सोमवार, 17 जनवरी 2011

यमन की आत्मा


मंगलेश डबराल
बड़े दिनों के बाद संगीत सुना. भीमसेन जोशी का यमन. पुरानी रिकार्डिंग है इसलिए उसमें एक ख़ास तरह का एकाकीपन लगता है. भीमसेन जोशी का एक पुराना इंटरव्यू कुछ दिन पहले पढ़ा था : 'अंततः जब आप संगीत प्रस्तुत करते हैं तो वह आपकी पूरी साधना की शक्ति का ऐसा क्षण होता है जब आप राग यमन या भैरवी से आप सिर्फ़ किसी एक प्रतिमा को नहीं, बल्कि समूची सृष्टि को अलंकृत कर सकते हैं.' यमन राग-संगीत का बचपन है. छात्रों को शुरुआत में सिखलाया जानेवाला सात सुरों का पहला राग. छात्रों से लेकर पंडितों-उस्तादों तक सभी इसे गाते हैं, लेकिन समूची सृष्टि को रंजित करनेवाली उदात्तता तक बहुत कम लोग ले जा पाते हैं. ज़्यादातर लोग यमन का शरीर ही गाते रहते हैं. फ़िल्म संगीत में भी भैरवी और यमन का ही सबसे ज़्यादा इस्तेमाल हुआ है. उसके स्वर इतने आम, इतने चौतरफ़ और इतने अपने हैं कि उस साधारणता को असाधारण तक ले जाना काफ़ी कठिन है. अमीर ख़ां साहब का यमन इसी मानी में बेजोड़ है : कजरा कैसे डारूं, और ऐसो सुघर सुंदरवा बालमवा या एक बहुत पुराना, शायद 'क्षुधित पाषाण' फ़िल्म का गाना - अवगुण न कीजिए गुनिजन - और वह एक अद्भुत बंदिश जिसके फ़ारसी बोल समझ नहीं आते. वह अमीर खुसरू की रचना है. विलायत ख़ां साहब भी यमन के मुरीद थे और ग्वालियर घराने का भी यह प्रिय राग है. निराला का अन्तिम दिनों का वह गीत याद आता है : इमन बजा, न बजा, मन बजा. कभी-कभी सुन्दर यमन को सुनते हुए घिरते अँधेरे वाले आसमान में एक चाँद कल्पना में दिखता है जिसकी असंख्य अंगुलियाँ शाम के सांवले रंग को, उसकी केश-राशि को सहलाती हुई लगती हैं.

(मंगलेश डबराल की पुस्तक "कवि का अकेलापन " से साभार, पृष्ठ संख्या १९२, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रकाशन वर्ष २००८, मूल्य २५० रूपये)

[यह सारवान वक्तव्य कई कारणों से ज़रूरी है. एक उदास कारण यह है कि फ़िलहाल भीमसेन जोशी गम्भीर रूप से बीमार होकर अस्पताल में भरती हैं. लेकिन शोक सामयिक है. भीमसेन जोशी की शख़्सियत और अवदान, संगीत और यह सोचता हुआ गद्य - ऐसी सभी चीज़ें मिलकर हमें शोक के पार ले जाएंगी. ज़िन्दगी ऐसे तत्वों से निर्मित होनी चाहिए, मसलन ऐसे वाक्यों से कि 'यमन राग-संगीत का बचपन है'; 'ज़्यादातर लोग यमन का शरीर ही गाते रहते हैं'. कौन कह सकता है कि हम यहाँ सिर्फ़ यमन सुनना सीखते हैं ? एक असली वाक्य में न जाने कितने लोगों के स्वर, ख़यालात, आकांक्षाएं और इच्छाएं गूंजती हैं. ऐसी रचना हमेशा समवेत प्रतिफल है. - व्योमेश शुक्ल]

बुधवार, 12 जनवरी 2011

क्यों रे, अब बोल..... हू किल्ड द जेसिका?

एक हत्या, एक फ़िल्म, एक समय, एक मजबूत तंत्र और मीडिया. फ़िल्म आई है " नो वन किल्ड जेसिका ", एक सफल कोशिश राजकुमार गुप्ता द्वारा और पिछली बार की तरह ही नाटकीयता में सचाई रचने की कोशिश.

फुरफुरी-सी दौड़ाने वाली फ़िल्म, जिसने कुछ साबित नहीं किया, इसने बस दिखाया कि कैसे ताक़त स्थानांतरित होती है एक बड़े ओहदे से कई छोटे-छोटे ओहदों में (या बे-ओहदों में). नीरा राडिया टेप प्रकरण और इसी तरह के कई मामलों में हिचकोले खाते एनडीटीवी ने किस तरह मोर्चा सम्हाला था, ग़लत न्याय के ख़िलाफ़. इस ख़बरिया चैनल के किसी भी तरह के नुकसान की भरपाई हो पाई है या नहीं, इसके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानना चाहता हूँ, लेकिन मैं उस फ़िल्म की सफलता को नकारने में ज़रूर हिचकूंगा जिसने एक आवाम को प्रभाव में लिया. "रंग दे बसंती" के बाद/साथ ये फ़िल्म उन कुछ फ़िल्मों की श्रेणी में आती है जिसके प्रभाव में एक बड़ा जनसमूह आया.

बेशक़ राजकुमार गुप्ता ऐसे निर्देशक कतई नहीं हैं जिन्हें अनुराग कश्यप, सुधीर मिश्र और नागेश जैसे अति-प्रतिभावान निर्देशकों की श्रेणी में रखा जा सके लेकिन उनकी प्रतिभा को इन निर्देशकों वाले ख़ास पैमाने पर भी नहीं रखा जा सकता है. सबसे पहले तो इस फ़िल्म नें स्त्री की बनी-बनाई इमेज (जिसमें बदलाव के लिए अधिकाधिक प्रयास किए जा रहे हैं) को तोड़ने के लिए उसमें कुछ और जोड़ा और ऐसा जोड़ा कि "गांड फट के हाथ में आ गई" {रानी मुख़र्जी का एक संवाद}. इसे संवाद के प्रभाव के तौर पर न लिया जाए लेकिन इसे एक प्रयोगात्मक एलिमेंट के प्रभाव के तौर पर लिया जाए. इस बात को लिख लिया जाए कि अब नहीं फर्क़ पड़ता किसी के विद्यालय या स्कूल का न ही किसी की ट्रेनिंग का, अब अगर फर्क़ पड़ता है तो सचाई और सार्थकता का, जिसे राजकुमार गुप्ता के पास पाया जा सकता है.


कहानी के बारे में ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है लेकिन स्टोरीटेलिंग एलिमेंट्स के बारे में जानना शायद ज़रूरी है. विद्या बालन हैं, जो सबरीना लाल की भूमिका में हैं (शान्त, निर्भीक, घबरालू और बेफ़िक्र) और साथ ही हैं रानी मुख़र्जी, जिन्होनें एक नामचीन एनडीटीवी पत्रकार का किरदार निभाया है (बोल्ड, सुन्दर, निर्भीक और प्रचंड तेवर-युक्त). शुरुआत में तो रानी ने बेरुखी से इस मामले को लिया, लेकिन फैसला आने के बाद वे एक मीडिया-भवानी के तौर पर अवतरित हुईं और देशव्यापी आन्दोलन को जन्म दिया, शायद इसके पीछे ख़बर पाने की लालसा ही क्यों न छिपी हुई हो, फ़िर भी ये फ्रंट स्टांस कहीं न कहीं फ़िल्म को उसका असल रुख देता है. फ़िल्म में अपने प्यारे मुंजाल भी हैं (अरे वही! खोसला का घोसला वाले), एक बिक चुके ईमानदार पुलिस वाले की भूमिका में, बिक चुकने के बाद भी इन्होने उन सभी बिन्दुओं की ओर लोगों का ध्यान खींचा है, जो केस के हिसाब से ज़रूरी थे. फ़िल्म के माहौल को निरन्तर हल्का रखने की कोशिश की गई है फ़िर भी विषय का माहौल लगातार अपनी रौ में है.


ये फ़िल्म इस स्तर से अधिक ऊँची हो सकती थी, लेकिन फ़िर भी किसी खाली जगह की गुंजाइश नहीं छोड़ी गई है जिससे दर्शक इसके वर्तमान स्तर से संतुष्ट होता है. जैसा पहले बताया था, संगीत
अमित त्रिवेदी का है और ताबड़तोड़ है, पीछे चल रहे सांगीतिक फिलर ग़ज़ब के प्रायोगिक हैं. अमित त्रिवेदी हमेशा की तरह पुरानेपन को नहीं दुहराते हुए आते हैं और फ़िर से छा जाते हैं.

सबरीना के हालात, जो किसी से छिपे नहीं हैं, बहुत ज़्यादा हद तक फ़िल्म में न्यायोचित तौर पर मिलते हैं और उसके आस-पास का माहौल थोड़ा नाटकीय लगता है. साथ फ़िल्म के लिए गए मित्र आदिल के अनुसार इंटरवल के 'पहले का हिस्सा फैक्चुअल और उसके बाद का हिस्सा फिक्शनल है', ये मेरी सहमति का एक और बिन्दु है जो फ़िल्म को शायद एक ही स्टेटमेंट में रेट करता है. "इश्किया" के बाद शायद ये अकेली महिला-प्रधान फ़िल्म है, मैं "इश्किया" को महिला-प्रधान फ़िल्म कहने से बचता हूँ क्योंकि यहाँ महिला से ज़्यादा महिला-चरित्र को फोकस किया गया है.


दिल्ली को केंद्र में रखकर एक फ़िल्म "दिल्ली-६" आई थी, लेकिन उस फ़िल्म के बारे में बातें करने के बजाय मैं पसंद करूंगा गानों के बारे में बात करना. किसी शहर के इर्द-गिर्द घूमती फ़िल्म द्वारा शहर को सैलानी-नज़रिए से दिखाने के बजाय शहर के अन्दर घुसकर दिखाना चाहिए, सफ़ेद/काले सभी पक्षों को सामने रखते हुए. दिल्ली में रह रहे लोग शायद इसे बखूबी समझते होंगे.


फ़िल्मों की समीक्षा करने के अलग-अलग तरीके हैं. क्या सभी फ़िल्मों को एक ही पैमाने पर रख कर तौला जा सकता है? बिलकुल नहीं.... "नो वन किल्ड जेसिका" को बस एक फ़िल्म की तरह तौलने के बजाय इसे सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखना ज़्यादा ज़रूरी है, लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं कि विचारों से फ़िल्म को दरकिनार कर समाज को जगह दी जाए. कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ हुए जनविद्रोह को शायद थोड़े और अच्छे तरीक़े से दिखाया जा सकता था, लेकिन इसे इतने हल्केपन में दिखाने की सफ़ाई राजकुमार गुप्ता ने "रंग दे बसंती" का रेफरेंस दे कर दे दी है. लेकिन इस फ़िल्म के साथ "रंग दे बसंती" का नाम भी लेने से बचना चाहिए क्योंकि वहाँ कथा के बजाय आमिर खान थे.


कुल मिलाकर फ़िल्म एक नए स्वाद की है, जिसे समझ पाना या समझा पाना मुश्किल है लेकिन कठिन भी नहीं. इसे देखिए, आशा है कि इस जाड़े में इससे बेहतर फ़िल्म का आ पाना नामुमकिन है. लेख का शीर्षक बस यूँ ही आया एक ख़्याल. एक अच्छी फ़िल्म के लिए युगान्तक और आदिल का आभारी.

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

उद्बोधन - १

("उद्बोधन" शीर्षक से बुद्धू-बक्सा पर एक नए स्तम्भ का आगाज़ हो रहा है, जिसके अन्तर्गत प्रेरणादायी और अपने हर आयाम से ज़रूरी वक्तव्यों का संकलन किया जाएगा. १९६३ में हावर्ड ज़िन हुक्मउदूली की वजह से स्पेलमैन कॉलेज से निकाल दिए गए, जहाँ वह इतिहास विभाग की एक पीठ पर थे. उन्होंने अपने उन छात्रों का पक्ष लिया था जिनके साथ वह नस्ली ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ चलाये जा रहे आन्दोलन में शामिल थे और जिन्होंने तभी यथास्थितिवादी कॉलेज प्रबंधन से विद्रोह किया था. मई २००५ में मानद उपाधि ग्रहण करने और दीक्षांत भाषण देने के लिए एक बार फिर उन्हें स्पेलमैन बुलाया गया. वहाँ पर उनके द्वारा दिए गए वक्तव्य में उन सभी समस्याओं का हल मिलता है जो हर छोटे से छोटे समय पर आवाम से जुड़ी हुई पाई जाती हैं, उन सभी निकृष्ट बातों से अलग, जिनके बिना किसी आवाम / देश की कल्पना करना असम्भव है. यह उसी भाषण का लिखित पाठ है. अंग्रेजी से अनुवाद व्योमेश शुक्ल. बुद्धू-बक्सा व्योमेश जी का आभारी है.)

निराशा के ख़िलाफ़

बयालीस साल बाद स्पेलमैन वापस बुलाये जाने से मैं गहराई से अभिनंदित हुआ हूँ. मैं संकाय और प्रबंध समिति के सदस्यों, ख़ास तौर से आपके अध्यक्ष बेवरली टेटम का, मुझे बुलाने का निर्णय लेने के लिए शुक्रगुज़ार हूँ. और डायहेन कैरोल और वर्जीनिया डेविस फ्लॅाएड के साथ यहाँ होना तो बहुत ख़ास है.


लेकिन ये आपका दिन है - आज स्नातक हो रहे छात्रों का. आप और आपके परिवारों के लिये ये ख़ुशी का दिन है. मैं जानता हूँ कि भविष्य के लिये आपके पास अपनी उम्मीदें होंगी, इसलिए, मेरे लिये यह बताना किंचित् पूर्वग्रहयुक्त होगा कि मुझे आपसे क्या उम्मीदें हैं, लेकिन ये बिल्कुल वही उम्मीदें हैं जो मुझे अपने नाती-पोतों से भी हैं,


मेरी पहली उम्मीद है कि इस समय की दुनिया के हालात देखकर आप ज्यादा निराश न हों. निराश होना बहुत आसान है क्योंकि हमारा देश युद्ध झेल रहा है, फिर से एक युद्ध, युद्ध के बाद युद्ध - और हमारी सरकार साम्राज्य विस्तार के लिये आमादा दिखाई दे रही है. इस देश में ग़रीबी है, बेघरी है, बग़ैर स्वास्थ्य के ज़िंदा लोग हैं, और ठूँस-ठूँस कर भरी हुई कक्षाएँ हैं, लेकिन हमारी सरकार, जिसके पास ख़र्च करने के लिये खरबों डालर हैं, अपनी निधियाँ युद्ध में ज़ाया कर रही है. अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका और मध्यपूर्व में करोड़ों लोगों को  मलेरिया और ट्यूबरकुलौसिस और एड्स का सामना करने के लिये साफ पानी और दवाओं की ज़रूरत है, लेकिन हमारी सरकार, जिसके पास हज़ारों की तादाद में नाभिकीय हथियार हैं, और ज़्यादा संहारक हथियारों पर प्रयोग कर रही है. हाँ, इन सबसे निराश होना आसान है.


लेकिन मुझे कहने दें कि जो कुछ अभी मैंने आपको ब्यौरेवार बताया, क्यों उससे आपको निराश नहीं होना चाहिए..


मैं आप सबको याद दिला दूँ कि पचास साल पहले यहाँ दक्षिण में नस्ली भेदभाव उतनी ही सख़्ती से डटा हुआ था जितना दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद. राष्ट्रीय सरकारें, केनेडी और जॉनसन जैसे उदार राष्ट्रपतियों के बावजूद अश्वेतों के पीटे जाने, मार डाले जाने, और मतदान से वंचित किये जाने के दौरान किसी अलग रास्ते की तलाश में ही थीं. इसलिए दक्षिण के अश्वेत लोगों ने ख़ुद ही कुछ करने का फैसला किया.


उन्होंने बहिष्कार किया, विरोध किया, धरने और प्रदर्षन किए और प्रताड़ित हुए और जेल चले गये और कहीं-कहीं मार भी डाले गए, लेकिन आज़ादी की उनकी आवाज़ें जल्द ही पूरे देश और पूरी दुनिया में सुनी गईं, तब राष्ट्रपति और कॉंग्रेस ने भी अंततः वही किया जिसे शुरुआत में कर पाने में वे असफल रहे थे - उन्होंने संविधान के चौदहवें और पन्द्रहवें संशोधन को लागू किया. अनेक लोगों ने कहा था- दक्षिण कभी नहीं बदलेगा. लेकिन वह बदला. वह बदला क्योंकि आम लोग संगठित हुए, जोख़िम उठाया और व्यवस्था को चुनौती दी और हटे नहीं. यों, लोकतंत्र जीवित हो उठा. मैं आपको यह भी याद दिलाना चाहता हूँ कि जब वियतनाम युद्ध चल रहा था, और युवा अमेरिकी मर रहे थे और विकलांग होकर घर लौट रहे थे और सरकार वियतनाम के गाँवों पर बम गिरा रही थी - स्कूलों और अस्पतालों पर बम गिरा रही थी और बड़ी संख्या में साधारण लोगों की जान ले रही थी - युद्ध रोकने की कोशिश नाउम्मीद हो गई थी. लेकिन दक्षिणी आन्दोलन की तरह, लोग विरोध करने लगे और जल्द ही उसे रुकना पड़ा. यह एक राष्ट्रीय आन्दोलन था. सैनिक वापस लौट रहे थे और युद्ध की भर्त्सना कर रहे थे और नौजवान सेना में शामिल होने से इंकार कर रहे थे और युद्ध को ख़त्म होना पड़ा.


इस इतिहास का सबक यही है कि ये कभी न भूलें कि अगर आप सही हैं और अड़े रहते हैं तो चीज़ें बदल जाएँगी. सरकार जनता को बहकाने की कोशिश कर सकती है, अख़बार और टेलीविज़न भी ऐसा कर सकते हैं, लेकिन सचाई के पास ज़ाहिर होने का रास्ता है. एक सच में हज़ार झूठों से ज़्यादा ताक़त होती है. मैं जानता हूँ कि आपके पास करने के लिए दुनियावी कामकाज हैं - नौकरी हासिल करना, विवाह करना और बच्चे पैदा करना. आप समृद्ध हो सकते हैं और उन मायनों में सफल भी, जिन मायनों में हमारा समाज सफलता को परिभाषित करता है, वैभव, आनबान और इज्ज़त के ज़रिये. लेकिन एक अच्छे जीवन के लिये इतना पर्याप्त नहीं है.


टॉल्सटाय की कहानी "इवान इलीच की मृत्यु" को याद कीजिए. मृत्युशय्या पर पड़ा एक आदमी अपनी ज़िंदगी पर निगाह डालता है, कैसे उसने सब कुछ किया, नियमों का पालन किया, न्यायाधीश बना, शादी की, बच्चे पैदा किए और सफल आदमी माना गया. फिर भी अपने अंतिम लम्हों में वह वैफल्य का अनुभव कर रहा है. मशहूर उपन्यासकार हो जाने के बाद ख़ुद टॉल्सटाय ने यह तय किया था कि इतना भर होना पर्याप्त नहीं है, और उन्हें रूसी प्रतिष्ठान के व्यवहारों के ख़िलाफ ज़रूर आवाज़ लगानी होगी, उन्हें युद्ध और सैन्यवाद के विरुद्ध ज़रूर लिखना होगा.


मेरी कामना है कि अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाने के लिए आप चाहे जो कुछ करें - आप अध्यापक बनें, या समाजसेवी, या उद्योगपति, या वकील या कवि या वैज्ञानिक - आपको इस दुनिया को अपने बच्चों की ख़ातिर अच्छा बनाने के लिए अपनी ज़िंदगी का एक हिस्सा लगाना होगा, दुनिया के सभी बच्चों के लिये. मुझे उम्मीद है कि आपकी पीढ़ी युद्ध के अंत की माँग करेगी, आपकी पीढ़ी ऐसा कुछ करेगी जो इतिहास में आजतक नहीं हुआ है और उन राष्ट्रीय सीमाओं को गिरा देगी जो इस पृथ्वी के अन्य मनुष्यों से हम लोगों को अलग-अलग कर देती है.


हाल ही में मैंने न्यूयॉर्क टाइम्स के मुखपृष्ठ पर एक तस्वीर देखी जिसे मैं अपने दिमाग़ से निकाल नहीं सकता. इसमे मेक्सिको से लगी हुई एरिज़ोना की दक्षिणी सीमा पर कुर्सियों पर आम अमेरिकी बैठे हुए थे. उनके पास बंदूकें थीं और वे उन मेक्सिकियों की ताक में थे जो सीमापार करके संयुक्त राज्य में घुसने की कोशिश करते. यह मेरे लिये भयावह था कि इक्कीसवीं सदी की इस कथित सभ्यता में हमने अपनी दुनिया के 200 नकली टुकड़े कर दिये हैं जिन्हें हम राष्ट्र कहते हैं, और हर उस आदमी को मार डालने के लिए तैयार बैठे हैं जो इनके बीच की सीमा के आर-पार जा रहा हो.


राष्ट्रवाद - यानी एक झण्डे के प्रति समर्पण, एक राष्ट्रगान के प्रति समर्पण, एक सरहद की इतनी विकरालता कि वो हमें हत्या के लिये उकसाए - क्या नस्लवाद, धार्मिक घृणा के साथ-साथ हमारे समय का जघन्यतम दुष्कृत्य नहीं है? सोचने के ऐसे तरीक़े बचपन से ही रोपे और सींचे जाते हैं और सिद्धान्त रूप में दिमाग़ में भर दिए जाते हैं, ये उनके लिये बहुत काम के होते हैं जो ताक़त में हैं और उनके लिए भीषण जो ताक़त के बाहर हैं.


यहाँ, संयुक्त राज्य में हम इस आस्था के साथ बड़े होते हैं कि हमारा देश दूसरों से भिन्न है, दुनिया में एक अपवाद है, अद्वितीय रूप से नैतिक है, कि हम सभ्यता, स्वतंत्रता, लोकतंत्र की स्थापना के लिए ही दूसरों की ज़मीन में घुस जाते हैं. लेकिन अगर आप थोड़ा भी इतिहास जानते हैं तो आप यह भी जानते हैं कि यह बात सच नहीं है. अगर आप थोड़ा भी इतिहास जानते हैं तो आप यह भी जानते हैं कि इस महाद्वीप में हमने मूलनिवासियों की हत्याएँ कीं, मेक्सिको पर चढ़ाइयाँ कीं, क्यूबा और फिलीपींस में सेनाएँ भेज दीं. हमने बड़ी तादाद में लोगों को मार डाला, और हमने उन्हें लोकतंत्र या आज़ादी कुछ भी नहीं दिया. हम लोकतंत्र लाने के लिए वियतनाम में नहीं घुसे थे, नशीले पदार्थों का धंधा ख़त्म करने के लिए हमने पनामा में घुसपैठ नहीं की थी, अफगानिस्तान और इराक में हम आतंकवाद से लड़ने नहीं गए थे. हमारे लक्ष्य वही थे जो विश्व इतिहास में दूसरे साम्राज्यों के रहे हैं - कार्पोरेशंस के लिए और ज़्यादा मुनाफा, राजनेताओं के लिए और ज़्यादा ताक़त.


लगता है कि हमारे बीच के कवियों और कलाकारों के पास राष्ट्रवाद के इस रोग की स्पष्टतर समझ है. ख़ास तौर से अश्वेत रचनाकार अमेरिकी ’आज़ादी’ और ’लोकतंत्र' के वरदानों से कम से कम अभिभूत हैं, उन लोगों ने इन वरदानों का कम से कम उपभोग किया है. मैं लांग्स्टन ह्यूज, जोर नील हर्सटन, रिचर्ड राइट और जेम्स बॅाल्डविन की बात कर रहा हूँ.


मैं द्वितीय विश्वयुद्ध का एक सेनानी रहा हूँ. वह एक ’अच्छा’ युद्ध माना जाता था, लेकिन मैं इस निष्कर्ष तक पहुँच गया हूँ कि युद्ध बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं हैं और सिर्फ़ दूसरे युद्धों को बढ़ावा देते हैं. युद्ध सिपाहियों के दिमागों को ज़हरीला बना देते हैं, उन्हें हत्या और अत्याचार के लिए उकसाते हैं और राष्ट्र की आत्मा में विष भर देते हैं.


मेरी कामना है कि आप अपने बच्चों के लिए एक युद्धहीन विश्व की माँग करें. अगर हम एक ऐसा संसार चाहते हैं जिसमे सभी देशों के लोग एकदूसरे के भाई-बहन हों, दुनिया के सभी बच्चे हमारे बच्चे हों - तब युद्ध - जिनमें हमेशा सबसे ज़्यादा बच्चे ही निशाना बनते हैं - को समश्याओं को सुलझाने का रास्ता नहीं माना जा सकेगा.


मैं १९५६ से १९६३ के बीच, सात सालों तक स्पेलमैन कॉलेज की फैकल्टी में था. वह एक गर्मजोशी से भरा हुआ दौर था क्योंकि उन सालों में हमने जो भी दोस्त बनाए वे बाद के सभी वर्षों में हमारे दोस्त रहे. मेरी पत्नी रोज़लीन, मैं और मेरे दो बच्चे कैंपस में ही रहते थे. जब कभी हम क़स्बे की ओर जाते, गोरे लोग हमसे पूछते थे -  ‘काले लोगों की जमात में रहना कैसा लगता है?’ बताना मुश्किल था. लेकिन हम ये जानते थे कि निचले अटलांटा में हमें लगता था कि हम किसी अनजानी जगह में हैं, और जब हम स्पेलमैन कैम्पस में वापस आए तो लगा कि घर में हैं. स्पेलमैन के वे साल मेरी ज़िंदगी के सबसे रोमांचक साल थे, और सर्वाधिक शिक्षाप्रद भी. मैंने अपने छात्रों को जितना सिखाया उससे कहीं ज़्यादा उनसे सीखा. वे दक्षिण में नस्ली ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ बीहड़ आन्दोलन के साल थे. और मैं उसमें शामिल हुआ, अटलांटा में, अल्बेनी में, जार्जिया में, सेल्मा, अल्बामा में, हैटिसबर्ग में, मिसिसिपी में, और ग्रीनवुड और इट्टा बेना और जैक्सन में. मैंने लोकतंत्र के बारे में सीखा, कि वह सरकार में से नहीं निकलता, ऊँचाईयों से नहीं आता, वह एकजुट होकर अन्याय के ख़िलाफ संघर्ष कर रहे लोगों से आता है. मैंने नस्ल के बारे में सीखा. मैंने सीखा कि कोई भी बुद्धिमान आदमी एक निश्चित बिंदु पर यह समझ जाता है कि नस्ल एक बनावटी चीज़ है, एक नकली चीज़, और अगर नस्ल मौजूद है (जैसा कार्नेल वेस्ट ने लिखा है) तो सिर्फ़ इसलिए कि कुछ लोग उसे मौजूद मानते हैं.  यों ही, राष्ट्रवाद भी एक कृत्रिम-सी वस्तु है. मैंने सीखा कि किस चीज़ का वाकई हमारे लिए मतलब है - कि जो भी तथाकथित नस्ल और राष्ट्रीयता है - वह इंसान हैं और उनके बीच का प्यार.


मैं ख़ुशनसीब हूँ कि मैं एक ऐसे दौर में स्पेलमैन में रहा जब मेरे छात्रों में ज़बर्दस्त क्रान्तिकारी बदलाव हो रहे थे और मैं उसे देख भी सका, वे छात्र जो बेहद नम्र थे, बेहद शान्त, और अचानक वे कैम्पस छोड़कर शहरों-क़स्बों की तरफ जा रहे थे, वहाँ उठ-बैठ रहे थे, गिरफ्तार हो रहे थे, और सम्पूर्ण ज्वाला और प्रतिकार के साथ जेलों से बाहर आ रहे थे. आप यह सबकुछ हैरी लेफेवर की क़िताब "अनडॅान्टेड बाइ द फाइट" में पढ़ सकते हैं. एक दिन मेरियन राइट (अब मेरियन राइट एडेलमैन), जो कॉलेज में मेरी छात्र थीं, और अटलांटा धरनों में सबसे पहले गिरफ्तार होने वालों में से एक, कैम्पस स्थित हमारे घर आईं, और उन्होंने हमें एक प्रतिवादपत्र दिखाया जिसे वे अपने हॉस्टल के बुलेटिन बोर्ड पर चिपकाने वाली थीं. उस प्रतिवादपत्र का शीर्षक स्पेलमैन में चल रहे रूपान्तरण के सारतत्व को व्यक्त कर रहा था. मेरियन ने पत्र के बिलकुल ऊपर लिखा था - जो लड़कियाँ धरना दे सकती हों, कृपया नीचे हस्ताक्षर करें.


मुझे उम्मीद है कि आप सिर्फ उस तरह सफल होकर संतुष्ट नहीं होंगे जिस तरह हमारा समाज सफलता की पैमाइश करता है, कि आप तब क़ायदे-कानूनों को नहीं मानेंगे जब वे अन्यायी हों, कि आप हिम्मत से पेश आएंगे जो मैं जानता हूँ कि आप में है. कुछ अद्भुत गोरे और काले लोग हमारे आदर्श हैं. अफ्रीकी अमेरिकियों से मेरा आशय कोंडोलीज़ा राइस, या कोलिन पॉवेल, या क्लैरेंस थामस से नहीं है. ये धनी और ताक़तवर लोगों के नौकर हो चुके हैं. मेरा मतलब डब्ल्यू, ई. बी. ड्युबाइस, मार्टिन लूथर किंग और मैल्कम, और मेरियन राइट एडेलमैन से है और जेम्स बॅाल्डविन और जोसेफिन बाकर सरीख़े अच्छे गोरे लोककवादियों ने भी शान्ति और न्याय के लिए प्रतिष्ठान का विरोध किया.


स्पेलमैन की मेरी एक और छात्रा एलिस वाकर, जो मेरियन की ही तरह इन सभी वर्षों में हमारी दोस्त रही हैं, एटंटन के एक बटाईदार किसान परिवार से आईं और एक मशहूर लेखिका हुईं. अपनी शुरूआती कविताओं में से एक में उन्होंने लिखा था :

ये सच है
मैंने हमेशा प्यार किया
हिम्मती लोगों को
काले नौजवान की तरह
जिसने कोशिश की
ढहा देने की
सारी बंदिशों को
अचानक,
जो चाहता था
तैरना
एक गोरे
समुद्र तट पर (अल्बामा के)
नग्न.


मैं आपको बहुत दूर चले जाने का मशविरा नहीं दे रहा हूँ, लेकिन आप निश्चित रूप से नस्ल और राष्ट्रवाद की बंदिशों को तोड़ने में मददगार हो सकते हैं. आप वह करें जो आप कर सकते हैं - आपको नायकोचित कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, बस कुछ न कुछ करते रहना है, उन दसियों लाख़ लोगों के साथ जों यों ही कुछ न कुछ कर रहे हैं, क्योंकि यही सब कुछ न कुछ, इतिहास के एक ख़ास बिंदु पर, एक साथ मिल जाते हैं और दुनिया को बेहतर बना देते हैं.

अद्वितीय अफ्रीकी अमेरिकी लेखिका जोरा नील हर्सटन, जिन्होंने वह सब नहीं किया जो गोरे लोग उनसे चाहते थे, जिन्होंने वह सब भी नहीं किया जो काले लोग उनसे चाहते थे, जो ख़ुदी पर डटी रहीं, हमें बताती हैं कि उनकी माँ ने एक बार उनसे कहा था- सूर्य के लिये छलांग लगाओ, हो सकता है कि तुम उस तक न पहुँच पाओ, लेकिन कम से कम तुम ज़मीन से ऊपर उठ जाओगी.

आज यहाँ होकर, आप ख़ुद ब ख़ुद अपने पंजों पर खड़े हैं, छलांग के लिए तैयार.

मेरी कामना आपके लिए एक बेहतर जीवन की है.


(पहल के अन्तिम अंक में प्रकाशित)

रविवार, 2 जनवरी 2011

ब्रेख्त और निर्मल वर्मा

नाटक ही तो है...
        ब्रेख्त के लिए महज़ यह काफ़ी नहीं है - वे इससे कहीं आगे जाते हैं. नाटक मंच पर खेलने की चीज़ नहीं,
वह जीने की सक्रिय कला है, हर परिचित, पुरानी चीज़ को नए सिरे से छूने की अपेक्षा है, ताकि हम उसे आज का, इस क्षण का धड़कता सत्य दे सकें. हक़ीक़त ही तो नाटक है....सिर्फ़ उसे समकालीन दृष्टि से पहचानने की आवश्यकता है.
  
समकालीन....यह शब्द आज काफ़ी विकृत हो चुका है. प्रायः उन सब लेखकों के लिए यह प्रयुक्त होता है जो आज जीवित हैं और लिख रहे हैं - अक्सर उनके लिए भी जो 'जीवित'' नहीं है और लिख रहे हैं.

उस रात 'टेरर ऐंड मिज़री' देखते हुए मैं पहली बार 'समकालीन' शब्द से परिचित हो पाया. यदि उसका कोई अर्थ है तो सिर्फ़ एक प्रयोग, जब आदमी के अस्तित्व की हर तह एक नए स्तर पर अप्रत्याशित अर्थ ग्रहण कर लेती है....जब बाह्य परिस्थिति एक बेडौल, विकृत छाया है (एक गूँगे दैत्य की मानिन्द), जो न कुछ कहती है, न हमारे सामने से हटती है, एक असह्य-सा दबाव, जिसे हर मनुष्य सोते-जागते अपने पर महसूस करता है. कुछ लेखक हैं, जो इस 'दैत्य' से मुक्ति पाने के लिए उसे अपने एक आत्मपरक प्रतीक में ढाल लेते हैं - तब 'बाह्य' इतना पराया, इतना डरावना नहीं रहता. काफ़्का, और एक दूसरे अर्थ में सार्त्र ऐसे ही लेखक हैं. यह एक रास्ता है, इस भयावह सुरंग से बाहर आने का - एक अमानवीय 'दैत्य' को निजी प्रतीक-द्वारा साधारण, औसत वास्तविकता में ढालने की प्रक्रिया.
 

ब्रेख्त भी यही करते हैं - किन्तु बिलकुल दूसरे ढंग से. 'बाह्य परिस्थिति' उनके लिए ऐतिहासिक है - सूक्ष्म अर्थ में नहीं - समय के हाड़-मांस ठोस पिंजर में आबद्ध, जिस सदी में हम जीते हैं, उसके सन्दर्भ में बेहद, इंटेंस राजनीतिक ! फासिज्म, बंदी-शिविर, नर-संहार....ये महज़ दीवार की छायाएँ नहीं, जिन्हें एक आत्मपरक प्रतीक दिया जा सके, क्योंकि ये स्वयं प्रतीक हैं, एक विघटन-प्रक्रिया के, जिसमें हम सब, अलग-अलग व्यक्ति की हैसियत से, शामिल हैं. यह आकस्मिक नहीं कि ब्रेख्त का नाटक देखते हुए अचानक एक ऐसा क्षण आता है, जब लगता है, जैसे थिएटर की दीवार के परे बरबस कुछ आवाज़ें भटक रहीं हैं, दरवाज़ा खटखटा रहा है - और हम - दर्शक और अभिनेता - समूचा मंच और 'एडिटोरियम' एक अजीब दबाव तले धँसने लगते हैं - सिर्फ़ एक उपाय है मुक्ति पाने का - हम बाहर निकल आएँ और इन 'आवाज़ों' के साक्षी हो सकें.

ब्रेख्त कम्युनिस्ट थे, क्योंकि उनके लिए कम्युनिस्ट होने के मानी बहुत सहज थे - समकालीन होना, दूसरे शब्दों में, अपने निजी घेरे के बाहर उन सब आवाज़ों का साक्षी होना, जो बीसवीं सदी के अँधेरे से टकराती हुई हमारे पास आती हैं.

 
 (निर्मल वर्मा के यात्रा-संस्मरण "चीड़ों पर चाँदनी" से लिया गया अंश. ब्रेख्त की फोटो "गूगल" से साभार)