शनिवार, 30 जुलाई 2011

ब्लैक-रिचनेस ऑफ शागिर्द

 
एयर बैग - काला, लाल, भूरा

पैसा - एयर बैग में - 20...40...50 लाख, 10....15....25 करोड़

काले रंग की SUV

हनुमान

हनुमंत - नाना पाटेकर

गोलियां ढेर सारी

भ्रष्टाचार भी ढेर सारा

अनुराग कश्यप - कमज़ोर

तिग्मांशु धूलिया - उससे भी कमज़ोर

'हासिल' - एक अच्छी फ़िल्म और भरोसा रखने के लिए क़ाफ़ी

'शागिर्द' - अधपका आम


कुल मिलाकर तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म शागिर्द देखने के बाद आप यही समझ पाते हैं और फ़िल्म को इन्हीं बातों पर खड़ा पाते हैं. 'हासिल' बहुत सारी चीज़ों का एक सुनियोजित संकलन थी और इसी के बूते पर छात्र राजनीति और प्रेम के क्लैश का विवरण स्पष्ट हो सका. बस, इसी की कमी शागिर्द में है.

अभी के समय से दस साल पहले वाली भ्रष्टाचार और राजनीति आधारित फ़िल्मों की शागिर्द पर बीहड़ छाप है. कारण जो भी हो, लेकिन तिग्मांशु अभी के समय को फ्रेम में नहीं उतार पाए हैं. क्योंकि अजीबोगरीब तरीक़े से हो रही जासूसी और फ़िर अद्भुत कार पलटा देने वाली गोलीबारी न तो इस समय की राजनीति और ना ही फ़िल्मों की पहचान है. अभी की राजनीति में इससे ज़्यादा जटिल भ्रष्टाचार है, लेकिन वह इतना खुला और उधड़ा हुआ तो कतई नहीं है...उसमें कठिनाइयां हैं, लेकिन उनका जो बेसिक स्ट्रक्चर है, वह फ़िल्म में दिखाए गये घुमावदार स्ट्रक्चर से अलग है. 

हनुमंत सिंह(नाना) दिल्ली पुलिस, क्राइम ब्रांच के एक सीनियर इंस्पेक्टर हैं. घोर भ्रष्टाचारी, हाज़िर जवाबी और तुरत-फुरत शक़ करने वाला इंस्पेक्टर. अब आप यहाँ पर भी कुछ नया नहीं देख़ पायेंगे, पूरी फ़िल्म भर हनुमंत सिंह का चरित्र एकदम खांटी 'नाना पाटेकर मूड' को लिए चलता है. 'यशवंत' और 'शागिर्द' के नाना पाटेकर में इतना ही फर्क़ है कि 'यशवंत' में नाना भ्रष्टाचार विरोधी थे लेकिन शागिर्द में नाना ऐसे पुलिसवाले की भूमिका में हैं, जो अपने जूनियर मोहित से यह तक कह देता है कि लूट के पैसे में हिस्सा लो वर्ना इस्तीफ़ा दे दो. हनुमंत 'मेनियाक' है, जो पागलों की तरह पुराने गाने सुनता रहता है और गानों की फ़िल्म के नाम, निर्देशक का नाम, संगीतकार और गीतकार का नाम याद रखता है....लेकिन इस दीवानगी का सबसे नाटकीय पहलू ये है कि वह एनकाउन्टर के ऐन पहले ड्रग डीलर्स के दरवाज़े पर खड़ा होकर उनके टीवी से गाने सुनता है, पत्नी से लड़ाई के दौरान भी और अपनी मौत पर भी वह गाने सुनता रहता है...फ़िर मरता है.

एनकाउन्टर स्पेशलिस्ट की तरह लगने वाले हनुमंत सिंह की टीम में पहले तीन....फ़िर चार लोग हैं. चौथा मोहित है जो अपने किरदार में एक ठेठ फ़िल्मी 'पुलिसिया' कड़कपन और ईमानदारी लेकर आता है जो उसके दोमुंहे रूप के लिए कुछ ठीक लगता है.

फ़िल्म में मोहित का इकतरफा प्यार है, एक हाई-प्रोफाइल जर्नलिस्ट के साथ....अब जर्नलिज़्म की बात जब आती है तब इस फ़िल्म में दिखाई गई 'झटपट पत्रकारिता' की पोल खुली हुई पता चलती है. फ़िल्म में दिखाए गए पत्रकार अव्वल दर्ज़े के बेवकूफ़, आन्दोलन के लिए आमादा और 'न्यूज़-रिच्ड' हैं लेकिन अभी की पत्रकारिता का सत्य क्या है, ये सभी जानते हैं - अभी के पत्रकार 'न्यूज़-हंग्री', तेज़-चालाक और आन्दोलन के लिए समय की प्रतीक्षा करने वाले हैं.

हनुमंत एक मंत्री के लिए काम करता है, जो भविष्य में विदेश-मंत्री बनने वाला है(अगर लाल-रंग सामने न पड़ा तो), मंत्री के किरदार के साथ एकदम सही समझौता हुआ है, सारा कुछ, सारे नुमाइंदे और पैसे की बंदरबांट 'मंत्री' वाले तत्व को सही ठहराते हैं. मंत्री का किरदार सबसे मूल बिन्दु पर जहाँ चूकता है वह है उसका किसी पर भी भरोसा ना करना(हालांकि, ये तो कहानी की मांग है....फ़िर भी), यही भरोसे का अभाव हनुमंत को उसकी 'प्राइवेट ड्यूटी' से भटका देता है...साथ ही साथ यही अभाव चुपके से मोहित को हनुमंत के पिछवाड़े लगा देता है. मंत्री ज़रा-सा और कमज़ोर साबित होता है जब उसके ध्यान राजनीति के बजाय बाक़ी सभी चीज़ों पर होता है.

अप्रत्यक्ष रूप से कहानी जिसके इर्द-गिर्द घूम रही है वह है बंटी भईया(अनुराग कश्यप), जो प्रकाश झा की फ़िल्मों के राजनीतिक गुंडों की तरह लगता है....सीधे-सीधे 'अपहरण' के अजय देवगन की तरह, तो इस तरह से ये फ़िल्म 'प्रकाश झा' से प्रेरित लगती है. बहरहाल, अनुराग कश्यप फ़िल्म के किरदार के किस मूड को कैरी करके चलते हैं, पता नहीं चल पता और इसी के साथ एक बहुत अच्छे निर्देशक की अभिनय-कला की पोल खुल जाती है. बंटी भईया ठेठ गुंडा है, जो मंत्री के लिए काम करता है और अंत में उसी के हाथों मारा जाता है. इस समय में कोई भी गुंडा सिर्फ़ गुंडा नहीं होता है, या तो वह एक नेता, या कोयला व्यापारी नहीं तो फ़िर बहुत बड़ा ठेकेदार होता है, सिर्फ़ गुंडा होना - अगर यू.पी. के सन्दर्भ में ही बात करें तो - 7-8 साल पहले का मुन्ना बजरंगी, विनीत सिंह या त्रिभुवन सिंह होना है. तो, थोड़ा सा रफ़-वर्क अनुराग को करना चाहिए था, अपने अभिनय को लेकर - अगर वे कुछ-कुछ आशुतोष राणा या मनोज बाजपेयी हो जाते तो 'शायद' बात बन जाती.

तीन पत्रकारों का अपहरण(जिनमें मोहित की 'प्रेमिका' भी शामिल है) होता है और बंटी भईया के साथ दो जेहादियों की रिहाई और 15 करोड़, फ़िर 25 करोड़ की मांग की जाती है. कुल मिलाकर कहानी एक कठिन और बेहद नाटकीय रूप ले लेती है और जब ये पता चलता है कि इसके पीछे हनुमंत सिंह था तो उसी क्षण फ़िल्म से रूचि ख़त्म हो जाती है, क्योंकि ऐसे समय में आप ये जान जाते हैं कि आपको सिर्फ़ घुमाया जा रहा है.

आप किस पर शक़ करेंगे, किस बिना पर शक़ करेंगे और फ़िल्म ख़त्म होने के बाद भी, कहानी के बारे में क्या सोचेंगे.....ये तो कहना मुश्किल है...लेकिन इस बार अग़र आप तिग्मांशु धूलिया से नाराज़ होते हैं, तो आप सही हैं. फ़िल्म पर प्रकाश झा, अनुराग कश्यप और कुछ विदेशी फिल्मकारों का प्रभाव साफ़ दिखता है. राजनीति और पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार अपने मौजूदा लेवल से बहुत ऊंचा है और इसी को दिखाने में फ़िल्म ब्लैकनेस से रिच हो गयी है.

तिग्मांशु....यू हैव टू डू बेटर....

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

आयोजन - १ : वाराणसी में बहुभाषी रचना पाठ

साहित्य अकादेमी की तरफ़ से 'बहुभाषी रचना-पाठ' का आयोजन ९ और १० जुलाई को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्वतंत्रता भवन के सभागार में हुआ. ९ तारीख़ को कथा-पाठ और १० तारीख़ को काव्य-पाठ का आयोजन हुआ और जैसा कि नाम में इंगित है, कार्यक्रम के शीर्षक की मर्यादा बनाए रखने के लिए २-३ दूसरी भाषा के रचनाकारों को बुलाया गया था. इस तरह के आयोजन बहुत कुछ समझे जाते रहे हैं, लेकिन इन्हें एक सफ़ल आयोजन बनाने के लिए क्या-क्या चीज़ें ज़रूरी हैं, ये बात ध्यान में रखने योग्य है. एक अकादमी का नाम, एक 'बहुभाषी रचना-पाठ' का टैग और साथ में इसे संप्रेषित और सुन्दर बनाने की कोशिश में कुछ ऐसा कर देना (मसलन, ऐसे कवियों को बुला लेना), जिससे यह सारा आयोजन ध्वस्त होकर मटियामेट हो जाए.

काफ़ी हसरतों के साथ हम १० तारीख़ को सुबह-सुबह वहाँ पहुँचे, कार्यक्रम की भयावहता का अंदाज़ तो था ही क्योंकि हिन्दी विभाग के कुछ लोगों नें इस कार्यक्रम पर घोर असहमति व्यक्त की थी लेकिन इस असहमति को हम अपने 'अंदाज़' का अकेला कारण नहीं बना सकते थे, क्योंकि हिन्दी विभाग की तरफ़ से कराये गए कार्यक्रम कितने सतही और भौंडे होते हैं कि इन पर बात ही नहीं की जानी चाहिए. इसीलिये, हिन्दी विभाग को देख़-समझकर हमेशा हमें पंकज चतुर्वेदी की हिन्दी विभाग पर लिखी गई कविता की याद आती है. दो बातें खुलकर सबसे अच्छे से सामने आ रही थीं कि या तो 'साहित्य अकादमी' के पास पैसा नहीं है और या तो वह है लेकिन 'अन्य' कामों में खर्च होने के लिए संचित और संग्रहित है क्योंकि स्थानीय कवियों को ही अकादमी ने आमंत्रित किया था और दूसरी भाषा के कवियों (उड़िया, बंगला और तमिल के) को - जैसा पहले कहा - नाम को सफ़ल बनाने के लिए किया.

जलवा और रुबाब दिखाने के लिए 'सीनेट हॉल' में व्यवस्था की गयी थी. जिस तरह के बाहरी नज़ारे थे, वह एक बार कार्यक्रम के 'अच्छा' होने का भ्रम करा गए. बहुत प्यास थी एक अच्छे काव्य-पाठ की, क्योंकि बनारस में पिछला काव्य-पाठ - जिसे हिन्दी विभाग के शोध छात्रों नें कराया था - से मन बहुत दुखी था और साथ ही साथ पिछले चार दिनों से 'मित्रों-अग्रजों' के साथ अस्सी की बैठकी नें बड़ा विचलित किया था.

बहरहाल, पैसे बचाने के लिए जिस तरह स्थानीय कवियों को ठीक समय पर बुलाया गया था...उसका पूर्ण सम्मान करते हुए दस बजे शुरू होने वाला कार्यक्रम ११:४० पर शुरू हो गया, क्योंकि संचालक-उपसचिव लगभग ११ बजे दिखना शुरू हुए और ११:१५ पर उन्होंने घोषणा की ५ मिनट में होने वाली शुरुआत के लिए. हम पिछली क़तार में जाकर बैठ गए और पूरी तरह से जमकर सुनने को तैयार हो गए. सबसे पहले हमारे प्रिय ज्ञानेंद्रपति थे ...जिन्होंने रघुवीर सहाय को भिन्न तरीक़े से याद करते हुए एक कविता सुनाई और एक-दो ऐसी कविताएँ जो 'रंग दे बसंती टाईप' छद्म आन्दोलनकारियों और भ्रष्टाचार से लडती थीं. हमेशा की तरह नहीं, इस बार हमारे अभिन्न कवि कुछ ही अच्छा कर सके, लेकिन हमें ये 'अच्छे का होना' हमेशा ख़ुश करता रहता है.

उसके बाद बांग्ला-अंग्रेज़ी के कवि अमिताभ चौधरी आए. जब दूसरी भाषा के कवियों द्वारा काव्य-पाठ किसी हिन्दीभाषी स्थान पर किया जाता है, तो मुझे हमेशा दिल्ली में एस्टोनियाई कवि हासो क्रुल और उनकी पत्नी कैरोलीना के काव्य-पाठ की याद आती है, जहाँ सबसे पहले उनके मूल भाषा में सफ़ल पाठ के बाद विष्णु खरे द्वारा उनका हिन्दी अनुवाद पूरी तबीयत से पढ़ा गया था, दूसरी भाषा की कविता और उनका हिन्दी अनुवाद पढने के कुछ नियम होते हैं....कुछ क़ायदे होते हैं और सलीक़े भी. उसे 'न समझा जा सकने' लायक़ बना देना कहाँ की बुद्धिमानी है? तो, अमिताभ की कविताओं का पाठ इसी तरह का 'न समझा जा सकने' वाला था, बाबरी विध्वंस को शायद उन्होंने बताया लेकिन चंद पंक्तियों का मूल भाषा में पाठ और फ़िर उसका लड़खड़ाती हिन्दी में उसका पाठ ज़रा भी अच्छा लगने लायक़ नहीं था. अमिताभ की कविताओं का विषय सही था, लेकिन उन्हें चाहिए था कि वे किसी हिन्दीभाषी को ही अनुवाद पढ़ने देते.

इसके बाद भोजपुरी कवि हरेराम द्विवेदी आए, इस तरह के आयोजनों को सफ़ल बनाने का जिम्मा कुछ कवियों पर भी होता है, हरेराम द्विवेदी की भोजपुरी कवितायें गेयता से भरी हुई थीं, अब छंद से अलग हटकर खड़े होने का समय है, इस दशा में 'अच्छे(!)' आयोजनों में गेय छंद का पढ़ा जाना कुछ हद तक हास्यास्पद लगता है. सबसे बड़ी दिक्क़त जो भोजपुरी के साथ है, वह उसके मिट्टी से जुड़ाव को लेकर है...क्यों अधिकतर भोजपुरी कवि अपनी रचनाओं में 'आज की कविता' वाले विषय पर बात नहीं करते...उनकी रचनाओं में 'हमरा गाँव', 'हमार खेत' और उनके विभिन्न आयामों पर क्यों बात होती है?...तो, एक वाहवाही और ताली लूटने वाला कविता/गीत का पाठ/गायन हरेराम जी नें किया. कुल मिलाकर एक समूचा छंदबद्ध और स्वरबद्ध गायन उन्होंने पेश किया, जिसे बिना किसी ज़रूरत के क़ाफ़ी 'सराहा' गया. यहाँ किसी गायक का होना ज़्यादा तर्कसंगत लगता.

इसके बाद उड़िया भाषा की कवियित्री प्रवासिनी महाकुड ने उस सलीके का ख़्याल रखते हुए कवितायें पढ़ीं, जहाँ उनकी कविताओं के हिन्दी अनुवाद का पाठ कार्यक्रम संचालक और साहित्य अकादमी के उपसचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने किया, जिसके आधार पर प्रवासिनी जी को एक सफ़ल और संजीदा कवियित्री कहा जा सकता है....बेहद शान्त और गम्भीर - जैसे बेटी द्वारा बाप को दिया गया कष्ट - विषय पर बहुत ही अच्छी और सरल कविता उन्होंने पढ़ी. प्रवासिनी की कविताओं में एक ठेठ आधुनिक हिन्दी 'कवितापन' मिल रहा था.

उसके बाद श्रीप्रकाश शुक्ल आए, बड़े अजीब ढंग से उन्होंने 'मोबाइल और लड्डू' में एक रिश्ता क़ायम किया, जो काफ़ी हास्यास्पद लग रहा था. अब 'लड्डू' कोई गिद्ध नहीं है, जिसे विलुप्त चीज़ बताया जाए या दिखाया जाए....'लड्डू पिघल रहा है और मेरा मोबाइल बज रहा है'...यहाँ पर गिर जाने या पिघल जाने के बाद दूसरा लड्डू खरीदे जाने के विकल्प खुले हैं क्योंकि लड्डू बहुत महँगी चीज़ नहीं है. इसलिए एक ख़ारिज कवि की तरह वे आए और खारिज कवि की तरह चले गए. हमेशा से अच्छी रहीं कवियित्री चंद्रकला त्रिपाठी नें भी लगभग निराश ही किया.

युवा कवि व्योमेश शुक्ल ने अपनी लम्बी कविता 'मैं रहा तो था' में से 'होना था' और 'दोनों एक ही बातें हैं', फ़िर दो कवितायें अपने संग्रह से पढ़ीं, जहाँ सुशील त्रिपाठी को समर्पित 'लिखा गया माना जाय' और विद्या सिन्हा पर केन्द्रित 'लेकिन तुम हो कि मुकद्दमा लिखा देती हो' थीं. भगवा-विरोध और तल्ख़ तेवर के कारण विभाग की कुछ महिलाओं नें उनसे यह तक पूछ डाला : आपको डर नहीं लगता? ज्ञानेंद्रपति और व्योमेश जैसे 'ब्रॉड स्पेक्ट्रम' वाले कवियों की सबसे बड़ी ग़लती यह है कि उन्होंने ऐसे आयोजन में शरीक़ होने के लिए हामी भरी. इस श्रेणी में प्रवासिनी महाकुड और प्रकाश उदय भी आ सकते हैं.

इसके बाद बेहद कम चर्चित कवियित्री वंदना मिश्र नें नारी शक्ति के वही पुराने घिसे हुए स्वरूप को सामने रखा. इसके भोजपुरी के कवि प्रकाश उदय नें ऊपर लिखी कमियों से ऊपर उठकर कुछ रचनाएं पढ़ीं, जो फ़िर से गेय थीं.

वंदना मिश्र के ठीक पहले संचालक का ये वक्तव्य सुनने को मिला : अब रुक जाइए, आपके और आपकी भूख़ के बीच बस दो ही कवि शेष हैं, बस उन्हें सुन लीजिये. अब यदि 'भूख़' इतना बड़ा विषय है, तो कविता के बड़ा विषय होने में क़ाफ़ी समय है.

एक घंटे तक चले मध्यांतर के बाद जो कवि आए, उनमें से अधिकतर का आना न आने जैसा था. रामाज्ञा राय, ओम निश्चल, वशिष्ठ अनूप, अनंत मिश्र, ब्रह्मशंकर पाण्डेय और सदानंद साही नें औसत कवितायें पढ़ीं. उसके बाद अपने को अच्छे कवियों (कुछ हद तक उत्कृष्ट) कवियों में गिनाते हुए श्रीकृष्ण तिवारी आए. तिवारी जी ने 'भीलों नें बाँट लिए वन' और 'पानी जब गुनगुना हुआ' जैसे दसियों साल पुराने गीत गाये, बहुत ही बासी अनुभव. साथ ही साथ वे एकाध कवियों से गीत की फ़रमाइश करते रहते....पता नहीं ऐसा क्यों है कि हर छुटभैया 'तीसमार खां' बनना चाहता है.... कोंकणी भाषा के कवि पुंडलिक नायक आए और कुछ 'अनूदित कविताओं' के सलीक़े से उन्होंने कवितायेँ पढ़ीं और उनके बाद चंडीगढ़ साहित्य अकादमी के प्रमुख माधव कौशिक ने आकर जेनेरेशन गैप को अपने कविता का आधार बनाया. अब ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि जिन कविताओं को पच्चीसों बार पढ़कर कई 'कवि' पैदा हुए, वैसी ही कवितायेँ मंच पर नहीं पढ़ी जानी चाहिए. लगभग यही काम ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने भी किया, गाँव-शहर का सदियों पुराना फासला लेकर वे थोड़ा कवि-मुद्रा में आए और इस तरह दूसरा सत्र भी समाप्त हो गया.

आयोजन से साफ़ पता चल रहा था कि साहित्य अकादमी अपनी ग़लती के बारे में जान रही थी, इसलिए बार-बार (पता नहीं क्यों?) हर कवि के आने से पहले उसका परिचय दिया जा रहा था, मसलन संग्रह, भाषा और अवार्ड(यदि हैं तो). 'बहुभाषी' वाले तत्व को भुनाने की भरपूर कोशिश की गई और ठीक यहीं यह आयोजन ख़त्म हो गया. अगर आप एक अच्छी भीड़ नहीं जुटा पा रहे हैं और साथ ही अच्छे कवि, तो आप एक बड़े स्तर का मुशायरा करा लीजिये. अगर यह आयोजन दिल्ली में किया गया होता तो शायद यह अपने ध्येय में सफ़ल साबित हो पाता लेकिन इसे निपट स्थानीय बनाने में सब कुछ ख़त्म हो गया. हमने अकादमी के स्वर्णिम काल को भी देखा है और शायद वह अब भी चल ही रहा है, लेकिन वह शायद हल्का धूसरित हो चुका है. अकादमी को अपनी साख़ बनाए रखने के लिए इस तरह के छोटे प्रयोग नहीं करने चाहिए, जिससे होने वाला नुकसान हिन्दी को होता है. आशा है कि अकादमी की तरफ़ से एक अच्छा आयोजन भविष्य में देखने को मिलेगा.

आयोजन ख़त्म, हम लोग थके हुए हैं, अभी अस्सी पर हैं...नींबू की चाय और घाट पर भारी भीड़.


(इसी के साथ 'आयोजन' नाम से एक और स्तम्भ की शुरुआत. इस रिपोर्ट से बहुत 'विवरणात्मक' होने की आशा न की जाय. अच्छे आयोजनों पर हम विवरणात्मक रिपोर्ट सामने रखेंगे. इस आयोजन की सबसे बड़ी कमी, इसमें शरीक़ हुए कवि थे. हम हमेशा से एक नेक और साफ़दिल आयोजन की आशा करते रहे हैं. भविष्य में शमशेर पर डी.डी.भारती की ओर से कराये जा रहे कार्यक्रम की रिपोर्ट सामने रखी जाएगी.)

शनिवार, 9 जुलाई 2011

धूमिल के पाँच


दिनचर्या
सुबह जब अंधकार कहीं नहीं होगा,
हम बुझी हुई बत्तियों को
इकट्ठा करेंगे और
आपस में बाँट लेंगे.

दुपहर जब कहीं बर्फ नहीं होगी
और न झड़ती हुई पत्तियाँ
आकाश नीला और स्वच्छ होगा
नगर क्रेन के पट्टे में झूलता हुआ
हम मोड़ पर मिलेंगे और
एक दूसरे से ईर्ष्या करेंगे.

रात जब युद्ध एक गीत पंक्ति की तरह
प्रिय होगा हम वायलिन को
रोते हुए सुनेंगे
अपने टूटे संबंधों पर सोचेंगे
दुःखी होंगे

घर में वापसी
मेरे घर में पाँच जोड़ी आँखें हैं
माँ की आँखें
पड़ाव से पहले ही
तीर्थ-यात्रा की बस के
दो पंचर पहिये हैं.

पिता की आँखें...
लोहसाँय-सी ठंडी शलाखें हैं
बेटी की आँखें... मंदिर में दीवट पर
जलते घी के
दो दिये हैं.

पत्नी की आँखें, आँखें नहीं
हाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैं.
वैसे हम स्वजन हैं,
करीब हैं
बीच की दीवार के दोनों ओर
क्योंकि हम पेशेवर गरीब हैं.
रिश्ते हैं,
लेकिन खुलते नहीं हैं.
और हम अपने खून में इतना भी लोहा
नहीं पाते
कि हम उससे एक ताली बनाते
और भाषा के भुन्नासी ताले को खोलते
रिश्तों को सोचते हुए
आपस मे प्यार से बोलते

कहते कि ये पिता हैं
यह प्यारी माँ है,
यह मेरी बेटी है
पत्नी को थोड़ा अलग
करते...तू मेरी
हमबिस्तर नहीं...मेरी
हमसफ़र है

हम थोड़ा जोखिम उठाते
दीवार पर हाथ रखते और कहते...
यह मेरा घर है

बीस साल बाद
बीस साल बाद
मेरे चेहरे में वे आँखें लौट आयी हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं.

और जहाँ हर चेतावनी
ख़तरे को टालने के बाद
एक हरी आँख बन कर रह गयी है.

बीस साल बाद
मैं अपने-आप से एक सवाल करता हूँ
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की ज़रूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूँ
क्योंकि आजकल मौसम का मिज़ाज यूँ है
कि खून में उड़ने वाली पंक्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है.

दोपहर हो चुकी है
हर तरफ़ ताले लटक रहे हैं
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फड़फड़ाते हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है.

मगर यह वक़्त घबराये हुए लोगों की शर्म
आँकने का नहीं
और न यह पूछने का –
कि संत और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है!

आह! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक़्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुज़रते हुए
अपने-आप से सवाल करता हूँ –
क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?

और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ
चुपचाप.

कुछ सूचनाएं
सबसे अधिक हत्याएँ
समन्वयवादियों ने की

दार्शनिकों ने
सबसे अधिक ज़ेवर खरीदा

भीड़ ने कल बहुत पीटा
उस आदमी को
जिस का मुख ईसा से मिलता था

वह कोई और महीना था
जब प्रत्येक टहनी पर फूल खिलता था
किंतु इस बार तो
मौसम बिना बरसे ही चला गया
न कहीं घटा घिरी
न बूँद गिरी
फिर भी लोगों में टी.बी. के कीटाणु
कई प्रतिशत बढ़ गए

कई बौखलाए हुए मेंढक
कुएँ की काई लगी दीवाल पर
चढ़ गए
और सूरज को धिक्कारने लगे
— व्यर्थ ही प्रकाश की बड़ाई में बकता है
सूरज कितना मजबूर है
कि हर चीज़ पर एक सा चमकता है

हवा बुदबुदाती है
बात कई पर्तों से आती है —
एक बहुत बारीक पीला कीड़ा
आकाश छू रहा था
और युवक मीठे जुलाब की गोलियाँ खा कर
शौचालयों के सामने
पँक्तिबद्ध खड़े हैं

आँखों में ज्योति के बच्चे मर गए हैं
लोग खोई हुई आवाज़ों में
एक दूसरे की सेहत पूछते हैं
और बेहद डर गए हैं

सब के सब
रोशनी की आँच से
कुछ ऐसे बचते हैं
कि सूरज को पानी से
रचते हैं

बुद्ध की आँख से खून चू रहा था
नगर के मुख्य चौरस्ते पर
शोकप्रस्ताव पारित हुए
हिजड़ो ने भाषण दिए
लिंग-बोध पर
वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ीं
आत्म-शोध पर
प्रेम में असफल छात्राएँ
अध्यापिकाएँ बन गई हैं
और रिटायर्ड बूढ़े
सर्वोदयी —
आदमी की सबसे अच्छी नस्ल
युद्धों में नष्ट हो गई
देश का सबसे अच्छा स्वास्थ्य
विद्यालयों में
संक्रामक रोगों से ग्रस्त है

(मैंने राष्ट्र के कर्णधारों को
सड़को पर
किश्तियों की खोज में
भटकते हुए देखा है)

संघर्ष की मुद्रा में घायल पुरुषार्थ
भीतर ही भीतर
एक निःशब्द विस्फोट से त्रस्त है

पिकनिक से लौटी हुई लड़कियाँ
प्रेम-गीतों से गरारे करती हैं
सबसे अच्छे मस्तिष्क
आरामकुर्सी पर
चित्त पड़े हैं.

रोटी पर एक कविता
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है.


[धूमिल के बारे में कुछ भी कहना शायद धूमिल को कम आंकना होगा, सुना तो यह है, कि अन्तिम कविता 'रोटी पर एक कविता' को कोई शीर्षक नहीं मिला, जिसे जो समझ आया, उसने वह नाम दिया. अब जो नहीं हो रहा है या बहुत कम हो रहा है, वह धूमिल जैसों के पास हमेशा से होता रहा है. परिवार, समय और मजदूर-क्रांति का सहपाठ धूमिल के विशेष बिन्दु दीखते हैं. अभी की कविता में धूमिल के 'इम्प्रेशंस' मिलते हैं पर सफ़ल कविता नहीं. पेंटिंग गूगल से साभार.]

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

तेरी चौखट मेरा मदीना

दोस्तों की पुरानी शिक़ायत रही है कि मैं कुछ ज़्यादा ही इश्क़िया जाता हूँ, लेकिन क्या करूँ, प्रेम को लेकर मेरा जो मत रहा है वह पागलपन तक ले जाने वाला ही रहा है. उस पागलपन की क्षमता असीमित है जहाँ आपको एक गीत सुनकर रोना पड़ता है, जहाँ दहाड़ती हुई आवाज़ आपको डराती नहीं बल्कि आपको अपना आशिक़ बना जाती है, आप कहाँ जाना चाहते हैं, लेकिन आपका निकलना कहाँ सम्भव हो पाता है ये उस पागलपन की ही आवाज़ होती है. धर्म, लिंग और समाज को परे रखकर जब आप सोचना शुरू करते हैं, तब आप असल मतवाले कहे जाते हैं. आप कहाँ हैं, किस समय में हैं और किस व्यवस्था को तौल रहे हैं....जब इस तरह की बातें आपको परेशान नहीं कर पाती हैं..तब सूफियत को समझ पाते हैं, उसका 'क' समझ पाते हैं.

'सूफी' को लेकर जो एक भेड़चाल मची हुई है और हर छुटभैया गायक अपने पर बुल्ले-शाह की मुहर लगवाने पर तुला हुआ है, उसमें सबसे बड़ा नुकसान इस परम्परा के असल निर्वाहकों को उठाना पड़ रहा है. अब सतही संगीत से मुझे इतना मोहभंग हो गया है कि कैलाश खेर, जिसे एक समय पहले सूफी संगीत का सिनेमाई अवतार कहा गया था, भी अब फालतू लगने लगा है. कैलाश खेर की सन्दर्भ में जो बातें कही गई थीं, वे सच थीं लेकिन उन्हें फ़िर से परिभाषित करने की ज़रूरत है यानी कैलाश को अब साबित करने की ज़रूरत है. ये बड़ा अजीब है लेकिन मिथक को तोड़ने वाला तथ्य भी कि असल सूफी आवाज़ या तो पाकिस्तान से आती है या भारत के उन राज्यों से जो पाकिस्तान के ज़्यादा क़रीब हैं, राजस्थान, पंजाब या हरियाणा. संगीत को फैलने में इतना वक़्त लगना चाहिए क्या? उसे और जल्दी नहीं फैलना चाहिए क्या?

क्या कारण है कि हम अमित त्रिवेदी और रहमान जैसे नयी समझ वाले संगीतकारों को अपने सिर पर पैर पसारने तक की जगह दे देते हैं, उनका काम बस इतना ही रहा है कि उन्हें समझ है और वे उस समझ को भरपूर भुना रहे हैं...ये समझ का भुनाया जाना कहीं न कही सूफी संगीत को फ़िल्म में एक जगह देने की कोशिश कर सकता है. एक असल विधा, जिसे सूफियत की रूह समझा जाता रहा है, यानी क़व्वाली अब खो रही है, इसके पीछे कहीं न कहीं हिमेश रेशमिया और इस्माइल दरबार जैसे मूर्ख बैठे हुए हैं.

लेकिन आज किसी संगीतकार को केंद्र में नहीं रखा जा रहा है, आज एक गीत है हमारे सामने, जिससे संगीत, प्रेम, अनश्वरता, पागलपन और सूफी-सिक्के को समझा जा सकता है. गीत है तू माने या ना माने दिलदारा, अस्सां ते तैनूं रब मनया. कम से कम मेरे लिए तो संगीत भाषा और शब्दों में बंधा नहीं है और वैसे अभी तो हम हिन्दी भाषा के लिए ही इतना लड़ रहे हैं और बार-बार जिरह कर रहे हैं कि भाषा का स्वरूप कैसा हो, तो इस लिहाज़ से इस पंजाबी गीत के उच्चारण में कोई ग़लती हो तो नज़रंदाज़ करें. हाँ, तो मैं कह रहा था कि मैनें तुझे अपना रब मान लिया है. सूरी जी भी क्या-क्या करते रहते हैं और करवाते रहते हैं.....फ़िल्म में मानने के बाद मुझसे मनवाया, अब इस गीत ने रही-सही क़सर पूरी कर दी है, आप मालिक हो गए अब. आपका मानना या ना मानना आप पर है, लेकिन मैनें तो मान लिया, जो सबसे ऊंचा मानक आपको दे सकता था, मैनें दे दिया.

एक छोटा-सा काम है, जिसे किए देता हूँ...तो ये गाया हुआ है वडाली बंधुओं का...एक हल्की आवाज़ है छोटे प्यारेलाल वडाली की और एक आवाज़ है है, जो हमेशा छोटे के साथ रहती है और बताती रहती है कि 'मैं हूँ.' यह हैं बड़े पूरनचंद वडाली. पटियाला घराने के नगीने हैं दोनों. अच्छा गाते हैं, लेकिन अच्छे के अलावा ये 'प्रेम' गाते हैं. हम मिट्टी के संगीत के ग्लोबल होने की मांग करते हैं, लेकिन इस दिशा में जो क़दम उठाते हैं, उनका अंत दुःख देने वाले एल्बम के साथ होता है, उससे अलग हम कहीं उन्हें सुन पाते हैं तो सिर्फ़ लाइव, जो अभी इतना सम्भव नहीं है. तो घूमते हुए, एक ही बात सामने आती है 'मिट्टी के संगीत' का मिट्टी से जुड़ा होना ही उसे ग्लोबल बनाता है. एकदम असली माल.

अपने तन की खाक़ उड़ाई, तब ये इश्क़ की मंज़िल पायी....खाक़ उड़ाकर मंज़िल पाना क्या होता है यार? और वह भी इश्क़ की मंज़िल... तन की खाक़!....सूफियत से जुड़ी बातें कितनी असम्भव-सी संभावनाओं को जन्म देती हैं, जहाँ तन की खाक़ का सम्बन्ध इश्क़ की मंज़िल से होता है. मैं समझा नहीं पाऊँगा, लेकिन तन की खाक़ का झिलमिल मतलब मैं काफ़ी समय बाद समझ पाया. इसका अर्थ बहुआयामी है, एक औरत के सन्दर्भ में तन और उसकी खाक़ के मतलब क्या हो सकते हैं और उसी औरत के लिए एक आदमी के मन में? मेरी सांसों का बोले इकतारा....अब सारे 'ढोंगी' युवा संगीत-सिनेमा समीक्षकों से मेरा सीधा सवाल है कि वे 'साँसों का इकतारा' को जब तक ना समझाएं, तब तक कलम नीचे ही रखें....इश्क़ को नहीं समझा तो क्या समझा? हमारे पास 'डेल्ही बेली' पर गपियाने का वक़्त है, लेकिन संगीत पर साफ़ समझ पैदा करने का वक़्त नहीं.

पूरे गीत का मर्म है अगला अन्तरा....तुझ बिन जीना भी क्या जीना, तेरी चौखट मेरा मदीना....चौखट के मदीना होने का कितना बड़ा महत्व है, इसे बस सुनकर ही खोया जा सकता है और अगर ज़िद कर ली सोचने की, तो बस आप बैरागी हो गए. हम डरते हैं किसी और की चौखट पर जाने से, डर भी किससे? आपसे.... आपसे तो मुहब्बत है...डरते हैं अपने से, डरते हैं किसी चौखट पर देखने से, किसी भी चौखट पर आपको देखने से डरते हैं, आपकी चौखट पर आपको नहीं देखने पर डरते हैं....आपके इश्क़ से डरते हैं और इसकी खुशमिजाज़ी से डरते हैं तभी तो.....कहीं और ना सजदा गवारा, अस्सां ते तैनूं रब मनया.

हँसते-हँसते हर ग़म सहना, राज़ी तेरी रज़ा में रहना.......
आप एक आदत हैं मेरे लिए, मेरे जीने के लिए ज़रूरी.....आपको जानना होगा कि आप साँस में भी ज़रूरी हैं. वादा रहा, हँसते-हँसते हर ग़म सहूँगा, गुस्सा लीजिये...जी भर ख़फ़ा होइए..रो लीजिये, रुला लीजिये......लेकिन तेरी ही रज़ा में रहना है तो दिक्कत कैसी.... मेरी आदतों को मारिए गोली, वे तो हमेशा लाल-सलाम और भगवा-विरोध की बातें करती हैं, साथ में साहित्य भी....लेकिन आप तो साफ़ हैं ना...आप प्यार करिये, और तभी मैं कहता फिरूंगा कि....तूने मुझको सिखाया है यारा, अस्सां ते तैनूं रब मनया. इतने दिनों तक लिखने-पढने पर मैनें इतना जाना कि प्रेम करना मेरे लिए आसान है, उसमें नाक तक डूबे रहना भी लेकिन उसके खेल और उसमें अपने अभीष्ट को खोजना, हमेशा कठिन होता है. 

इस गीत का कई जगहों पर बेहद भौंडा इस्तेमाल हुआ लेकिन पेट तक सिहरन और गमक पैदा करने वाला वर्ज़न ही शानदार है जहाँ क़व्वाली की तेज़ लय बहुत धीमी रहती है और गायक के पास खेलने का बहुत वक़्त रहता है. यूं तो ये भी सुना है कि लोग किसी पाकिस्तानी गायक को इस क़व्वाली का पहला गायक कहते हैं, लेकिन मैनें जो सुना उसी पर लिखा...... और मेरा कोरा हिसाब ये है कि इसे ही सुना जाए तो ज़्यादा मज़ा आएगा. मेरी तरह आपको रुलाई भी आ सकती है. ख़्वाहिश हो तो आगे दिया गया वीडियो ही देखें, ज़्यादा अच्छा लगेगा, नहीं तो इन्टरनेट पर बहुत सारे वीडियो मौजूद हैं. इस वीडियो को देने की पीछे एक ही मकसद था कि इसके 'सिहरन' और 'गमक' वाले वर्ज़न का सबसे सफ़ल लोकप्रिय अनुवाद यही प्रयोग है.