गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

जब बात चली जंगल-जंगल

गुलज़ार और विशाल भारद्वाज, फ़िल्मों के लिए तो मैं इतना ख़ुश नहीं हूँ लेकिन निराशा कभी नहीं होती इनके संगीत के लिए. वे अच्छा रचते हैं और नया रचते हैं, जिसका तोड़ ख़ुद उनका अगला क़दम होता है.

समय तो याद नहीं, लेकिन मेरे लिए ये उस समय कौतूहल का विषय था कि चड्ढी पहनकर फूल कैसे खिल सकता है....फूल चड्ढी के आस-पास होगा या चड्ढी के ऊपर, लेकिन वह उगता होगा ज़रूर. मोगली, बघीरा, बालू और शेर खान सभी के रंगों में पीला रंग होता था. काले में पीला, भूरे में पीला, बैंगनी में पीला, हरे में पीला...लाल में भी पीला...पीले में पीला....वासंतिक पीला, इसलिए चड्ढी पहनने के परिणामस्वरूप खिलने वाला फूल हमेशा मेरी स्मृति में लाल होता था, पीले पर लाल...आह!

वहाँ चड्ढी और फूल का मिश्रण इतना अनूठा था कि बात समूचे जंगल में फ़ैल गई, उस जिज्ञासा की विराटता इतनी ज़्यादा थी कि ये निश्चित था, बात पूरे जंगल को पता चलेगी, बात जब पता चलती है तब भी चड्ढी के साथ फूल फ़िर से खिलता है, बात को आस-पास के सभी जंगलों में पहुंचाने के लिए. फूल दरअस्ल सपनों का था, आशाओं का था, प्रेम का था...समय का था, यौवन का था, संघर्ष का था, जिसे खिलाने के लिए कमर कसना पड़ता था....हाँ एकदम, चड्ढी पहनकर.

फूल जब खिलता था तो दूर-दूर तक हवाएँ बहती रही होंगी, उन हवाओं में फूल की महक रही होगी या उसके परागकण, जो अन्य चड्ढियों पर खिलाने को त्वरित करते होंगे. उन फूलों की महक में मोगली और जंगल वालों के सपने रहते थे....दुखी जीवों की मोगली से आशाएं थीं....एक न समझ सका जाने वाला प्रेम था, जिसमें कामुकता का उत्साह में परिवर्तन हो गया था....न ख़त्म होने वाला इंतज़ार था, जो कि अनिवार्य था और ख़त्म होने वाला इंतज़ार भी था, जिसके ख़त्म होते ही दुखों का नाश था.....उस महक में सभाएं थीं, जो जंगल के परेशान जानवर-चिड़िया-कीड़े किया करते थे....उसमें जवान होता मोगली था और साथ-साथ जवान होता उसका दुश्मन भी....उस संघर्ष का पता भी उसी महक में था जिसके ख़त्म होने से सारे कुछ का ख़त्म होना था....मोगली के बूमरैंग के सरसराहट भी उस महक में थी. नहीं, शायद उसी सरसराहट से हवा चलती हो, हाँ, मोगली के बड़े बालों का लहराना भी उस महक में शामिल था.

एक परिंदा शर्मिंदा भी था.....क्यों.....था वो नंगा? उसका नंगापन उसे सालता है, उसे जीवन भर नंगे रहने की अनिवार्यता का इल्म नहीं है...शायद ग़लती कर रहा है अपने को मानव मानने की...उसे पहले की तरह अंडे के खोल में रहना ज़्यादा तर्कसंगत लगता है...उसे पछताना पड़ रहा है. वह सोच में सोच रहा होगा शायद कि अंडे के भीतर वो ज़्यादा संतुष्ट था, लेकिन उसे क्या ये याद भी है कि उसने अंडे के भीतर कैसे जीवन गुजारा था...उस जीवन के लिए अपने आप को मंदित कर पाना उसके लिए दिक्कत का विषय होता होगा. उसे क्या व्यर्थ लगा था अपना आना...उसने अपने आने के जो ख़्वाब देखे थे...क्या वे अधूरे ही थे. पहाड़ी के अन्तिम छोर से मोगली और उसके साथियों द्वारा लगाई गई छलांग के अंत को लेकर मैं अब भी परेशान हूँ.

उन बांसुरी की धुनों के लिए कुछ कहना ज़रूरी नहीं है, वे अपना काम कर चुकी हैं, जिसके लिए उनकी ज़रूरत महसूस होती है - एक हरियाली के साथ सूर्योदय या एक जंगल का चित्रण. बांसुरी जंगल में पक्षियों के आधिक्य की द्योतक है, वे पक्षी जिनमें प्रेम के अलावा कोई भाव नहीं है, और यदि है, तो सदा के लिए सोया हुआ है. स्वरमंडल बहता हुआ पानी है...नाल/ ढोलक अपने शुद्धतम रूप में इस्तेमाल लाया गया है. बीच में गुजर जाने वाली जानवरों की आवाज़ें बच्चों के लिए ज़रूरी हैं, उस माहौल की स्थापना के लिए, जिसमें उन्हें रहना होता था. बच्चों की आवाज़ें एकदम सटीक सुर को साधती हुई आती हैं और जंगल को लाल-फूलों का घर बना जाती हैं. उस बच्चे की आवाज़ का मैं मुरीद हूँ, जिसकी घंटियाँ अभी फूट रही हैं और जो 'पहन' के 'प' पर एक यौवनात्मक ज़ोर देता हुआ गाता है.


इसे सिर्फ़ एक गीत की तरह लेना, किसी बच्चे के साथ किए गए कुकर्म के समान होगा, जिस क्षण हम इसे महज़ एक 'गीत' मान लेंगे, तो बचपन को मार डालेंगे. इसे एक आदत और नैतिक मूल्य के तौर पर लेना ज़्यादा ज़रूरी होगा.

ताज़ेपन के लिए नीचे है वीडियो.....इसका आनन्द उठाइये, कुछ और जोड़ने-तोड़ने का प्रयास कीजिए.....



 

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

दीवान - १ : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

चन्द रोज़ और मिरी जान !
  
चन्द रोज़ और मिरी जान! फ़क़त चन्द ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास है मा'
ज़ूर
हैं हम
जिस्म पर क़ैद है, जज़्बात पर ज़ंजीरें हैं
फ़िक्र महबूस है, गुफ़्तार पे ता'ज़ीरें हैं

अपनी हिम्मत है कि हम फ़िर भी जिये जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैवन्द लगे जाते हैं
लेकिन अब ज़ुल्म की मीआद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र, कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं

अ'र्सए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में
हमको रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बे-नाम गराँबार सितम
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है


ये तिरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दो-रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बे-सूद तड़प, जिस्म की मायूस पुकार 

चन्द रोज़ और मिरी जान ! फ़क़त चंद ही रोज़ !
 
[अजदाद = पूर्वज, मा'ज़ूर = मजबूर, महबूस = बंदी, अ'र्सए-दहर = संसार का मैदान, गराँबार = बोझिल, आलाम = दुःख ]

(फ़ैज़ की ये नज़्म नक़्शे-फ़रियादी से, इसी के साथ बुद्धू-बक्सा पर शायरी के स्तम्भ "दीवान" की शुरुआत हुई है, ये कहने की बात नहीं कि यहाँ पर उन शायरों को पढ़ा जाएगा, जिनका होना आज की हिन्दी कविता को भाषा और शिल्प, दोनों ही माध्यमों में अलंकृत करता है. फ़ैज़ उन शायरों की कड़ी से एक हैं. भाषा पर फ़ैज़ का जो प्रभाव रहा है, उससे कतई इनकार नहीं किया जा सकता है. फ़ैज़ की शायरी में इश्क़ और आन्दोलन का जो मिश्रित रूप मिलता है, वह अपने में अनूठा है. बुद्धू-बक्सा पर फ़ैज़ दूसरी दफ़ा)