रविवार, 22 मई 2011

श्रम, नैतिकता और अनंतता....




सत्य क्या है? और सत्य की अवधारणा? चूँकि किसी सर्वव्याप्त, अतिमानवीय, वस्तुनिष्ठ शब्दावली में इसके वजन का कोई शब्द नहीं है, इसे मानवीय ही होना चाहिए.

और जबकि यह मनुष्य है, तो यह सीमित, पूर्ण रूप से क़ैद में है, अगर मानवीय संदर्भों में बात की जाय तो यह मानवीय-वातावरण के खांचों भीतर ही है. मनुष्य और सौन्दर्य/ अलंकार के बीच कोई कल्पित सम्बन्ध नहीं है, और यही सत्य पर भी लागू होता है. अपनी ही सीमाओं के भीतर रहकर महानता प्राप्त करना - जो कि यूक्लीडियन है और अनंत के साथ बहुत अल्प मेल्य हैं - यह दिखाना होता है कि हम सिर्फ़ मनुष्य हैं. व्यर्थ और मूल्यहीन है वह हर कोई, जो आत्मा की महानता के शिखर तक नहीं पहुँच पाता, एक लोमड़ी या एक मैदानी-चूहे जितना. शक्ति-संपन्न क्या है, इसका जवाब देने के लिए धर्म जैसे  क्षेत्र का निर्धारण मानव ने किया. लेकिन अगर लाओ-त्जू की सुनें तो "इस संसार की सर्व-शक्तिमान संस्था/ वस्तु को न तो देखा जा सकता है, न तो सुना और न ही छुआ जा सकता है."

अनंत नियमों के बर्ताव से या हमारी पहुँच के बाहर बसने वाले अनंतता के नियमों से ईश्वर स्थापित होता है, न हो पाने की संभावना के साथ. इन्हीं 'पहुँच से बाहर रहने वाली चीज़ों' के सारतत्व को न पकड़ पाने वाले मनुष्य के लिए, ईश्वर वही अनजान और न जाने जा सकने वाली संभावना से भरी कोई संस्था है. नैतिक और व्यावहारिक शब्दों में - ईश्वर प्रेम है.

दूसरों के जीवन को बिगाड़े बग़ैर जीवन को जीने के लिए मनुष्य के पास एक आदर्श होना चाहिए. आदर्श - नियमों की दार्शनिक, नैतिक और आध्यात्मिक अवधारणा. 

नैतिकता व्यक्ति के अन्दर ही निहित होती है. अक्सर नैतिकता के स्थान पर विचारों में छिछले तौर पर उपस्थित नैतिक-बोध को तरज़ीह दी जाती रही है. नैतिक-मूल्यों के स्थान का सम्भव हो पाना, नैतिकता की अनुपस्थिति में ही होता है....यह दीवालियेपन, खोखलेपन और मूल्यहीनता का द्योतक है. अग़र नैतिकता उपस्थित हो, तो उस बोध/मूल्य की ज़रूरत नहीं होती. 

आदर्श पहुँच के बाहर होते हैं और इनके द्वारा इस तथ्यपरक सिद्धान्त को समझे जाने में मानव सभ्यता की महानता निहित है. 

किसी पहुँच के भीतर रहने वाली वस्तु को प्रस्तुत करने की कोशिश और विशेषकर आदर्शों के विकृत करने वाले बहानों के सहज बोध, पागलपन के रास्ते दिखलाते हैं. 

मनुष्य एक दूसरे से दूर जा चुका है. पहले यह देखा जा सकता था कि एक सामूहिक या सार्वजनिक कारण एक समाज का आधार हो सकता है, लेकिन यह एक भ्रम के अलावा कुछ नहीं था. लोग पिछले पचास सालों से झूठ और पाखण्ड से चोरी कर रहे और खेल रहे हैं, एक एकाकी विचारधारा और लक्ष्य को पाने के लिए वही एकता भरी युक्ति, लेकिन समाज अनुपस्थित. लोगों में एकता का प्रवाह तभी मुमकिन हो सकता है जब उस युक्ति का आधार नैतिकता हो और, निश्चय ही, उसका होना आदर्श के प्रभाव-क्षेत्र के भीतर हो.

यही कारण है कि श्रम का स्थान कभी ऊंचा नहीं हो पाया, साथ ही साथ यही 'तकनीकी विकास' के होने का कारण है. अग़र श्रम एक नैतिक आधार होता, एक पराक्रम की तरह, तो उन्नति का रुख़ प्रतिक्रियात्मक होता, जो कि निरर्थक होता. 

लिओ टॉल्सटॉय का कहना है - यह दावा करने के लिए कि श्रम एक गुण है, एक बड़ी विकृति को तरज़ीह देना है जहाँ यह मनुष्य के आहार को गुण और नैतिकता के समान बनाने जैसा होगा.

वह जूते सीना चाह और बिलकुल ही अलग कारण के लिए हल चलाना चाह रहा था : एक ख़ास आवेग के साथ वह अपने मांस का अनुभव करने के लिए - जो कि एक गायक का मांस था. 

अग़र न पकड़ में आ सकने वाले को पकड़ना नामुमकिन है, ईश्वर के सन्दर्भ से अलग, मनुष्य ने उसके होने को किसी भी तरह प्रामाणिक करार नहीं दिया.

अध्यात्म, दर्शन और कला - ये तीन स्तम्भ जिन पर विश्व स्थापित है - प्रतीकात्मक तौर पर अनंतता के विचार को संकुचित करने के लिए बनाए गए, लेकिन साथ ही साथ इनकी ख़ुद की उपलब्धता के प्रतीक के विरोध में(जो कि सही अर्थों में असम्भव है). मानव जाति ने इतने बड़े स्तर पर इसके अलावा कुछ नहीं पाया. स्वीकारोक्ति के साथ मनुष्य ने इसे बस नैसर्गिक आधार पर पा लिया, यह जाने बिना कि उसे ईश्वर(आसान यह रास्ता) या दर्शन(सारे कुछ का अर्थ, ज़िन्दगी तक का भी) या कला(नश्वरता) की ज़रूरत क्यों है.

यह कैसा प्रेरित विचार है जो कि अनंतता का विचार है और मनुष्य के अल्पकालिक जीवन के साथ रखा जा सकता है. सबसे विराट अवधारणा अनंत है. ऐसा नहीं है कि मनुष्य के इस सारी निर्मिति का मानदंड होने से मैं सहमत हूँ. पौधे भी तो हैं? यहाँ तो कोई मानदंड नहीं है. या यह शायद हर जगह उपस्थित हैं - ब्रह्माण्ड के हर छोटे से छोटे कण में भी. यह मनुष्य के लिए बहुत अच्छा नहीं होता; ऐसी बहुत-सी चीज़ें हैं जिन्हें उसे छोड़ना पड़ता; प्रकृति को उसकी ज़रूरत नहीं होती. कम से कम पृथ्वी पर तो मनुष्य को इसका आभास तो हो ही गया है कि वह अनंत के सम्मुख है. 

या हो सकता है कि यह सिर्फ़ एक गड़बड़ी हो? सब कुछ के बाद भी कोई ये नहीं सिद्ध कर सकता कि इसका कोई मतलब है. निश्चय ही, दूसरे अर्थों में यदि कोई इसे सिद्ध करने का प्रयास करता(प्राकृतिक तौर पर अपने लिए) तो वह अपना आपा खो बैठता. उसकी ज़िन्दगी निरर्थक हो जाती.

एचजी वेल्स अपनी कहानी "द एप्पल" में बताते हैं कि कैसे लोग ज्ञान के पेड़ से लेकर सेब खाने में डरते थे. यह एक महान विचार है.

बिना किसी ख़ास मतलब के मैं आश्वस्त हूँ कि मृत्यु के बाद कुछ नहीं होगा, एक शून्य होगा और जैसा कि चालाक लोग हमें भरोसा दिलाते हैं कि वहाँ एक स्वप्नहीन नींद होगी. किसी के भी पास उस तरह की स्वप्नहीन नींद नहीं है - जैसे कि एक व्यक्ति जब सो जाता है(जो उसे याद रहता है) और फ़िर जाग जाता है(यह भी उसे याद रहता है) लेकिन उसे यह कतई याद नहीं रहता कि उस दरम्यान क्या-क्या हुआ था - कुछ तो हुआ था, लेकिन उसे याद ही नहीं रहता कि क्या...

निश्चय ही जीवन में कोई ख़ास बिन्दु नहीं है...यदि वह बिन्दु होता, तो मनुष्य कभी स्वतंत्र नहीं होता, वह उस बिन्दु-विशेष का दास हो जाता और उसका जीवन बिलकुल ही नए मापदंड से निर्धारित होता, और यह दासता का मापदंड होता. एक जानवर की तरह, जिसके जीवन का बिन्दु उसका जीवन ही है, मनुष्य भी जातीय-निरंतरता का शिकार हो जाता. 

एक जानवर अपनी दास-क्रियाएं वहाँ करता है क्योंकि उसे जीवन के उस बिन्दु का आभास है. इसीलिए उसके चारों तरफ़ का स्पेस बंधा हुआ है. दूसरी तरफ़ मनुष्य सम्पूर्णता की ख़्वाहिश के साथ होने का दावा करता है.. 

(महान रूसी फिल्मकार आन्द्रेइ तार्कोव्स्की की डायरी "टाइम विदइन टाइम" का अंश. तार्कोव्स्की की डायरी पढ़ते वक़्त कभी नहीं लगता कि आप कुछ कठिन चीज़ों को अपने ज़ेहन में उतार रहे हैं. ये बातें हमेशा धर्म और ईश्वर की आवश्यकता, दर्शन और कला की ज़रूरत और उनसे जुड़े हुए मानवीय आयामों के सन्दर्भ में होती हैं. अनुवाद : सिद्धान्त मोहन तिवारी)

सोमवार, 16 मई 2011

रहमान व मोत्ज़ार्ट के बहाने कुछ बेसुरा-बेताल

गीत चतुर्वेदी


एआर रहमान फिल्मों को ध्यान में रखकर धुनें नहीं बनाते। वे धुनें बनाते रहते हैं, क्योंकि वे किसी भी समय उनके पास आ जाती हैं। उन्हें वे अपने पास सुरक्षित रखते हैं। जब किसी निर्माता या निर्देशक को अपनी फिल्म के लिए धुनों की जरूरत होती है, तो रहमान उसे वे धुनें मेल कर देते हैं। निर्देशक अपनी पसंद की धुनें बता देता है और फिर रहमान उस धुन को अलग-अलग तरीक़ों से विकसित करते हैं। ‘युवराज’ के लिए सुभाष घई ने वैसी ही धुनें मांगी थीं और उन्होंने जो धुनें रिजेक्ट कीं, उन्हें रहमान ने एक दूसरे निर्देशक को भेज दिया। उस दूसरे निर्देशक को एक धुन बहुत पसंद आई। उस पर गाना बनाया गया और उस गाने को ऑस्कंर मिला। वह धुन थी ‘जय हो...’ और निर्देशक थे डैनी बॉयल।

ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, जिनसे यह देखने में आता है कि अच्छी चीजों को शुरुआत में रिजेक्शन झेलना ही होता है। चाहे वह बड़ा कलाकार हो, या बड़ा वैज्ञानिक, हर कोई शुरू में उपेक्षित रहा और उसका सबसे बड़ा संघर्ष इसी उपेक्षा को खत्म कर अपनी लियाक़त साबित करने का रहा। रहमान के संदर्भ में हमेशा मुझे मोत्जार्ट याद आता है। रहमान एकाध बार रिजेक्ट जरूर हुए हों, पर वह उपेक्षित तो नहीं ही रहे। बचपन में एक समय जब उनके पास म्यूजिक मिक्सर खरीदने के पैसे नहीं थे, तो उनकी मां ने बहनों की शादी के लिए जमा रखे गहने बेचकर उन्हें खरीद दिया। उनकी मां को इतना भरोसा था कि उनका बेटा ऐसे कई गहने खरीद लेगा बाद के बरसों में। उसके बाद रहमान को किसी बड़े आर्थिक संकट से नहीं जूझना पड़ा था। वह पहले पार्ट टाइम और बाद में फुल टाइम कई लोगों के सहायक रहे। संघर्ष व गुमनामी के दिनों में भी उनके पास वे कारें रहीं, जिन्हें दूसरे मध्यवर्गीय लोग अच्छी तनख्वाह और अघा देने वाली फुटकर सफलताओं के बाद हासिल कर गौरवान्वित होते हैं। 'रोजा' के बाद एक भी मौक़ा ऐसा नहीं आया, जब रहमान को ख़ुद को साबित करने की ज़रूरत पड़ी हो। ख़ुद उनका मानना है कि रोजा के पहले और बाद में सिर्फ यह फ़र्क़ आया था कि पहले ज्यादातर लोग मेरी बात को तवज्जो नहीं देते थे, बाद में देने लगे।

जीनियसों के जीवन के संघर्ष एक जैसे नहीं होते, हालात एक जैसे नहीं होते। कोई चीज़ एक जैसी होती है, तो वह है अपनी कला के प्रति समर्पण, पुराने के प्रति प्रेम और नये की खोज का जुनून।

उनकी अपनी सांगीतिक शख्सियत की बुनावट बहुत हद तक पश्चिमी हैं। उनमें जितना पूरब का सूत है, उतना ही पश्चिम का ऊन है। उत्तर का रेशम और दक्षिण की नारियल-जटाएं हैं। वह आज के उन विरले कलाकारों में हैं, जो किसी एक सांस्कृ।तिक जड़ से अपना पोषण नहीं पाते, बल्कि वह एक साथ कई संस्कृकतियों से जीवद्रव्य प्राप्त करते हैं। इसीलिए उनको सुनते हुए जितना केरल के खेत याद आते हैं, उतना ही यूरोप का  शास्त्रीय संगीत।

इसीलिए अगर रहमान से मोत्जार्ट झलकता हो, तो गुरेज नहीं होना चाहिए। हालांकि रहमान को उनके जीते-जी जितनी सफलता मिल गई है, उतनी मोत्जार्ट को मिल गई होती, तो शायद वह ज्यादा जिंदा रहते, और बड़ी रचनाएं करते और हम सिंफनी के पांचवें हिस्से की सुंदरताओं और शास्त्रीयताओं को बेहतर समझ पाते। मोत्जार्ट उन शुरुआती लोगों में से थे, जो सिंफनी के पांचवें चरण पर काम कर रहे थे और उसे लेकर बहुत महत्वाकांक्षी थे, लेकिन गरीबी और छोटी जिंदगी ने उन्हें मोहलत न दी। बाद में कमोबेश बीथोफ़न ने इसमें कुछ जोड़ा।

वह सारी उम्र उन लोगों द्वारा मिली उपेक्षाओं से लड़ते रहे, जो उनके संगीत के नाखून बराबर भी नहीं थे। आज हम यह बात आसानी से कह सकते हैं कि मोत्जार्ट उन सबसे बड़े थे, पर उस जमाने में यह बात बहुत खुलकर नहीं कही जाती थी। उनकी निंदा करने वाले, समय-समय पर उन्हें अपमानों और साजिशों में फंसा देने वालों का पूरा एक गिरोह था। आपका दुश्मन ही सबसे अच्छी तरह जान रहा होता है कि आपमें कितने गुण हैं और आपकी सर्वश्रेष्ठ योग्यता क्या है। उसी हिसाब से वह आपके लिए जाल बुनता है। मोत्जार्ट जीनियस थे। जीनियस को मिला सबसे बड़ा अभिशाप होता है कि वह ताउम्र मिडीयॉकरों से लड़ता रहे। हर युग में ऐसा होता है।

एक समय ऐसा था, जब मोत्जार्ट के संगीत से पहले उनकी हंसी की गूंज लोगों तक पहुंचती थी। जब वह हंसते थे, तो लोग उन पर हंसते थे। वह राजपरिवारों की नफ़ासत भरी हंसी नहीं थी, वह एक उजड्ड उन्मुक्त बचपने की हंसी थी। जीनियस कभी अपने बचपने से बाहर नहीं आ पाता। नफ़ासत और संजीदगी मिडियॉक्रिटी का मुखौटा होते हैं। मोत्जार्ट अपने संगीत में बहुत संजीदा थे। उनके नोट्स में आप एक असफल हरकत खोज सकते हैं, लेकिन एक भी हल्कीा हरकत नहीं खोज सकते। एक ही पीस में वह दस इम्प्रोवाइजेशन कर सकते थे और वे सभी परफेक्ट की श्रेणी में होते थे। लेकिन जब आप निजी तौर पर उनसे मिलते, तो वह एक मज़ाकि़या, उन्मुक्त और शालीनताओं से लगभग बेपरवाह शख़्स थे। उनके पिता भी उनकी इन हरकतों को उनका बचपना मानते थे। महानता बंद मुट्ठियों की चीज़ होती है। जब आप किसी के सामने मनुष्य की तरह खुल जाते हैं, तो आप वैसे ही होते हैं- एकदम बच्चे। मोत्जार्ट जैसे बच्चे। मिडियॉकर भी हमेशा अपने लिए एक बंद मुट्ठी रखते हैं, पर वह कभी किसी के सामने खुलती ही नहीं। वह महानता की मुट्ठी नहीं होती। महानता की मुट्ठी खुलने के लिए कुछ लोगों का ख़ुद चुनाव कर लेती है,  जैसे पर्सीफ़ोनी दफ़न हो जाने को अपने लिए ज़मीन का चुनाव ख़ुद करती है.

जब आइंस्टीन, मोत्ज़ार्ट पर सबसे चर्चित किताब लिख रहे थे, तो उनका मानना था कि उनके संगीत की सारी पवित्रता इसी कारण है कि उनका स्वभाव ईश्वरीय शिशुओं की तरह था- निर्द्वंद्व, बेख़ौफ़ और अन्-आतंकित। वह किसी से ख़ौफ़ नहीं खा सकते थे। दूसरे का ख़ौफ़ रचनात्मकता का सबसे बड़ा शत्रु है। जब वह बाख़ के नोट्स की किताब खोजने के लिए दुकानों में भटकते थे, तब भी बाख़ उनके लिए कोई आतंक नहीं थे। वह हायडन का जितना सम्मान अपने भीतर कर सकते थे, उनके संगीत की नक़ल बनाकर उतना ही मख़ौल भी कर सकते थे। यह सब उनकी गर्वीली पवित्रताएं थीं। आदि शंकराचार्य ने 'अपराधक्षमास्तोत्र' में इसे ‘नैतच्छठत्वं...’ कहा है। यानी एक ऐसी बालसुलभ शठता, जिसमें बालक अपनी ही जननी से परिहास करता है। मोत्ज़ार्ट की जननी संगीत थी, संगीत की स्मृति थी। वह इन्हीं स्मृतियों से शठता करते-करते संगीत करते थे।

नवंबर 1775 में मोत्जार्ट ने एक ख़त में अपने पिता को लिखा था- 'जब मैं हंसता हूं, तब वे मुझ पर हंसते हैं। जब मैं पियानो पर बैठता हूं, तब वे भावहीन हो जाते हैं।'

उनके समय के संगीतकारों को लगता था कि वह जान-बूझकर इस तरह हंसते हैं, ताकि आसपास मौजूद लोगों को हंसने के उनके आनंद से ज्यादा इस बात का भान हो कि वह हंसी दूसरों का मज़ाक़ उड़ाने के लिए निकली है। मोत्जार्ट के समकालीन और अब लगभग विस्मृत संगीतकार सालिएरी को बहाना बनाकर पुश्किन जो नाटक लिखा था और जिस पर पीटर शैफ़र ने 'अमैदियस' बनाई, उसके आखिरी दृश्य में सालिएरी कहता है, ‘तुम मुझ पर हंसो, खुलकर हंसो। इस तरह हंसो कि मुझे अपनी मिडियॉक्रिटी का अहसास हो जाए। पर एक दिन मैं तुम पर हंसूंगा, ज़ोर-ज़ोर से हंसूंगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। आखि़री हंसी तो अमैदियस की ही रही।’

आखि़री हंसी या 'द लास्ट लाफ़' अंग्रेजी का मुहावरा है, अंतिम विजय की घोषणा करता हुआ।

मोत्जार्ट की जिस सिंफनी का एक हिस्सा आज उनकी सिग्नेचर ट्यून की तरह बजता है, टाइटन के विज्ञापन में भी, उस 25 नंबर सिंफनी को ऑस्ट्रिया के राजा ने पांच बार रिजेक्ट किया था और आखिरी रिजेक्शन ने मोत्जार्ट को गहरे और जानलेवा आर्थिक-मानसिक-संकट में डाल दिया था।


(इस लेख के सन्दर्भ में गीत चतुर्वेदी का कहना है - "दोनों की कोई तुलना नहीं है, बस फर्स्‍ट हैंड इंप्रेशन्‍स हैं, नोट्स की शक्‍ल में". और हम सब भी यह अच्छे से जानते हैं कि रहमान और मोत्ज़ार्ट में सिर्फ़ संगीत को आधार बनाकर कोई मिलाप कराना एक कठिन काम है. लेकिन एक समाज द्वारा संगीत/संगीतकार को आड़े हाथों लिया जाना, और फ़िर इसी तिरस्कार से लोगों को आईना दिखाने लायक़ संगीत निकाल लाना, कहीं न कहीं दोनों को एक ही साथ रखता है. ऐसी अनूठी नज़र के लिए बुद्धू-बक्सा गीत चतुर्वेदी का आभारी रहेगा)

गुरुवार, 5 मई 2011

कंधार...सफ़र का सफ़र


हमें कला - ख़ासकर फ़िल्मों के सन्दर्भ में - ईरान का आजीवन ऋणी रहना होगा, ये बात तो है कि अच्छी फ़िल्में दुनिया भर में बनती हैं, लेकिन उनका विषय इतना बड़ा और व्याप्त होता है कि वे कई फ़िल्म-फिल्मकारों को पीछे रख, वाहवाही बटोरती हैं. जब फ़िल्म में विषय एकदम ज़मीन से जुड़े हुए और किसी बड़ी चीज़ से सम्बन्ध रखते हुए नहीं होते हैं, तब उस फ़िल्म को ईरानियन-सिनेमा का हिस्सा कहा जा सकता है, भले ही कोई भी देश न क्यों न हो. कम संसाधनों, ज़्यादा ज़रूरतों, और उससे भी विराट महत्वाकांक्षाओं से लबरेज़ फ़िल्में इस ज़मीन की ख़ूबियों में से एक है. माजिद मजीदी, ज़फर पनाही और मोहसिन माखमलबाफ़ जैसे नाम यहाँ उल्लेखनीय हैं.

तो,
मोहसिन माखमलबाफ़ के पिटारे से साल २००१ में आई थी यह फ़िल्म, नाम कंधार...फ़िल्म में कंधार कोई जगह नहीं है, न ही कोई समय....फ़िल्म में यह एक 'अभीष्ट' है, जिस तक पहुँचने में अफगानिस्तान की सारी दिक्कतें उभरकर सामने आती हैं, वह दिक्कतें बहुत बड़ी तो नहीं, लेकिन छोटी भी नहीं हैं. फ़िल्म, कहानी के नहीं बल्कि बुर्क़े के इर्द-गिर्द घूमती है.

नफ़स
, एक ख़ूबसूरत लड़की, जिन्हें शायद एक ख़त मिला अपनी बहन का और वह भाग आईं दूर कनाडा से अफ़गानी सरज़मीं पर...क्योंकि उन्हें डर है ग्रहण के दिन अपनी बहन को खो देने का. एक तरफ़ जहाँ समूचा देश युद्ध से भागा-भागा फ़िर रहा है....लोकतंत्र-जनतंत्र एकदम कमज़ोर है...मुजाहिद्दीन समाज का एक हिस्सा बन चुके हैं...जहाँ उन्हें 'पेट्रोल' कहा जाता है, जो कभी-कभी पेट्रोल नहीं होते तो लुटेरे होते हैं...गाड़ी, कपडा, चूड़ियाँ और लत्ते सब छीन कर निकल लेते हैं, वहीँ दूसरी तरफ़ अपनी नफ़स हैं, जो इन सब के दरम्यान एक रिकॉर्डर, जो उनके शब्दों में उनका 'ब्लैक बॉक्स' है, लेकर चलती हैं, जिसमें सारे लोगों और सारी बातों का घर होता रहता है.

ये घर
ख़ाक का भी है, जिसे अपनी नफ़स से अजीब-सा स्नेह हो गया है...वह हमेशा उन्हें एक कंकाल से उतारी अंगूठी बेचना चाहता है, जिसका रंग शायद उनकी आँखों से मिलता है. ख़ाक मदरसे से निकाल दिया गया एक विद्यार्थी है, जो क़ुरान को आयतों को बाक़ायदा उच्चारित नहीं कर सका, बदमाश बच्चा सिर्फ़ उसकी धुन को गा रहा है, उसे कम मतलब है कि उसके साथ के बच्चे कलाश्निकोव और शमशीर के गुणों और उनके इस्तेमाल के बारे में क्या-कितना जानते हैं? हिलते वक़्त उसकी पीठ दुखती है और उसे मना करने में कोई डर भी नहीं है, कि मुझे नहीं हिलना. बच्चा पैसे उगाहने वाला है, उसे पचास हज़ार अफ़गानी और पचास हज़ार डॉलर में अंतर नहीं पता, गाना सुनाने तक के वह एक-एक डॉलर ले लेता है, अंगूठी का भी एक डॉलर.

कहानी की शुरुआत से सारथी बदलते रहते हैं, यात्री एक ही रहता है, रास्ता भी एक, कंधार भी एक. पहले आता है पायलट, फ़िर वह इंसान जो नफ़स को अगले शादीशुदा और भविष्य में लुटने वाले सारथी की पत्नी बनाता है, फ़िर ख़ाक, फ़िर एक अभिनेता जो एक डॉक्टर नहीं है और 'ब्लैक अमेरिकन' है, फ़िर यू.एन.ओ. के सहायता शिविरों से टांगें लेकर....शायद...उन्हें बेचने वाला लूला अफ़गान. नफ़स का किरदार सभी के साथ सहज है, उनके साथ को आत्मसात करती हुई वह सफ़र में आगे की राह देख़ रही है.


'पेट्रोल' द्वारा अन्तिम सारथी के बारात में अवैध ढंग से घुसने के बाद पकड़ा जाने पर, वह अपना 'ब्लैक बॉक्स' लिए कंधार का सूरज देखती है. सबसे ज़रूरी यह है कि फ़िल्म कहीं बोझिल नहीं होती, जैसा अमूमन अफगानिस्तान पर बनी फ़िल्मों के साथ होता आया है, इन फ़िल्मों के झुण्ड में इतना कूड़ा कुछ 'अति-महत्वाकांक्षी' निर्देशक जोड़ देते हैं, जहाँ साँस लेने और किसी किरदार से प्रेम करने तक का स्पेस नहीं रह पाता. अगर कहानी के स्रोत को कुछ देर के लिए दरकिनार कर दें, तो फ़िल्म में जो कुछ भी दिखाया गया है वह अब तक की 'ऑन-स्क्रीन हक़ीक़त' से अलग है. माइन्स से पैर-हाथ गँवा चुके लोग हमेशा नए पैरों के लिए न्यूनतम एक साल इंतज़ार करते हैं, और हर बार उन्हें मुजाहिद्दीन नहीं होने का भरोसा देना होता है. अभी तक फ़िल्मों के माध्यम से हम लोग जेहाद को जिस तरह से लेते आए थे, यह उससे ज़रूर कुछ अलग है.


आसमाँ से गिराए जा रहे 'परमानेंट' पैर किसी इंसान के माफ़िक गिरकर, दरख्तों से टकराते हैं और किसी सुपर-नैचुरल तरीक़े से माइन्स धमाकों में लंगड़े हुए लोग उन पैरों की ओर भागते हैं......जब तक ऐसे कलात्मक विचार हमारे जेहन में आते हैं, तब तक काफ़ी देर हो चुकी रहती है और कुछ और नया सोचने के बजाय हम पुराने पर ही घिसटने लगते हैं.


नफ़स के किरदार में
निलोफर पाज़िरा हैं, जो बचपन में कनाडा स्थानांतरित हो गईं थी और सच में बहन के ख़त के बाद - जिसमें इक्कीसवीं सदी के पूर्ण ग्रहण को आत्महत्या करने की बात थी - वे कनाडा से अफगानिस्तान चली आई थीं, और कुछ-कुछ इन्हीं तरीक़ों से कंधार पहुँचती हैं. अधिकतर फिल्मांकन ईरान में हुआ था और कुछ अफगानिस्तान में, निआतक शरणार्थी शिविर में चोरी-छिपे किया गया था. इस फ़िल्म के लिए माखमलबाफ़ को यूनेस्को द्वारा फ्रेदेरीको फेलिनी पुरस्कार दिया गया. फ़िल्म के तथ्यों को ज़्यादा घसीट नहीं सकता, क्योंकि यह आत्मकथात्मक किस्म की फ़िल्म है, लेकिन सिनेमैटोग्राफी के क्षेत्र में इस फ़िल्म का कोई सानी नहीं.

फ़िल्म का संगीत शुद्ध हिन्दुस्तानी-शास्त्रीय है, कुछ-कुछ जगहों पर अफ़गानी टच देखने में मिलता है, बहरहाल, फ़िल्म का संगीत है तो
मोहम्मद रेज़ा दरविशी हैं.

एक बार फ़िर से सोचने की ज़रूरत है कि इतना परिपूर्ण होने के बाद भी हम क्यों नहीं अपने सोच का दायरा भूत, प्रेम, रोमांस, जातिवाद और दंगों से आगे बढ़ा पा रहे हैं. मैं ये नहीं कहता कि इन पर फ़िल्म बनाना ग़लत है, लेकिन एक ख़ास विषय पर आदि से अंत तक टिके रहना कहाँ की समझदारी है.... इस फ़िल्म को देखें और सोचें कि इसके पहले आपने क्या देखा था, जीवट, हिम्मत और दम-ख़म के बारे में फ़िर से सोचिये...इस बारे में भी सोचिये कि निर्मल-निर्बल होना कैसा होता है. कई तरह के 'एडाप्टिव प्रश्न' निकलते हैं इस फ़िल्म से, जिनका उत्तर देना बहुत ज़रूरी है और उनके उत्तर खोजना और भी मुश्किल.

रविवार, 1 मई 2011

बोर्ख़ेस और निर्मल वर्मा

दुनिया, दुर्भाग्यवश, असली है....मैं दुर्भाग्यवश बोर्ख़ेस हूँ...
....
एक तरह से यह शोचनीय बात थी - बोर्ख़ेस उन इने-गिने लातिन-अमेरिकी लेखकों में हैं, जिन्होंने अंग्रेजी साहित्य और संस्कृति से बहुत कुछ ग्रहण किया है, जिन्हें सही अर्थों में 'ऐंग्लोफिल' लेखक कहा जा सकता है. अपने में यह दिलचस्प बात है - और हलकी-सी व्यंग्यात्मक भी - कि जो अंग्रेजी लेखक ख़ुद आज अपने देश में पुराने और अपठनीय हो चुके हैं - स्टीवेंसन और चेस्टर्टन - बोर्ख़ेस-जैसे 'आधुनिक' लेखक समय-समय पर उनके प्रति अपना आभार प्रकट करना नहीं भूलते, या शायद यह लन्दन की धुँध है - अदृश्य संकेतों और रहस्यमय खतरों से भरी हुई - जो बोर्ख़ेस को बरबस अपनी ओर खींचती है ? बातचीत के दौरान बोर्ख़ेस ने उन चीज़ों का उल्लेख किया, जो उन्हें शुरू से ही मोहित और आतंकित करती आ रही हैं - धुँध, रात, महानगर. ये 'चीज़ें' एक अजीब ढंग से लातिन-अमेरिकी प्रतीकों से जुड़ी हैं - आईने, भूलभुलैया और चाकू. "चाकू की अपनी एक निजी रहस्यमय ज़िन्दगी है," बोर्ख़ेस ने कहा, "खून और हिंसा की एक ऐसी 'प्राइवेट' लिपि उससे जुड़ी है, जो अनायास हमारे भीतर उनके प्रति सम्मान की भावना जाग्रत करती है." चाकू मानो एक ऐसे सार्वजनिक कर्म को उद्घाटित करता है, जिससे व्यक्तिगत नियति का फैसला होता है. अपनी एक कविता में वे लिखते हैं: .

मैनें अपनी नियति को पा लिया है.
अपनी अन्तिम लातिन-अमेरिकी नियति को.
सख़्त लौह का प्रहार,
मेरी छाती चीरता हुआ.
गले पर,
मेरा अपना पहचाना चाकू.
 
लेकिन 'चाकू' बहुत आत्मीय है, बहुत मांसल, "उससे मुझे डर नहीं लगता," बोर्ख़ेस ने कहा, "डर असल में मुझे आइनों से लगता है - बचपन से मैं उनसे डरता आया हूँ. उन्हें देखकर मुझे एक भयानक अनुभव होता है, जैसे मैं कहीं फंस गया हूँ और बाहर नहीं निकल सकता. आईने को देखकर यह मायावी भ्रम होता है, जैसे कहीं मेरे प्रतिरूप का अस्तित्व है, जैसे हर प्राणी का अपना एक प्रतिरूप है, जिसके कारण हर चीज़ संदिग्ध, अवास्तविक और प्रश्नवाचक बन जाती है."

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स्मृति की समस्या समय से जुड़ी है - और बोर्ख़ेस की लगभग सब कहानियों में समय रेगिस्तान की तरह फैला है - अपनी समस्त मृगतृष्णाओं और मरीचिकाओं के साथ - यथार्थ से अलग नहीं, लेकिन यथार्थ का हिस्सा भी नहीं. वह उस ताश के 'जोकर' की तरह है, जिसे खेल में कुछ भी बनाया जा सकता है, क्योंकि अपने में वह कुछ भी नहीं. जो कुछ भी नहीं, वह सबकुछ हो सकता है. बोर्ख़ेस का समय प्रूस्त का 'घुमावदार' समय नहीं है, जिसके चरमबिन्दु 'अनायास स्मरण' के क्षणों द्वारा आलोकित होते हैं, मानो समूचा अतीत रोशनी के खम्भों द्वारा छोटे-छोटे फासलों में बाँटा जा सकता है. बोर्ख़ेस की दृष्टि में स्मरण करना अपने को धोखा देना है - क्योंकि ऐसी कोई चीज़ नहीं, जिसे हम 'अतीत; कह सकें - या दूसरे शब्दों में अतीत केवल शाश्वत वर्तमान का ही अंश है, जहाँ उसका अलग अस्तित्व अर्थहीन हो जाता है. प्रूस्त की दुनिया 'समानताओं' की दुनिया है, जहाँ एक चीज़ दूसरी चीज़ की याद दिलाती है, जहाँ एक स्मृति प्याज के छिलके की तरह दूसरी स्मृति से बाहर आती है.....इन 'समानताओं' ने ही एक समय बॉदलेयर को इतना त्रस्त किया था. बोर्ख़ेस चूंकि समय को खण्डों में विभाजित नहीं करते, इसलिए इन 'समानताओं' को भी स्वीकार नहीं करते. "एक क्षण दूसरे क्षण के 'समान' नहीं है -  वह हूबहू वही है, जो पहला क्षण था." जब दो क्षण बिलकुल एक जैसे हों, तो समानता का प्रश्न नहीं उठता - जब आने वाला क्षण एकदम वही हो, जो बीतनेवाला क्षण था, तब समय का अस्तित्व ही नष्ट हो जाता है.

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साक्षात कभी होता नहीं है, लेकिन वह कभी भी हो सकता है, यह उम्मीद आख़िर तक बनी रहती है, आख़िर तक बनी रहनी चाहिए. दुनिया के 'सुख' होते नहीं, इस उम्मीद पर 'बनते' हैं. बोर्ख़ेस ने एक जगह कहा है, "संगीत, सुख की स्थितियां, पौराणिक कथाएं, समय से लदे चेहरे, गोधूली के धुंधलके, कुछ स्थान - ये सब हमें कुछ बताना चाहते हैं या इन्होने हमें कुछ बताया था जो हमें ओझल नहीं करना चाहिए था या वे हमें कुछ बताने वाले हैं. साक्षात की यह तात्कालिक संभावना, जो कभी पूरी नहीं होती - ऐसी है, जिससे सौन्दर्य का सृजन होता है."

लातिन-अमेरिकी लेखकों में शायद बोर्ख़ेस ही ऐसे हैं, जो यूरोप की परम्परा की यहूदी परम्परा की यातनाग्रस्त जिज्ञासा के सबसे निकट आते हैं. यह शायद स्वाभाविक भी था. एक एर्जनटीन होने के नाते उन्हें अन्य लातिन-अमेरिकी लेखकों की तरह (जिनमें आक्टोवियो पाज उल्लेखनीय हैं) पीछे मुड़-मुड़कर अपनी इंडियन परम्परा को नहीं खोजना पडा - क्योंकि उनके देश में ऐसी कोई परम्परा थी ही नहीं. वे मुक्त रूप से अपने को यूरोपीय परम्परा से संपृक्त कर सकते थे - क्योंकि उन पर अपने अतीत का कोई बोझ नहीं था - लेकिन 'बाहर के आदमी' होने के नाते उन पर यह बंधन भी नहीं था कि वे उस परम्परा के प्रति वफादार रहें, वे अपने अतीत से मुक्त थे तो यूरोप के बाहर भी थे. मुक्ति का यह एहसास ही है कि वह इतने गौरव और विश्वास के साथ कह सकते हैं:

        "चमत्कार करने की सुविधा से देवता वंचित भले ही रहे हों, लेखक नहीं, लेखक हमेशा अतीत को बदल सकते हैं.....काफ़्का की तरह वे ख़ुद अपने से पहले आनेवालों की रचना कर लेते हैं."


(निर्मल वर्मा के संग्रह "सर्जना पथ के सहयात्री" से लिया गया अंश. इसके पहले बुद्धू-बक्सा पर आप ब्रेख्त पर निर्मल वर्मा को पढ़ चुके हैं.)