शुक्रवार, 30 मार्च 2012

कुमार अनुपम की कविता


(इस दफ़ा हम कुमार अनुपम की कविता से मुख़ातिब हैं. एकदम अभी की हिंदी कविता में जो भाषा का लोप होता दिख रहा है, उससे दूर छिटकते हुए भाषा के एकदम परिष्कृत बोध को कुमार अनुपम जज़्ब करते हैं. कुमार अनुपम का शब्द-चयन अक्सर निर्मल वर्मा की याद दिलाता है, इससे इस बात को अंदाज़ में लिखा जा सकता है की कुमार अनुपम सिर्फ़ कविता के कवि नहीं हैं, बल्कि वे गद्य के भी कवि हैं. ख़ालिस देशजता से सिक्त कुमार अनुपम की कवितायेँ जब सामने आती हैं, तो तमाम सारे बिम्ब बल खाने लगते हैं, और यहीं पर कुमार अनुपम को लेकर क्लिष्टता का बोध होता है. लेकिन, साफ़-साफ़ ये पता भी चलता रहता है की हम जहाँ खड़े थे, वहाँ हमारे से बीच से होकर बहने वाली नदी योजन भर रेत में तब्दील हो गयी है. कुमार अनुपम की ये कविता उनके शीघ्र-प्रकाश्य संग्रह 'बारिश मेरा घर है' में संकलित है. कवि को शुभकामनाएँ और कवि का आभार. ये तस्वीर मिहिर पंड्या की नज़र से.)

विदेशिनी                                                                                                                                                        

‘आमी चीन्ही गो चीन्ही तुमारे
ओगो विदेशिनी’
               रवीन्द्रनाथ टैगोर

1.
तुम बोलती हो 
तो एक भाषा बोलती है
और जब 
तुम बोलती हो 
मेरी भाषा में
एक नयी भाषा का जन्म होता है।

2.
वहाँ 
तुम्हारा माथा तप रहा है 
बुखार में 
मैं बस आँसू में 
भीगी कुछ पंक्तियाँ भेजता हूँ यहाँ से
इन्हें माथे पर धरना...।

3.
हम जहाँ खड़े थे साथ-साथ
एक किनारा था
नदी हमारे बिल्कुल समीप से 
गुज़र गयी थी कई छींटे उछालती
अब वहाँ कई योजन रेत थी 
हमें चलना चाहिए
हमने सुना और कहा एक दूसरे से
और प्राक्-स्मृतियों में कहीं चल पड़े 
बहुत मद्धिम फाहों वाली ओस
दृश्यों पर कुतूहल की तरह गिरती थी
हमने अपरिचय का खटखटाया एक दरवाज़ा
जो कई सदियों से उढ़का था धूप और हवा की गुंजाइश भर
हमने वहीं तलाशी एक तितली जिसके पंखों पर 
किसी फूल के पराग अभी रौशन थे
(वहीं अधखया हुआ सेब एक
किसी कथा में सुरक्षित था)
उसका मौन छुआ
जो किसी नदी के कंठ में 
जमा हुआ था बर्फ की तरह
पिघल गया धारासार
जैसे सहमी हुई सिसकी
चीख में तब्दील होती है
और इस तरह
साक्षात्कार का निवेदन हमने प्रस्तुत किया
फिर भी
इस तरह देखना
जैसे अभी-अभी सीखा हो देखना
पहचानना बिल्कुल अभी-अभी
किसी आविष्कार की सफलता-सा
था यह
किन्तु बार-बार
साधनी पड़ीं परिकल्पनाएँ
प्रयोग बार-बार हुए
दृश्य का पटाक्षेप 
और कई डॉयलाग हम अक्सर भूले ही रहे
और शब्द इतने कमज़र्फ
कि
शब्द बस देखते रहे हमको
ऐसी थी दरम्यान की भाषा
और कई बार तो यही
कि हम साथ हैं और बहुत पास
भूले ही रहे
किसी ऐसे सच का झूठ था यह बहुत सम्पूर्ण सरीखा
और जीवित साक्षात्
जैसे संसार 
में दो जोड़ी आँख
और उनका स्वप्न
फिर हमने साथ-साथ कुछ चखा
शायद चाँदनी की सिंवइयाँ
और स्वाद पर जमकर बहस की
यह वही समय था
जब बहुत सारा देशकाल स्थगित था
शुभ था हर ओर
तब तक अशुभ जैसा 
न तो जनमा था कोई शब्द न उसकी गूँज ही
हम पत्तियों में हरियाली की तरह दुबके रहे
पोसते हुए अंग-प्रत्यंग
हमसे फूटती रहीं नयी कोपलें
और देखते ही देखते 
हम एक पेड़ थे भरपूर
किन्तु फिर भी
हमने फल को अगोरा उमीद भर
और हवा के तमाचे सहे साथ-साथ
हम टूटे
और अपनी धुन पर तैरते हुए
गिरे जहाँ
योजन भर रेत थी वहाँ
हमारे होने के निशान
अभी हैं
और उड़ाएगी हमें जहाँ जिधर हवा
ताज़ा कई निशान बनेंगे वहाँ उधर...

सम्प्रति हम जहाँ खड़े थे साथ-साथ
किन्हीं किनारों की तरह
एक नदी 
हमारे बीचोबीच से गुज़र गयी थी
अब वहाँ सन्देह की रेत उड़ती थी योजन भर
जिस पर
हमारी छायाएँ ही 
आलिंगन करती थीं और साथ थीं इतना
कि घरेलू लगती थीं।

4.
तुम्हारी स्मृतियों की ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर एक ओर रुका हूँ

आवाजाही बहुत है

यह दूरी भी बहुत दूरी है

लाल बत्ती होने तो दो
पार करूँगा यह सफर।

5.
जहाँ रहती हो
क्या वहाँ भी उगते हैं प्रश्न
क्या वहाँ भी चिन्ताओं के गाँव हैं
क्या वहाँ भी मनुष्य मारे जाते हैं बेमौत
क्या वहाँ भी हत्यारे निर्धारित करते हैं कानून
क्या वहाँ भी राष्ट्राध्यक्ष घोटाले करते हैं

क्या वहाँ भी 
एक भाषा दम तोड़ती हुई नाखून में भर जाती है अमीरों के 
क्या वहाँ भी आसमान दो छतों की कॉर्निश का नाम है
और हवा उसाँस का अवक्षेप
क्या वहाँ भी एक नदी
बोतलों से मुक्ति की प्रार्थना करती है
एक खेत कंक्रीट का जंगल बन जाता है रातोरात
और किसान, पागल, हिजड़े और आदिवासी
खो देते हैं किसी भी देश की नागरिकता 
और व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर दिए जाते हैं 

क्या वहाँ भी
एक प्रेमिका
अस्पताल में अनशन करती है इस एक प्रतीक्षा में
कि बदलेगी व्यवस्था और वह 
रचा पाएगी ब्याह अस्पताल में देखे गये अपने प्रेमी से कभी न कभी
और जिए जाती है दसियों सालों से
जर्जर होती जाती अपनी जवान कामनाओं के साथ
जहाँ रहती हो
तुम्हारे वहाँ का संविधान
कहो
कैसा है विदेशिनी?

6.
छतें दहल जाती हैं
हिल जाती है ज़मीन
भीत देर तक थरथराती रहती है
कपड़े पसारने के लिए ताने गये 
तार की तरह झनझनाती हुई

जब गुज़रते हैं उनके
उजड्ड अतृप्तियों के विमान
हमारे ऊपर से
हमारी हड्डियों में भर जाती है आँधी
सीटियाँ बजने लगती हैं

उन्हें नक्काशियाँ पसन्द हैं
उन्हें फूल पसन्द हैं
वो दुबली-पतली चक्करदार गलियाँ
जिनमें
कस्बे के बहुत से घरों की
भरी रहती हैं साँसें और राज़
जिनके बीचोबीच से होकर गुज़रती हैं
स्कार्फ बाँधे नन्हीं-नन्हीं बच्चियाँ
खिलखिलाती स्कूल जाती हुईं

उन्हें ये सब बेहद पसन्द हैं

जिन्हें वे पसन्द करते हैं
उन सब पर 
वे बम बरसा देते हैं
वे उन्हें नष्ट कर देना चाहते हैं
कि उन सबको
कोई और पसन्द न कर सके
उन्हें ऐसा डर लगा ही रहता है
आखिर 
उनकी पसन्द का एक मतलब जो है

विदेशिनी,
इस तरह तो 
मुझे मत पसन्द करना!

7.
मेरी पसन्द का एक मतलब है
तुम्हारी पसन्द का एक मतलब है

अपनी पसन्द की हिफाज़त के लिए
विदेशिनी,
हमें उनकी पसन्द का मतलब जानना
                                       बहुत ज़रूरी है।

रविवार, 11 मार्च 2012

तीन फिल्मों के दरम्यान साल...


(साल २०११ की अगर तीन ऐसी फिल्मों की बात की जाए, जिनसे फिल्मों पर कुछ सार्थक बात की जा सकती हो और उनसे गुज़रकर कुछ अच्छा किया जा सकता हो, तो मेरे चयन में और बातों में ये फ़िल्में कुछ इस तरीके से आएँगी.)

जहाँ साहेब रहे...ठेका ओहीं रहा                                                

कमाल के संवादों और भंगिमाओं से लबरेज़ फिल्म सामने आती है, साहब,बीवी और गैंगस्टर. जहाँ इम्तेहान को सोच-समझकर देने और बिना सोचे-समझे इंतकाम लेने की रस्म अपनी रौ में आती तो है, लेकिन तिग्मांशु धूलिया के हासिल-कट स्टाइल में. तिग्मांशु उत्तर प्रदेश की क्षमताओं को जिस बारीकी से दिखा जाते हैं, वहाँ अनुराग कश्यप और कई दूसरे असफल साबित हो जाते हैं. तिग्मांशु इसलिए अलग हैं, क्योंकि उनकी कहानी में प्रेम भी है. प्रेम अपने पूरे वजूद में है, जहाँ सत्तर-अस्सी के दशक की पहचान सरीखे प्रेम-गीत चिर-परिचित सिग्नेचर स्टाइल में मिलते हैं. हर किरदार अपने चरित्र में एकदम हरफनमौला परिवर्तन करने को आमादा रहता है, तिग्मांशु कैरेक्टर-प्रेडिक्शनके लिए कोई वक्त नहीं देते, अलबत्ता उसमें ज़ाया हो रहे वक्त को निचोड़कर एक भिन्न परिवेश में सामने रख देते हैं. एक लंबे समय बाद ऐसी फिल्म देखने को मिली जिसके संवाद आपको बिस्तर-बिछौने से उठाकर पटक देंगे, प्रभाववादी बातें फिल्मों में हमेशा से मिलती रही हैं लेकिन प्रयोगमूलक और वस्तुपरक प्रभाव तिग्मांशु की इस फिल्म में से भी मिलता है.

इस समय में गोली क्या पिस्तौल के दाम पर भी बहस नहीं होती हैं, जान के दाम पर तो कतई नहीं, लेकिन यहाँ पर गोली का दाम जान के दाम को नीचे बताता आता है. बबलू के प्रेम करने का जो रास्ता है, वह अपनी शुरुआत से ही कठिन हो जाता है. साहब और बीवी को ललितनाम से जो चिढ़ है, उसका बीवी के भूत से जुड़ाव तो है ही लेकिन ये साहब छोटी रानी के बारे में सब जान रहा हैसे भी जुड़ा मिलता है, जिसकी क्रॉस-रेफरेंसिंग हवेली में घट रहे वर्तमान से है. तिग्मांशु गुलज़ार से भी प्रेरित दिखते हैं, तभी तो वे लिखते हैं कि हो सके, तो मेरी रातें ले आइयेगा’. तिग्मांशु उत्तर प्रदेश/उत्तराखंड की लो-लेवल राजनीति को भी बखूबी जानते हैं, इसलिए किसी भी स्थान को ध्यान में रखकर वे फिल्म बनायें तब भी उस लो-लेवल को वे दूर नहीं रख पाते हैं, तभी तो वे ठेकेदार के नाम से सड़क बनने की ताल ठोंकवा जाते हैं. शागिर्दकी गलती को वे समझ गए और शायद इसीलिए उन्होंने अपनी बात रखने का एक अलग जरिया ढूँढा. अब इस बात पर ध्यान तो ज़रूर जाना चाहिए कि बचे-खुचे रजवाड़े किस तरह गुजर-बसर कर रहे हैं, कोई रियासत तो बची नहीं. जो है, वह होटलों और फैक्ट्रीयों में तब्दील हो चुकी है, उन पर भी किस्म-किस्म के अवैध कब्ज़े, और इन्हीं कब्जों की रंजिशें सियासी भी हो जाती हैं जहाँ आदित्य प्रताप सिंह के पिता गैंडा सिंह के दादा को इंच भर दूरी से गोली मार देते हैं.

फिल्म में सबसे निर्दोष किरदार महुआ का ही है, जो शायद सब कुछ जानती है, लेकिन न जानने का ढोंग करते हुए साहब पर लुटी जाती है. मेरा मानना है कि अगर यह कहानी किसी दूसरे तरीके से आगे बढ़ती तो महुआ बड़ी हवेली में अपनी जगह बना लेती, साथ ही साथ उसे छोटी रानी के साथ रहने में भी कोई गुरेज़ नहीं होता, क्योंकि महुआ अपने किरदार को पारदर्शिता से बरत रही है, जहाँ छल और धूर्तता की भावनाएं है ही नहीं. छोटी रानी तो सिर्फ़ रातों की तलाशमें परेशान रहती है, उसकी तलाश को प्रेम की तलाश की परिभाषा में तब्दील करना बबलू के प्रेम को झूठा साबित करना होगा. जिमी शेरगिल हमेशा से मेरे प्रिय रहे हैं, किसी भी किरदार में ढलना हो तो उन्हें भी अभय देओल की ही तरह कोई समस्या नहीं आती है. वे एक खास दूरी उन चीज़ों से बरतते हैं जिनसे उनके किरदार को नहीं बल्कि जिमी शेरगिल को ख़तरा होता है, और यहाँ पर वे सफल हो जाते हैं, ठीक इसी जगह पर वे अभय देओल से अलग हो जाते हैं जो कि मूल में घुसकर अभिनय करने वाला अभिनेता है. साहब,बीवी और गैंगस्टरकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसे अपने मूल कथानक से बाहर निकलने का अधिकार प्राप्त है, क्षेत्रीय-विशेषण इसे एक अलग स्तंभ में रूपांतरित कर देते हैं और यहीं पर फिर से हासिलके तिग्मांशु की यादें ताज़ा हो उठती हैं जहाँ पर निर्देशक क्राईम-फैंटेसी से प्रभावित मिलता है.

बिगड़ैल प्यार से नादान बना परिंदा                                             

जिस समय में रॉक संगीत भी फ़्यूज़न में घुसा चला जा रहा है, जिस समय में संगीतकार और तमाम सांगीतिक-पशुकूदने और अपनी ही गर्जना की प्रतिश्रुति सुनने को आमादा है, स्थानीयता के जिस काल-खंड में एक शास्त्रीय संगीतकार कबीरचौरा-बनारस की गलियों में उपेक्षित होने से गायब हो जाता है और फिर उसके मर जाने की खबर आती है वहीँ पर एक ऐसी फिल्म आती है. जो रॉक कल्चर को ही आड़े हाथों लेकर उसे रगों में उतार जाती है. एक नायक सामने आता है, जो शायद हमेशा अपने दिल को तोड़ने की तलाश में है, जिसका प्रेम उसका होकर भी उसका नहीं है, जिसके लिए कपड़े फाड़ने और चीखने वाली भीड़ का महत्त्व उसकी निष्कासित प्रेमिका से कम नहीं है. रॉकस्टार को इम्तियाज़ अली की पिछली फिल्मों की तरह शायद नहीं लिया जा सकता है, ‘जब वी मेटऔर लव आज कल जैसी फ़िल्में जहाँ अपनी पटकथा को सामने रखकर आती हैं तो रॉकस्टार शायद जिम मॉरिसन और उसके हर अनुकरणकारी की डायरी को लेकर आती है, उसकी आपबीती को लेकर आती है.

रॉकस्टार एक विरोधाभास की कहानी है, जहाँ जेजे के प्रेम और संगीत में एक बहुत बड़ा अंतर व्याप्त है, वह उन दोनों को साथ रखने की सोच भी नहीं सकता है, लेकिन वह उन दोनों में से किसी एक को छोड़ने के बारे में भी नहीं सोच सकता है. ठीक इसी जगह इम्तियाज़ ये दिखा जाते हैं कि जेजे की प्रेमिका उसके संगीत से प्रकाश में नहीं आयी, वह तो बस आ गयी और उसका किसी भी किस्म का कोई लगाव नहीं था जेजे के सांगीतिक जीवन से. ये एक खांटी भारतीय मानसिकता का चित्रण है जहाँ आपकी पत्नी को आपके शौक और जूनून से उतना ही कम लगाव है, जितना ज़्यादा आपसे. जेजे अक्खड़ और इतना जटिल क्यों है? इसका उत्तर उसकी प्रेमिका की उससे ऐच्छिक दूरी तो नहीं ही है. दरअसल, दिल के टूटने पर असल संगीत निकलने की जो अवधारणा जेजे ने विकसित की है, उसे क्रियान्वित करने की प्रक्रिया में उसके अंदर से प्रेम का नैतिक बोध खत्म हो जाता है. तभी तो प्राग में प्रेमिका को पहली बार किसकरने में उसका रुझान उस ओर होता दिखता है, जहाँ से डीपीएस के बच्चों का किससे ही शुरू होने वाला प्रेम सामने आता है, जो समय-दर-समय और शारीरिक ही होता जाता है. इसके साथ ही उसे एक ऐसी लड़की का साथ प्राप्त हो जाता है, जो बार-बार उसे उसके खुद के दिल को तोड़ने में मदद करती है और यहीं से जेजे के उस जटिल स्वरुप की नींव पड़ जाती है.

रहमान जैसे सुन्दर संगीतकार के साथ संगीत का आनंद लेना कठिन है, वे धीरे-धीरे दर्शक के संगीत बोध को और जटिल करते जाते हैं. सौम्यता और सौंदर्य के संगीतकार माने जाने वाले रहमान जब रॉक कल्चर का कर्कश संगीत लेकर उपस्थित होते हैं, तब भी दर्शक उनके संगीत के वजन को सराहता मिलता है. रॉकस्टार के बहुतेरे दर्शकों नें शायद पहले ऐसा संगीत न सुना हो और वे इम्तियाज़ की पुरानी फिल्मों या रणवीर कपूर के प्रेम में फिल्म देखने आये हों, लेकिन कर्कश होते हुए भी मधुरता के पैमाने पर उतर जाने वाला संगीत उन्हें भा जाता है. रहमान के संगीत रचे जाने की प्रक्रिया में शायद उनका पूर्वानुमान या पूर्व-स्मृति का हाथ हो, क्योंकि इस फिल्म का संगीत कुछ-कुछ वैसा ही प्रभाव पैदा करने की कोशिश करता है, जो जिम मॉरिसन या उसके समकालीनों के संगीत में हुआ करता था.

इम्तियाज़ एक ऐसा नायक पैदा करके अपनी फिल्म पूरी करते हैं जिसकी negativity से लोगों को प्यार है, वो जितना बिफरता है उतना ही प्यार पाता है. वह मंच पर जितना गुस्साता है, उतना ही बड़ा रॉकस्टार गिना जाता है.

हाउ डर्टी?                                        

एक बहुत ही पुराने लहज़े को लेकर एक फिल्म आती है, और विद्या बालन एक नए तरीके से अभिनय करती हैं...सब कुछ बदल जाता है, फिल्म जेहन में उतरती है और घर कर जाती है. राह चलते व्यस्क फिल्मों के पोस्टर जिस तरह ढंकी छिपी और तिरछी नज़र से देखे जाते हैं, 'द डर्टी पिक्चर' के पोस्टर भी उसी नकार से साथ देखे गए जहाँ देखने में नहीं देखनेकी असहमति भरी हुई थी. हिन्दी सिनेमा के शुरूआती दौर में जब औरतें फिल्मों में काम करने लगीं, तो वे निन्दा और परित्याग का शिकार हुईं, लेकिन अभिनय की दहलीज़ मादकता से अनूदित होने लगी तो स्टूडियो लोगों की नज़र में वेश्यालय हो गए. इसी विरोधाभास की अभिनेत्री सिल्क स्मिता को समर्पित है यह फिल्म, सुधार के साथ कहें तो सिल्क स्मिताही है यह फिल्म.

पिछले कुछ समय में हिन्दी सिनेमा में जमकर अंग-प्रदर्शन हुए, कैमरा कई मायनों में सड़कों और बगीचों से बिस्तर में जा घुसा. अभिनेता शर्माने लगे, अभिनेत्रियां और खुलीं. अंग्रेज़ी फिल्मों की तर्ज़ पर रानी मुख़र्जी और दिव्या दत्ता जैसी अभिनेत्रियों नें भी ऐसे सीन दे डाले. लेकिन अस्सी-नब्बे की मादकता अभी से और विकसित थी. दरअस्ल समय के साथ सुन्दर मादकता का विनाश होने लगा, क्योंकि उत्तर आधुनिक सिनेमा किसी भी विषय-वस्तु को लेकर उसकी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है और यहीं पर अक्सर फ़िल्मकार अपना नुक्सान कर बैठते हैं. तो, डर्टी पिक्चर के बाद विद्या बालन एक तरह से निष्कासित हो गयीं, क्योंकि उन्होंने जिस स्तर पर अपने काम और अपने शरीर को उभाड़ा उसकी कल्पना भी विपाशा बासु और ऐसी कई अभिनेत्रियां नहीं कर सकती हैं.

बहुत ही ढंके-छिपे लहज़े में ये फिल्म आयी, और नब्बे के दशक के फ़िल्मी दुनिया को छितरा गयी. मिलन लुथारिया से इस तरह की अच्छी फिल्म की आशा करना कुछ गलत नहीं होगा.

इस फिल्म में विद्या बालन के सामने जिस तरह नसीरुद्दीन शाह ही लगातार घूम रहे थे, वहाँ केन्द्रीय किरदार अगर इमरान हाशमी को दिया जाता तो फिल्म का लचरपन कुछ कम किया जा सकता था. हालाँकि इस फिल्म में नायक-खलनायक के बीच कोई खास फ़र्क नहीं था क्योंकि इमरान और नसीरुद्दीन शाह alternate  तरीके से नायक और खलनायक दोनों ही किरदारों का वहन कर रहे थे, फिर भी अगर इमरान थोड़ा और फोकस किये जाते तो कहानी और वजनदार होती.

सिल्क एकदम उन्मुक्त रहना चाहती है, बिना किसी बंधन के और उसके साथ समय और स्थान दोनों ही निर्भीक तरीकों से चलते हैं. इसका असर ये होता है कि अकेली रात में और पुरुषों से अटे पड़े सिनेमा हॉल में भी वह उतने उत्साह के साथ बैठी होती है, जिस तरह कोई लड़की अपनी सहेली के साथ बैठी होती है. दरअस्ल, सिल्क को स्थान से ज़्यादा अपने समय पर भरोसा है क्योंकि वह अपने समय की ही असल शिकार है और ये बात वह अच्छे से जानती है कि भले ही ब्लैक टिकट खरीदने वाला लड़का उसके साथ रात गुजारना चाहता है, लेकिन वह उसके लिए अच्छे समय का वाहक है.

सिनेमा नियमों पर बना होता है, खासकर स्त्री-विषयक सिनेमा....इसलिए सिल्क पर भी भरोसा टूटने की सरल अवधारणा का आरोपण हो जाता है. यही काम इश्कियामें नहीं हो पाया, तो स्त्री किरदार को भी दर्शक का साथ नहीं मिल पाया. ये फिल्म विद्या बालन को न चाहते हुए भी सिल्क के बराबर लाकर खड़ा कर देती है, मेरे हिसाब से ये किसी फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है. सिल्क और विद्या दोनों ही ढँककर अभिनय करने वाली नीति का विरोध कर देती हैं और भीड़ से अलग जाकर खड़ी हो जाती हैं. इसीलिए द डर्टी पिक्चरको देखते समय कभी भी विद्या का लोप होना स्वीकार्य नहीं होता और न ही सिल्क का लोप होना, हमारे भीतर का दर्शक विद्या और सिल्क दोनों को ही सामने रखकर ऐसी महान फिल्म का साक्षी होता है.


(ये यहाँ भी : रंगमहल/नेटवर्क ६)