मंगलवार, 15 मई 2012

समालाप - १ : गीत चतुर्वेदी


[समालाप एक अंतहीन श्रृंखला की शुरुआत है, जहाँ सोचने व विचारों को और वृहद बनाने की असीमित उन्मुक्तता सम्भव होगी. स्तंभ का आगाज़ युवा रचनाकार गीत चतुर्वेदी कर रहे हैं. प्रश्न उन ऐसे मूलभूत बिंदुओं को लेकर हैं, जिन पर कोई भी और किसी भी विधा या कला का व्यकि सोच सकता है. यह बुद्धू-बक्सा के उन कुछ ड्रीम प्रोजेक्ट्स  में से एक है, जिन पर बहुत सारा वक्त दिया जाना हमेशा नाक़ाफी होगा. गीत द्वारा इन प्रश्नों के दिए गए उत्तर इतने बोधगम्य और अनूठे हैं, कि उनका कोई जवाब नहीं. धर्म और प्रेम जैसे अवयवों को लेकर उनका इस हद तक पुख्ता होना अक्सर आपको अचंभित कर देता है. क्योंकि एक तरफ़ हिन्दी का ऐसा समाज व्याप्त है, जहाँ इन बिंदुओं पर साफदिल तरीके से सोचने के सामर्थ्य समाप्त हो रहे हैं और दूसरी तरफ़ गीत इन्हीं बातों को अपने औजारों की तरह इस्तेमाल में लाते हैं. 
आगे भी यह सफ़र जारी रहेगा, लोग जुड़ते रहेंगे.बुद्धू-बक्सा गीत चतुर्वेदी का आभारी.]

गीत चतुर्वेदी से सिद्धांत मोहन तिवारी की बातचीत


अपने लिखने में आप समय को क्या समझते हैं? क्या उसका कोई विकल्प मौजूद होता है?

कालिदास के नाटकों में कई फूलों का उल्लेख है। ख़ासकर ‘विक्रमोर्वशीयम’ में एक श्लोक में वह दो फूलों का उल्लेख करते हैं। एक है कुंद। दूसरा फूल है माधवी। दोनों ही चमेली के फूलों की प्रजातियां हैं। कुंद और माधवी में बड़ा दिलचस्प संबंध है। कुंद पहले खिलता है, माधवी बाद में। जैसे ही माधवी खिलना शुरू होती है, कुंद कुम्हलाने लगता है। माधवी पूरी तरह खिल जाती है, कुंद मुरझा जाता है। कालिदास ने पुरुरवा की पत्नी को कुंद कहा है और उसकी प्रेमिका यानी उर्वशी को माधवी। जैसे-जैसे पुरुरवा, उर्वशी के प्रेम में पड़ता है, कुंद वैसे-वैसे मुरझाने लगती है।

कला के भीतर समय के प्रयोग का यह दिलचस्प उदाहरण है। कालिदास को समय के परिवर्तन को दिखाने के लिए विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा। सिर्फ़ दो फूलों को प्रतीक की तरह प्रयोग करने-मात्र से उनका अभीष्ट सध जाता है। फिल्मों में यह बहुत अच्छे से दिखाई देता है, क्योंकि दृश्य माध्यम में समय की स्ट्रेचिंग को अपेक्षाकृत आसानी से दिखाया जा सकता है। मुझे ‘आवारा’ का एक बहुत चर्चित दृश्य याद आता है। छोटा राज कपूर अब केएन सिंह के क़ब्ज़े में है। फ्रेम में ज़मीन पर डरा-सिमटा छोटा कपूर है। धीरे-धीरे उसपर एक परछाईं छाने लगती है। यह परछाईं केएन सिंह की है। कुछ ही पलों में राज कपूर पूरी तरह उस परछाईं से बने अंधेरे में ग़ायब हो जाता है। इससे फिल्मकार यह बताना चाहता है कि अब वह बालक भी अपराध के अंधेरे में शामिल हो चुका है।

यहां भी जिस चीज़ का प्रयोग किया गया है, वह समय है। कला के भीतर समय एक औज़ार की तरह भी उपलब्ध होता है। अगर आप उसे नियंत्रित कर लेते हैं, तो आप बहुत सारी मुश्किलों से बच जाते हैं।

लेकिन समय बहुत रूढ़ चीज़ है। इसके जितने अधिक शेड्स हो सकते हैं, उतनी ही अधिक आशंका है कि आप अपनी कला में, समय को औज़ार की तरह प्रयोग करने के मामले में क्लीशे को प्रतिष्ठित कर दें। जैसे बाद की फिल्मों में हम देखें, तो लगभग हर फिल्म में ऐसा होता था कि नायक दौड़ता था और दौड़ते-दौड़ते जवान हो जाता था। यह एक सुंदर औज़ार के रूढ़ हो जाने का सबसे कारुणिक उदाहरण है।

किसी भी कि़स्म की कला हो, उसमें समय का कोई विकल्प नहीं हो सकता। समय अकेला टर्म नहीं है। उसे हमेशा दूरी के साथ परिभाषित किया जाता है। बिना दूरी के समय का कोई अस्तित्व नहीं है। कई बार दूरी को मापने की इकाई भी समय ही होती है। जो वस्तुएं भौतिक नहीं होतीं, उनकी दूरियों को समय ही परिभाषित करता है।

जैसा कि रूढ़ है, साहित्य अनिवार्यत: स्मृति आधारित होता है। दुनिया का सारा साहित्य एक विशाल नॉस्टेल्जिया है। तो यह नॉस्टेल्जिया या अतीत या स्मृति जैसे शब्द भी समय की सत्ता के ही सूचक हैं। साहित्य की बहुत सारी परिभाषाएं हैं, लेकिन अंतत: यह एक कि़स्म की यात्रा ही है। एक क्षण से दूसरे क्षण के बीच की गई यात्रा। जॉन बर्जर ने फोटोग्राफी पर लिखी अपनी प्रसिद्ध किताब ‘वेज़ ऑफ सीइंग’ में कहा है, जिस क्षण हम तस्वीर खींचते हैं, और जिस क्षण हम तस्वीर देखते हैं, यह दो क्षणों का सुमेल है। जिस क्षण में तस्वीर खींची गई है, वह उस क्षण में कैसी दिखती थी, यह हम बाद में, देखे जाने के क्षण में, देख पाते हैं।

लेखन एक कि़स्म की फोटोग्राफी भी है। वह बहुत कुछ है, उसमें फोटोग्राफी भी है। व्हिटमैन ने तो अपने पूरे लेखन को ही एक विशाल फोटोग्राफी कहा था। मैं उसे सिर्फ फोटोग्राफी नहीं मानता, लेकिन यह उसका अहम हिस्सा है। इसमें भी दो क्षणों के बीच की यात्रा है। लेकिन लेखन में हम इन क्षणों को पार कर जाते हैं। इसमें समय के कई बिंदु होते हैं।
1- हम जिस क्षण का चित्रण कर रहे हैं, वह क्षण।
2- जिस क्षण में हम उस क्षण का चित्रण कर रहे हैं, वह क्षण।
3- जिस क्षण का चित्रण कर रहे हैं, और जिस क्षण में चित्रण कर रहे हैं, उन दोनों क्षणों का एकल और सामूहिक इतिहास।
4- और जिस क्षण में उस चित्रण को पढ़ा जा रहा है, उस क्षण का एकल व सामूहिक इतिहास-वर्तमान।
मोटे तौर पर चार बिंदु बनते हैं। इन चारों बिंदुओं के बीच साहित्‍य की यात्रा होती है। इन चारों बिंदुओं के बीच बहुत दूरी होती है। लिखना समय के इन्हीं बिंदुओं की दूरी को पार करना है। उन्‍हें सीमित कर देना है. या उस दूरी को पाट देने का भाव उत्‍पन्‍न करना है. यह लगभग असंभव काम है, लेकिन इसका संभाव्य इसी में है कि आपने उस दूरी को कितना कम कर दिया है।

जैसे ‘महाभारत’ का उदाहरण लिया जाए। उसकी एक रीडिंग में आपको यह लगेगा कि यह सारी कथा पहले घट चुकी है और व्यास के कहने पर गणेश इसे लिपिबद्ध कर रहे हैं। किताब के बीच तक पहुंचने पर ऐसा लगेगा कि ये सारी चीज़ें अतीत में नहीं घटी हैं, बल्कि वर्तमान में वे चल रही हैं। व्यास इसका क्रॉनिकल बना रहे हैं। ख़ासकर युद्ध का समय आपको वर्तमान का समय लगेगा, जब संजय सारी रिपोर्टिंग कर रहे हैं। और शांति पर्व तक पहुंचते-पहुंचते आपको यह आभास होगा कि ये सारी चीज़ें कभी घटित नहीं हुई थीं, वर्तमान में भी नहीं घट रहीं, बल्कि आने वाले किसी भविष्य में घटित होंगी। व्यास ने उस किताब में समय का नियंत्रण किया है। इसीलिए पाठक को इस तरह के आभास होते हैं। वह एक ही किताब में समय के तीनों खंडों, भूत, वर्तमान और भविष्य का आभास दे जाते हैं। यह एक जागृत कलाकार के लिए बड़े स्वप्न जैसा है।

संगति
ऐसा आपको मारकेस के ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ में भी दिखाई देगा। इसके नाम में ही समय की इकाई है। समय परिमित है। सॉलीट्यूड या अकेलापन अपरिमित है। लेकिन इसके नाम में ही मारकेस ने अकेलेपन को परिमेय कर दिया है। सौ किलो का अकेलापन या सौ साल का अकेलापन। अगर यह नब्बे साल का अकेलापन होता, तो क्या होता? वह भी परिमिति होती। यहां समय से वह उस चीज़ को माप रहे हैं, जिसे कभी क्वांटीफाय किया ही नहीं जा सकता। और उपन्यास के भीतर वह समय को एक औज़ार की तरह ही प्रयोग करते हैं। आप देखेंगे, उसकी पहली पंक्ति ही समय और उसकी दूरी को छू लेती है। जब वह कहते हैं, एक सुदूर दुपहरी में...। इसी को मारकेस ने अपनी शैली में ख़ासतौर पर ढाला भी है। उनके यहां समय का आलोडऩ दिखाई देता है। हमारे यहां आलोचक जिन बातों को अतिकथन कहकर ख़ारिज कर देते हैं, मारकेस के यहां उसका अविश्वसनीय सौंदर्य दिखता है। जब वह कहते हैं, और बार-बार कहते हैं, तीस साल पहले भी ऐसा ही हुआ था, तब वह वर्तमान को विस्तृत कर देते हैं। उस प्रसंग में या उस पैराग्राफ़ में वर्तमान केवल वे क्षण ही नहीं होते, जिनका चित्रण हो रहा है, बल्कि जिस अतीत का जि़क्र वह करते हैं, वह भी वर्तमान बन जाता है। मारकेस के अलावा कई लेखकों ने यह किया है, लेकिन सॉलीट्यूड की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यही है कि उसका लेखक समय का प्रयोग सियाही की तरह करता है।

यह रचना के भीतर समय को नियंत्रित करने जैसा है। इसका कभी कोई नियम नहीं होता। कोई सूत्र नहीं होता। यह एक प्रयोग की तरह है। हर कलाकार अपने स्तर पर ऐसा प्रयोग करता है। और कोई ज़रूरी नहीं है कि हर प्रयोग को सफलता मिले ही।

पिछले चालीस बरसों से दुनिया में उत्तर-आधुनिक विचारधारा के साहित्य पर जितना काम और प्रयोग हुआ है, उसमें आप इसे बहुत स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं। उत्तर-आधुनिकता ने कलाकारों को बहुत महत्वाकांक्षी बनाया है और वे पहले से ज़्यादा जोखिम लेने लगे हैं। वे समय को विखंडित करके देखते हैं। यह फिर वही बात है कि समय का विभाजन उसकी न्यून इकाई क्षण में किया जाए। इसके लिए भी समय का नियंत्रण करना होगा। जैसे, जब भी मैं उत्तर-आधुनिक साहित्य में विशेष प्रयोगों की बात करता हूं, कुरोसावा की फिल्म ‘रशोमान’ को एक महत्वपूर्ण और व्यापकता तक पहुंचाने वाले प्रस्थान बिंदु की तरह देखता हूं। यहां एक ही कथा के चार अलग-अलग अंत होते हैं। चार अलग-अलग लोगों के नज़रिये से। ये चार अलग अंत समय के चार विभाजन हैं। यह एक क्षण का इतना बारीक विखंडन है कि उससे चौरस्ता फूटता है। और आप देखेंगे कि हमारे जीवन में भी जब हम सूक्ष्मता की ओर जाते हैं, तो दोरास्ते-चौरास्ते ही निकलकर आते हैं। समय तो हर कला व लेखन में उपस्थित है, महत्वपूर्ण यह है कि लेखक उस समय के साथ व्यवहार कैसा करता है।

कई बार इसे सामयिकता या समकालीनता जैसे मुहावरों से भी देखा जाता है। यह भी कलाकार का चुनाव होता है कि वह किस समय को अपनी मुख्य पिच बनाता है। किसी कलाकार के लिए समय उतना ही होता है, जितना आंखों के आगे दिख रहा है। दूसरे के लिए समय वह है, जो आंखों से ओझल है। और एक तीसरा कलाकार है, जो दिख रहे और ओझल दोनों समयों को साधने की कोशिश करता है। बोर्हेस का उदाहरण मैं हमेशा देना चाहूंगा। बोर्हेस जिस समय के आर्हेंतीना में रह रहे थे, उसके वर्तमान समय से सीधा संवाद नहीं कर रहे थे। उन्होंने अपने लिए एक ऐसा समय चुना था, जिसकी सीमा पांच हज़ार साल पुराने अतीत से जुड़ी हुई थी। यानी उन्होंने समय को उसकी पूरी विशालता के साथ स्वीकार किया था। वह ओझल हो गए समय और दिख रहे समय दोनों से एक साथ व्यवहार कर रहे थे।

समय पर लिखी अपनी प्रसिद्ध किताब ‘द इनह्यूमन’ में ल्योतार कहीं कहते हैं कि हर वाक्य एक निर्धारित ‘अब’ होता है। ‘ईच सेन्टेन्स इज़ अ ‘नाउ’’। वह कहना चाहते हैं कि रचना के भीतर सबकुछ वर्तमान हो जाता है। वर्तमान जो असल में क्षणभंगुर होता है और एक अवधारणा से ज़्यादा कुछ नहीं होता, रचना के भीतर वही शाश्वत बन जाता है। यानी लेखन या कला, क्षणभंगुरताओं को शाश्वत में बदलने का एक माध्यम है। इस तरह से कह सकते हैं कि रचना के भीतर हम ‘प्रेजेंटिंग द प्रेजेंट’ कर रहे होते हैं। ‘एन एटर्नल प्रेज़ेंट’. लेखन समय की प्रस्तुति और प्रस्तुत में समय का अवबोध है।

रचना के भीतर समय की विशालता के साथ व्यवहार करने का अर्थ है समय का विखंडन करना। आप जितना विशाल समय चुनेंगे, विखंडन की संभावनाएं उतनी ज़्यादा होंगी और चुनौती भी उतनी ही होगी। यह एक कि़स्म की अशुद्धि का प्रतिपादन है। कला का विकास अशुद्धियों के प्रतिपादन से होता है। कोई भी कला स्वभावत: शुद्धि की ओर नहीं जाती। वह अभ्यस्त शुद्धि, अभीष्ट शुद्धि और स्वीकृत शुद्धि का विरोध करती है। यह अशुद्धि तभी प्राप्त की जा सकती है, जब वह समय और दूरी, टाइम और डिस्टेंस कहना ज़्यादा सही है, का ख्याल रखे। इसके लिए अनिवार्य और अभ्यस्त को तोडऩा होगा।

संगीत में इसके कई उदाहरण हैं। लोकगायन में आपको हमेशा दिखेंगे। एक अभी याद आ रहा है। कुमार गंधर्व ने कबीर का पद गाया है- ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’। इसे हम चदरिया लिख रहे हैं, लेकिन कुमार जी ने इसे ‘चद रीया’ गाया है। अब यह जो चदरिया को चद और रीया में बांट दिया है उन्होंने, यही टाइम और डिस्टेंस के साथ किया गया प्रयोग है। एक ही शब्द के बीच उन्होंने समय का विखंडन किया और उसमें एक दूरी पैदा कर दी। इस दूरी ने उसके सौंदर्य में वृद्धि की। हालांकि ऐसा करना भाषा को अशुद्ध करना हुआ, लेकिन कला के भीतर अशुद्धियां ही सौंदर्य में इज़ाफ़ा करती हैं।  

मैंने बहुत कम लिखा है, और उस कम लिखे के बारे में कुछ कहना संकोच से भर देता है, लेकिन अपनी कहानियों में मैने हमेशा टाइम को इसी तरह विखंडित करने और अभ्यस्त को तोडऩे की कोशिश की है। ‘सिमसिम’ में आप देखेंगे, एक अध्याय ऐसा है, जहां हर पैराग्राफ़ पर समय बदल जाता है। एक पैराग्राफ़ में वह वर्तमान में है, दूसरे में अतीत में और तीसरे में भविष्य की कल्पना है। ऐसा पंक्तियों में भी है. पूरी कहानी समय के एक ही धरातल पर नहीं चलती। वह एक साथ तीन से ज़्यादा समयों में चल रही होती है। बूढ़े का समय, नौजवान का समय और वह समय जिससे उन दोनों का समय आच्छादित है। यह समय का गुच्छा है। 51 साल पहले का समय आज के समय से इस तरह मिल रहा है, जैसे बीच में कोई आईना हो और दोनों ही एक-दूसरे के प्रतिबिंब हों। ‘सिमसिम’ में समय के उन्हीं बिंदुओं को आपस में मिलाकर एक रेखाचित्र बनाने की कोशिश की गई है। ऐसे ही प्रयोग आपको ‘पिंक स्लिप डैडी’ में भी मिलेंगे, बल्कि उसमें कहीं ज़्यादा हैं। आपको याद होगा, कहानी का अंत, कहानी के अंत में नहीं होता, बल्कि अंत से काफ़ी पहले होता है। आखिरी चैप्टर के पहले पैराग्राफ़ में कहानी का आखिरी दृश्य दिखा दिया जाता है, जब नायक, नताशाबेन नामक महिला के दरवाजे पर बेल बजाता है। लेकिन उसके बाद कई पन्ने हैं, जिनमें कहानी चलती है। वह बेल बजाने से पहले की कहानी है। यानी एक वर्तमान और एक भविष्य का चित्रण करने के बाद उसके अतीत में जाया जाता है और रचना को वर्तमान के बाद प्रस्‍तुत हुए अतीत में समाप्‍त किया जाता है.  यह रचना के भीतर अपने समय को विस्तृत करने का प्रयास है।

एक लेखक के तौर पर मेरा अभीष्ट यह रहता है कि मैं रचना के भीतर निरपेक्षता की प्राप्ति कर सकूं। दरअसल, सारी सापेक्षताएं अपने संभव होने से पहले निरपेक्ष होती हैं। मेरे लिए लिखना संभव होने के इसी क्षण को जीना है


आज के संदर्भ में धर्म का कोई महत्व है? यदि हां, तो वह क्यों है?

यह बहुत विशद प्रश्न है। एक बड़े तबक़े के लिए धर्म हमेशा महत्वपूर्ण रहेगा। मैं इस पर दो तरह से सोचना चाहूंगा - मैं जिस समाज में रहता हूं, वहां एक नागरिक के तौर पर मैं धर्म को किस तरह लेता हूं? और दूसरा तरीक़ा कि मैं एक लेखक के तौर पर धर्म को क्या अपने लिए मददगार पाता हूं?
और दोनों ही तरीक़े बहुत उलझे हुए हैं।

एक बहुत ही लोकप्रिय क़दम यह होगा, जैसा कि हिंदी में लोकप्रियता के लिए इस तरह की घोषणा करना यार लोगों का शग़ल है, कि मैं धर्म को ठोकर मारता हूं। लेकिन मैं ऐसी कोई घोषणा या बयान नहीं दूंगा।

धर्म भ्रम में डालने वाला शब्द है। कई बार इसका स्पष्टीकरण इस तरह दिया जाता है कि हम जिस चीज़ को धारण करें, वह हमारा धर्म है। ऐसे किसी स्पष्टीकरण में जाने की भी मंशा नहीं।

बल्कि मैं साफ़ तौर पर यह कहूंगा कि अब हम ऐसे किसी भी समाज की कल्पना नहीं कर सकते, जिसमें धर्म न हो। धर्म हमारी सामूहिक आदत में तब्दील हो चुका है। इसका अस्तित्व इतना पुराना है कि अब हम इसे संस्कृति का पर्याय समझने लगे हैं, जबकि यह हमारी जीवनशैली बन चुका है।

एक नागरिक के तौर पर, निजी तौर पर, अपने जीवन में धर्म का कोई ख़ास महत्व मुझे दिखाई नहीं देता। कई बार उससे अड़चन ही आई है। कुछ बहुत छोटे-से मुद्दे हैं, जिनका श्रेय मैं अपने हिंदू होने को दे सकता हूं। जैसे मैं शाकाहारी हूं। अगर मैं हिंदू नहीं होता, यूरोप या मध्य-पूर्व में होता, तो मुझे शाकाहारी बनने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने होते। इस धर्म के कारण मैं सहज ही शाकाहारी हूं। हालांकि हिंदू होना, शाकाहारी होना नहीं होता, लेकिन निजी तौर पर मुझे इससे सहायता मिली कि मुझे बचपन से ही शाकाहार के संस्कार मिले।

सारी कलाएं आपकी स्मृति व संस्कारों से बनती हैं। आप इन्हीं तत्वों मे उलटफेर करते हैं। धर्म सामूहिक स्मृति से जुड़ता है। उसके साथ संस्कृति के जुड़ जाने से भी एक ख़ास कि़स्म का भ्रम पैदा होता है। कई बार मैं सोचता हूं कि अगर मैं हिंदू नहीं होता, तो क्या मैं इतनी आसानी से ऋग्वेद के भीतर घुस पाता? या बिल्कुल सहजता से उन मिथकों का प्रयोग कर लेता, जो दूसरों के लिए कठिन होते हैं? इसका भी कोई सीधा जवाब नहीं है, क्योंकि ऋग्वेद पर या भारतीय मिथॉलजी पर सबसे अच्छा काम ईसाइयों ने किया है। धर्म का संबंध जातीय स्मृतियों से बन जाने के कारण कला में उनका आगमन अवचेतन के वाहन से हो ही जाता है।

जब मैंने फेसबुक पर अपना अकाउंट बनाया था, तो वहां एक सवाल भरना पड़ा था: आपके धार्मिक विचार?
जवाब में मैंने वही लिखा था, जो ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ में फ्लोरेंतीनो अरीसा कहता है: ‘आय डोंट बिलीव इन गॉड बट आएम अफ्रेड ऑफ़ हिम’। मुझे अपने लिए यही उक्ति सही लगती है। मेरा ईश्वर में विश्वास नहीं है, फिर भी मैं उससे डरता हूं। ईश्वर से डरना एक मुहावरे की तरह है। यानी ऐसी स्थिति में आप बुरे काम नहीं करेंगे, एक बुनियादी नैतिकता का पालन करेंगे, अनावश्यक कष्ट न देंगे इत्यादि। ये सब हमारे जीवनमूल्य हैं। इनके लिए ईश्वर का होना ज़रूरी नहीं, लेकिन मुहावरे का होना तो ज़रूरी है ही।

और कई बार मुझे लगता है, यह दुनिया कई मायनों में बहुत ख़ूबसूरत बनी हुई है, तो इसलिए कि कई लोग सच में ईश्वर से डरते हैं। भले यह डर मुहावरे के भीतर ही क्यों न हो। ।


हमने देखा है कि कई बार लोग दर्शन पर बात करने से बचते हैं, ऐसा क्यों है? दर्शन के विषय में आपका क्या सोचना है? किसी व्यवस्था को समझने के लिए दर्शन कितना आवश्यक है?

दर्शन कभी भी कोई बहुत लोकप्रिय विषय रहा नहीं। यह विद्वानों का विषय है। दर्शन के लिए विशद अध्ययन चाहिए और विशद अध्ययन कोई बहुत सुलभ गुण तो है नहीं। हमारे पूरे इतिहास में सिर्फ़ तीन बार ही दर्शन, सार्वजनिक या व्‍यापक बातचीत का विषय बन पाया है। बौद्ध दर्शन, अद्वैत दर्शन और मार्क्‍सवाद। तीनों ही बार दर्शन से राजनीति जुड़ी हुई थी। बातचीत का सूत्र दर्शन में होता था, लेकिन केंद्र में दर्शन नहीं होता था, वहां राजनीति होती थी। बौद्ध दर्शन बहुत जल्द राजनीति से जुड़ गया था। बौद्धों के बढ़े प्रभाव ने अद्वैत को प्रचलित किया था और उसका प्रसार भी एक राजनीतिक मुहिम थी। उससे अद्वैत दर्शन का प्रसार कम हुआ, सनातन धर्म की राजनीति ज़्यादा चर्चा में आई. मार्क्‍सवाद पर जब भी लोकप्रिय दायरों में बात होती है, तो शोषण, दमन, असमानता की स्थितियों के कारण आंदोलन के रूप में होती है। हम मार्क्‍स की थ्योरी, उसके भारतीय कस्टमाइज़ेशन पर आम दायरों में बात नहीं करते, हम उसकी प्रयोजनमूलकता और बदलाव की ज़रूरतों पर बात करते हैं। यानी यहां भी केंद्र में दर्शन नहीं है।

इसके बावजूद यह तथ्य है कि हम भारतीय स्वभावत: आर्गुमेंटेटिव हैं और दर्शन का सबसे विरल रूप हमारे यहां हमेशा मौजूद होता है। हममें से हर कोई, जीवन और मरण के सिद्धांतों, स्थितियों और कर्म-फल सिद्धांत पर बात करता है। यह दर्शन को अपने विरलतम रूप में अपने जीवन में शामिल करने जैसा है। एक सीमा तक हर व्यक्ति दर्शन का प्रयास व अभ्‍यास करता है, लेकिन वह सीमा बहुत छोटी, अभ्यस्त और जानी-सुनी होती है। और वैसी वह हमेशा रहेगी।

किसी भी मानसिक, राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था को समझने के लिए आपको दर्शन का सहारा लेना ही होगा।


आपके लेखन में प्रेम बड़े अलग तरीके से मिलता है। उसका रूप बड़ा परिष्कृत, लेकिन उसके व्यक्त होने का ज़रिया बड़ा सरल होता है। आपके विचार में प्रेम की सही भाषा क्या है? इसके होने में समाज की क्या भूमिका हो सकती है?

हां, प्रेम का तत्व बहुत ज़रूरी है मेरे लिए, लेकिन छह कहानियों में से एक भी कहानी सीधे-सीधे प्रेम कहानी, (जिन तत्वों के आधार पर प्रेम कहानी जैसी श्रेणी बनाई जाती है) नहीं है। ‘आलाप में गिरह’ में संकलित कुल 72 कविताओं में से एक भी कविता शुद्ध प्रेम की कविता नहीं है। इधर कुछ महीनों में मैंने जो कविताएं लिखी हैं, उनमें प्रेम प्रमुख तत्व है। कुछ रचनाएं विशुद्ध प्रेम की रचनाएं होती हैं, उनमें बाक़ी तमाम चीज़ें शेड्स की तरह मौजूद होती हैं। जैसे मारकेस का ‘...कॉलरा’ विशुद्ध प्रेम उपन्यास है, लेकिन उसमें बहुत सारी दूसरी चीज़ें  उस प्रेम की पृष्‍ठभूमि को संयोजित करती हैं। इसके उलट ‘...सॉलीट्यूड’ अकेलेपन और विस्मृति की कथा है, और बीच-बीच में प्रेम के स्ट्रोक्स अकेलेपन के संत्रास में इज़ाफ़ा करते हैं।

‘सावंत आंटी की लड़कियां’ में क़स्बाई लैंडस्केप है, वहां का जीवन, दर्शन और विडंबनाएं हैं। इन सबमें प्रेम ड्राइवर की भूमिका निभाता है। उसमें दो लड़कियों का प्रेम है, लेकिन वह प्रेम से ज़्यादा प्रेम की इच्छा है, प्रेम का परिवेश है, और प्रेम का कौतुक है। प्रेम के आफ्टरइफेक्ट्स हैं। हर प्रेम अपने साथ एक ह्यूमर ढोता है। मुझे ऐसा लगता है कि बिना ह्यूमर के कोई प्रेम संभव ही नहीं। कुछ ख़ास स्थितियों में प्रेम अपने आप में एक ‘ह्यूमरस एक्सप्रेशन’ है। उस कहानी में प्रेम के उसी अंधकार भरे व्यंग्य को छूने की कोशिश की गई है। इसी तरह ‘सौ किलो का सांप’ और ‘साहिब है रंगरेज़’ में भी है। ‘साहिब...’ में प्रेम के दृश्य हैं, लेकिन वे दृश्य बार-बार यह स्थापित करते हैं कि प्रेम आपको जितना स्वतंत्र कर सकता है, उतना ही आपको ग़ुलाम भी बनाता है। एक स्त्री, एक पुरुष के प्रेम में है, उस प्रेम के कारण वह उसी पुरुष की दी हुई तमाम यातनाएं झेलती हैं, संदेह से लेकर शारीरिक हिंसा का शिकार होती है, लेकिन उस पुरुष से प्रेम करना बंद नहीं कर पाती। उसके पास तमाम विकल्प हैं। वह चाहे तो घर छोड़कर जा सकती है, चाहे तो किसी के साथ घर से भाग जाने का प्रस्ताव भी स्वीकार कर सकती है, लेकिन वह अपने हिंसक पति के प्रेम में है। वह उसे पीड़ा देता है, रोग देता है, यातना देता है, सार्वजनिक अपमान देता है और धीरे-धीरे उसे उपहास का पात्र बना देता है, फिर भी वह उससे प्रेम करती है, उसी के साथ रहना चाहती है। वह बार-बार कहती है कि चाहो तो पीट लो, लेकिन प्रेम करते रहो। यह एक दारुण स्थिति है। मेरे कई पाठकों ने पूछा था कि डिंपा की मां विद्रोह क्यों नहीं करती? कहानी में एक ही जवाब है, क्योंकि वह प्रेम करती है। प्रेम में इतनी झुकी हुई है कि रौंदे जाने का ख़ौफ़ नहीं है। प्रेम के कुछ पल, अपमान के हज़ारों पलों को मिटा देते हैं। वहां प्रेम का सत्याग्रह है, जिस पर ख़ुद नायिका का भी नियंत्रण नहीं है। कई बार वह आपा खोती है, लेकिन फिर प्रेम की शरण में जाती है।

‘पीएसडी’ में प्रेम की स्थितियों का मैनीपुलेशन है। वहां प्रेम की छद्मता है। प्रेम का स्वांग प्रेम का शत्रु है। ख़ुद से किया गया अस्वीकार है। और यह भी प्रेम का पश्चात-प्रभाव है। नायक एक साथ कई स्त्रियों से प्रेम करता है और अंत में दिखता है कि वह प्रेम का कमोडीफिकेशन कर रहा है।

यह भी प्रेम से ज़्यादा उसके आफ्टरइफेक्ट की कहानी है। प्रेम का प्रयोग एक लैंडस्केप की तरह है, जिसमें बहुत कम पानी है, बहुत कड़ी धूप है और बेशुमार रेत है, तपती हुई। यह प्रचलित प्रेमकथा की तरह नहीं है।  और इस तरह से प्रेम की अभिव्यक्ति करना सरल नहीं है। मेरे कई पाठक मुझे बहुत कठिन लेखक मानते हैं, तो एक कारण यह भी है कि मैंने प्रचलित को अपने यहां अनुमोदित नहीं किया है। इसलिए यह कहना कि प्रेम की अभिव्यक्ति मेरे यहां सरल है (इससे निजी तौर पर मैं ख़ुश हो सकता हूं), लेकिन पूरी तरह सही नहीं होगा।

‘सिमसिम’ में प्रेम है. वहां दो पीढि़यों का प्रेम है. दोनों के प्रेम करने का तरीक़ा अलग-अलग है. बूढ़ा प्रेम की स्‍मृति में है. वह स्‍मृति के भीतर उस प्रेम की पुनर्रचना कर रहा है. उसे यह भी याद नहीं कि 51 साल पुरानी उस लड़की का चेहरा कैसा है, फिर भी वह अपनी स्‍मृति में अपना कल्‍पना मिलाकर एक छूट गए दुखद प्रेम को याद करके उसे फिर से जी रहा है. हम कभी किसी को भूलते नहीं हैं, बस, उसे याद करना स्‍थगित कर देते हैं. जब एक दिन याद करने की कोशिश करते हैं तो हमारी काल्‍पनिक स्‍मृति हमारी वास्‍तविक स्‍मृति को याद करने की मनोस्थिति व समय के हिसाब से प्रबंधित करने लगती है.

वहीं नौजवान है. उसके पास प्रेम की बहुत कम स्‍मृति है, लेकिन कल्‍पना बहुत है. वह पीली खिड़की वाली लड़की से अपनी कल्‍पना में प्रेम कर रहा है. ये दोनों ही प्रेम वर्तमान के प्रेम नहीं हैं. यह प्रेम की अनुपस्थिति को प्रेम की स्‍मृति और कल्‍पना से भरने की कोशिश हैं. यहां स्‍मृति और कल्‍पना दोनों का उत्‍स एक ही है. पीली खिड़की बूढ़े की स्‍मृतियों को उद्वेलित करती है. वही खिड़की नौजवान की कल्‍पनाओं में रंग भरती है.  यही प्रेम का तिलिस्‍म है कि वह कल्‍पना और स्‍मृति के बीच कहीं यात्रा करता रहता है. दोनों के बीच सिमसिम नाम का एक दरवाज़ा है. अगर आप आने-जाने का मंत्र भूल गए, तो आप एक ही जगह फंसे जह जाएंगे. या तो स्‍मृति में या फिर कल्‍पना में. 

प्रेम को लेकर दो पीढि़यों के रुख़ में भी बदलाव है. जब वह पीली खिड़की टूट जाती है, तो बूढ़े का प्रेमलोक भहरा जाता है. वह और गाढ़ी चुप्‍पी में प्रवेश करता है. उसने जिस प्रेम का पुनर्सृजन किया था, वह ग़ायब हो जाता है. ऐसा ही उस लड़के के साथ भी होता है, लेकिन वह चुप्‍पी में नहीं जाता, वाचाल हो जाता है. अंत में वह किसी चीज़ पर यक़ीन नहीं करता. न बूढ़े की उपस्थिति पर, न प्रेम की उपस्थिति पर. न दिलख़ुश पर, न उस लड़की पर. वह सबकुछ को आभासी कह देता है. किसी घटना को वर्तमान नहीं मानता. किसी को अतीत भी नहीं मानता. वह झूठ का लोक गढ़ता है. बिना ख़ुद से झूठ बोले वह वांछित टाइमलेसनेस नहीं पा सकता. खिड़की का टूटना प्रेम की संभावना का टूटना है. उससे बूढ़े का झूठ-लोक टूटता है, लेकिन लड़के का झूठ-लोक निर्मित होता है. एक ही स्थिति दो अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग प्रभाव डालती है. उस कहानी में प्रेम के कई स्‍ट्रोक्‍स हैं.

प्रेम की सही भाषा क्या होगी? यह ऐसा प्रश्न है, जिसका लगभग कोई उत्तर नहीं है। यह स्थितियों के हिसाब से बदल जाता है। प्रेम यूनिवर्सल अनुभूति है, लेकिन प्रेम हमेशा स्थितियों पर निर्भर करता है। हमेशा क्षणों के भीतर वास करता है। जीवन में प्रेम के क्षण होते हैं, जिनके आधार पर हम बाक़ी क्षणों को जीते हैं। इस तरह प्रेम स्मृति होता है। लेकिन उसकी सही भाषा क्या होगी, यह सिर्फ़ वही जान सकता है, जो प्रेम कर रहा हो। यह भाषा सबकी निजी भाषा होती है। कई बार प्रेम मौन में पलता है, कई बार वाचाल में। शब्द से प्रेम दिखता है, तो नि:शब्द से भी दिखता है। लेखन के भीतर भी प्रेम की भाषा का कोई मानक नहीं बनाया जा सकता। वहां भी वह स्थितियों पर निर्भर करता है।

प्रेम के लिए समाज की भूमिका क्या हो, यह बहुत बुनियादी और पुराना सवाल है। प्रेम को हमेशा समाज से शिकायत रही है और समाज अतीत के प्रेमियों की प्रशंसा में रहता है और वर्तमान में प्रेम को तंग निगाहों से देखता है। हर युग के प्रेमियों को समाज ही अपना दुश्मन लगता है। दरअसल, हमारे यहां इतनी वर्जनाएं, रोकटोक और सामूहिक कुंठाएं हैं कि उनका निशाना प्रेम पर लगना ही है। प्रेम की पोलिसिंग किसी भी समाज के स्वास्थ्य के लिए ख़राब है। लेकिन हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां प्रेम करने वाले को पंचायत फांसी पर लटकवा देती है, ऑनर किलिंग हो जाती हैं। एक हिस्से में ऐसा हो रहा है, दूसरी तरफ़ कई हिस्से हैं, जहां कोई दिक़्क़त नहीं।

एक ही पंक्ति में इसका जवाब संभव है, और वह यह कि समाज को हर स्थिति में प्रेम स्वीकार करना चाहिए। प्रेम की मुद्राओं का भी स्वीकार होना चाहिए। यह एक आदर्श बात है, लेकिन सच यही रहेगा कि प्रेम हमेशा उस पुष्प की तरह रहेगा, जो कुंठाओं, ईर्ष्‍याओं और वर्जनाओं के कांटों से घिरा हुआ हो। इसमें हमेशा प्रेम को नुक़सान होगा।


भारतीय समाज में आप संगीत को किस तरह तरजीह देते हैं? सबकुछ होने के बावजूद यह पहुंच से बाहर क्यों है? भारत में वेस्टर्न संगीत ज़ोर पर है, लेकिन हिंदुस्तानी संगीत गायब है? ऐसा क्यों है?

भारतीय समाज तो संगीत का समाज है। फिल्म तो कला का नया माध्यम है, लेकिन पुरातन कलाओं में अब भी जो कला सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है, वह संगीत ही है। फिल्मों के बाद सबसे ज़्यादा संगीत ही चलता है। हमारी हर अभिव्यक्ति में संगीत है। संगीत के रेफरेंस है। हमारे हर आयोजन में संगीत है। उत्सव हो या शोक, संगीत प्रधान है। दुख हो या सुख, संगीत में अभिव्यक्ति है।

मैं इससे बिल्कुल सहमत नहीं कि वह पहुंच से बाहर है। हमारे यहां संगीत बहुत सुलभ है। हर आदमी, हर वर्ग की पहुंच में है। आप ऑटो में रहिए, टैक्सी में रहिए, पानटपरी पर खड़े हो जाइए, या किसी शॉपिंग मॉल में पहुंच जाइए, जो चीज़ आपको मुफ्त मिलेगी, वह संगीत ही होगा। टैक्सी में बैठने के बाद आपको गाना सुनने का पैसा नहीं देना होगा। संभव है कि आपके मना करने के बाद भी टैक्सीवाला गाना चला दे।

अब संगीत का इतना विकास हो चुका है कि यह कहना ही बेमानी लगता है कि एक संगीत वेस्टर्न है और एक हिंदुस्तानी है। ग़ज़ल अगर हिंदुस्तानी गायन से जुड़ी हुई है, तो जगजीत सिंह उसे गिटार पर गाते थे। रॉक अगर विदेशी म्यूजि़क है, जो सिल्क रूट या फ्लाइंग मशीन के गानों में आपको तबला भी सुनाई देगा।

आपका आशय हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत से होगा। संगीत का सीधा संबंध यौवन और तरुणाई से होता है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में यौवन का गुण कम है। विशेषकर आज यौवन की जो परिभाषा है, जिसमें मस्ती, बेफि़क्री, बिंदासियत जुड़ी हुई है, वह पारंपरिक हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में कम ही है। वह गंभीर, अध्येतावृत्ति, सकुचाया हुआ, उदात्त संगीत है। लोकप्रिय कलाएं हमेशा पारंपरिक कलाओं को किनारे कर देती हैं। यह भी कुछ वैसा ही संघर्ष है। ऐसा सिर्फ़ हमारे यहां नहीं है। वेस्टर्न म्यूजि़कल कम चलते हैं, वेस्टर्न क्लासिकल एक विशेष वर्ग की ही पसंद है। आज का संगीत आज के युग को परिभाषित करता है। और वह किसी मायने में कमतर संगीत नहीं है। एआर रहमान का संगीत हो या माइकल जैक्सन का, गन्स एंड रोज़ेज़ का रॉक हो या निर्वाना हों, ये सब हमारे समय की बड़ी सांगीतिक प्रतिभाएं हैं। हमारे समय के पॉप को परिभाषित करने में इनका बड़ा योगदान है। मैं जिस पीढ़ी का हूं, उसमें रहते हुए मैं माइकल जैक्सन को कभी विदेशी गायक मान ही नहीं पाता। उसकी राष्ट्रीयता भारतीय नहीं है, लेकिन उसका संगीत मेरा अपना संगीत है। उतना ही अपना है, जितना पंडित छन्नूलाल मिश्र मेरे अपने हैं। बॉब डिलन को मैं उसी तरह सुनता हूं, जैसे कुमार गंधर्व को। इसे आप हमारी पीढ़ी का अंतर्विरोध भी मान सकते हैं।

मैं कभी संगीत में, साहित्य में, कला में, हिंदुस्तानी और वेस्टर्न का विभाजन नहीं कर पाता। इसे शैलीगत विभाजन से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता। कला हमारी अनुभूतियों से जुड़ी होती है। अनुभूतियां सार्वजनीन होती हैं। सच्चा कलाकार शैली के अलावा ऐसा कोई विभाजन नहीं करेगा। सिर्फ़ कला, संस्कृति और राष्ट्रीयताओं की राजनीति करनेवाले ही ऐसा विभाजन कर सकते हैं।


इन सभी को यानी समय, धर्म, दर्शन, प्रेम और संगीत को अपने लिखने में कैसे समायोजित करते हैं?

अपने प्रिय लेखकों की तरह मैं भी समय के एक विशाल कैनवस को लेकर काम करता हूं। मुझे एक अनंत वर्तमान चाहिए होता है। इसीलिए मैं समय के लंबे अंतरालों को वर्तमान से पाटने की कोशिश करता हूं। मेरे लिए वर्तमान, अतीत की वर्तनी है और अतीत वर्तमान का व्याकरण है। मैं वर्तनी और व्याकरण दोनों में हेरफेर करता चलता हूं। सूक्ष्म अतीत की रचना करते चलना मेरे लेखकीय स्वप्नों में से है। समय की इसी सूक्ष्मता को पकडऩे के लिए मैं अनुपस्थित में प्रवेश करता हूं। किस्लोव्स्की के बारे में कही जीजेक की वह पंक्ति मुझे याद आती है: जो अनुपस्थित है, वही दृश्य का संचालन करता है, जो कि मेरे पीठ-पीछे छवियों का जुगाड़ करता है।

वोंग कार-वाई ने अपनी फिल्मों के बारे में कहा थाकई बार मैं बिना किसी अभिनेता के ही कोई दृश्य दिखाना चाहता हूं। जैसे एक सीन में मैं सिर्फ़ एक फ़ोन बूथ दिखाऊंगा, ताकि मैं बदलाव दिखा सकूं। कभी न बदलने वाली चीज़ों से बदलाव का प्रदर्शन।

वोंग कार-वाई का यह तरीक़ा मुझे सुहाता है। मैं भी अपनी रचनाओं में ऐसे प्रयोग करता हूं। आपने देखा होगा, इस पर पूर्व में भी मैंने कहा है कि मैंने अपनी कविताओं में असंबद्ध संरचना का प्रयोग किया है। ‘आलाप में गिरह’ की कुछ कविताओं में, उसके बाद ‘उभयचर’ व अन्य कविताओं में आप यह देख सकते हैं। दो ऐसी चीज़ों का प्रयोग एक साथ करना, जो पहली नज़र में संगत नहीं दिखाई देतीं, लेकिन जब कविता के भीतर सौंदर्य के तर्क के साथ उन्हें प्रस्तुत किया जाता है, तो वे एक असंबद्ध संगति में दिखती हैं। ‘समकोण’, ‘टूटकर भी तनी हुई’ जैसी कई कविताओं में पहली पंक्ति जो कहती है, दूसरी पंक्ति ठीक उसके आगे की बात नहीं होती। पहली और दूसरी पंक्ति के बीच समय का एक लंबा अंतराल होता है, जिसे आम बातचीत में मैं ‘जंप’ करना कहता हूं। एक स्थिति की बात करते हुए अचानक दूसरी स्थिति में जाना, फिर तीसरी में, फिर पहली के आगे की बात पर लौट आना। ऐसा करने से पहली और चौथी पंक्ति में सीधा संबंध बनता हैऔर पहली और दूसरी पंक्ति असंबद्ध दिखती हैं। लेकिन कविता अपने पूरे सौंदर्य और तर्क में उस असंबद्धता को एक सूत्र में पिरो देती है।

यह समय के अंतराल को पकडऩे और उसे प्रदर्शित करने का प्रयास है। कविता के कुछ अर्थ इसी अंतराल में छिपे होते हैं।

सारी कलाएं मुख्यत: आख्यानपरक होती हैं। चित्रों में, यहां तक कि संगीत में भी एक फिक्शन होता है। कविता के भीतर भी होता है। हमारे यहां ज़्यादातर कविताएं, कई बार एक कथा कहती हैं। स्थूल कथा न होते हुए भी उनमें फिक्शन का सूत्र होता है। गल्प या आख्यान पंक्ति-दर-पंक्ति बनता चलता है। यह दरअसल कविता के भीतर समय के हर क्षण को क़रीने से रखना है। यह क़रीना कई बार अभ्यस्त होता है। हर कलाकार को अपना क़रीना ख़ुद तय करना चाहिए। इसी से उसकी निज शैली का विकास होता है। मैंने ‘उभयचर’ समेत कई कविताओं में इसी अंदरूनी फिक्शन के क़रीने को बदला है। हर पंक्ति सिलसिलेवार अपना आख्यान नहीं कहती। वह जब अपना सिलसिला बदलती हैं, तो हमें नए अर्थ प्राप्त होते हैं। इसे मैं ‘फ्रैक्चर्ड फ्लुएंसी’ कहता आया हूं। यह दरअसल समय के भीतर टप्पे लेना है। जब आप क्षण क्रमांक एक से सीधे क्षण क्रमांक सात पर जाते हैं, बीच में छह क्षणों का फ्रैक्चर होता है। यह कला-विवेक पर निर्भर करता है कि इस फ्रैक्चर के बाद भी दोनों क्षणों में संगति बिठाई जा सके। यही असंबद्ध संगति है। समय और उसके बदलाव का यह एक प्रयोग है।

पिछले साल-भर की कविताओं में इसी प्रयोग को थोड़ा और संशोधित करते हुए मैं पुनर्परिभाषा की ओर गया हूं। कविता के भीतर दो बिम्बों का एक साथ किया गया प्रयोग किसी एक को पुनर्परिभाषित कर देता है।
आंसू आंख की मुस्कान है
आषाढ़ पानी का घूंट है
पेड़ एक निर्वाक प्रतीक्षालय है
स्थिरता एक अदृश्य कंपन है
खाई एक उल्टा पहाड़ है
यात्राओं का नामकरण विराम करता हूं
मौन एक नाद है
मिथिहास एक अन्यमनस्क परिहास है
चुंबन धीरे-धीरे गोल होती एक दूरी है

ये कुछ चुनिंदा पंक्तियां हैं, जिनमें इस तरह के प्रयोग हैं। यह भी दो असंबद्ध चीज़ों से एक तीसरी परिभाषा गढऩे का प्रयास है। इसमें ‘शायद’ या ‘जैसे’ नहीं है, बल्कि यह फोर्स के साथ है कि यहां यह ऐसा ही है। यह एक ‘सिंगुलर’ अनुभूति का ‘प्लूरल’ में बदल जाना है। यह बिंबों की पुनर्परिभाषा है। ऐसा हाल की कविताओं में मैंने ज़्यादा किया है।

और यह देखकर ख़ुशी होती है कि हमारे समय के कई युवा कवियों ने मेरी इस शैली को एडॉप्ट भी किया है। प्रिंट में मेरी ये कविताएं आना शुरू हुई हैं, क्योंकि प्रिंट में हमेशा समय लगता है, लेकिन इंटरनेट पर, ब्लॉग, फेसबुक पर, इन कविताओं को लगाने के बाद मैंने ही नहीं, कई साथियों ने यह बात पाई कि पुनर्परिभाषा की इस शैली से कई दूसरे कवि भी प्रभावित हुए हैं और उन्होंने अपनी कविताओं में इसका प्रयोग शुरू कर दिया है। शैली का इस तरह प्रसार उस शैली के प्रति मान्यता भी है।

सारी बातों के अलावा कविता मेरे लिए पैशन है, आनंद है। आप जिस चीज़ के बारे में पैशनेट होते हैं, उसके बारे में लगातार बात करते रहते हैं। मेरे लिए कविता के बारे में भी लगातार बातें करना यही है।

कई बार मैं सोचता हूं कि अगर मैं हिंदू न होता, तो मेरी रचनाओं में क्या अंतर आता?
जैसा कि मैंने कहा, हर धर्म, अब संस्कृति के साथ जुड़ चुका है। धार्मिक परंपराएं, आख्यान और मूल्य अब संस्कृतियों को भी परिभाषित करते हैं। जैसे मिवोश अगर ईसाई नहीं होते, तो बहुत सारी कविताएं उनके लिए असंभव होतीं। उन्होंने मिथकों का जैसा प्रयोग अपनी कविताओं में किया है, वैसा संस्कृति और जातीय स्मृतियों के प्रति कोई अत्‍यंत जागरूक कवि ही कर सकता है। जैसा हिंदी में कुंवर नारायण और विष्णु खरे ने किया है। कुंवर जी उपनिषदों का इस्तेमाल करते हैं और जीवन-मृत्यु के शाश्वत प्रश्न का विश्लेषण-चित्रण अपनी कविता में करते हैं। वह हमारे सांस्कृतिक इतिहास के दार्शनिक पहलू को अपनी कविता का द्रव्य बनाते हैं। विष्णु खरे इसी सांस्कृतिक इतिहास से अपना द्रव्य चुनते हैं और समकालीन राजनीति की व्याख्या का सूत्र पकड़ा देते हैं। ‘महाभारत’ की कथा के कई अनजाने धागों को पकड़ आज की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों का चित्रण जिस तरह से विष्णु खरे ने किया है, शायद ही किसी और कवि ने किया हो।

कोई इसे धर्म से जुड़ाव मानना चाहे, तो क्या कह सकते हैं, लेकिन कवि धर्म से नहीं जुड़ता। कविता के अलावा कवि का अपना कोई धर्म नहीं होता, लेकिन व्यक्ति के तौर पर वह जिस सांस्कृतिक समाज से आता है, वहां धर्म बहुत प्रभावी होता है। धर्म के साथ मिथ जुड़ते हैं। मिथकों को डॉ. लोहिया ने बहुत ख़ूबसूरत शब्द दिया था: ‘मनुष्य की कलात्मक कल्पनाएं’। यह शब्दबंध ही स्पष्ट कर देता है कि हर युग का कवि इन कथाओं की ओर जाएगा, क्योंकि ये ‘कलात्मक कल्पनाएं’ हैं। आप जिस धर्म-समाज में रहते हैं, उसकी कलात्मक कल्पनाएं आपके बहुत निकट होती हैं। आप अपनी कला में उनका प्रयोग करते चलते हैं। धर्म की उपस्थिति का कला के भीतर यही एकमात्र लाभ दिखाई देता है। कलाकार दूसरे धर्मों के प्रति भी आकर्षित होता है। तो वहां की सांस्कृतिक कथाओं का प्रयोग भी वह इसी स्मृति में ही करता है।

बोर्हेस मिथकों का बहुत प्रयोग करते थे। उन्होंने तो कई मिथकों का अर्थ और परिभाषा ही बदल दी, फिर भी उनके पास ईसाई-यहूदी धर्म से जुड़ी हुई स्मृतियां अधिक हैं। वह हिंदू और बौद्ध स्मृतियों का भी प्रयोग करते हैं, उनके लेखकीय दर्शन का अधिकांश हिस्सा तो बौद्ध स्मृतियों पर ही आधारित है, लेकिन वह तत्व रूप में है। घटना रूप में उनके यहां पश्चिम अधिक है, क्योंकि तमाम अध्ययन के बाद भी उनका स्व उसी स्मृति से सामीप्य महसूस करता था।

कोई भी जागृत कलाकार, जिसकी आस्था वृहत्तर मानवीय धर्म पर अधिक होती है, अपनी कला में धर्म का प्रयोग इसी तरह करता है। इससे ज़्यादा नहीं। मैं भी इसी परंपरा का हूं। अपनी रचनाओं में उन रास्तों पर गया हूं। इन धार्मिक-मिथकीय स्मृतियों का वैसा ही प्रयोग करना चाहता हूं, जैसा विष्णु खरे ने अपनी कविताओं में किया है, जैसा बोर्हेस, मिवोश और कुंवर नारायण ने किया है।

यहां बात दर्शन की आ जाती है। चूंकि हिंदू मिथक, सिर्फ़ गल्प या कहानी नहीं होते, बल्कि वे हमेशा दर्शन से निकलते हैं, इसलिए उनका प्रयोग करना, प्रकारांतर से अपनी रचनाओं में दर्शन का प्रयोग करना भी है। मेरी रचनाओं में आपको उत्तर-आधुनिकता और अद्वैत का मिश्रण दिखाई देगा। यह एक कवि के रूप में अपनी एक शैली की ओर प्रस्थान है। हर कवि अपने लिए एक निजी दर्शन गढ़ता है। मेरे लिए वह इस तरह है। बोर्हेस की वह पंक्ति मुझे याद आती है, जो उन्‍होंने चार्ल्‍स एलियट नॉर्टन लेक्‍चर में कही थी, सारा जीवन कविता से बना है. कविता की किताबें तो महज़ कविता का अवसर हैं. मैं इसमें दर्शन जोड़ देना चाहता हूं. बाक़ी, सारी चीज़ें तो क्षेपक हैं.    

अनुभूतियां हमेशा आपको दर्शन की ओर ले जाती हैं। दरअसल, विचार भी अपने मूल में अनुभूति ही होते हैं। उन्हें विचार बनने में लंबा समय लगता है। हर अनुभूति हमें दर्शन के एक विशिष्ट कोने की तरफ़ अग्रसर करती है। हर रचना में एक दार्शनिक बोध होना चाहिए। मेरा ऐसा मानना है और यह लगातार दिखता भी है कि वही रचनाएं लंबे समय तक जि़ंदा रहती हैं, जिनमें एक ख़ास दार्शनिक बोध होता है। वेद व्यास, होमर से लेकर बोर्हेस तक इसके कई उदाहरण हैं।

प्रेम आप देख ही रहे हैं, मेरी रचनाओं का मूल द्रव्य है। और संगीत, हां, संगीत। उसका बहुत प्रयोग है। उससे बहुत गहरा रिश्ता है। उस पर बहुत इत्मीनान से बात करने की ज़रूरत है। यहां सिर्फ़ एक बात बताता हूं। ‘सावंत आंटी की लड़कियां’ कहानी लिखने में मुझे चार साल लगे थे। जाने कितनी बैठकों में काम किया था, लेकिन हर बैठक में तीन गाने बजते थे। मैं हेडफोन लगाकर गाना सुनते हुए लिखता था। चार साल तक जब भी मैं उस कहानी पर काम करने बैठता, इन्हीं तीन गानों में से कोई एक बजता रहता। तीनों गाने मैडोना के हैं। ‘लाइक अ प्रेयर’, ‘बैड गर्ल’ और ‘मटीरियल गर्ल’। इस तरह हर कहानी के साथ कोई गीत या संगीत का टुकड़ा जुड़ा हुआ है। मोत्‍सार्ट, शोपां, चाइकोव्‍सकी, शोस्‍ताकोविच को सुनते हुए मैंने कई कविताएं लिखी हैं. हर कविता के साथ संगीत जुड़ा हुआ है। उसके भीतर कितना संगीत है, और बाहर कितना संगीत है, यह बहुत लंबी कहानी है। और मेरे नोट्स में इसका जि़क्र भी है कि कहां, कब, क्या लिखते हुए कौन-सा संगीत बजा था। :-)


साहित्य की सबसे सरल अवधारणा क्या हो सकती है? एक मूल संस्था के तौर पर इसे किस तरह समझना चाहिए जिससे यह अन्य लोगों तक पहुंच सके?

अनेक अवधारणाएं हैं। सारे शास्त्र भरे पड़े हैं। कई बार मैं सोचता हूं कि हम सरल की तरफ़ ही क्यों जाना चाहते हैं? अब सबसे सरल अवधारणा तो वही है कि साहित्य समाज का दर्पण है। इस पंक्ति को यहां लिखते हुए भी हंसी आ रही। यह इतनी सरल अवधारणा है कि इसमें साहित्य की जगह संगीत या सिनेमा लिख दिया जाए, तो भी वाक्य पर कोई फ़र्क़ न पड़े। सरलताएं ‘स्टेपनी’ होती हैं। पांचवां पहिया. जब चाहो, फिट कर लो। सरलता का आग्रह अभिशाप है। सरलता अनंत है, लेकिन दुर्भाग्‍य से महीतल की दिशा में अनंत।

कितना भी सरल कर लें, हर सरलता हमेशा कुछ लोगों के लिए कठिनता ही होती है। वह सापेक्ष होती है। जब आप छोटे थे, तो दो प्लस दो बराबर चार एक कठिन सवाल था। कई दिनों तक याद करना पड़ा था इसे। पर आज यह बहुत सरल है। अब जो आज आपके लिए सरल है, वह आज भी कई सारे लोगों, बच्चों के लिए मुश्किल है। सो, सरलता की बात मुझे पचती नहीं। वह निहायत व्यक्तिगत सवाल है और सबके लिए अलग है।

कलाएं ऐसी हैं कि उन्हें परिभाषित करना मुश्किल होता है। जैसे सेब का स्वाद सेब के भीतर नहीं होता। मज़े की बात है कि वह खाने वाले के मुंह के भीतर भी नहीं होता। वह दरअसल उस पल के भीतर होता है, जिस पल में सेब और खाने वाले के मुंह का संपर्क होता है। उसके बाद के पलों में उस स्वाद की स्मृति होती है, जिसे हम स्वाद के वर्तमान की तरह जीते हैं। इसी तरह उस कहावत का कोई अर्थ नहीं कि सुंदरता देखने वाले की आंख में होती है. यह दरअसल देखने के क्षण के साथ घात में कही गई उक्ति है. उसी तरह साहित्य भी है। साहित्य तभी साहित्य है, जिस पल वह आस्वादक के संपर्क में आए। आस्‍वाद के पल की अत्‍यंत महत्‍ता है.

ऋग्वेद में दो पक्षियों की कथा है। सुपर्ण पक्षी। दोनों एक ही डाल पर बैठे हैं। एक अमृत फल खाता है। दूसरा उसे फल खाते देखता है और प्रसन्न होता है। उसे लगता है कि वह ख़ुद फल खा रहा है। जितनी तृप्ति पहले पक्षी को फल खाने से मिल रही है, उतनी ही तृप्ति दूसरे को उसे फल खाते देखने से मिल रही है। दोनों के पास ही खाने की तृप्ति है। खाने पर भी खाने की तृप्ति और देखने पर भी खाने की तृप्ति। इसे ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखायौ’ कहा गया है।

यह सख्य-भाव है। सखा जैसा। यह भाव सबकुछ को समाहित कर लेता है। इसमें समानुभूति है। समानुभूति में सबकुछ है। यही साहित्य का मूल गुण है। एक किरदार किताब के भीतर बैठा फल खा रहा है या प्रेम कर रहा है, दूसरा किरदार या पाठक किताब के बाहर बैठा उसे फल खाता देख रहा है, प्रेम करता देख रहा है और प्रसन्न हो रहा है। वह उसी अनुभूति को किताब से बाहर जी रहा है, जिस अनुभूति को पहला किरदार किताब के भीतर जी रहा है। यह समानुभूति ही साहित्य को परिभाषित करती है। यह दोनों के बीच का बंधुत्व है। विषय और आस्वादन का बंधुत्व। एक ही पल का दो अलग-अलग व्‍यक्तियों के लिए दो अलग-अलग क्रियाओं द्वारा एक ही भाव को जीने का बंधुत्‍व. यह बंधन बिल्‍कुल नहीं, बल्कि बंधुत्व है।

इसके आगे कई अवधारणाएं, परिभाषाएं जोड़ी जा सकती हैं, लेकिन यह बुनियादी गुण है: सख्य-भाव। इसे हर कला में होना चाहिए।
ऋग्वेद को मैं बहुत सुंदर कविता मानता हूं। इसके अन्य विश्लेषणों, टीकाओं, व्याख्याओं, जिनमें इसे सवर्णवादी इत्यादि कहा जाता है, उनसे दूर होकर मैं इस पुस्तक को एक उत्कृष्ट साहित्यिक रचना, जिसमें तकनीकों, अनुभूतियों और सुंदरताओं का बारीक विवेचन और चित्रण किया गया है, उस तरह लेता हूं। उसके वाक्सूक्त में बहुत कम जगह में इन सारे सवालों को संबोधित किया गया है और वह संबोधन आज तक बदला नहीं है। उसमें वाक् को जिन चार गुणों के साथ परिभाषित किया गया है, वही साहित्य में भी होता है, होना चाहिए।
1- संगमनी - यानी सारी चीज़ों का संगमन करना, एक स्थान पर जुटाना।
2- चिकितुषी - यानी वस्तुओं में जो परस्पर संबंध होता है, उस संबंध विशेष के विषय में निरंतर प्रश्न करने वाला।
3- भूरिस्थात्रा - यानी व्यापकता। एक बिंदु को उसके सूक्ष्मतम रूप में भी दिखाना और उसके इतना क़रीब पहुंच जाना, माइक्रोस्कोपिक मैग्नीफ़ाइड व्यू में कि वह सूक्ष्मता जीवन की सबसे बड़ी विराटता लगे।
4- भूर्यावेशयन्ती - यानी बहुत अधिक समेटने वाला। जिस विषय पर लिखा जाए, उसके हर पहलू को छुआ जाए। उसमें जीवन का हर पक्ष समेटा गया हो। ऐसा संक्षेपण में भी संभव है और विस्तारण में भी।

साहित्य अन्य लोगों तक पहुंच सके, यह एक कमर्शियल सवाल है। उस पर कॉमर्स की भाषा में बात करनी होगी।


क्या ऐसे पांच लेखकों के नाम सकारण बताएंगे, जिन्हें आप ख़ुद कई बार पढऩा चाहेंगे, बल्कि दूसरों के लिए भी चाहेंगे कि वे उन्हें ज़रूर पढ़ें?

जैसा कि आप जानते हैं, मैं लेखक बाद में हूं। हूं भी या नहीं, इस पर भी संदेह होता है। लोगों को भी। मुझे भी। लेकिन मैं सबसे पहले पाठक हूं। बहुत जिज्ञासु पाठक हूं, जिसके पढऩे की रेंज बहुत फैली हुई है। विषयों और दिलचस्पियों की भी। तो ऐसे में पांच लेखक चुनना बहुत नाइंसाफ़ी है, क्योंकि ऐसे तो कई-कई लेखक हैं, जिन्हें मैं बहुत ज़रूरी मानता हूं। अपने लिए ही नहीं, सबके लिए।

फिर भी मैं अपने कैनन के बारे में बताऊं, जिन्हें मैं बार-बार पढ़ता हूं और जो लेखक हर समय मुझे रास्ता दिखाते हैं या मुझे पढऩे के आनंद से सराबोर कर देते हैं।  वेद व्यास, होमर, कालिदास, शंकराचार्य, दान्ते, बोर्हेस और मारकेस। देखिए, ये भी पांच से ज्यादा हो गए। कई हैं। इसमें काफ्का और फॉकनर भी होंगे। मार्क्‍स भी। और नीत्शे भी। इसमें शोपेनऑवर भी होंगे और रोलां बार्थ भी. नेरूदा, निराला, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे, कुंवर नारायण भी अवश्य होंगे। हजारी प्रसाद द्विवेदी, निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन भी होंगे. कल्‍वीनो, कोएट्ज़ी, पमुक, बोलान्‍यो भी होंगे. तो ये सूची बढ़ती ही जाएगी। मैं इन सबको ज़रूरी मानता हूं. पाठ्यपुस्‍तकों की तरह ज़रूरी. एक बहुत बड़ा परिवार है। और सच में, मुझे बहुत सारे लेखक पसंद हैं। कई भाषाओं में लिखने वाले बहुत सारे लेखक. अपने प्रिय लेखकों की किताबें मैं अपने फ़ोन में रखता हूं। जब ज़रूरत पड़े, तब रेफ़र की जा सकें।

इन्हें क्यों पढ़ा जाए, यह जवाब हर लेखक के लिए अलग होगा। अगर आप लेखकीय स्वप्न से भरे हैं, तो इन पूर्वज लेखकों से मुक्ति संभव ही नहीं। लेखन की कोई ऐसी गली नहीं है, जिसमें इन लेखकों ने प्रवेश न किया हो. अगर इन सारे लेखकों को मिलाकर कोई एक देह और कृति-देह बनाई जाए, तो शायद ही सृष्टि का ऐसा कोई विचार, अनुभूति या बिंब हो, जिसे उस सामूहिक कृति-देह ने समाहित न कर लिया हो.  

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