मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

वर्षारम्भ, आलोचना और प्रासंगिकता

[जैसा कि बहुत सारे पाठक जान रहे होंगे कि ये गद्यांश विष्णु खरे के निबन्ध ‘उदासीन परिवेश और आलोचना’ के हैं जो ‘आलोचना की पहली किताब’ में संकलित है. यह भी जान लेना उचित है कि यह लेख अशोक वाजपेयी द्वारा भोपाल में आयोजित एक सेमीनार में पहली दफ़ा पढ़ा गया. मुद्दा ये है कि 1980-81 में लिखे गए एक लेख की प्रासंगिकता 2014 के किसी एक दिन कैसे बढ़ गयी? बुद्धू-बक्सा पर यह इस साल सबसे पहले आने वाली रचना होना चाहता था और हुआ भी, वह बात अलग है कि साल ही थोड़ा देर से शुरू हुआ. लेकिन बात आती है प्रासंगिकता की. इस समय हिन्दी में आलोचना जिस स्तर से जूझ रही है, वह खुद उसी का बनाया हुआ है. हमनें आत्मप्रशंसा और दोस्तों द्वारा की गयी लाचारी भरी तारीफ़ को रचना का मापदंड बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है. आधे से ज़्यादा अच्छे युवा कवि, जो अच्छे आलोचक भी हैं/थे, मेले-झमेले में रचनात्मकता नष्ट कर रहे हैं. कुछेक जो हैं, वे झूठी प्रोफ़ाइलों से कविता पर बहस जगाने की कोशिश कर रहे हैं. हिन्दी के अच्छे ब्लॉग, जो एक समय वेब के सशक्त माध्यम होने की पैरवी करते थे, वे ऐसे ‘आइडल’ पड़े हैं मानो वे ऐसे ही थे. 2013 में जो भी आलोचना का चेहरा मुखर होकर सामने आया, एकाध को छोड़कर सभी को नाम लेने में तकलीफ़ होती है. गाहे-बगाहे इन सभी नामों से हम वाकिफ़ हैं, जो फ़लक से दूर भागने में रत है. लेखक और समाज के लिए आलोचना के महत्व को यह निबन्ध संजोकर चलता है. यह विष्णु खरे के उस आंकलन को भी और बल देता है जहाँ वे हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या ‘निर्भीकता का न होना’ बताते हैं. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से यदि एक वरिष्ठ कवि नामवर सिंह का नाम लिए बिना निकल आता है, तो गुर्गे बिलबिला उठते हैं. अब यही प्राध्यापक-कम-गुर्गे से लगभग जुड़ा मजमून भी इस गद्यखंड में मिलता है, इसलिए भी यह प्रासंगिक है. निर्भीकता की बात करें, तो प्रासंगिकता का फ़लक और खुलता है. गैंग और गैंगवार पर बात आ जाए, तो ‘मेरा इशारा किस तरफ़ है’ से भी यह लेख प्रासंगिक हो उठता है. यहाँ सहमति के बजाय पहल के सुर हैं. इसे सहजता से लेना आप पाठकों का अधिकार है, न लेना भी. बुद्धू-बक्सा किसी की पैरवी नहीं करता और इस साल बुद्धू-बक्सा कुछ कठिन फैसले ले सकता है.]

किन्तु केवल साहित्यिक परिवेश की ही बात करें. आज हम हिन्दी में सबसे पहले एक विराट दुनिया पाते हैं जो हिन्दी साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने वालों की दुनिया है – हज़ारों ‘अनुभवी’ प्राध्यापक लाखों कच्चे विद्यार्थियों को शिक्षा दे रहे हैं. प्रत्येक प्राध्यापक पढ़ाते समय एक आलोचक होता है. हमारे प्राध्यापक किस तरह का परिवेश निर्मित कर पाए हैं यह छिपा नहीं है. उसके क्या कारण हैं – उनमें साहित्यकार आलोचक भी आते हैं – यह भी हमें कमोबेश मालूम है. हिन्दी के प्राध्यापकों की एक अक्षौहिणी पिछले पचासों वर्षों से जो परिवेश बना पाई है वह आज साहित्य के पठन-पाठन को कहाँ ले आया है, यह बताने की बात नहीं. किन्तु भारत जैसे देश में, जहाँ निरक्षरता जाने कितने प्रतिशत है, महाविद्यालयों में पढ़ने वाला विद्यार्थी भी ‘एलीट’ है, उसे पढ़ाने वाले तो ‘एलीट’ हुए ही. स्पष्ट है कि ‘एलीट’ का परिवेश – ‘एलीट’ द्वारा निर्मित परिवेश – परिवेश नहीं हो सकता. भारत में लिखाई-पढ़ाई अभी भी ‘एलीट’ कर्म है – आम साहित्यकार आम आदमी से ऊपर है और श्रेष्ठ साहित्यकार, आज का आधुनिक साहित्यकार, तो उससे बहुत दूर है. ऐसे साहित्य की समीक्षा को जो भी सन्दर्भ इस्तेमाल करने होंगे वे लाख न चाहने पर भी ‘एलीटिस्ट’ होंगे – दरअसल सारी उच्चस्तरीय भाषा आम भारतीय के लिए ‘जैबरवॉकी’ या ‘जिबरिश’ है. ऐसी भाषा और ऐसा साहित्य गैर-साहित्यिक परिवेश की उदासीनता को कैसे साहित्यिक दिलचस्पी में बदल सकते हैं जबकि उसके लिए पूरे समाज को मौलिक रूप में बदलना ही? यह तो बात आम समाज की हुई. कला की विभिन्न विधाओं में काम कर रहे ‘एलीट’ समूह भी कैसे उनके समूह की दोसरे समूहों के प्रति उदासीनता को तोड़ेंगे – चित्रकला की आलोचना कैसे अपने काम के प्रति समर्पित कलाकार की संगीत के प्रति उदासीनता को तोड़ेगी – और क्यों? इंजीनियर, डॉक्टर, वकील आदि शमशेर की कविता किस आलोचना की कोशिशों के कारण पढ़ेंगे? यह स्वर्ण युग असंभव नहीं है – कुछ पूंजीवादी देशों में यह सम्भव हुआ है और प्रायः सारे समाजवादी देशों में भी इसे प्राप्त किया गया है – लेकिन इसके लिए जो प्रयत्न किये गए हैं या मूल्य चुकाने पड़े हैं वे अभी भारत में सिर्फ़ सोचे जा रहे हैं, या सोचे भी जा रहे हैं कि नहीं?

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सृजनशील साहित्यकारों को सबसे ज़्यादा हिदायतें आदर्शवादियों से मिलती हैं – मैं इसमें ऐसी सारी विचारधाराओं का समावेश करना चाहता हूँ जो साहित्यकारों के कर्तव्य निर्धारित करती हैं. वे यह भूल जाती हैं कि प्रत्येक सही साहित्यकार या तो अपने कर्तव्य जानता है या वे उसके लेखन से ही पैदा होते हैं और फ़िर भी उस पर लाज़िमी नहीं होते. बहरहाल, हम देख चुके हैं कि साहित्यिक परिवेश स्वयं अपने आप में उदासीन नहीं है और भारत जैसे देश में यदि वृहत्तर परिवेश कलाओं को लेकर उदासीन है तो उसमें आलोचना का कोई कुसूर नहीं है – वृहत्तर परिवेश समाज बदले बगैर नहीं बदल सकता और समाज बदलने के तरीकों का कोई सीधा और फ़ौरी सम्बन्ध साहित्य या आलोचना से नहीं है – गहरी सामाजिक आलोचना से और मानवता के प्रति गहरे लगाव से है – और उसके लिए दूसरे ही काम करने पड़ते हैं – बल्कि वह काम एक तरह से पूरे समाज को ही करना पड़ता है. हां, आलोचना का कर्तव्य उदासीन जड़ता को तोड़ना अवश्य है. यह काम आलोचना अच्छी कला को समझ-समझाकर और उसकी तारीफ़ करके तथा ख़राब कला को उघाड़कर और उसकी भर्त्सना करके ही कर सकती है. कुछ ऐसे अनेकांतवादी-अन्त्योदयी आलोचक भी हैं जो सिर्फ़ अच्छी कला की तारीफ़ करने को ही आलोचना का अंत समझ लेते हैं – बल्कि वे अच्छी-बुरी किसी भी कृतिके बारे में ऐसी तत्समी भाषा का इस्तेमाल करते हैं कि उससे आप किसी भी नतीज़े पर पहुँच नहीं सकते – कृति के बहाने उन्हें सिर्फ़ अपने दिमाग की कलाबाज़ियाँ दिखाकर आपको गद्गद् करना है. दूसरी ओर आधुनिकता-विरोधी, प्रगति-विरोधी, मूढ़ मार्क्सवादियों, एकेडेमिकों, रंगीन पत्रिकाओं द्वारा पाले गए आदि नाना प्रकार के आलोचकों की भीड़ है जो मौक़ापरस्ती के सारे रंगों को बदल चुकी है. एक और दुखद दृश्य प्रतिभावान आलोचकों का है जो लगभग शलाका-पुरुष बनकर दैदीप्यमान हुए थे किन्तु अच्छी ज़िंदगी, अच्छी नौकरी, अच्छी सोसायटी में फँसकर नैतिक आलस्य को अकाल प्राप्त हुए और अब अपनी पिछली कृतियों के पुनर्मुद्रण से काम चला रहे हैं. समसामयिक प्रासंगिकतम लेखन पर इनसे न मालूम क्यों लिखा नहीं गया और अब आचार्यत्व का बौद्धिक चौथापन आ पहुँचा. यह नहीं है कि अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने वाले आलोचक रहे नहीं, किन्तु वे कनफटे और हेठे समझे जाते हैं, उनका स्वागत मुश्किल से कहीं होता है क्योंकि वे भरोसे के क़ाबिल और संभ्रांत नहीं समझे जाते. ऐसे आलोचक जब सही जगह प्रहार करते हैं तो कायरों की एक टोली-की-टोली ख़ूब वाह-वाह तो करती है किन्तु सुसंस्कृत ड्राइंग-रूमों में उनकी चर्चा अभद्र मानी जाती है. आलोचना की समस्या परिवेश की उदासीनता नहीं, उसकी अपनी निर्भीकता की है. यूरोप की क्रांतियों के पीछे निर्भीक चिंतन की एक परम्परा थी. वह निर्भीकता उनके साहित्यिक चिंतन में भी थी. भारत की मुक्ति गांधी की निर्भीकता के बिना सम्भव नहीं थी. जहाँ डरते, लजाते, सकुचाते, चरण छूते, मिनमिनाते, स्वीकृति को ललचते ‘साहित्यकारों’ और ‘आलोचकों’ की भीड़ नवधनाढ्यों अथवा फैशनेबल ‘वामपंथी’ या ‘दक्षिणपंथी’ बुद्धिजीवियों की ड्यौढियों पर दस्तबस्ता खड़ी हो, वहाँ यह कौन सुने कि खुला, सजग दिमाग, भय से मुक्ति और सारे दिए गए सत्यों पर प्रश्न-चिन्ह लगाने की ताक़त हीतमाम तरह की उदासीनताओं को तोड़ने की दिशा में पहला मज़बूत क़दम है. 

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