक शुतुरमुर्ग भाग निकलता है जिसके लिए करीम दोषी करार दिया जाता है और वो अपनी नौकरी को बचाने में असफल साबित होता है. घर में वो इस बहाने के साथ दाखिल होता है कि उसे यह नौकरी पसंद नहीं है, लेकिन वह अलग-अलग जगहों से भगोड़े शुतुरमुर्ग की ख़बरें सुनता रहता है और उसे खोजने के लिए कई निरर्थक प्रयास करता है.
शहर में पता चलता है कि कान की मशीन दुरुस्त करने की हालत में नहीं है, इसलिए करीम को ज़्यादा पैसे लगाकर नयी मशीन लेनी होगी. आनन-फानन में करीम दुपहिया टैक्सी ड्राईवर का काम शुरू कर देता है और सामान और इंसान दोनों के स्थानान्तरण का जिम्मा लेता है. इधर छोटे हुसैन कुंड को साफ़ करके उसमें मछलियां पालने के लिए नित नये तरीके ढूंढ रहे हैं.
समूची कहानी ऐसे ही हल्के-हल्के माहौल में बढती है और समस्याएँ करीम बाबू का पीछा नहीं छोडती हैं. आधी से अधिक कहानी तो करीम की मोटरसाइकिल पर बीतती है, बाकी की कुछ हुसैन के डांट खाने में और फ़िर करीम की परेशानियों में.
फ़िल्म के सबसे पहले दृश्य में एक शुतुरमुर्ग का क्लोजअप है और उनके साथ करीम के रोज़ के काम को दिखाया गया है. किसी फ़िल्म में कोई बिम्ब कितनी ख़ूबसूरती से निभाया जा सकता है, ये माजिद मजीदी से सीखने लायक़ है. मसलन, फ़िल्म में कुछ सीन ऐसे हैं जिन्हें समूची फ़िल्म के बजाय याद करना ज़्यादा सुखद होता है, या कहें कि अगर उन्हें ही अच्छे से समझा जाए तो फ़िल्म के भीतर छिपी मानवीय संवेदनाएं उभर जाती हैं. जैसे, एक दृश्य खुलता है तो लगता है कि तीन हाथ आसमान के तारे तोड़ रहे हैं, लेकिन कैमरा थोड़ा ऊपर उठता है तो ही समझ में आता है कि एक माँ अपनी दोनों बेटियों के साथ मिल कर कोई कालीननुमा चीज़ बुन रही है.
एक दृश्य में करीम शुतुरमुर्ग के भेष बना, बीहड़ों में उस भगोड़े को ढूँढने की कोशिश करते हैं और लगभग इसी तरह के एक दूसरे दृश्य में एक अंतहीन खेत में करीम एक नीले रंग का दरवाज़ा पीठ पर लादकर चलते हैं. इन दृश्यों में हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल हुआ, और हुआ तो एकदम सही जगह हुआ. अपने देश की पूंजीवादी फ़िल्मों की तरह नहीं, कि अगर नायक-नायिका के आलिंगन का भी दृश्य है तो वहां भी इस तरह के शॉट्स का जी भर के इस्तेमाल होता है.
फ़िल्म की कहानी निहायत ही सरल है, जिसे बड़ी ही ख़ूबसूरती से फिल्माया गया है. फ़िल्म के शीर्षक के नाम पर बस एक दृश्य ही याद आता है…. बच्चों द्वारा साफ़ किये गये कुंड के चारों ओर गौरैयाओं का चहचहाना. मुझे वो दृश्य तो कतई याद नहीं आता जो कि पोस्टर में दिखता है कि मछलियाँ ज़मीन पर बिखरी हुई हैं, क्योंकि मेरे हिसाब से फ़िल्म आशावाद को एक बड़ी निष्ठा के साथ बढ़ावा देती है.
फ़िल्म का पूरा माहौल एक लैंडस्केप की तरह उभरता है. मजीदी से एक साक्षात्कार में पूछा गया कि आपके लिए फ़िल्म का कौन सा हिस्सा फिल्माना सबसे कठिन था…. इस पर मजीदी का जवाब बड़ा ही डरा देने वाला था, उन्होंने कुछ ऐसा कहा – “मेरी हर फ़िल्म में मेरे लिए मुश्किल होता है एक सुखद अंत दिखाना”. शायद ये मुश्किल इसलिए आती हो क्योंकि फ़िल्म में किरदारों को समस्याओं से ग्रसित दिखाया गया है.
फ़िल्म का संगीत बैगपाइप पर है, जो एकदम ज़मीन से जुड़ा हुआ है और एक विराट भव्यता समेटे हुए है. फ़िल्म के सच्चे प्रेमियों ने फ़िल्म ज़रूर देखी होगी, यदि नहीं तो आप गलती कर रहे हैं इसे ना देख़ कर.

रविवार, 11 जुलाई 2010

मेरा यार मिला दे….

रात के दो बजने जा रहे हैं, घर में सब सो रहे हैं, बस मैं ही उलझ गया…. कंप्यूटर का वो हिस्सा, जिसमे मैं गाने रखता हूँ, उसे खंगालते-खंगालते एक फोल्डर पर नज़र पड़ी…साथिया.

शाद अली की पहली फ़िल्म है, कहानी आई है बरास्ते मणिरत्नम. गीत लिखा हैं गुलज़ार ने और हारमोनियम-कंप्यूटर संभाला है रहमान ने.

फ़िल्म तो कुछ ख़ास नहीं है कि ये मुझे रात को इतनी देर तक जगा सके, हाँ, लेकिन संगीत ज़रूर है. ये बात तो है कि रहमान बहुत ज़्यादा अपने कंप्यूटर वाले हिस्से पर निर्भर हो जाते हैं, लेकिन सारे ऐब को नज़रंदाज़ करते हुए ध्यान दिया जाये मेरे पसंदीदा गाने मेरा यार मिला दे… पर.

हमान ने गाया है और शायद जी खोल कर गाया है, कभी तो इसे सुनकर लगता है कि गाने वाला सचमुच किसी से मिलने की ज़िद में बैठा है. पार्श्व में लय एकदम खुल के चल रही है जैसे वो अपने से अलग के सभी सांगीतिक प्रभावों को मुंह चिढ़ा के कह रही है – आओ! मेरे जितना बह के दिखाओ, मेरे जैसा बह के दिखाओ…..चाहो तो छूट के दिखाओ उस सीमित सौंदर्य से. एक-एक थाप खुल कर सुनाई पड़ती है और यही खुलापन समूचे गीत के माहौल को और खुला बनाता जाता है.

शायद रहमान भी नहीं रोक पाए हैं उसे, रहमान के बारे में ये कहा जा सकता है कि उनकी आवाज़ बड़े ही धीमें क़दमों के साथ कान में पड़ती है और फिर घुलने लगती है. आवाज़ में हल्का सा दोहरापन पता चलता है लेकिन बढ़िया है.

गीत में और कोई दूसरी आवाज़ नहीं सुनाई देती है बस डरे-सहमे से वाद्ययन्त्र.

अगर आप चाहें तो एक और बात नोटिस कर सकते हैं कि अधिकतर गानों में कोई ऐसा प्रभाव नहीं सुनाई देगा जो गायक की आवाज़ को दबाये….. जैसा सुनने को मिलता है अदनान सामी के गाये गाने ऐ उड़ी उड़ी उड़ी….. में. यहाँ पर आपको गिटार की बेस पिच का बेजोड़ इस्तेमाल सुनने को मिलेगा. यहाँ उलझने के साथ खुली हुई लट रात भर बरसी थी और रहमान ने भरपूर समय लिया है इस गीत को उसी शरारती लहज़े में ढालने के लिए. बस यूं ही कहना चाहता हूँ कि अगर अदनान के अलावा कोई गायक होता तो उस ख़ास प्ले का दीदार होना शायद नामुमकिन होता.

दरअसल, रहमान बहुत कम ही फ़िल्मों में मेरे मन को भाने वाला संगीत दे पाते हैं. लेकिन साथिया का संगीत थोड़ा बहुत उस रहमान की याद दिलाता है जो इल्लैयाराजा के साथ रहता था और ये बड़ा ख़ुशनुमा एहसास है. अगर देखा जाये चुपके से लग जा गले…… जैसे गीत को तो पता चलता है हर छोटी-छोटी चीज़ अपना व्यापक प्रभाव श्रोता पर डालती है. मसलन, इस पूरे गीत में पीछे बज रहे घुंघरुओं और पायल को शायद आपने कभी ध्यान से सुना हो. यदि नहीं सुना तो सुनियेगा ज़रूर. एक बड़ा विस्मृत करने वाला क्षण आता है जब इस गीत के ठीक बीच में बहुत थोड़े समय के लिए लय ब्राजीलियाई साम्बा जैसे कुछ में बदल जाती है. अरे ये तो बताना भूल गया कि यहाँ साधना सरगम हैं और साथ में मुर्तज़ा खान और क़ादिर खान भी हैं.

कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि रहमान किसी भी गायक/ गायिका से कुछ भी गवा सकते हैं, लेकिन शंकर-एहसान-लॉय को मैं रहमान से ऊंचे पायदान पर रखता हूँ, लेकिन उनके बारे में फिर कभी बात करूंगा.
फ़िल्म का संगीत अपने आप में बड़ा फैला हुआ है. और भी गाने हैं इस फ़िल्म में, लेकिन उनके बारे में मैं खुल के बात नहीं कर सकता हूँ. इस बार कोई वीडियो नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि ये सारे गाने सिर्फ़ कान के रास्ते ही दिमाग को धनधनाते हैं.

सोमवार, 28 जून 2010

प्रेम-प्रसंग

बीच में एकाध बार ये हुआ कि मेरा नाम नाहक़ ही काजोल के साथ जोड़ा गया, तो मेरी आपसे गुज़ारिश है कि ऐसी अफवाहों पर ध्यान ना दें.

यूं तो ऐसा हम सभी के साथ होता है जब किसी नायिका को मन ही मन हम दिल दे बैठते हैं, मेरे साथ भी ऐसा ही होता है और शायद मैं इस क़बूलनामे जैसे कुछ से ये सभी को बताने जा रहा हूँ.

मेरे प्रेम(इकतरफा) का आगाज़ हुआ फ़िल्म गाइड के साथ, जहाँ वहीदा रहमान हैं और उनके साथ देवानंद साहब. काँटों से खींच के ये आँचल …. इस गीत की शुरुआत ही वहीदा रहमान के लिए स्नेह पैदा कर देती है साथ में हल्की गुलाबी साड़ी और घास पर इनकी उन्मुक्त अदाएं और भी रिझाती हैं. शायद वो समय भी अनूठा है जब वहीदा निकलती हैं बाज़ार में. उसके बाद फ़िल्म से ज़्यादा रोचक लगता था उस ख़ूबसूरत अभिनेत्री को निहारना. मैं ये ज़ुर्म कबूलता हूँ कि आज भी मैं गाइड, जो कि एक अच्छी फ़िल्म है, सिर्फ़ और सिर्फ़ उस नितांत सुन्दर अभिनेत्री को देखने के लिए देखता हूँ. एक और बड़ा उत्तेजक क्षण आता है जब फ़िल्म के आखिरी समय में जब वहीदा उस सूखाग्रस्त क्षेत्र में नंगे पाँव और पसीने से लथपथ होकर, शायद गुलाबी रंग की साड़ी पहने हुए चलती हैं, उस मनमौजी आशिक़ की तलाश में जो जोगी हो गया है. पसीने से भीगा गला और ऊपरी सीना रोमांचित करता जाता है. कभी कभी तो मन करता है उस समय फ़िल्म के भीतर होने का जब देव और वहीदा एक साथ लम्बा समय गुजारते हैं. गाइड के काफ़ी समय बाद मैंने प्यासा देखी, जिसने मेरे प्रेम के भावों को और चिंगारी दी. सच कहूं तो मुझे बार-बार प्रेम शब्द जोड़ना बड़ा ही सस्ता और बाजारू लग रहा है, ये शब्द शायद अब सही मायनों में बाज़ार में बिकने लगा है, लेकिन जनाब इसके पीछे छिपे सार को समझिएगा, न कि शब्द को. अभूतपूर्व सौंदर्य का पाठ पढाता है प्यासा का वो दृश्य जब वहीदा गुरुदत्त को उन्ही की नज्में गाते हुए रिझाती हैं या एकदम अंत में जब गुरुदत्त घर का दरवाज़ा खोल भीतर घुसते हैं और वहीदा के चेहरे पर एक अलौकिक चमक सी फैली दिखती है और आँखों में आंसू हैं.

दरअसल, हिन्दी सिनेमा के जिस दौर में हम सब वर्तमान में हैं, वहाँ से अच्छे निर्देशकों की फसल ख़त्म हो चुकी है, जो भी कुछ बचे हैं या जिनसे पहले कुछ उम्मीदें हुआ करती थीं वे भूत-प्रेत, छिछला सा रोमांस और दो टके के सामाजिक विषय जैसे विषयों पर ऊटपटांग सी फिल्में दिन-ब-दिन बनाते जा रहे हैं. गिरिराज किराडू की मानें तो ऐसे निर्देशकों की फसल को एक नाम “करन गोपाल चोपड़ा” दिया जा सकता है. इक्कादुक्का ही निर्देशक अच्छी फ़िल्में बना रहे हैं और शायद इन्ही लोगों से ये आशा की जा सकती है कि किसी अभिनेता या अभिनेत्री को उसके सौन्दर्य की पराकाष्ठा पर ले जाकर दिखा सकें.
 
जैसे मधुर भंडारकर ने फैशन में किया, मधुर ने प्रियंका चोपड़ा को निहायत ही खूबसूरती के साथ पेश किया. वैसे भी फैशन का विषय ही बड़ा ग्लोरिफाइड है लेकिन फिर भी यहाँ ग्लोरिफिकेशन का सहारा कम से कम लिया गया. तो इस तरह से वहीदा रहमान के बाद मैं मुरीद हुआ प्रियंका चोपड़ा का. यहाँ भी एक गीत है, मर जावां… जिसमें प्रियंका की शीतल और सौम्य खूबसूरती को इस गीत के बैकग्राउंड में रखा गया है. दोस्ताना नामधारी ऊटपटांग फ़िल्म में प्रियंका के अलावा शायद किसी भी किरदार को इतनी बेह्तरीनी के साथ नहीं दिखाया गया है. अगर अदाकारी के बारे में भी थोड़ा सोचा जाये तो प्रियंका के साथ फैशन की कंगना रनौत को भी जोड़ा जा सकता है लेकिन उस एक्सटेंट तक नहीं.


ख़ैर, आख़िर में अपने चेहरे पर अपने बचपन को संजोये हुए एक अभिनेत्री आती है, जेनेलिया डिसूज़ा, जाने तू या जाने ना के पहले कुछ दक्षिण भारतीय फ़िल्मों में काम कर चुकी हैं. चेहरे के मुताबिक़ आवाज़ पाई है, आवाज ऐसी कि सुन कर लगता है कि वह गले में ही कहीं फंस कर रह गयी है. ये एक नयी अभिनेत्री हैं, इन्हें अभी आगे बहुत कुछ करने के लिए बख्श देता हूँ, लेकिन ये मालूम रहे कि मैं इन्हें और प्रियंका को एक ही साथ रखने की जिद में हूँ.

अन्य कई अभिनेत्रियाँ आई, नये में बिपाशा बसु, लारा दत्ता और भी कई…पुरानों में इसी तरह कुछ लेकिन वे सीमाओं को लांघकर ख़ूबसूरत दिखने की चाह रखती हैं/ थीं. ये सब कुछ ऐसा है कि आपको इस पैमाने पर अपने को फिट करने के लिए कहानी और कैमरे की समझ भी होनी चाहिए.

शनिवार, 12 जून 2010

आये सुर के पंछी आये…..

पहली बार ही बड़े मोर्चे को चुना है मैंने. फ़िल्म है १९८५ में बनी सुर संगम जिसमें लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत है, गीतकार हैं वसंत देव, और सुरों से अनूठे ढंग से खेलने का काम किया है राजन-साजन मिश्र ने.

ये फ़िल्म और इसका संगीत मेरे लिए ख़ास हैं क्योंकि मेरी याद में यही एक ऐसी चीज़ है जो पं. जालपा प्रसाद मिश्र को बैठके से उठने के लिए उकसाती थी.

पहला गाना है हे शिवशंकर हे करुनाकर. फ़िल्म में इस समय गिरीश कर्नाड मंदिर में भगवान् शंकर को ललकारते मिलते हैं. गाने के बोल कुछ इस तरह हैं -

हे शिवशंकर हे करुनाकर परमानन्द महेश्वर
मेरे भीतर तुम गाते हो,
सुन लो तुम अपना ये स्वर.
मौन गान का ध्यान जमाया
योग राग को ही माना
तुम्ही बने हो तान प्राण की
मेरे तन-मन को पावन कर.

वैसे ये गीत तो राजन मिश्र का गाया हुआ है, लेकिन अपने पिता-गुरु की कसम के अनुसार अगर दोनों में से कोई भाई अकेला भी गाता है, तो भी नाम दोनों का ही आएगा, तो ये राजन-साजन मिश्र का गाया हुआ है. ललकारती आवाज़ एकदम भीतर तक झनझना देती है. क्षमा करें, ये कोई आवाज़ नहीं है…ये नाद है, झंकार है, एक आदत है जो शायद उत्तर भारत में गंगा के किनारे बसने वाले घाटों और मंदिरों वाले प्यारे शहर में ही पायी जाती है. लोगबाग इसी आदत को अपनाए हुए हैं पान और चाय की दूकानों पर बात करते समय, घर के छाजन पर सुंघनी या दातुन करते हुए या अपने अनुजों को डांटते हुए. रियाज़ के समय की बातें याद आयीं तो बता दूं कि ये नाद नाभि से उठता है. बहरहाल, इस गीत का वीडियो देखिये – 


जाऊं तोरे चरन कमल पर वारि….. यहाँ मिश्र बंधुओं के साथ लता मंगेशकर भी जुड़ जाती हैं. बंदिश कुछ ख़ास नहीं है, राग भूपाली है लेकिन गीत बड़ा ख़ूबसूरत है. मैं इसे सुनने के बाद सोचता हूँ कि कोई इतना ज़्यादा फैलाव समेटे कैसे गा सकता है, लेकिन फिर याद आता है कि भई ये तो बनारस घराना है, फैलाव समेटना ही यहाँ आपकी परिपक्वता का पैमाना है. यहाँ आपको अपनी तानों और आलाप पर आपको ज़ोर देना है, न कि अपनी गायकी के अंदाज़ पर, नहीं तो अपने गुरु से आपको मिलने वाले ५ से १० रुपये के ईनाम नहीं मिलेंगे या फिर आपको बैठके में बैठने की अनुमति नहीं मिलेगी.


अपने असरानी साहब भी फ़िल्म में इस गीत का एक बार मज़ाक उड़ाते हुए पकड़ा जाते हैं. छोटा बालक अपनी गुरु बहन से जिस तरह स्वर-विस्तार लिखवाता है या जिस तरह से पं. शिवशंकर शास्त्री का रूप अख्तियार कर अपनी माँ के सामने गाता है, वह बड़ा ही प्यारा है.

एक और गीत, प्रभु मोरे अवगुन चित ना धरो, जानकी जी का गाया हुआ है. सुन्दर लेकिन उतना करीब नहीं जितना अन्य. फिर भी अपनी लम्बाई में कम होने के बावज़ूद ये काफ़ी खेल समेटे हुए है. जयाप्रदा शुरू करती हैं और उनका पुत्र इसे अपने गुरु की चौखट पर लाकर ख़त्म करता है. इकतारा लेकर झूमना थोड़ा नाटकीय लगता है, हाँ भई! इस पूँजी की होड़ में शायद मुझे ये नाटकीय ही लगे.

और भी कई गीत हैं जैसे धन्य भाग सेवा का अवसर पाया या मैका पिया बुलावे, जो आपको मस्तियाने पर मज़बूर करते हैं.

मेरे मुताबिक़ इस फ़िल्म के बारे में लिखना उतना ही आसान है, जितना कठिन इसके संगीत के बारे में लिखना है क्योंकि यहाँ संगीत सिर्फ़ संगीत नहीं है, यह कुछ बड़ा और वज़नदार है, कुछ विराट है जिसे मैं वर्णित नहीं कर सकता हूँ. यहाँ बनारस घराने की वही सोंधी सी खुशबू मिलती है जिसको पाने के लिए गलियों और घाटों का सहारा रह गया है.
 
सोचना है कि, आपने संगीत सुना ही होगा या फ़िल्म तो देखी ही होगी. यदि नहीं तो फ़िल्म के पीछे मत भागियेगा, संगीत सुन लीजिये. आपको ख़ुशी होगी.