सोमवार, 26 अगस्त 2013

साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार २०१३ पर अविनाश मिश्र

(साहित्य अकादमी का बहुप्रतीक्षित और अपने पुराने फैसलों में विवादास्पद 'युवा पुरस्कार' अभी दो रोज़ पहले ही अर्चना भैंसारे को देने की घोषणा हुई. इसके साथ ही 'माफ़ करिये, कभी नाम नहीं सुना'. 'कभी पढ़ा नहीं', 'कभी नज़र के सामने से गयी नहीं' को समेटे हुए पुरस्कार की बधाई भी दी गयी. मेरे और अविनाश सहित कुछेक लोगों पर यह आरोप लगे कि हमने इस पुरस्कार को एक युवा कथाकार को मिलने देने से रोका है. इसके साथ यह अंदाज़ लगाना ज़रूरी बन जाता है कि क्या अकादमी एक पुरस्कार का निर्णय एक अनुमान के आधार पर करती है? या अमुक कथाकार का कैनन क्या इतना कमज़ोर है कि उसे बस एक अनुमान के आधार पर काट दिया जाता है? रूपकों की बात क्या है? बात कहीं किसी से छिपी नहीं होगी. सभी रूपकों के तह खोल दिए गए हैं, चाहे वह 'कुत्ता' हो या 'हाथी' हो. बुद्धू-बक्सा इस लेख के लिए अविनाश का आभारी. हालांकि यह कोई स्टिंग नहीं है, लेकिन रहस्योद्घाटन तो है ही. इसी के साथ बुद्धू-बक्सा अपने साथियों-पाठकों से अनुरोध करता है या उन्हें आगाह करता है कि वे पुरस्कारों के लिए नहीं, रचने के लिए लिखें.)

सचमुच वे हत्यारे मेरे अपने थे बहुत 
अविनाश मिश्र 

माफ करना मेरे दोस्त
कि हम तुम बंधे हैं नियमों से 
इतना कि जब कभी टूट जाता है 
एक भी नियम अनजाने में 
तब, और भी ज्यादा पैनी हो जाती हैं 
लोगों की नजरें... 

युवा साहित्य अकादमी सम्मान-2013 घोषित हो चुका है। जैसी ‘भविष्यवाणियां’ और अनुमान थे उन्हें एकदम गलत सिद्ध करते हुए इस वर्ष यह सम्मान युवा कवयित्री अर्चना भैंसारे को उनके 2009 में प्रकाशित हुए कविता संग्रह ‘कुछ बूढ़ी उदास औरतें’ के लिए प्रदान किया गया है। यह दिलचस्प है कि इस घोषणा के बाद बहुत सारे लिखने-पढ़ने वाले लोगों ने इस नाम को अनसुना बताया। यहां बताते चलें कि यह नाम इतना भी ‘अनसुना’ नहीं है। अर्चना की कविताएं नया ज्ञानोदय, वसुधा, वागर्थ, साक्षात्कार, रचना समय, सर्वनाम, कृति ओर और सूत्र जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित और प्रशंसित हो चुकी हैं। 

पुरस्कृत संग्रह की कविताएं अपने सपाटपन के बावजूद इस अर्थ में सामयिक युवा हिंदी कविता और कहानी से अलग दिखती हैं कि इनमें कोई उलझाव नहीं है। यह अपनी कहन में बेहद प्रभावी हैं। इनमें भाषा का खेल न होकर कथ्य का उजलापन है। इन कविताओं की सहजता, सजगता और सादगी ने इस वर्ष के साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार के निर्णायकों को कैसे प्रभावित किया इस पर कुछ अनुच्छेदों के बाद आएंगे। पहले कुछ काव्य पंक्तियां-

तुम्हें फूलदान में ही सजा रहना चाहिए
यह जो तुम उचक-उचककर 
खिड़की से बगीचा देखती हो
यह तुम्हारे लिए नहीं है 

तुम्हें रखा गया है इसलिए कि महकाती रहो कमरा 
पर तुम बाज ही नहीं आतीं 
फैल जाने से यहां-वहां 
भरपूर रोशनी के लिए 
सिर पर जला छोड़ा है ट्यूब लाइट...
दिया जाता है जार से भरपूर पानी 
पर तुम हो कि निकाल ही लेती हो गर्दन 
खिड़की के बाहर 
खींच लेने को बेहिसाब हवा  

यकीनन अर्चना भैंसारे की कविताएं सामान्य होने का एहसास देती हैं, लेकिन ये औसत नहीं हैं। यहां सामान्य होना एक अनायास कर्म की तरह है जिसे बाद में एक सायास दृष्टि से देखकर भी सामान्य ही छोड़ दिया गया है, इस सदिच्छा के साथ कि इसे इस रूप में ही समझा जाए और इस यकीन के साथ कि इस रूप में ही यह ज्यादा प्रभावी, बेहतर और संप्रेषित है। अर्चना के ही शब्दों में कहें तब कह सकते हैं कि ‘शब्दों के अभाव में नहीं पूरी हो रही कविता’ को यहां पूरा करने के लिए अधूरा ही छोड़ दिया गया है। यह कविता अपने आस्वादक से यह मांग करती है कि वह इन्हें इनके अधूरेपन में ही पूरा समझे। 

नसीहतों का हर लम्हा 
मेरी डायरी में मौजूद है 

पर याद नहीं आता वह क्षण 
जब थपथपाई गई हो 
मेरी 
पीठ 
कभी... 

ये पंक्तियां रचने वाली कवयित्री के जीवन में अब वह क्षण आ गया है जब उसकी पीठ थपथपाई जा रही है। नसीहतों के सब लम्हें पीछे छूट चुके है, अब संभवत: नई नसीहतों का दौर शुरू हो। यह सचमुच सुखद है कि हिंदी के प्रतिष्ठित और प्रचलित युवा स्वरों को छोड़कर एक ऐसे स्वर को तरजीह दी गई है, जिसकी चर्चा का शोर होते ही उसके अनसुने होने का खेद प्रकट किया जाने लगा। कवयित्री की पीठ इसलिए भी थपथपाई जानी चाहिए कि उसने केवल अपनी कविता से तीन में दो निर्णायकों को प्रभावित किया। हालांकि कुछ कुढ़न के मारे साहित्यिक समाजवादी इस घोषणा के सूत्र, स्रोत और संपर्क भारत भवन, भोपाल, मध्य प्रदेश में खोज रहे हैं।  

चाहकर भी कभी जुटा नहीं पाती 
दृढ़ हो जाने का साहस 
और ताकती रहती हूं उस तम को 
जिसका आधार सघन अंधेरा है

अब और दृढ़ होना होगा मुझे 
ताकि पा सकूं 
प्रकाश का मार्ग ठीक से...

तीन में से जिन दो निर्णायकों को अर्चना की कविताओं ने प्रभावित किया उनके नाम और उस परिस्थिति को यहां उजागर करने से पहले जरूरी है कि साहित्य अकादमी युवा सम्मान से जुड़ी हुई एक अफवाह और एक भ्रम को दूर कर लिया जाए। निर्णायक समिति की बैठक के दौरान एक निर्णायक का सेल फोन बार-बार बज रहा था। ऐसी एक अफवाह ही है कि इसके पीछे एक ऐसे युवा कहानीकार की उंगलियां हैं जिसका कहानी संग्रह निर्णायकों ने इस पुरस्कार के लिए ‘नकार’ दिया। एक भ्रम यह है कि इस सम्मान के लिए अपनी किताब लेखक को खुद ही भेजनी होती है, वह भी एक ऐसे स्व-रचित निबंध के साथ जिसमें आपकी किताब में क्या-क्या है यह बताया गया हो। कुछ रचनाकारों का मानना है कि इस तरह सम्मानित होना अपमानित होने जैसा है, लेकिन यहां इस भ्रम को दूर करें, क्योंकि ऐसा कुछ नहीं है। इस सम्मान के लिए पहले कुछ ऐसी किताबों को ग्राउंड लिस्ट किया जाता है जिनके रचनाकार की उम्र दिए जाने वाले पुरस्कार के वर्ष की एक जनवरी तक 35 वर्ष हो, किताब किसी भी वर्ष प्रकाशित हुई हो इससे फर्क नहीं पड़ता। बाद में ग्राउंड लिस्ट किताबों में से कुछ किताबों को शार्ट लिस्ट किया जाता है। इसके बाद ज्यूरी निर्णय देकर किसी एक किताब को सम्मान के लिए चुनती है। यह पूरी प्रक्रिया ऐसा कहा जाता है कि ‘जानकार’ लोगों की देख-रेख में घटित होती है। बावजूद इसके यह समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे इस पुरस्कार को इस बार तय तिथि से चार महीने पहले घोषित कर दिया गया। यहां आकर अफवाहें और भ्रम नए सिरे से जन्म लेते हैं...। इन्हें दूर करना फिलहाल मुश्किल है।      

इस वर्ष नौ किताबों को शार्ट लिस्ट किया गया, लेकिन अंतत: वे आठ ही रह गईं क्योंकि ‘आलाप में गिरह’ के कवि गीत चतुर्वेदी 27 नवंबर 2012 को जीवन के 35 वसंत पूरे कर चुके हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि वे एक महीना चार दिन के फासले से चूक गए। शेष आठ किताबों में चंदन पांडेय का कहानी संग्रह ‘भूलना’, विमल चंद्र पांडेय का कहानी संग्रह ‘डर’, इंदिरा दांगी का कहानी संग्रह ‘बारहसिंहा का भूत’, कुमार अनुपम का साहित्य अकादमी से ही प्रकाशित कविता संग्रह ‘बारिश मेरा घर है’, निशांत का कविता संग्रह ‘जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा’, प्रदीप जिलवाने का कविता संग्रह ‘जहां भी हो जरा-सी संभावना’, अच्युतानंद मिश्र का कविता संग्रह ‘आंख में तिनका’ और अर्चना भैंसारे का कविता संग्रह ‘कुछ बूढ़ी उदास औरतें’ शामिल थीं।

...और अब अंत में तीन निर्णायकों और उस ‘परिस्थिति के बारे में एक चर्चा’-

भारत भारद्वाज : मैं चंदन पांडेय के कहानी संग्रह ‘भूलना’ का नाम प्रस्तावित करता हूं। 

रामदरश मिश्र : मैं इससे सहमत नहीं हूं। चंदन की कहानियां बहुत अमूर्त हैं, मुझे समझ में नहीं आतीं।

हरिमोहन (दिल्ली विश्वविद्यालय वाले नहीं, आगरा के के.एम. मुंशी संस्थान के निदेशक जो इससे पहले गढ़वाल विश्वविद्यालय में थे।) : मेरी भी कुछ ऐसी ही राय है। 

भारत भारद्वाज : विमल चंद्र पांडेय ?

रामदरश मिश्र : इसकी कहानियां भी वैसी ही हैं, अमूर्त और न समझ में आने वालीं। 

भारत भारद्वाज : कुमार अनुपम ?

रामदरश मिश्र : मैं बताता हूं- अर्चना भैंसारे। इसकी कविताएं बहुत अच्छी और अलग हैं।

भारत भारद्वाज : मैं इस नाम पर असहमत हूं। 

हरिमोहन : मुझे लगता है यह नाम ठीक है। 

भारत भारद्वाज : आप लोगों को पूरी हिंदी पट्टी देख रही है। सोच-समझकर निर्णय दीजिए।

हरिमोहन : सर, (रामदरश मिश्र) नोट लिख दिया जाए।

रामदरश मिश्र : हां। 

हरिमोहन : आप बोल दीजिए, मैं लिख देता हूं।

रामदरश मिश्र : लिखो, अर्चना भैंसारे की कविताएं बेहद सहज हैं। ( इसके बाद के तीन वाक्यों में छह बार ‘सहज’ आता है।)

हरिमोहन : सर, थोड़ा स्त्री-संघर्ष वाला भी लिख दें। 

रामदरश मिश्र : हां... हां..., लिखिए, इन कविताओं में स्त्री-संघर्ष अलग से रेखांकित किए जाने योग्य है। 

भारत भारद्वाज : मैं असहमति मैं दस्तखत करता हूं और अध्यक्ष से दरख्वास्त करता हूं ऐसी बैठकों की वीडियो रिकार्डिंग कराई जानी चाहिए, ताकि साहित्य अकादमी के निर्णयों की विश्वसनीयता और पारदर्शिता बनी रहे...। 

(‘परिस्थिति के बारे में एक चर्चा’ एक निर्णायक के मुख से सुनी गई आपबीती पर आधारित है, प्रामाणिकता जांच लें। इस टिप्पणी का शीर्षक और इसमें प्रयुक्त काव्य-पंक्तियां अर्चना भैंसारे के कविता संग्रह ‘कुछ बूढ़ी उदास औरतें’ से ली गई हैं )

शनिवार, 17 अगस्त 2013

विष्णु खरे की नई कविताएँ

(विष्णु खरे की ये कविताएँ उन कविताओं में शामिल हैं जो 'पहल' के ताज़ा अंक में प्रकाशित हैं. इनके आगे की कविताओं को भी यहाँ प्रकाशित किया जाएगा. विष्णु खरे की इन्हीं कविताओं का कवि की आवाज़ में पाठ हम जल्द आपसे साझा करेंगे और कवि का एक विस्तृत साक्षात्कार निकट भविष्य में आपके सामने होगा. इस निर्लज्ज समय में जब सच बोलना दुश्वार है, उस समय विष्णु खरे ये सुन-देखकर अफ़सोस से भर जाते हैं कि उत्तराखंड की त्रासदी पर कवियों ने कुछ नहीं लिखा(सिवाय विरोध-भर्त्सना-हस्ताक्षर करने के), कोई रचना विरोध की मुक़म्मिल भाषा नहीं बोलती, कोई रंगकर्मी या कोई कलाकार अपनी रचनाओं में समाज की व्याधियों से संवाद स्थापित नहीं करता और फेसबुक पर हरी बत्ती जलाने के सिवाय सबसे क़ाबिल गद्यकार और आलोचक कुछ ख़ास नहीं कर रहे हैं. हाँ, इन बातों का इन कविताओं से 'सीधा' या 'ख़ास' सम्बन्ध नहीं है, लेकिन हमारे समय से तो है. और ये कविताएँ इस समय के पर्यायों से होकर गुज़रती हैं, जहाँ दिल्ली के पुराने किले में गरीबों का झुण्ड बैठकर खाना खाता है, समूचे ब्रह्माण्ड पर 'तज दिया गया' लिख देने की चेष्टा है और सरस्वती को शार्दूल पर बुलाने का आग्रह है. बुद्धू-बक्सा कवि, 'पहल' और अपने अनन्य पाठकों का आभारी रहेगा.)

विलोम
कहना मुश्किल है
कि हर वह व्यक्ति
जिसके लिए शोक सभा की जाती है
उस शोक का हक़दार होता है भी या नहीं
जो शोक उसके लिए मनाया जाता है वह सच्चा होता है या नहीं
और जो उसके लिए शोक मना रहे होते हैं उसमें से कितने वाकई शोकार्त होते हैं
और कितने महज राहत महसूस करते हुए दुनियादार
बहरहाल जैसी भी रही हो उस एक ज़िंदगी को डेढ़-दो घंटों में निपटा देने के बाद
दो मिनट का वह वक्फ़ा आता है जब मौन रखा जाना होता है

मैनें अक्सर देखा है यह एक सौ बीस सेकण्ड
हर सिर नीचा किए या शून्य में देखते खड़े हुए शोकार्त पर भारी पड़ते हैं
लगता है तभी उनकी आत्मा का साक्षात्कार होता है दिवंगत और मृत्यु से
अपने भीतर की खला से
तुम नहीं जानते थे कि मौत इतने लोगों को तबाह कर सकती है
वे कनखियों से देखते हैं कलाई या दीवाल घड़ियों को या आसपास खड़े अपने जैसे लोगों को
या मंच पर खड़े खुर्राट पेशेवर शोकार्तों को
कि वे अपने शरीर की किसी भंगिमा से संकेत दें और अंततः सभा समाप्त हो
जबकि यह दो मिनट का मौन
उन्होनें मृतक के पूरे जीवन भर उसके कहे-किए पर रखा होता है
और अब जब कि वह नहीं रहा
तो सुविधापूर्वक बचे-खुचे इनके जीवनपर्यंत रखा जाएगा

मेरे साथ यह विचित्र है
कि अगर किसी शोक-सभा में जाता भी हूँ
तो मंच पर और मेरे आसपास आसीनों को देखते हुए उन पर
और उनके बीच बैठे खुद पर और दिवंगत आत्मा पर बल्कि सारे ज़माने पर
लगातार खिलखिलाने या कुछ अभद्र कहने की असभ्य इच्छा होती रहती है
जिसे अपने निजी जीवन की चुनिन्दा त्रासदियों को सायास याद करके ही दबा पाता हूँ

मेरा शोक-प्रस्ताव यह होता है कि
बहुत रख चुके
अब हम इस इंसान की स्मृति में एक सेकण्ड का भी मौन नहीं
बल्कि चुप्पी के सारे विलोम रखें और वह भी महज दो मिनट के लिए और यहीं नहीं
यानी आवाज़ बात बहस ध्वनि कोलाहल शोरगुल रव गुहार आव्हान तुमुलनाद बलवा बगावत चारसू

तिलिस्म
अच्छी किताबों को पूरा पढ़ पाना
इसलिए भी मुश्किल है
कि शुरू में तो वे हमसे खुल जाती हैं
कुछ दूर तक दाखिल भी होते हैं हम उनमें
कि रुक कर वर्कों के आरपार देखने लगते हैं
या उन्हें बंद करना तक भूलकर
उफ़क़ में ताकते रहते हैं अँधेरा होने तक

कहाँ-कहाँ भटका ले जाते हैं उनके अजीब मज़ामीन
जाने क्या-क्या तारी कर देती हैं वे
महज क़िस्सागोई या तग़ज्ज़ुल ही नहीं
किन ज़मानों किन दुनियाओं किन मसाइल में
हमारे जीवन से पहले की जिंदगियों
हमारी मृत्यु के बाद के जन्मों में
हमारे कितने भीतर और हमसे कितनी दूर
बाज़ औक़ात समझना नामुमकिन

और हम पर भी नाज़िल होता है वह अज़ाबी ख़्वाब
कि काश हमसे भी कभी वैसा कुछ हो सकता
हम भी बना पाते अर्श से इधर कोई तिलिस्म
जिसे निहायत हकीर हम ही अपने में खोलते
बेइंतिहा है यह बनती-बिगड़ती कायनात
और उसके ये सारे वास्तविक-काल्पनिक अक्स नुकूश ब्यौरे और बयान
उसमें न सही उतनी बलंदी पर लेकिन ऐसा एक मंज़र हमारा भी क्यों नहीं हो सकता

A B A N D O N E D
वे शायद हिन्दी में त्यागे या छोड़े नहीं जा सकते रहे होंगे
उर्दू में उनका तर्क या मत्रूक किया जाना कोई न समझता
इंग्लिश की इबारत का बिना समझे भी रोब पड़ता है
लिहाज़ा उन पर रोमन में लिखवा दिया गया अंग्रेज़ी शब्द
अबेंडंड

उनमें जो भी सहूलियतें रही होंगी वे निकाल ली गई होती हैं
जो नहीं निकल पातीं मसलन कमोड उन्हें तोड़ दिया जाता है
जिनमें बिजली रही होगी उनके सारे वायरों स्विचों प्लगों होल्डरों मीटरों के
सिर्फ़ चिन्ह दिखते हैं
रसोई में दीवार पर धुएँ का एक मिटता निशान बचता है
तमाम लोहा-लंगड़ बटोर लिया गया
सारी खिड़कियाँ उखड़ी हुईं
सारे दरवाज़े ले जाए गए
जैसे किन्हीं कंगाल फ़ौजी लुटेरों की गनीमत
कहीं वह खुला गोदाम होगा जहाँ
यह सारा सामान अपनी नीलामी का इंतज़ार करता होगा

रेल के डिब्बे या बस में बैठे गुज़रते हुए तुम सोचते हो
लेकिन वे लोग कहाँ हैं जो इन सब छोड़े गए ढांचों में तैनात थे
या इनमें पूरी गिरस्ती बसाकर रहे
कितनी यादें तजनी पड़ी होंगी उन्हें यहाँ
क्या खुद उन्हें भी आखिर में तज ही दिया गया

जो धीरे-धीरे खिर रही है
भले ही उन पर काई जम रही है
और जोड़ों के बीच से छोटी-बड़ी वनस्पतियां उग आई हैं
और मुंडेरों के ऊपर अनाम पौधों की कतार
सिर्फ़ वही ईंटें बची हैं
और उनमें से जो रात-बिरात दिन-दहाड़े उखाड़ कर ले जाई जा रही हैं
खुशकिस्मत हैं कि वे कुछ नए घरों में तो लगेंगी

पता नहीं कितने लोग फ़िर भी सर्दी गर्मी बरसात से बचने के लिए
इन तजे हुए हों को चंद घंटों के लिए अपनाते हों
प्रेमी-युगल इनमें छिप कर मिलते हों
बेघरों फ़कीरों-बैरागियों मुसीबतज़दाओं का आसरा बनते हों ये कभी
यहाँ नशा किया जाता हो
जरायमपेशा यहाँ छिपते पड़ाव डालते हों
सँपेरे मदारी नट बाजीगर बहरुपिए कठपुतली वाले रुकते हों यहाँ
लंगूर इनकी छतों पर बैठते हों
कभी कोई चौकन्ना जंगली जानवर अपनी लाल जीभ निकाले हाँफता सुस्ताता हो

किस मानसिकता का नतीज़ा हैं ये
कि इन्हें छोड़ दो उजड़ने के लिए
न इनमें पुराने रह पाएँ न नए
इनमें बसना एक जुर्म हो

सारे छोटे-बड़े शहरों में भी मैनें देखे हैं ऐसे खंडहर होते मकान
जिन पर अबेंडंड छोड़ या तज दिए गए न लिखा हो
लेकिन उनमें एक छोटा जंगल और कई प्राणी रहते हैं
कहते हैं रात को उनमें से आवाज़ें आती हैं कभी-कभी कुछ दिखता है
सिर्फ़ सूने घरों और टूटे या तोड़े गए ढांचों पर
आसान है छोड़ या ताज दिया गया लिखना
क्या कोई लिख सकता है
तज दिए गए
नदियों वनों पर्वतों गाँवों कस्बों शहरों महानगरों
अनाथालयों अस्पतालों पिंजरापोलों अभयारण्यों
दफ्तरों पुलिसथानों अदालतों विधानसभाओं संसद भवन पर
सम्भव हो तो सारे देश पर
सारे मानव-मूल्यों पर
किस किस पर कैसे कब तक लिखोगे
जबकि सब कुछ जो रखने लायक था तर्क किया जा चुका

कभी एक फंतासी में एक अनंत अंतरिक्ष यात्रा पर निकल जाता हूँ देखने
कि कहीं पृथ्वियों आकाशगंगाओं नीहारिकाओं पर
या कि पूरे ब्रह्माण्ड पर भी कौन सी भाषा कौन सी लिपि में किस लेखनी से
कहीं कोई असंभव रूप से तो नहीं लिख रहा है धीरे-धीरे
जैसे हाल ही में बनारस स्टेशन के एक ऐसे खंडहर पर पहली बार लिख देखा परित्यक्त

उसी तरह
कुछ ऐसा है
कि मैं अकेली औरतों और अकेले बच्चों को
ज़मीन पर बैठे खाना खाते नहीं देख सकता
पता नहीं क्यों मैं एक अनाम उदासी
और दुःख से घिर जाता हूँ
जबकि वे चुपचाप निवाले तोड़ते हुए या कौर बनाते
सारी दुनिया की तरफ़ पीठ किए हुए
एक अनाम दिशा में तकते जाने क्या सोचते अपना पेट भरते हैं
कभी-कभी एक आदिम लम्हे के लिए अचानक अपने आसपास देख लेते हुए
मैं इतना चाहता हूँ कि वे मुझे अपने पास इतनी दूरी पर इस तरह बैठने दें
जहाँ से वे मेरे चेहरे पर देख सकें कि मैं अपने मन में उनसे कह रहा हूँ
खाओ खाओ कोई बात नहीं

लेकिन मुझे मालूम है कि ऐसी किसी भी हरकत से
शान्ति से खाने की उनकी एकांत लय में विघ्न पड़ेगा
और वे आधे पेट ही उठ जाएँगे

इसलिए मैं खुद को इसी भरम से बहला कर चला आता हूँ
कि जहाँ ऐसी अकेली औरतें ऐसे अकेले बच्चे अपनी उस जून की कठिन रोटी खा रहे होते हैं
वहाँ एक वाजिब दूरी पर जो कुत्ते बैठे हुए हैं किसी खुश उम्मीद में बेहद हौले अपनी पूंछ हिलाते हुए
उनमें मैं भी शामिल हूँ अपनी वह बात कुछ उसी तरह कह सकने के लिए

सरस्वती वन्दना
तुम अब नहीं रहीं चम्पावेल्ली चंद्रमा और हिम जैसी श्वेत
तुम्हारे वस्त्र भी मलिन कर दिए गए
यदि तुम्हारे वीणा के तार तोड़े नहीं गए
तो वह विस्वर हो गयी है
जिस कमल पर तुम अब तक आसीत् हो वह कब का विगलित हो चुका
जिस ग्रन्थ को तुम थामे रहती थीं
वह जीर्ण-शीर्ण होकर बिखर गया
तुम्हारा हंस गृध्रों का आखेट हुआ
मयूर ने धारण किया काक का रूप
जिस सरिता के किनारे तुम विराजती थीं वह हुई वैतरणी
सदैव तो क्या कदाचित भी कोई तुम्हारी स्तुति करने नहीं आता
तुम किसी की भी रक्षा नहीं कर पा रही हो जड़ता से
मुझ मूर्खतम की क्या करोगी

वीणावादिनि वर दे यही
जा कालिका में विलीन हो जा अब
बनने दे उसे उस सबकी देवी
जिसकी तुझे बनने नहीं दिया गया
आओ चंडिके कटे हाथों का अपना प्राचीन कटि-परिधान तज कर
छोड़ आओ अपनी बासी मुंड-माल
फेंक दो खप्पर-सहित रक्तबीज का सजावटी सिर
शारदा के समस्त विश्वासघाती भक्तों-पुरोहितों-यजमानों की प्रवृत्तियाँ
हो चुकी हैं तामसिक और आसुरी
कितना कलुष कितना पाखण्ड कितना पाप कितना कदाचार
मानव ही रक्त पी रहे हैं मानवों का
कितना करणीय है इधर तुम्हारे लिए कराली
तुममें समाहित सरस्वती तजे अपने रूधिर-पथ्य
तुम्हारी तृषा तुष्ट करने हेतु प्रचुर है यहाँ
क्षुधा का शमन करने के लिए पर्याप्त
टटके कर मुंड महिष शुम्भ-निशुम्भ रक्तबीज हैं
हंस पर नहीं शार्दूल पर आओ भवानी
और रचने दो यहाँ अपना नूतन स्त्रोत
या देवी सर्वभूतेषु विप्लवरूपेण तिष्ठिता