शनिवार, 13 अप्रैल 2013

ज्योति कुमारी के कहानी संग्रह पर अविनाश मिश्र


[हम अविनाश के आभारी हैं कि वे इन शेयरबाज़ारी हरकतों पर नज़र बनाए हुए हैं. एक ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह अविनाश बातें सामने रखते हैं. ज्योति कुमारी के संग्रह 'दस्तखत और अन्य कहानियाँ' के लोकार्पण की रपट जानकीपुल से हटा दी गई/ हटवा दी गई. नामवर सिंह का स्पष्टीकरण आया लेकिन किस बात पर, ये साफ़ नहीं. हो-हल्ला खत्म होने के बाद अविनाश ने संग्रह की समीक्षा लिखी है, जिसे यहाँ आपसे साझा किया जा रहा है. हिन्दी में बड़प्पन-छुटपन के अंतराल को बनाए रखने के लिए बड़ी मूर्खताएं हुई हैं और हो भी रही हैं. इसलिए कोई भी रचनाकार तब तक क़ाबिल न माना जाए, जब तक वह अपने आलोचकों के साथ सहिष्णु न हो, ऐसी माँग हम रखते हैं. 'समकालीन सरोकार' से साभार.]

जो तुमको हो नापसंद वही बात कहेंगे
अविनाश मिश्र  

हमारा काम भले ही समीक्षा लिखना ही क्यों न हो, लेकिन हमारी कोशिश बराबर यह रहनी चाहिए कि हम समीक्षा के लिए उन पुस्तकों को ही चुनें जिन्हें पढ़ने में हमारी वाकई दिलचस्पी हो। यह एक सच्ची लेकिन बीती हुई बात हुई कि हिंदी में बगैर किताब पढ़े उसकी भूमिका, ब्लर्ब और समीक्षाएं लिखने का प्रचलन है। महानुभाव तो बगैर पुस्तक पढ़े उस पर पर्चे पढ़ने और माइकतोड़ वक्तव्य देने जैसी ‘जरूरी’ जिम्मेदारियां भी अदा करते हैं। (बकौल गालिब- जान दी, दी हुई उसी की थी...)।

ऐसे माहौल में हमें बेवजह और ‘साहित्येतर कारणों’ से चर्चा में आईं और चढ़ाई गईं खराब किताबों के खिलाफ वैसे ही खड़े होना चाहिए जैसे कभी-कभी हम बेहतर किताबों के पक्ष में खड़े होते हैं। ‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ के ऊपर इस समीक्षात्मक किस्म के प्रयास के अंतर्गत कुछ कहने की वजह बस इतनी ही है- ‘बेवजह और ‘साहित्येतर कारणों’ से चर्चा में आईं और चढ़ाई गईं एक खराब किताब के खिलाफ खड़े होना...।‘

पुरस्कार अंततः प्रतिबद्धता को खत्म करते हैं और प्रसिद्धि अंततः रचनात्मकता को। यह अलग बात है कि कभी-कभी आपको मिले पुरस्कार और प्रसिद्धि यह भी प्रामाणित करते हैं कि कभी आप प्रतिबद्ध और रचनात्मक थे। तमाम प्रलोभनों और बाजार के बावजूद साहित्य अब भी एक सतत साधना है और ऐसे में ज्योति कुमारी जैसी तमाम कुमारियों को यह जानना चाहिए कि साहित्य में अंततः क्या बचेगा और क्या नहीं, यह अब भी केवल पाठक ही तय करते हैं। वे पाठक, जो सरकारी खरीद के भरोसे लाइब्रेरी डंपिंग के लिए रुपए ले-लेकर किताबें छाप रहे तुंदियल प्रकाशकों की संख्यातीत साजिशों के बरअक्स अब भी बचे हुए हैं।

युवा लेखिका ज्योति कुमारी के पहले कहानी संग्रह ‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ में मौजूद नौ कहानियों
पर समीक्षात्मक अंदाज में कुछ कहने से पहले यह स्पष्ट कर देना बहुत जरूरी है कि ऐसी कहानियां यदि ‘एक स्त्री की डायरी’ में ही सुरक्षित रहें या उसके ब्लॉग पर या उसकी फेसबुक टाइमलाइन पर तो ही बेहतर हैं। लेकिन बावजूद इसके अगर ये एक साहित्यिक कृति के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित होती हैं तो सीधे-सीधे इसके लिए प्रकाशक जिम्मेदार है, तब तो और भी जब वह हिंदी के सर्वोच्च तीन प्रकाशनों में शुमार है।

इन कहानियों को एक किताब की शक्ल में सिर्फ ‘साहित्येतर कारणों’ से ही छापा जा सकता है, इसके कई लोकार्पण कराए जा सकते हैं, बहुत भारी बजट से निर्मित एक उत्पाद की तरह इसे बेहयाई से प्रमोट किया जा सकता है, इसकी कई भूमिकाएं लिखवाई जा सकती हैं, इस पर कुछ असहमतियां हों तो कांपते हाथों से स्पष्टीकरण लिखवाए जा सकते हैं, कई शहरों और पुस्तक मेलों में घूम-घूमकर और लोगों के पैर छू-छू कर इस किताब की प्रतियां उन्हें भेंट की जा सकती हैं, इसकी कई समीक्षाएं लिखवाई जा सकती हैं । यह सब ‘साहित्येतर कारणों’ से ही संभव है, कोई साहित्यिक कारण तो इस पुस्तक के प्रकाशन और प्रकाशन पूर्व व पश्चात हुई चर्चा का समझ में नहीं आता।

‘ज्योति कुमारी अपने जीवन में जिस तरह का प्रतिरोध दर्ज करती हैं, ठीक उसी प्रतिरोधी तेवर की कथा-नायिकाएं इस संग्रह की लगभग हर कहानी में मौजूद हैं।'

‘ये कथा-नायिकाएं शर्म और वर्जना की तमाम चौहद्दियों को लांघकर स्त्री जीवन के उन अनुभवों को खोलती-खंगालती चलती हैं, जिधर जाने का साहस बहुत कम लेखक-लेखिकाएं कर पाते हैं’

‘इस संग्रह की अधिकांश कहानियां यथा- ‘शरीफ लड़की’, ‘टिकने की जगह’, नाना की गुड़िया’, ‘होड़’, ‘विकलांग श्रद्धा’ आदि सफल, असरदार और भिन्न आस्वाद की कहानियां हैं।‘

‘कहानीकारों की भीड़ में ज्योति कुमारी एक अलग पहचान देती हैं।‘

‘अपने पहले ही कहानी संग्रह में वर्जित प्रदेशों को खंगालने की ज्योति की कोशिशों ने उनके प्रति उम्मीदें जगाई हैं।‘

‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ के संदर्भ में ऐसी असत्य और भ्रामक पंक्तियां मैं नहीं लिखूंगा, ऐसी पंक्तियां मैं ‘हंस’ में इस किताब की प्रायोजित समीक्षाएं लिखने वाले समीक्षकों के लिए छोड़ता हूं।

अब मैं जो कह रहा हूं उसे ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए वह यह कि महज शर्म व वर्जनाएं तोड़ देने से कहानियां बेहतर, बड़ी और जरूरी नहीं हो जातीं। वे बहुत मासूमियत से एक कथानक की बुनियाद मांगती हैं, थोड़ा-सा शिल्प, थोड़ा-सा प्रभाव और थोड़ी-सी सार्वभौमिकता मांगती हैं। वे थोड़ा-सा समय मांगती हैं, जहां वे सबके लिए संभव हो सकें। वे घृणा से मानवीयता की ओर बढ़ना और आपके व्यक्तिगत अनुभवों का सामाजिक विस्तार चाहती हैं।  

लेकिन जब आप उन्हें ये सब नहीं दे पाते, तब तेज आंधी आए, चाहे न आए वे ‘रंजन’ की तरह राजेंद्र यादव के संपादन में ‘हंस’ नवंबर-2011 के अंक और प्रस्तुत संग्रह में प्रकाशित होकर धराशाई हो जाती हैं।
यहां बात ‘शरीफ लड़की’ की हो रही है। यह ज्योति की अब तक की सबसे ज्यादा बेवजह चर्चित कहानी है। एक बेहद सपाट कहानी... स्मृतियों का दृश्यात्मक कोलाज...। जहां वर्तनी की अशुद्धियों की वजह से गलत जगह लगे पूर्णविराम इरिटेट करते हैं। यहां एक धीरे-धीरे बड़ी हो रही ‘शरीफ लड़की’ है... वैसे बड़े होने से पहले सारे लड़के-लड़कियां शरीफ ही होते हैं। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो उनके बदनाम होने की प्रक्रिया उनके बड़े होने के बाद ही शुरू होती है... तो मैं कहां था... मैं था सफेद नाइट सूट में लिपटी एक तेरह साल की टीनएजर लड़की पर... वह अपने जन्मदिन की सुबह से ही रो रही है... इसमें रोने की क्या बात है... यह तो हर लड़की के साथ होता है... मम्मी उसे बता रही है कि ऐसा हो तो क्या करना चाहिए... क्या करना चाहिए कि दाग चादर में न लगें... मम्मी उसे और भी बहुत कुछ बता रही है...। लेकिन हम इस बकवास को यहीं छोड़ते हैं, मम्मी की इस बात से सहमत होते हुए कि इसमें रोने की क्या बात है... यह तो हर लड़की के साथ होता है.. और इसमें इतना और जोड़ते हुए कि इस पर इस तरह की कहानी लिखने और उसे सार्वजानिक करने की भी कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि कहानियां आपके सामान्य अनुभवों और ब्योरों से नहीं बनतीं, उन्हें रच-रच कर रचना पड़ता है। इस कहानी के फर्स्ट हाफ तक आते-आते ऐसा लगता है कि इसे अरुण महेश्वरी के ‘वाणी प्रकाशन’ से नहीं भारत सरकार के ‘चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट’ से आना चाहिए था, जहां यह 20 प्वाइंट के बोल्ड लैटरों में ऐसे रंगीन चित्रों के साथ छपती जिनमें एक गोलू पर्क चाकलेट खा रहा है और एक मिनी खूब चमकदार ड्रेस पहने आंखें मसल-मसलकर रो रही है...।

गद्य लिख रहे किसी रचनाकार का जब प्रत्येक वाक्य तीन डॉट (...) के साथ खत्म हो, तब यह समझ लेना चाहिए कि इस रचनाकार (?) के पास भाषा नहीं है। भले ही वह साहिब-ए-किताब हो, लेकिन उसे इस बात की भी तमीज नहीं है कि वाक्यों को कहां छोड़ा जाए।

संवादों में इनवर्टेड कॉमा और वाक्य के अंत में पूर्णविराम, जैसी कहानियों के लिए जरूरी शर्तें तोड़कर/छोड़कर तीन डॉट (...) पर सवार होकर किसी साहित्यिक पत्रिका के दफ्तर की तरफ भागतीं छपास की मारीं ज्योति कुमारी की कहानियां इतनी जल्दी में संभव हुई हैं कि इनमें कहीं कोई रीडिंग प्लेजर नहीं है। इन्हें पढ़ना एक दिक्कततलब काम है और अगर इन पर समीक्षाएं वगैरह नहीं लिखनी हैं तो ऐसे में बेहतर है कि इन्हें अकेला छोड़ दिया जाए। इनके पास ऐसी पंक्तियां नहीं हैं जिन्हें आस्वादक अंडरलाइन करे और पुन: कभी वापस उन पर लौटना चाहे, अपने सीधे हाथ की चार उंगलियों को उन पर फिराते और उस दिन की स्मृति में उतरते हुए जब उसने इन्हें पढ़ा था...।

‘हंस’ दिसंबर-2012 के अंक में प्रकाशित और अब इस संग्रह में भी शरीक ‘टिकने की जगह’ कहानी का फर्स्ट ड्राफ्ट तैयार कर लेने के बाद ज्योति को कभी ‘हंस’ में ही प्रकाशित गीतांजलि श्री की कहानी ‘बेलपत्र’ पढ़ लेनी चाहिए थी। इससे दो बातें होतीं या तो वे इसे दोबारा लिखतीं या इसे छपवाने का इरादा छोड़ देतीं। लेकिन जैसा कि जाहिर है कि छपवाने का इरादा उन्होंने नहीं छोड़ा, इसलिए दो बातें हो गई हैं। पहली यह कि सांप्रदायिकता जैसे अब भी जरूरी लेकिन बेतरह बासी विषय के साथ लेखिका न्याय नहीं कर पाई है और दूसरी यह कि अब एक नितांत कमजोर और गैरजरूरी कहानी सार्वजनिक है और ‘टिकने की जगह’ खोज रही है।

‘पाखी’ के दिसंबर-2012 अंक में ‘तेरी शादी मेरी शादी से महंगी कैसे उर्फ सारे रिकार्ड टूट जाएंगे’ शीर्षक से और प्रस्तुत संग्रह में ‘होड़’ शीर्षक से प्रकाशित कहानी एक कार्पोरेट शादी की रिपोर्टिंग है। बकौल राजेंद्र यादव ‘ज्योति कुमारी ने तीन साल ‘दैनिक हिंदुस्तान’ और दो साल ‘दैनिक जागरण’ में संपादन का काम किया है। इसलिए एडिटिंग, पेज मेकिंग, डिजाइनिंग, पोर्टल पर न्यूज और तस्वीरें आदि  ऑनलाइन करने से लेकर फोटो एडिटिंग और फीचर राइटिंग का अनुभव भी उसके साथ है।‘ बस अब जब राजेंद्र जी ने इतना कह दिया तब और क्या कहा जाए...। इस कहानी को लेखिका की वर्क प्रोफाइल के साथ मैच करते हुए पढ़ने से बेहतर है कि सेलेब्रिटीज की शादी की खबरों में लौट जाया जाए, आकाश नाम के उस किरदार के बावजूद जो इस कहानी में और बहुत कुछ की तरह ही बेवजह है।

‘दो औरतें’ और ‘बीच बाजार’ क्रमशः अंग्रेजी शब्दों की भरमार, फ्लैशबैक, वार्तालाप-शैली और कुछ शिल्प सजग होते हुए भाषाई पकड़ के नजदीक जाने की कोशिश में लिखी गई कहानियां हैं। कुछ वर्ष लगकर अगर इन पर काम किया जाता तो ये बेहतर बन सकती थीं। (‘नया ज्ञानोदय’ और ‘परिकथा’ के संपादक ने लेखिका को यह सुझाव पता नहीं क्यों नहीं दिया)।

‘हंस’ मई-2012 (‘और अब इस संग्रह में भी’ यह कहने का अब कोई अर्थ नहीं...) के अंक में प्रकाशित ‘दस्तखत’ इस संग्रह की सबसे बेहतर कहानी है। लेकिन इसकी मुख्य चरित्र सामान्य नहीं है। वह अपवाद लगती है, फिर भी इसे नकारा नहीं जा सकता। यहां एक सहज प्रयोगशीलता भी है जो अंत तक आते-आते बैलेंसिंग होती है और गड़बड़ा जाती है।

‘नाना की गुड़िया’ (परिकथा), ‘विकलांग श्रद्धा’ (पाखी) और ‘अनझिप आंखें (हंस) बुरे फार्म की कहानियां हैं। कहानी होने की आकांक्षा तो यहां है, लेकिन इसके लिए  जरूरी वह संघर्ष और लगन नदारद है जो आपके देखे-भोगे-समझे को कहानी में रूपांतरित (स्थानांतरित नहीं) करती है।

यहां आकर यह कह देना चाहिए कि इस संग्रह में मौजूद कहानियां औसत कहानियों का अभ्यास मात्र हैं। कहानियों का आकांक्षित मंगल उनके अभ्यस्त संस्कार के अंतराल में रहता है। ये संस्कार विकसित करने में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का अहम योगदान है, जहां से किसी रचनाकार की कमजोर रचनाएं बार-बार वापस आती हैं। उन्हें छापने से मना किया जाता है, थोड़ी गुंजाइश होने पर दोबारा लिखने, फिर भी बात न बनने पर एक बार और लिखने के लिए कहा जाता है... अंततः छपना कई वर्षों की प्रतीक्षा, परिश्रम और अध्यवसाय का परिणाम है। ऐसी प्रक्रियाओं से गुजरकर ही मुकम्मल रचनाएं तैयार होती हैं, फिर कहीं जाकर इनका एक संग्रह बनता है और उसके लिए भी वैसी ही प्रतीक्षा, परिश्रम और अध्यवसाय की दरकार होती है, जैसी रचना-प्रकाशन के लिए। रचे जाने का जो आंतरिक अचीवमेंट होता है वह महफिलों, जनसंपर्क और जल्दबाजी से हासिल नहीं हो सकता। महफिलों, जनसंपर्क और जल्दबाजी से जो हासिल होता है वह ज्योति कुमारी हासिल कर चुकी हैं। ‘रचना’ को पाने के लिए अब ज्योति को दूसरी तैयारियां करनी होंगी। इस ‘हासिल’ से उनकी यात्रा और मुश्किल हो गई है, फिर भी वे एक न एक दिन अपनी असली मंजिल पर पहुचेंगी, ऐसी शुभकामनाएं उन्हें दी जा सकती हैं, उनसे कोई उम्मीद न रखते हुए भी...।

ज्योति कुमारी को इस ‘हासिल’ पर लाकर छोड़ देने लिए उनके संपादक, प्रकाशक, समीक्षक और उनके निकटवर्ती सलाहकार दोषी हैं। लेकिन ये पहले भी ऐसा करते रहे हैं और आगे भी ऐसा करते रहेंगे...।        

हिंदी साहित्य के कुटिल कोनों में एक वाकया कई दिनों तक सुना जाता रहा। इस वाकये में एक बड़े हिंदी लेखक अपनी नवजात पुस्तक की एक प्रति लेकर राजेंद्र यादव को देने के लिए ‘हंस’ कार्यालय पहुंचे। यादव जी ने उनसे पुस्तक लेते हुए पूछा- ‘एक बात बताइए कि अगर यह किताब नहीं आती तब हिंदी साहित्य का क्या नुकसान हो जाता? आखिर इस किताब का मकसद क्या है?’

बाद इसके बगैर कोई जवाब दिए वे बड़े लेखक अपना छोटा-सा मुंह लिए मयूर विहार लौट आए और अगली शाम उन्होंने इस वाकये को हिंदी साहित्य के कुटिल कोनों में जनहित में जारी कर दिया।

राजेंद्र यादव द्वारा इस ‘बड़े लेखक’ के प्रसंग में उठाए गए सवाल उनकी उस किताब के संदर्भ में जो उन्होंने ज्योति कुमारी की सहभागिता से लिखी, उनसे भी पूछे जा सकते हैं। हालांकि इस पर वे यह जवाब भी दे सकते हैं- ‘मैं कुछ लोगों को नंगा करते हुए अपने ‘अविश्वसनीय’ यौन अनुभवों का वर्णन करना चाहता था। यही ज्योति कुमारी को बताए ‘स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार’ का मकसद है और इससे हिंदी साहित्य का बहुत फायदा हुआ है।‘

राजेंद्र यादव द्वारा उठाए गए सवाल उनकी ‘अदृश्य’ सहभागिता से लिखे गए और उनके द्वारा प्रमोटेड लेखिका ज्योति कुमारी के पहले कहानी संग्रह ‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ के संदर्भ में भी पूछे जा सकते हैं कि आखिर इस किताब का मकसद क्या है और अगर यह न आती तो इससे हिंदी साहित्य का क्या नुकसान हो जाता और अगर इसका नाम ‘दस्तखत और अन्य कहानियां’ की जगह ‘शरीफ लड़की’, बदनाम लड़की, बदचलन लड़की, धोखेबाज लड़की, चालबाज लड़की जैसा कुछ होता तो इससे इसमें मौजूद कहानियों की गुणवत्ता पर क्या फर्क पड़ जाता?

सवाल और बड़ा हो जाएगा यदि पूछा जाए कि क्या फर्क पड़ जाता इस कहानी संग्रह के महत्व पर यदि इसकी लेखिका का नाम ज्योति कुमारी की जगह ‘ज्योति श्री’, सोनाली श्री, सुरभि श्री, सोनी कुमारी, गीता कुमारी या जय कुमारी होता?

सवाल थोड़ा और बड़ा हो जाएगा यदि पूछा जाए कि इसमें एक भूमिका है या दो, इसके दो लोकार्पण हुए या कई, इसकी एक साथ तीन समीक्षाएं आईं या तीन सौ... इससे यह किताब क्या वह दर्जा हासिल कर लेगी, जो सुदूर बसे और अब भी विलुप्त नहीं हुए असंख्य पाठक किसी किताब को अनजाने ही दे देते हैं?

ऐसे प्रमोटेड युवा लेखक-लेखिकाओं और उनकी (अ)कृतियों के लिए एक रूपक ध्यान आता है- ‘लिल्ली घोड़ी’। वह जो बारात में सबसे आगे दौड़ती नजर आती थी, लेकिन जाती कहीं नहीं थी। वह बस अपनी जगह पर खड़ी आगे-पीछे होती रहती थी और उसकी सजावट, सज-धज और चमक से चौंधियाए सारे बाराती उसे देख हतप्रभ होते रहते थे... थोड़ी देर बाद उसका आकर्षण, जादू और रहस्य एक बुलबुले की तरह फूट कर खत्म हो जाता था। इस रूपक को और बढ़ाने की जरूरत नहीं, इस वाक्य के साथ कि हिंदी साहित्य में ‘लिल्ली घोड़ियां’ बहुत बढ़ गई हैं, इसे यहीं छोड़ा जा सकता है।