शनिवार, 26 नवंबर 2011

सूरज की कविताएँ

(पिछले कुछ समय से हम सूरज की कविताओं का सामना कर रहे हैं. सूरज की कविताओं में व्याप्त तेवर अनूठा है और उस तेवर के अपने समय के साथ हुए तीखे समझौते भी अनूठे हैं क्योंकि कविताओं में जो लहज़ा सूरज इस्तेमाल में लाते हैं वह बिम्ब की रचनात्मकता की ओर ज़्यादा इंगित नहीं करता बल्कि वह अपनी बात रखने का एक पुख्ता ज़रिया साबित हो जाता है. सूरज साहित्यिक चोरियों पर बात करते हैं तो कहानी से कविता में हुई चोरियों का ज़िक्र कर जाते हैं. बनारस के इस कवि का बुद्धू-बक्सा आभारी.)





आग की आवाज या जलने की आवाज 
( साहित्यिक चोरियों के लिए ) 

बादल और पानी में फर्क अधिक है. आग और जलने में कम. कविता, कहानी , प्रेम, ईर्ष्या आदि के फर्क रेशे बराबर हैं. नामालूम. बादल समुन्दर से, पौधों से या हमारे शहरी शरीर से पानी चुराता नहीं, लेता है. बताकर. कवि सूचनाओं के मामले में गैरजिम्मेदार होते हैं अगर चोर नहीं होते. कोई कहानी आग की आवाज नहीं होती. पर कविता भी जलने की आवाज तब तक नही होती जब तक कोई कहानी आग की आवाज न हो जाए. चौदह पंक्तियाँ कहानी से कविता में टहलते हुए आ जाती हैं और स्थाई तौर पर कविता में बस जाती हैं. कहानी के पुल पाए उजड़ जाते हैं, गिर जाते हैं. कविता के साथ कवि का नाम इतना भयाक्रांत करने वाला होता है कि कहानी पत्रिका से निकल भागती है. आवेग अब कहीं नहीं मिलता. कवि के कान शब्द की ताल ढोते हैं. आवाज उनके लिए नहीं, भावों के लिए एक जगह है जहाँ वे आक्रांत कवियों से छुपे रहते हैं. 

जीवन या कहानियों में मामला गम्भीर और अश्लील इसलिए भी है कि चोरियाँ वहाँ दिन दहाड़े होने लगी हैं. अश्लीलता के अपने वकील और अपनी ही अदालते होती हैं.   


जलता हुआ पेड़ राष्ट्रीय दृश्य है
 
साँवली नदी कृशकाय इतनी कि
नदी नहीं
छाया नदी या
परछाईं स्मृति के लकीर की
 
ताप के ताए दिन में चहुँओर से पहुंचते रास्ते
जिनका कोलतार चिपककर
इतिहास के भाल से
सुगन्धियों पर ग्रहण लगाता
कि
बरगद का एक पेड़
जो कभी इस तरह था कि
‘है’.
है और जल रहा है.
बीच से सुलग रहा उम्मीद की तरह
हरा यह वृक्ष - दृश्य
 
धुँआ तैरता बरगद के पत्तों पर जो दूध भात
थामते अगली जीवितपुत्रिका के त्योहार पर और
माँए अपने पुत्रों के जीवन की
मंगलकामना कर तोड़तीं
व्रत 
 
धुएँ ने रोक ली पत्तों की साँस कि
किस हतभाग्य ने लगाई यह आग कि
ऐसा जलना किस मनुष्य को भाया कि
उसकी खोज नही हुई कि
वाकया फिर वही, नदी पर खत्म कि 
 
जल इतना कम कि
नदी छिपाती
जरूरतमन्दो से बालू के सर्पिल पाटों में
भूल चुके जल परस कूल किनारे नदी के
   
जलता हुआ पेड़
राष्ट्रीय दृश्य है, नाचने से इंकार करता मोर
राष्ट्रीय पक्षी है, लापता शेर
राष्ट्रीय पशु.

बुधवार, 9 नवंबर 2011

कवि के साथ - आलोक धन्वा

[ये हैं आलोक धन्वा के तीन कविताएँ. उनके संग्रह 'दुनिया रोज़ बनती है' से. कविता "बकरियाँ" में उस अनंत की व्याख्या मिलती है, जहाँ चरवाहे का होना नामुमकिन है. उस अनंत की परिभाषा में सुख नहीं है, क्योंकि तीखी ऊंचाइयों पर पीपल के पेड़ नहीं होते, इसलिए शायद सुख नहीं होता...फ़िर भी यहाँ हरियाली की अप्रत्यक्ष पैरवी है. "भूखा बच्चा" इस समय की सबसे मार्मिक कविताओं में से एक है, बच्चे की आँत होने का बिम्ब शायद आलोक धन्वा के यहाँ ही मुमकिन था जिसमें जलआकार या जलउत्तेजना बनकर रहा जा रहा है. भूखे बच्चे की तमाम दिक्कतें प्रकृति-प्रक्रियाओं से तुल्य हैं. यहाँ शायद इस बात का अवसाद व्याप्त है कि भूखे बच्चे के लिए मैं कुछ नहीं हूँ. आलोक धन्वा नींद को आवारा बना देते हैं और उससे उसी दशा में संवाद करते हैं. युवा-कविता पर इस कवि का कितना प्रभाव है, बताने की ज़रूरत नहीं. बुद्धू-बक्सा आलोक धन्वा का शुक्रगुज़ार.]



बकरियाँ
अगर अनंत में झाड़ियाँ होतीं
तो बकरियाँ अनंत में भी हो आतीं
भर पेट पत्तियाँ टूँग कर वहाँ से
फ़िर धरती के किसी परिचित बरामदे में 
लौट आतीं

जब मैं पहली बार पहाड़ों में गया
पहाड़ की तीख़ी चढ़ाई पर भी 
बकरियों से मुलाक़ात हुई
वे क़ाफ़ी नीचे के गाँवों से
चढ़ती हुई ऊपर आ जाती थीं
जैसे-जैसे हरियाली नीचे से 
उजड़ती जाती गरमियों में

लेकिन चरवाहे कहीं नहीं दिखे 
सो रहे होंगे
किसी पीपल की छाया में
यह सुख उन्हें ही नसीब है.

भूखा बच्चा
मैं उसका मस्तिष्क नहीं हूँ
मैं महज़ उस भूखे बच्चे की आँत हूँ.

उस बच्चे की आत्मा गिर रही है ओस की तरह

जिस तरह बाँस के अँखुवे बंजर में तड़कते हुए ऊपर उठ रहे हैं
उस बच्चे का सिर हर सप्ताह हवा में ऊपर उठ रहा है
उस बच्चे के हाथ हर मिनट हवा में लम्बे हो रहे हैं
उस बच्चे की त्वचा कड़ी हो रही है
हर मिनट जैसे पत्तियाँ कड़ी हो रही हैं
और
उस बच्चे की पीठ चौड़ी हो रही है जैसे कि घास
और 
घास हर मिनट पूरे वायुमंडल में प्रवेश कर रही है

लेकिन उस बच्चे के रक्त़संचार में 
मैं सितुहा-भर धुँधला नमक भी नहीं हूँ

उस बच्चे के रक्तसंचार में 
मैं केवल एक जलआकार हूँ
केवल एक जल उत्तेजना हूँ.

नींद
रात के आवारा 
मेरी आत्मा के पास भी रुको 
मुझे दो ऐसी नींद 
जिस पर एक तिनके का भी दबाव ना हो 

ऐसी नींद 
जैसे चांद में पानी की घास.