मंगलवार, 22 सितंबर 2015

'अंधेरे में' पर विष्णु खरे का प्रतिवाद


चमकीले विरोधाभासों में बेसुध आत्म-सम्मोह 
उर्फ़
‘प्रश्न की उथली-सी पहचान’ 

विष्णु खरे 

दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
कोई भी मुर्ग़ा
यदि बांग दे उठे ज़ोरदार 
बन जाये मसीहा
                                 (गजानन माधव मुक्तिबोध,’अँधेरे में’, 6, 156-60)



[ 1 ]

‘अँधेरे में’ आज भी इतनी जीवंत और प्रासंगिक है कि उसे ‘अब’ सिर्फ प्रतीक मानना एक सुविधाजनक, पलायनवादी, चालाक, विरोधी रणनीति का एक दांव ही हो सकता है. यदि वह अमर है तो निस्संदेह वह एक अभिशाप उनके लिए है जो ऐसी अमरता न सोच पाते हैं और न सह. आज हिंदी में केन्द्रीय कविता कौन-सी है यह कह पाना कठिन है लेकिन 1964 में अपने प्रकाशन के समय से ही हिंदी के कई सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि और उनकी ‘कविताएँ’ ‘अँधेरे में’ के  प्रकट प्रभाव से जाने-अनजाने मुक्त रहे हैं. कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा आदि से शुरू होने वाली पीढ़ियाँ कुछ तो मुक्तिबोध की दुर्दांत प्रतिबद्धता से आज़ाद रही हैं और अधिकांश उनकी भाषा, शिल्प और शैली से भी स्वतंत्र रही हैं. मामला हिन्दू मिथकों में विष्णु और शिव जैसा रहा है – राम और कृष्ण आदि विष्णु के अवतार माने गए हैं बल्कि उन्होंने, और अन्य कई कमतर आराध्यों ने भी, विष्णु को लगभग अपदस्थ कर दिया, किन्तु किसी को भी शिव का अवतार होने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है.

तात्कालिक और सतही तौर पर ऐसा हमेशा लगता है, और जितना उथला हमारा दिमाग हो उतना ज़्यादा लगेगा, कि अब हमारा समय और संसार एक कालजयी कृति से बहुत दूर चले आए हैं, लेकिन, महान लेखकों और उनकी अमर कृतियों के कितने नाम गिनाए जाएँ, सैकड़ों अन्य रचनाओं के भी, जिनके न पूर्वानुभव अतीत हुए हैं और न उनकी आहटें, न चेतावनियाँ ऐसी हैं कि जिन्हें आगे न सुना जाएगा. यह कहना कि ‘अँधेरे में’ भविष्य की कविता नहीं है विकलमस्तिष्क हास्यास्पदता है क्योंकि वह 50 वर्षों से उत्तरोत्तर वर्तमान की कविता बनी हुई है और यदि हालात न बदले, जो कि अब तो विश्व-स्तर पर बदलते दिखाई नहीं देते, बल्कि लगता है बदतर होने को अभिशप्त हैं, तो ‘अँधेरे में’ सरीखी कृतियों की प्रासंगिकता में एक दुर्भाग्यपूर्ण, भयावह वृद्धि होती रहेगी. उनमें अभिव्यक्त संकटों से कोई आर-पार का सामना नहीं हो सका है बल्कि वह भयावह्तर भेसों में सामने हैं. मुक्तिबोध-जैसा जीवन न तो मुक्तिबोध का अभिप्रेत था न आज के कवि का है – वह उन जैसे कवि पर नाज़िल किया गया था और उन जैसे कवियों पर बरपा किया जाएगा. 'अँधेरे में’ के नायक का आध्यात्मिक और विचारधारागत आत्मोन्नयन तो कविता में हो चुका है, यदि वह कविता के बाहर नहीं हुआ तो उसके लिए मुक्तिबोध उत्तरदायी नहीं हैं, यदि बाहर ‘जीवन-शैली’ बदल गयी है तो उसके लिए भी नहीं.

[ 2 ]

निस्संदेह अब ‘अँधेरे में’ सरीखा अँधेरा नहीं है क्योंकि वह 1964 से कहीं गहरा, भयावह और हत्यारा हो चुका है. हाँ,जो सावन में अंधे हुए हैं उन्हें वह अब हरा-हरा सूझ रहा है. मुक्तिबोध का काव्य-नायक अपने ‘जीवन-काल’ में ही व्यवहार से छिटका हुआ आदर्श था लेकिन यह बखूबी जानते हुए भी उसे इसकी परवाह न थी. यह तो स्पष्ट है कि हमारा अनलिखा-लेखनायक उस महानता को दोहराना तो क्या, इकहराना भी नहीं चाहेगा क्योंकि अपनी श्रद्धाहीन, सुविधाजनक, अभिप्रेत नपुंसकता में वह स्वयं पहले से ही सड़क के नीचे के गटर में छिप गया है और परिवर्तनातीत पूँजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बन चुका है. अब वह बदल नहीं सकता. बदलना नहीं चाहता.

[ 3 ]

गाँधी कहते ज़रूर हैं कि हम हैं गुज़र गये ज़माने के चेहरे लेकिन मुक्तिबोध के लिए वह ‘देव’ हैं जिनके आगे ‘अति दीन’ हो कर ही जाया जा सकता है : किन्तु, मैं देखा किया उस मुख को/ गंभीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही/शब्दों में गुरुता// वे कह रहे हैं – (इस टिप्पणी का पुरोद्धरण) / वे कह रहे हैं – ‘मिट्टी के लोंदे में किरणीले कण-कण / गुण हैं, / जनता के गुणों से ही संभव/ भावी का उद्भव //...मुस्करा उस द्युति-पुरुष ने कहा तब - /’’मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था/सँभालना इसको,सुरक्षित रखना’’

हमारा अनलिखा-लेखनायक अव्वल तो कुटिलता और चालाकी से मुक्तिबोध के उद्धरण में इस तरह कतरब्योंत करता है जैसे कोई चोर दर्ज़ी गाहक के कपड़े में करे, फिर इस पर आँखों में सूअर का बाल डाल लेता है कि यदि समय और जनचरित्र ने मुक्तिबोध और गाँधी के सपनों के साथ एक-सा विश्वासघात किया तो उसके लिए यह दोनों उत्तरदायी कैसे हैं और ‘अँधेरे में’ में व्यक्त संकटों से सामना किस तरह और कौन कर चुका है और ‘अँधेरे में’ जैसा अँधेरा अब कैसे नहीं है?

[ 4 ]

कोई दुर्बुद्धि दृष्टिहीन ही कह सकता है कि यह समय मुक्तिबोध के युग से बेहतर है. इस बौद्धिक दीवालिएपन की इंतिहा यह मानना है कि वर्तमान हमेशा अतीत से श्रेष्ठ होता है. ऐसी मूर्खता तो अनिर्वचनीय है. मुक्तिबोध जैसे जिद्दी, हठधर्मी, प्रतिबद्ध आदर्शवादी के लिए आज भी यदि विकल्प होते तो ‘ज़िंदगी की शर्म जैसी शर्त’ सरीखे अस्वीकार्य होते. युग और वर्तमान के बहुआयामीय, वैश्विक अर्थ-सन्दर्भ में जीवनयापन और प्रकाशन जैसी सीमित समस्याओं की बात हमारे अनलिखे-लेखनायक के हाय-हाय (मैंने उन्हें देख लिया नंगा) विरोधी, ‘कर्मवादी’ बौद्धिक-नैतिक  दारिद्र्य को विवस्त्र कर देती है. 'अँधेरे में’ यदि आज भी प्रासंगिक है तो यह विडंबना ‘अँधेरे में’ और उसके बाद की आज तक की हिंदी कविता की नहीं,  यह La condition humaine की विडंबना है. वैश्विक पूँजीवाद ने अपने सहित समूची मानवता को suicide bomber बना दिया है, उसे आत्मनाश की मंज़िल का एकतरफ़ा टिकट कटवा दिया है. जिसे भौतिक सफलता कहा और माना जा रहा है यदि वह आधिभौतिक-नैतिक-आदर्शवादी-प्रतिबद्ध असफलता पर विमर्श करती है तो यह जिद्दी, अलज्जित, अड़ियल असफलता नाउम्मीद और नपुंसक कैसे सिद्ध होती है? ‘अँधेरे में’ की ‘विडंबना’ को 1964 और उसके पहले से ही कौनसी प्रतियोगी धूर्त सफलताओं ने महान और प्रतीक बना डाला था जो अब तक बनाए हुए हैं?

[ 5 ]

यदि हिंदी के अकादमिक जगत में सुविधाभोग का सफल माहौल है और सत्ता भी वहाँ सफल रही है और ‘अँधेरे में’ एक अप्रासंगिक, और चुकी हुई कविता है तो हिंदी में ‘परम अभिव्यक्ति’ की खोज को लेकर हमारा अनलिखा-लेखनायक परेशान क्यों है? अचानक वह ‘सरकारी अनुदानों और सुविधाओं...पर पलनेवाले पालतू’ जे.आर.एफ़ों., शोधार्थियों को हिक़ारत से ‘अँधेरे में’ को समझने के नाक़ाबिल मानते हुए अग्निवर्षण क्यों करने लगता है जबकि वह ख़ुद ‘अँधेरे में’ और मुक्तिबोध को लगभग दो कौड़ी के समझता लगता है? अकादमिक वर्ग पूछे या न पूछे, हमारे अनलिखे-लेखनायक से दूसरों को यह तो पूछना ही चाहिए कि पार्टनर, तुम्हारी सैलरी और पॉलिटिक्स क्या हैं? तुम किन रावणों के घर पानी भर रहे हो? 

[ 6 ]

विचार के रास्ते शिल्प से जुड़ने का क्या मंतव्य है? अव्वल तो यह किया कैसे जाता है? फिर किया भी जाता हो तो क्या विचार की कविता में शिल्प नहीं होना चाहिए? या शिल्प से जुड़ना कोई चालाकी या स्नायु-दौर्बल्य है? क्या वह एक मूर्खता है? क्या लेखक संगठन ‘जनचरित्र’ हैं जिसे कोई ‘अँधेरे में’ सरीखे महान प्रतीक को ढोने के निर्देश दे रहा है?

[ 7 ]

मार्क्सवाद को नकारने के उद्देश्य से इस बाली उमर में ही पुंसत्व जुटाने के लिए बर्ट्रेंड रसेल के दिवंगत, आउट-ऑफ़-डेट विआग्रा की दरकार क्यों हुई? इस कुश्ते का नुस्खा तो जरद्गव रज़ा फ़ाउंडेशन के खैराती शिफ़ाखाने में हकीममुसल्लस कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी, ओम थानवी से हासिल हो सकता था. मिल तो लें.

[ 8 ]

प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी शक्तियाँ आज नहीं, पहले भी जनसमर्थन से राज कर चुकी हैं. हिंदी के क्या सभी बौद्धिक वर्ग समाज में हो रहे बदलावों से बेखबर रहे? 1947 के, और विशेषतः 1964 में नेहरू की मृत्यु के, बाद से हिंदी कविता जितनी जनोन्मुख और जन-जागरूक रही है – मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, धूमिल, चंद्रकांत देवताले, आलोकधन्वा, ज्ञानेन्द्रपति, कात्यायनी, नरेश सक्सेना, सुदीप बनर्जी, विनोदकुमार शुक्ल, ऋतुराज, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल से लेकर आज के अनेक युवतम कवि-कवयित्रियों ने भाड़ नहीं झोंके हैं – उतनी दक्षिण एशिया में तो कोई और रही ही नहीं और विश्व-मंच पर भी इतनी प्रतिबद्ध कविता बहुत कम दिखाई पड़ती हैं. उसकी समझ और पकड़ न संकीर्ण होती गईं न कमज़ोर. किसी बुनियाद को यदि उसने मज़बूत किया है तो किन्हीं जड़ों तक पहुँच कर. हिंदी कविता में यदि महानताएँ और आदर्श हैं तो उनके सारे स्मारक और प्रतीक जीवंत हैं. यदि डोमाजी उस्ताद का जुलूस बढ़ता गया है तो उसे सबसे पहले नंगा देखने और शनाख्त करने की सज़ा हिंदी में ही मिली है. यह कोई नहीं कह रहा है कि हिंदी कविता में सभी कुछ सार्थक, श्रेयस्कर और उत्कृष्ट हो रहा है – ऐसा किसी साहित्य में कभी नहीं होता – लेकिन यदि हमारा अनलिखा-लेखनायक अपनी तान – दम नहीं – ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने’, 'मठों और गढ़ों को तोड़ने’ और ‘अरुण कमल’ को खोजने पर तोड़ रहा है तो देखा जा सकता है कि अपनी  हास्यास्पद, गड्डमड्ड, परस्पर-विरोधी, विश्वासघाती छद्म-प्रकान्डता और प्रयासित, असफल मूर्तिभंजन के अंत में वह ‘अँधेरे में’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के सामने ही साष्टांग मूर्च्छित है.

(बुद्धू-बक्सा पर आए अविनाश मिश्र के 'अंधेरे में' पर आलेख से निकला हस्तक्षेप का पक्ष पूरी तरह से अवशोषित न हो सका. उसी आलेख पर विष्णु खरे की पैनी नज़र बरपा हुई है. अविनाश के विरोधाभासों में सिमटे आलेख के बाबत विष्णु खरे के सवालात पर अमल करना नैतिक रूप से ज़रूरी है. इस आलेख के लिए बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे का आभारी.)

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

'अंधेरे में' पर अविनाश मिश्र

अनलिखे लेख का केंद्रीय संवेदन
अविनाश मिश्र




[1] 
गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ अब एक प्रतीक है। इसे अमर कर दिया गया है। सारी अमरताएं ‘अभिशाप’ होती हैं, क्योंकि मुक्ति का कोई विकल्प उनके पास नहीं होता। हिंदी के सामूहिक विवेक के बीच ‘अंधेरे में’ अब भी स्वीकृत है, लेकिन हिंदी की केंद्रीय कविता इसके प्रकट प्रभाव से पृथक स्वयं को विकसित और सुनियोजित कर चुकी है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि समय और संसार इस कविता से बहुत दूर चला आया है। इसमें मौजूद ‘पूर्वानुभव’ अब अतीत है और अब इसमें वे आहटें और चेतावनियां भी नहीं हैं जिन्हें भविष्य में सुना जाना बाकी है। इस अर्थ में यह भविष्य की कविता नहीं है। इसमें अभिव्यक्त संकटों से सामना हो चुका है और निष्कर्ष यह है कि मुक्तिबोध जैसा जीवन और ‘अंधेरे में’ जैसी कविता न आज के कवि का अभिप्रेत और व्यवहार है, न समाज का। इस निष्कर्ष में कहें तो कह सकते हैं कि इस कविता के नायक का आत्मोन्न्यन नहीं हुआ, लेकिन जीवन-शैली बदल गई। 


[2]
‘अंधेरे में’ जैसा अंधेरा अब नहीं है। नई-नई रंगीनियों में ‘अंधेरे में’ आंखों को चुभता हुआ श्वेत-श्याम है अब। वह व्यवहार से छिटका हुआ आदर्श है। असत्य का परिहार करती हुई और सत्य में आस्थावान वह एक ऐसी महानता है जिसे अब कोई दोहराना नहीं चाहेगा। वह अब एक स्मारक है। वक्त-वक्त पर इस पर से धूल झाड़ी जाएगी और कालजयी वैभव चमक उठेगा। इस पर माल्यार्पण होते रहेंगे, आयोजन और प्रवचन होते रहेंगे। बाद इसके ‘नपुंसक श्रद्धा सड़क के नीचे के गटर में छिप जाएगी’ और गुनगुनाएगी कि ‘पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।’

[3]
मैं इस कविता के पास जाता हूं और मुक्तिबोध को इसमें वैसे ही पाता हूं जैसे इस कविता के नायक ने इस कविता में महात्मा गांधी को पाया था— अंधेरे की स्याही में डूबा हुआ। मैं भी वैसे ही अति दीन हो जाता हूं पास कि :

बिजली का झटका
कहता है—
‘‘भाग जा, हट जा
हम हैं गुजर गए जमाने के चेहरे
आगे तू बढ़ जा।’’



‘‘परिस्थितियों के साथ मेल स्थापित करने के लिए मैं कभी अपने आदर्शों को नहीं छोड़ सकता।’’ यह महात्मा गांधी का वाक्य है। मुक्तिबोध ने जीवन और कविता दोनों में ही परिस्थितियों के साथ मेल स्थापित करने के लिए कभी अपने आदर्शों को नहीं छोड़ा। मैं ‘अंधेरे में’ के स्वप्नचित्रों में मुक्तिबोध के सपनों के आशय खोजता हूं और देखता हूं कि समय और जनचरित्र ने मुक्तिबोध के सपनों के साथ भी वही किया जो महात्मा गांधी के सपनों के साथ किया।


[4]
तथ्य बताते हैं कि यह समय मुक्तिबोध के समय से बेहतर है। गुजरे हुए वक्त से मौजूदा वक्त हर दौर में बेहतर रहा आया है। मुक्तिबोध आज होते तो उनके पास कई विकल्प होते, जीवनयापन और प्रकाशन के लिए। ज्यादा हाय-हाय से किसी वक्त का काम नहीं चला है और प्रवचन से ज्यादा कर्म का महत्व प्रत्येक युग में सतत स्थापित होता चला गया है। ‘अंधेरे में’ अगर अब भी प्रासंगिक लगती है तो यह इस कविता समेत हिंदी में इसके बाद सृजित सारी कविताओं की विडंबना है। इस विडंबना में इस कविता की असफलता है, और असफलता की सबसे बड़ी त्रासदी यह होती है कि सफलताएं उस पर विमर्श करने लगती हैं। इस विमर्श में नाउम्मीद नपुंसकताएं जान ही नहीं पातीं कि कब उनकी विडंबना को सफलताओं ने महान बना प्रतीक में बदल डाला।


[5]
‘अंधेरे में’ हिंदी साहित्य से परास्नातकों को अमूमन पढ़नी ही पड़ती है और हिंदी विभाग के प्राध्यापकों को इसे पढ़ाना ही पड़ता है। छठवें वेतन आयोग और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) द्वारा दी जाने वाली जूनियर रिसर्च फैलोशिप (जे.आर.एफ.) के कारण हिंदी के अकादमिक जगत में इन दिनों सुविधाभोग का माहौल है। यहां होने वाले 99 प्रतिशत शोध ऐसे ही सुविधाभोगियों की उपज हैं। सत्ता यहां कामयाब रही है, क्योंकि उसने हिंदी से उसका सारा प्राथमिक संघर्ष छीन उसे बंजर कर दिया है। आज हिंदी की सारी उल्लेखनीय प्रतिभाएं इस दायरे से बाहर हैं। हिंदी में ‘परम अभिव्यक्ति’ की खोज किसी किस्म के सुविधाभोग में संभव नहीं हो सकती। सरकारी अनुदानों और सुविधाओं का दुरुपयोग कर उस पर पलने वाले पालतू ‘अंधेरे में’ को क्या खाकर समझेंगे। इस कविता के स्मारक बन जाने में इस वर्ग का बड़ा योगदान है जो मुक्तिबोध के एक प्रचलित प्रश्न को आज बदलकर पूछता है— ‘पार्टनर तुम्हारी सेलरी क्या है?’


[6]
हिंदी के अकादमिक जगत और लेखक संगठनों का पतन साथ-साथ हुआ है। जैसे ‘अंधेरे में’ विचार के रास्ते शिल्प से जुड़ जाती है, ऐसे ही हिंदी के अकादमिक जगत की सारी मूर्खताएं लेखक संगठनों से जुड़ जाती हैं। जनचरित्र में महान प्रतीकों को ढोने की असीमित शक्ति होती है, बस इसे निर्देश मिलते रहें।


[7]
‘‘यदि आप यहूदी ईश्वर ‘याहवे’ के स्थान पर ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’, ‘मसीहा’ के स्थान पर ‘कार्ल मार्क्स’, चुने हुए व्यक्तियों के स्थान पर ‘प्रेलोतेरियत या मजदूर वर्ग’, एक लाख चौबीस हजार पैगंबरों के स्थान पर ‘कम्युनिस्ट पार्टी’, यीसू के पुन: प्रकट होने के स्थान पर ‘सशस्त्र क्रांति’, काफिरों को जलाने वाले नर्क की जगह ‘पूंजीपतियों का सर्वनाश’ और ‘स्वर्ग’ के स्थान पर ‘वर्गहीन समाज’ कहकर पूरे मार्क्सवाद की बात करें तो सारी की सारी यहूदी विचारधारा अपने आधुनिकतम रूप में दोहराई जाएगी। कार्ल मार्क्स और उनके श्रद्धालुओं का आदर करते हुए मैं यह बात करने की आज्ञा चाहूंगा कि दया, प्यार, सहानुभूति और संतुष्टता की विचारधारा मार्क्सवाद की विचारधारा नहीं है।’’

— बर्टेंड रसेल


[8]
‘अंधेरे में’ की उम्र 50 वर्ष है। आज प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी शक्तियां जनसमर्थन से केंद्र में सक्रिय हैं। यह अचानक नहीं हुआ और न ही इसकी मूल वजहों की खोज के लिए बहुत सुदूर अतीत में जाने की जरूरत है। यह सब इन्हीं 50 वर्षों में हुआ। समाज में हो रहे बदलावों से बेखबर हिंदी का बौद्धिक वर्ग (जिसे मुक्तिबोध ने क्रीतदास और किराए विचारों का उद्भास कहा) एक लगातार में अपनी प्रतिष्ठा खोकर हास्यास्पद होता गया। अपने जन के बारे में उसकी और हिंदी कविता की समझ और पकड़ सतत संकीर्ण और कमजोर होती चली गई। बुनियाद को मजबूत करते हुए हिंदी कविता पूरी तरह पाताल में पहुंच गई। इस बुनियाद पर सारी महानताओं के स्मारक बन गए, सारे आदर्श प्रतीक में बदल गए और धीरे-धीरे भयावना जुलूस बढ़ता चला गया। इस सबके बावजूद ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने का मतलब अब तक नहीं बदला। अब भी इसका मतलब मठों और गढ़ों को तोड़ना और ‘अरुण कमल’ की खोज में दुर्गमता के पार जाने का जोखिम उठाना ही है।



['अंधेरे में' के साथ बड़ी दिक्कतें जुड़ी हुई हैं. एक तो यह कि कविता नवकाव्याभाषियों के रियाज़ में शामिल नहीं है, और जो युवा इस घोंट पा रहे हैं उनसे हस्तक्षेप की पैदाईश होती ही नहीं है. यह दृश्य उतनी ही उदासी से चला जाता है, जितनी याचना और जीवट के बाद इसे बीच लाया गया था. अविनाश मिश्र की समस्या एक अलग किस्म की है. उनके पास इस कविता की प्रासंगिकता को नापने के एकदम अलग पैमाने हैं. उनके लिए कविता से ज्यादा इस समय में इस कविता का मतलब प्रासंगिक है. अव्वल तो यह कि इस कविता की पहुंच को हिंदी के संस्थाओं से बाहर देखना होगा. यदि अब वह एक स्मारक है तो अभी भी 'अभिव्यक्ति के खतरे' उठाने का मतलब नहीं बदला है. यह आलेख 'सापेक्ष' में शीघ्र प्रकाश्य. कविता से ज्यादा इस कविता के समय के तीक्ष्ण आंकलन के लिए बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी.]

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

प्रो. वीरभद्र मिश्र बरास्ते व्योमेश शुक्ल



कहीं साफ़ नदी-जल चाहिए   
(प्रसिद्ध पर्यावरणविद प्रो़फेसर वीरभद्र मिश्र के साथ व्योमेश शुक्ल की बातचीत के आधार पर तैयार लेख)



लाखों-करोड़ों लोगों के लिए गंगा जी का सर्वोत्तम इस्तेमाल भक्त कवि तुलसीदास की इस पंक्ति की राह पर चलकर संभव हुआ है :

‘‘दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह वेद पुराना।।’’

हमारी सभ्यता में नदी जल की शुद्धता और उसके उपयोग के मानक यही हैं दर्शन, स्पर्श, स्नान और पान। मैं आस्तिक हूँ। गंगा माता से मेरी प्रार्थना यह है :

‘‘तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस वीर।
विचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका ।।’’

वह हमें जीवन के चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करती हैं। ब़गैर किसी भेदभाव के, वह हमें भक्ति का तत्व देती हैं। लेकिन, अगर शहरों के सीवेज को यों ही नदियों में गिराया जाता रहा तो गंगा जी को जीवन का माध्यम मानने वाले मुझ-जैसे न जाने कितने श्रद्धालु मनुष्यता की एक संकटग्रस्त प्रजाति हो जाएंगे और उनकी संस्कृति का शीघ्र पटाक्षेप हो जायेगा।

पेस्टीसाइड्स और बैक्टिरियोफ़ाज वगैरह पश्चिमी पैमाने हैं। पश्चिम के जीवन में नदियों का आध्यात्मिक महत्व नहीं है। वहाँ स्वीमिंग पूल के पानी के लिए अलग, पीने के पानी के लिए अलग और समुद्र-जल के लिए अलग-अलग स़फाई के मानक हैं। नदी के लिए भी एक ढीला-ढाला सफ़ाई-पैमाना बना लिया जाता है। हमें उतना नहीं, उससे कहीं साफ़ नदी-जल चाहिए। विडंबना यह है कि फ़िलहाल हमारी नदियाँ पश्चिम के पैमानों पर भी खरी नहीं उतरतीं।

सीवेज और औद्योगिक अवशिष्ट-मिश्रित गंगाजल के प्रयोग से शहरों में कुछ गम्भीर स्वास्थ्य समस्याएँ पैदा हुई हैं। मैं ख़ुद पोलियो, टायफाइड और पीलिया का शिकार रहा हूँ; लेकिन मुझे गंगा जी से अलग नहीं किया जा सकता, जैसे मछली को जल से। यदि गंगा जी के किनारे बसे 114 शहर यों ही अपना सीवेज गंगा जी में गिराना जारी रखेंगे तो गंगा बेसिन में निवास करने वाले 40 करोड़ लोगों को ताज़ा पानी नहीं मिल पाएगा। इस प्रकार, गंगा-प्रदूषण विश्व-भर में स्वच्छ जल के प्रदूषण की एक अभूतपूर्व समस्या बन गई है।

अगर अचानक भूकंप आ जाये तो लोग कुछ न कुछ तो करेंगे! जान बचाने की कैसी भी कोशिश। वैसा ही नदियों के मामले में क्यों नहीं होता?

बंगलुरु के किनारे कोई गंगा जी नहीं बहतीं। पैसठ लाख से कम आबादी वहाँ की नहीं है। पूरे शहर के मल-मूत्र की निकासी का, उसकी रिसाइकिलिंगका एक सिस्टम बनाया गया है। तब हम अपना सीवेज क्यों नदी में गिराते हैं? मान लीजिए गंगाजी बनारस के किनारे नहीं हैं। मल-मूत्र के निस्तारण का कोई और इंतज़ाम कीजिए। बहस सिर्फ़ एक बात पर हो गंगा जी में सीवेज गिरेगा कि नहीं। सीवेज मत गिराओ, तब देखो कोई प्रदूषण नहीं है।

कोई भी काम किसी अकेले का नहीं होता। एक थे बाबू रघुनाथ सिंह बनारस के पहले सांसद। बाबू साहब कहते थे कि जिस काम को अकेले किया जा रहा हो वह बड़ा काम हो ही नहीं सकता। जिसमें बहुत से लोग न लगे हों वह काहे का काम! इस ऩजरिये से गंगा-प्रदूषण का काम अभी छोटा ही है। अपनी किताब इंटरवल ड्यूरिंग पॉलिटिक्समें राममनोहर लोहिया ने नदियों के हाल पर लिखा है। वे कहते हैं कि प्रदूषण-मुक्ति का कार्य, दरअसल, शंकराचार्यों और दूसरे धर्माचार्यों का है। लोहिया का काम भी कबीर को याद किये बग़ैर नहीं चलता

‘‘माया महा ठगिनी हम जानी।
केसव के कवला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरति होइ बैठी, तीरथ हूँ मैं पानी।।’’

माया बड़ी भारी ठगिनी है। यह भगवान विष्णु के घर में लक्ष्मी, शिव के यहाँ पार्वती, पंडे के यहाँ मूर्ति और तीर्थों में पानी बनी बैठी है।

लोहिया कबीर की कविता को याद करते हुए कहना चाहते हैं कि तीर्थ तीर्थ इसलिए है कि वहाँ जल है। बिना पानी के किसी जगह का तीर्थ होना संभव नहीं। यह महज़ संयोग नहीं कि सभी तीर्थों के किनारे नदियाँ हैं। उसी पुस्तक में लोहिया ने यह भी कहा है कि नदियों की शुद्धि के लिए ग़ैरराजनीतिक आंदोलन चाहिए।

रामराज्य स्थापित करने की गाँधी जी की योजना में, श्री रामचंद्र जी की सरकार ने यह सुनिश्चित किया था :

‘‘सरिता सकल बहहिं वर बारी।
सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।

आज भारत सरकार भी ऐसा कर सकती है। लोगों को शामिल करके, समूहपरक समाधानों के साथ लोक को आगे आने के लिए प्रेरित करके, नयी सूझ और उसे कार्यरूप में ढालने वाली इच्छाशक्तियों को प्रोत्साहित करके।

सौभाग्यवश, तर्क और विवेक में प्रशिक्षित आस्थावान लोगों के एक छोटे-से समूह ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ बनारस में गंगा जी को साफ़ करने का अभियान शुरू किया है और नदियों को स्वच्छ करने की अनोखी मिसाल पेश की है।

यह समूह ज़िद्दी और लचीला, एकसाथ है। पिछले 28 वर्षों में यह समूह बग़ैर बिजली के अवजल की सफ़ाई, गंगा जी की ओर आते उसके मैले प्रवाह को दूसरी दिशा में मोड़ देने और शैवाल और सूर्य की रौशनी के ज़रिये प्राकृतिक अभियांत्रिकी से नदी को शुद्ध करने में मुब्तिला रहा है।

समाज ने इस समाधान को स्वीकार कर लिया है और बनारस में प्राथमिकता के आधार पर लागू करने के लिए, आख़िरकार, भारत सरकार भी इस पर राज़ी हो गयी है।

[इस पोस्ट के लिए एक लंबा इंतिज़ार करना पड़ा. हमें और आप सभी को भी. यदि काशी में गंगा रोजनामचा है तो परिदृश्य में उसका प्रदूषण. वीरभद्र मिश्र से शायद ही कोई अपरिचित हो. यदि परिचय दरकार भी है तो जान लेना चाहिए कि जब नदियों के इंटरलिंकिंग की एक बेवकूफी भरी परियोजना प्रस्तावित और प्रायोजित है, ऐसे समय में गंगा को वैज्ञानिक और सांस्कृतिक, दोनों ही पैमानों से देखने का कार्य जिन दो-तीन लोगों ने किया, वीरभद्र मिश्र उनमें से एक हैं. इस लिखे को बेहद संजीदगी से समझना होगा, कोई समीकरण नहीं बनाने की कोशिश करनी होगी. इस बातचीत का एक विस्तृत अंश भी हम आगे पढ़ेंगे. इस पोस्ट के लिए बुद्धू-बक्सा व्योमेश शुक्ल का आभारी. प्रो. वीरभद्र मिश्र को हमारी श्रद्धांजलि. तस्वीर एबीसी न्यूज़ ऑस्ट्रेलिया से साभार.]

गुरुवार, 4 जून 2015

मोनिका कुमार की नई कविताएं


[मोनिका कुमार की कविताएं एक लम्बे वक़्त के बाद सामने आ रही हैं. हिंदी में रचने के झमेले रचनाओं से ज़्यादा हैं. मसलन, आपको एसबुक-फेसबुक जैसी पगलहटों से प्रेरणा मिलती है और कोई भी तीन-चार अपना एक रचनात्मक संसार बसा लेते हैं. ऐसे में इन सब चीज़ों से दूर भागकर लिख-पढ़ रही मोनिका कुमार की कविताओं को देखकर सुकून होता है और इसके प्रति आश्वासन मिलता है कि कविता का स्त्रीवादी स्वर अपने ढर्रे से दूर जा रहा है. कवियों से यह आशा करना लाज़िम है कि उनकी कविताएं जन के ज़्यादा करीब हों. बावजूद इसके, हमें नहीं याद कि हिंदी की किस कविता में यह बात की गयी हो कि कवि सुन्दर कब दिखता है? बुद्धू-बक्सा पर मोनिका कुमार का स्वागत. हम उनके और 'पाखी' पत्रिका के प्रति आभारी.]



खाली पीरियड, इतवार को दिखाता...पहिये को स्लो करता शनिवार

[ 1 ]

इधर तुरपाई उधड़ी नहीं
उधर साड़ी की चुन्नटें पांव में फंसी नहीं
किताबों के वजन से बस्ता फटा नहीं
यह मिल जाती है
या कहिए बस निकल आती है कहीं से भी

मुझे सेफ्टी पिन की तत्परता ने अभिभूत रखा
मैं ऐसे छोटे दिखने वाले
लेकिन महत्वपूर्ण अविष्कारों की पृष्ठभूमि में पैदा हुई
जिनकी सहायता से हम तुरंत मुस्कुराने लायक हो जाते हैं

मैं नहीं कह सकती
मुझे भेज दिया गया एक ऐसी दुनिया में
जिसका कोई सिर-पैर नहीं 

नहीं पता मेरे मरते-मरते
यह दुनिया कैसी हो जाएगी
पर क्या यह ऐसी भी हो सकती है
कि
तुरपाई उधड़ने
चुन्नटें उलझने
और बस्ते फटने
जैसे दुःख
रहेंगे ही नहीं


[ 2 ]
बहुत पुरानी बात है
जब वह बूढ़ी हुई थी...

उसके बैग में कई कार्ड हैं
जिन्हें दिखाने से वरिष्ठ नागरिकों को
जमा पैसों पर अधिक ब्याज मिलता है
सरकारी बसों में किराया आधा लगता है
जाहिर है वह बौखला जाएगी
ये कार्ड खोने नहीं चाहिए 

सर्दियों में पालक और गाजर बीजते हुए
आंगन के आम पर दवा छिड़कते हुए
उसे यकीन रहता कि दुनिया का बस एक नियम है
मेहनत करो, फल पाओ

उंगलियों की वर्जिश के लिए
वह फर्नीचर को मलमल के कपड़े से पोंछती

माली उससे चाय की उम्मीद नहीं करते 
भिखारी गर्म कपड़े की
बच्चे गुमराह हुई गेंद वापिस लेने की    
वह इतनी बूढ़ी हो चुकी है
कि करुणा से उसका भरोसा उठ चुका है

वह समय पर दवाइयां लेती है
दवा की अवसान तिथि जांचने के बाद 
अस्पताल में चेक-अप करवाती है
किसी शोकसभा में नहीं जाती
पार्क में बैठी पड़ोसनों के साथ गपशप नहीं करती
उसे किसी और का जीवन इतना दिलचस्प नहीं लगता
चुगली के रूप में जिससे ईर्ष्या की जाए

दुनिया को उसने अपने सामने से हटा दिया था
जैसे साहिर ने उम्मीद की थी अपने एक चर्चित गीत में

दुनिया का भारीपन
घर के अंदर आसानी से नहीं दाखिल हो सकता था
वह हल्का कागज होकर सुबह घर आता
जिसे वह हाथों-हाथ लेकर
चाय के साथ
दो घंटे सुबह
और शाम को
नियमित लेती थी
अनिद्रा की रातों में
आधी रात को भी पन्ने पलट लेती 
और पढ़ते-पढ़ते ऊंघने लगती

 

[ 3 ]

कवि नहीं दिखते सबसे सुंदर
मग्न मुद्राओं में
लिखते हुए सेल्फ पोट्रेट पर कविताएं
स्टडी टेबलों पर
बतियाते हुए प्रेमिका से
गाते हुए शौर्यगीत
करते हुए तानाशाहों पर तंज
सोचते हुए फूलों पर कविताएं

वे सबसे सुंदर दिखते हैं
जब वे बात करते हैं
अपने प्रिय कवियों के बारे में

प्रिय कवियों की बात करते हुए
उनके बारे में लिखते हुए
दमक जाता हैं उनका चेहरा
फूटता है चश्मा आंखों में
हथेलियां घूमती हुईं
उंगलियों को उम्मीद की तरह उठाए
वही क्षण है
जब लगता है
कवि अनाथ नहीं हैं

बुधवार, 6 मई 2015

लेखन अब सिर्फ एक कॅरियर है : योगेंद्र आहूजा से बातचीत

साक्षात्कार या संवाद के शिल्प में नहीं इस साक्षात्कार या संवाद की शुरुआत आज से करीब चार वर्ष पूर्व हुई। मुलाकातों और सवालों के सिलसिले इसमें जुड़ते और नए होते चले गए। सवालों के जवाब देने और उन्हें मांजने के लिए यहां पर्याप्त वक्त लिया गया। प्रत्येक जवाब पर एक रचना की तरह कार्य किया गया है। यह प्रयास और धैर्य अपनी ओर से आ रहे शब्दों के प्रति एक रचनाकार की जिम्मेदारी और नैतिकता को दर्शाता है। पूछे गए सवालों में पूछने वाले की वे निजी बेचैनियां भी हैं, जिनके बारे उसे लगता रहा कि इन्हें किससे और कहां साझा किया जाए। जवाबों की विश्वसनीयता के संकट वाले समय में उसे अपने सवालों के कितने ईमानदार जवाब मिले हैं, यह तो अब इस साक्षात्कार की सार्वजनिकता ही साबित करेगी। इस अर्थ में इस सिलसिले को इस रूप में अंतिम मान लेना एक बाध्यता है। योगेंद्र आहूजा इस साहित्य-समय के एक अप्रतिम हस्ताक्षर हैं, अलग से उनका कोई परिचय यहां दरकार नहीं है। ऐसा क्यों है, यह उनके जवाबों से जाना जा सकता है... 
 - अविनाश मिश्र



योगेंद्र आहूजा से अविनाश मिश्र की बातचीत 




‘तद्भव’ में आपकी कहानी ‘एक्यूरेट पैथालॉजी’ को आए एक लंबा वक्फा, करीब चार वर्ष बीत गए हैं। गए वर्ष नौ साल बाद आपकी दूसरी किताब यानी दूसरा कहानी-संग्रह ‘पांच मिनट और अन्य कहानियां’ प्रकाशित हुआ। ‘अंधेरे में हंसी’ के बाद कह सकते हैं कि एक इंतजार खत्म हुआ तो एक अब भी बरकरार है। इन अंतरालों या ठहराव के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

पहले तो यह कि क्या तुम साक्षात्कार लेना चाहते हो? तो मैं कहना चाहता हूं कि साक्षात्कार देना मुझे नहीं आता। एक खास तरह की नकली, तकनीकी जुबान में सावधान वाक्य, झूठे वक्तव्य जिनका उदेद्श्य बस यह बताना कि वे जनाब इस नश्वर दुनिया को खुदा का तोहफा हैं— हर किस्म की कमजोरी या वल्नरेबिलिटी से मुक्त और संशयों से परे। गलतियों से भी परे, हमेशा सही, बल्कि सत्य के अभिभावक। मैं ऐसा नहीं कर सकता। 

तुम्हारे सवाल के बारे में... रुकना, थोड़ा-सा ठहरना, यह तो संगीत का अनिवार्य अंग है। पश्चिमी शास्त्रीय संगीत की कितनी ही ऐसी रचनाएं हैं जिनमें खामोशी के अंतराल उस रचना का अनिवार्य हिस्सा होते हैं। तुमने ‘रजिया सुल्तान’ फिल्म का गाना ‘ए दिले नादां...’ सुना है? उसमें ‘यह जमीं चुप है...’ और ‘आसमां चुप है...’ के बीच जो चुप्पी है, कैसी मानीखेज है। बाद में गाने से अधिक वह चुप्पी ही याद रहती है। 

नहीं यार, यह तो मैं हल्के मूड में कुतर्क गढ़ रहा हूं, अपने को बहलाने, तुम्हें बहकाने के लिए। यह सीरियसली लेने के लिए नहीं है। न लिखने की कोई माफी नहीं, किसी भी वजह से, किसी भी परिस्थिति में। उसके लिए कोई तर्क नहीं दिया जा सकता, वह भी हमारे वक्त में, जब इतनी मिसालें मौजूद हैं। युद्धों, जलावतनी, कारावास, अकथनीय तकलीफों में भी रचनारत रहने की... पेंसिल के लेड का चौथाई इंच टुकड़ा कहीं दरी में छुपाए, किसी रद्दी कागज के टुकड़े पर, दीवारों पर। बीसवीं और उन्नीसवीं सदी में लेखकों की ऐसी अनगिनत मिसालें हैं। शब्द की सत्ता और गरिमा के लिए लेखकों ने अपना सब कुछ दांव पर लगाया है। दोस्तोयेव्स्की, सबको पता है, को तत्कालीन जार ने, केवल मित्रों के साथ एक बहस में हिस्सा लेने के लिए, जिसे एक भारी-भरकम नाम दे दिया गया, ‘पेत्राशेव्स्की षड़यंत्र’, मृत्युदंड दिया था और गोली से उड़ाए जाने से कुछ ही देर पहले उसे निर्वासन में बदल दिया था। साइबेरिया... जो रूस के माथे पर एक बदनुमा दाग है, में उनके चार साल अपराधियों, चोरों, खूनियों के बीच बीतते हैं... सुबह से शाम श्रम करते, ईंटें ढोते, बर्फ काटते। वहां से लौटकर वह जो किताब लिखते हैं, ‘हाउस ऑफ दी डेड’, वह जैसे रूस को उसकी निद्रा से जगा देती है। तत्कालीन जार भी क्रेमलिन में वह किताब मंगवाता है और रोते-रोते उसे पढ़ पाता है (क्या वही जार जिसने उन्हें मृत्युदंड दिया था?) यह आखिरी हैरतअंगेज जानकारी मुझे पिछली शती के महान जर्मन लेखक स्टीफेन स्वाइग की अद्भुत किताब ‘तीन उस्ताद’ (‘थ्री मास्टर्स’) में मिली जो बाल्जाक, डिकेंस और दोस्तोयेव्स्की के बारे में है। और स्टीफेन स्वाइग... जिनके उपन्यास ‘बिवेयर ऑफ पिटी’ की समतुल्य किताब समूचे विश्व साहित्य में दुर्लभ है, उनका खुद का जीवन...। वह एक समय यूरोप के सबसे लोकप्रिय, सबसे समादृत लेखक थे। हिटलर के सत्ता में आने के बाद उन्हें भिखारियों की तरह मुल्क दर मुल्क भटकना पड़ा। मिलकोश राद्नोती, जिनसे फासीवादियों ने उनकी अपनी ही कब्र खुदवाई... बाद में उनकी कुछ अंतिम कविताएं, खून से सनीं, उनकी जेब से प्राप्त हुईं। कितने लेखक होलोकास्ट में मारे गए, कितने जेलों और श्रम शिविरों में, इसका कोई हिसाब है? ये सब बातें मुझे हमेशा याद रहती हैं। 

इंसान की यातना और उसका सर्वश्रेष्ठ सृजन, आर्ट और विचारों की दुनिया में, इनके अलावा दुनिया में भला और क्या है जो सिर नवाने के योग्य हो। किसी शख्स की मनुष्यता की भी अकेली माप, मेरा मानना है कि यही है... कोई उनके समक्ष कितना विनीत या खामोश हो पाता है। 

हर लम्हा जो आप लिखने में लगा सकते थे मगर इतर कामों में जाया करते हैं, वह एक बोझ या कर्ज की तरह आपकी छाती पर लदता जाता है। मुझे तुम्हारे सवाल पर गंभीरता से विचार करना होगा। 

ज्ञान (रंजन) जी ने एक साक्षात्कार में न लिखने के बहुत से कारण बताए थे। मैं कोशिश करता हूं कि एक सचेतक की तरह उन्हें हमेशा याद रखूं। वे कारण हैं— उसकी खामोशी छिन जाना, कुलवक्ती लेखक न बन पाना, रिश्तों को लेकर अत्यधिक मानवतावादी प्रपंच में फंसे रहना। एक क्रूर अनुशासन का पालन न कर पाना। शारीरिक श्रम और दुनियादारी की ज्यादती। पॉलिमिकल स्वाद का, छद्म सार्वजनिकता का, सांसारिकता का शिकार होना। रिलैक्स न करना, वीरानी से भागना। अत्यधिक राजनैतिकीकरण। लिटरेचर और कल्चर की दुनिया की सृजनात्मक गहमागहमी से विमुख होकर आदर्श गृहस्थ हो जाना इत्यादि। ‘मनुष्य से वीरान की तरफ आना और वीरान से मनुष्य की तरफ जाने की यात्रा एक साधना है’ उसी साक्षात्कार में यह एक अदभुत वाक्य था जो मुझे कभी नहीं भूलता। मगर फिलहाल अगली कहानी आने में कुछ देर होने के पीछे इनमें से एक भी कारण नहीं है। शायद रिश्तों वाली और शारीरिक श्रम वाली बात आंशिक रूप से सच हो। मगर असल बात यह है कि जैसी कहानियां अभी तक लिखी हैं, वैसी ही लिखना, अपने को रिपीट करना... उबाऊ लगता है। अब अगली कहानी चाहिए, मतलब आगे की कहानी। कुछ असुविधाजनक, कड़वे सचों की कहानी जो बेशक आघात पंहुचाए, तारीफों का कसता घेरा तोड़ दे। अगली कहानी जल्द ही आएगी, मगर यह भी तय है कि रोज दो रीफिल घिस देने वाला लेखक कभी नहीं बन सकूंगा। मैंने सुना है कि ऐसे लेखक भी हमारे बीच हैं। मगर उससे क्या होता है सिवाय रीफिल बर्बाद होने के। :-) 

मगर मैं लेखकों की खामोशी का भी आदर करता हूं। वह कायर खामोशी नहीं जो कमिट करने या पोजीशन लेने से बचने का नतीजा होती है। कभी-कभी कुछ परिस्थितियों में खामोश रहना अपने में एक अदम्य साहस हो सकता है। पिछली सदी के अद्भुत कथाकार इसाक बाबेल ने कहा था कि अब मैं एक नई विधा का प्रयोग करने जा रहा हूं... मौन की विधा। उनके देश में उनकी खामोशी को भी बर्दाश्त नहीं किया गया। जब लेखक को लगे कि उसका सच सर्वव्यापी झूठ का हिस्सा बन जाएगा, उसी के हवाले हो जाएगा, तब उसे खामोश रहना चाहिए। 


अगर इस संसार में सिनेमा नाम की कोई कला-विधा नहीं होती, तो आपकी कहानियां कैसी होतीं?

तुमने मुझे पकड़ ही लिया। सिनेमा का जिक्र ले आए। क्षणांश में अनगिनत फिल्में जेहन में कौंध गईं। सिनेमा की लत मुझे बहुत बचपन में ही पड़ गई थी। मन के स्क्रीन पर अब भी, हर वक्त, एक अनवरत शो चला करता है। एक अनंत फिल्म।  

बचपन में हम रहते थे काशीपुर (नैनीताल) की रेलवे कॉलोनी में। उस वक्त वह एक उनींदा शहर था, सोता हुआ छोटा-सा स्टेशन। वह शहर, स्टेशन और वक्त... अब वह सब नष्ट हो चुका है। वह स्टेशन महीने में एक या दो बार सिनेमा हॉल बन जाता था। वहां गिनती की गाड़ियां आती-जाती थीं। आखिरी ट्रेन के जाने के बाद चारपाइयां और खटोले, मूढ़े, कुर्सियां, स्टूल उठाए अंकल जी, आंटी जी, चाचा जी, सारे लोग स्टेशन पर चले आते थे, वहां फोल्डिंग स्क्रीन के आगे (पीछे भी) जम जाते थे। हाजी साहब, बाजी, आपा, खाला, वड्डे भ्राजी, बऊ दी सब। कितना उल्लास होता था, खुशी बरसती थी। वे छोटी-छोटी प्रचार फिल्में होती थीं, और फीचर फिल्में भी। अब याद करने पर लगता है कि शायद वही मेरे जीवन के सबसे खुशगवार लम्हे थे। वहां जो फिल्में देखीं, वे आज तक याद हैं, फ्रेम दर फ्रेम— ‘एक के बाद एक’, ‘परिवार’, ‘सास भी कभी बहू थी’, ‘समाज को बदल डालो’, ‘जागृति’, ‘दीप जले’। ये फिल्में काशीपुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पहले देखीं, सिनेमा हॉल बाद में डिस्कवर किए। एक अंग्रेज मुझे सबसे पहले सिनेमा हॉल में लेकर गया था। 

वह अंग्रेज स्टेशन पर आया था, पता नहीं कहां से। संभव है वह फ्रांसीसी रहा हो या कहीं और का, मगर हमारे लिए तो उस वक्त सारे ही गोरे अंग्रेज थे न। मैंने पहली बार कोई अंग्रेज देखा था। उस वक्त उस कस्बे में किसी अंग्रेज का आना... वह एक खलबली थी, एक सनसनी थी। हम मरियल, दुबले, नाटे भारतीयों से कितना अलग। पता नहीं कहां-कहां से लोग निकल आए उसे देखने के लिए। मैं मंत्रबिद्ध-सा उसके पीछे-पीछे चलने लगा। वह हरेक से अंग्रेजी में कुछ पूछ रहा था, बच्चों के हुजूम में दुकान-दुकान चलता हुआ। उसे दरअसल कॉफी की तलब लगी थी। वह पूछ रहा था कि कॉफी कहां मिलेगी। इशारे से कहता हुआ— कॉफी-कॉफी। फिर किसी ने उसे इशारे से ही बताया कि कॉफी पूरे काशीपुर में हरी पैलेस की कैंटीन में मिले तो मिले। ‘थैंक्यू’ कहकर वह चल पड़ा। मैं शोर मचाते बच्चों की भीड़ में उसके पीछे। पता नहीं कितनी दूर, कितनी देर चलने के बाद हरी पैलेस आया। पहली बार मैंने कोई सिनेमा हॉल देखा था। उसकी ऊंची इमारत, पोस्टरों, रोशनियों ने मुझे आविष्ट कर लिया। उन दिनों बिजली घरों तक नहीं आई थी। मैं उसके पीछे-पीछे सिनेमा हॉल में चला गया, जैसे एलिस पहली बार एक सूटेड बूटेड खरगोश के पीछे चलती हुई वंडरलैंड में जाती है। पता नहीं उसे कॉफी मिली या नहीं, मुझे तो जैसे अपना ठिकाना मिल गया। वहां की रोशनियों, पोस्टरों और वहां की उत्तेजक गहमागहमी ने मुझे अपना गुलाम बना लिया। तब तकरीबन छह या सात साल का रहा होऊंगा। वहां से लौटने का रास्ता मुझे नहीं पता था। पिताजी साइकिल पर न जाने कहां-कहां मुझे तलाशते रहे थे।  

बचपन में देखी फिल्में ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘हिमालय की गोद में’, ‘बैजू बावरा’, ‘गूंज उठी शहनाई’, ‘देवर’, ‘सिकंदरे-आजम’, ‘शोर’ और अन्य तमाम... ये सब मेरे लिए महान फिल्में है। मेरे लिए वे फेलीनी और कुरोसावा और तारकोवस्की की फिल्मों से कम नहीं हैं। मेरी अभिरुचि पर तरस खा सकते हो, लेकिन उन्हें एक व्यस्क की क्रिटिकल निगाह से देखना मेरे लिए मुमकिन नहीं। स्टेशन पर नई फिल्मों के पोस्टर लगते थे। नई फिल्में बड़े-बड़े बक्सों में स्टेशन पर उतरती थीं। पूरे शहर से पहले यह जानने और सबको बताने का सुख अद्भुत था कि अब कौन-सी फिल्म लगने वाली है। नई फिल्मों के कार्ड्स (सिनेमाघरों में शीशों में प्रदर्शित फिल्मों के स्टिल्स। अब उनका रिवाज नहीं रहा।) देखने के लिए पैदल मीलों चलना, चाहे कड़ी धूप हो या कोहरा, यह बहुत मामूली बात थी। एक अंग्रेजी फिल्म सुबह के शो में लगी थी जिसका शीर्षक अविस्मरणीय था ‘किस-किस किल-किल’। वह रतन टॉकीज में लगी थी। तब सिनेमा के होर्डिंग्स बनाने वाले आर्टिस्ट अलग होते थे। उसने हिंदी में उसका अनुवाद किया था ‘चूमाचाटी और मारामारी’ एक बार ‘जौहर महमूद इन हांगकांग’ के होर्डिंग में हांगकांग को हांगहांग लिखा गया था और हम उसकी मूर्खता पर हंसते रहे थे। 

खेल के दौरान बिजली चले जाने पर पैसे वापस नहीं होंगे। अगले शो में या अगले दिन खेल दिखाया जाएगा...’ यह स्लाइड पिक्चर के पहले और मध्यांतर में दिखाई जाती थी। बिजली अक्सर जाती थी। लोग पर्दे पर टार्च की रोशनियां फेंकते हुए धैर्य से इंतजार करते थे, कभी-कभी घंटों। फिर कस्बे के जीवन में एक युगांतरकारी घटना हुई, ‘ग्रेट लीप फारवर्ड’ सरीखी। वह यह कि हरी पैलेस में पहली बार जेनरेटर लगाया गया। हमारे दिलों में ठंडक छा गई... गहरी तसल्ली कि अब बिजली जाने पर मजा किरकिरा नहीं होगा। फिर हम बच्चों में उस जेनरेटर को देखने जाने की होड़ लगी रही। सिनेमाघरों की एक प्रदेशव्यापी तीन हफ्तों की हड़ताल मुझे याद है। मुझे उस दौरान डिप्रेशन हो गया था।  

सिनेमा मेरा पैशन है। सिनेमाघरों के अंधेरे में एक लंबा वक्त गुजारा है। निर्देशक बनने का सपना भी कभी पाला था जो बाद में दम तोड़ गया। बाद में पिछली शताब्दी का काफी सारा महान सिनेमा देख पाया और किताबों से कहीं ज्यादा, या कम से कम बराबर, सिनेमा से पाया। सभी देशों की फिल्में— जापान, इटली, फ्रांस, रूस, जर्मनी, पूर्व यूरोपीय देश, और हॉलीवुड और हिंदी, बंगाली, मराठी, मलयालम फिल्में सभी कुछ। सिनेमा के न होने पर कहानियां कैसी होतीं यह कहना मुश्किल है, लेकिन जिंदगी बिना शक बेरंग और बेमजा और उदास होती। सिनेमा ने मेरे बोध को एक खास तरह से दृश्यात्मक और ध्वन्यात्मक बनाया। कहानी लिखते हुए उसके द्विआयामी दृश्य फिल्म के फ्रेम की तरह ही दिमाग में आते हैं और पीछे की ध्वनियां भी सुन पाता हूं। लेकिन यह केवल विजुअल्स की बात नहीं। शायद फिल्मों के प्रति प्रेम का कुछ असर मेरी यथार्थपरकता की धारणा पर भी है। फिल्मों की कहानियां और उनके पात्र, वे जीवन से और जीवन के बारे में तो होते हैं, लेकिन जीवन के बराबर नहीं। वहां सब कुछ ‘लार्जर दैन लाइफ’ होता है। हमारी रचनाओं में भी सब कुछ जीवन से निःसृत और उसके बारे में हो, लेकिन वह उससे बड़ा क्यों न हो इसका कोई कारण मैं नहीं देखता। रचना का परपज मुझे सिर्फ यह नहीं लगता कि वह बुराइयों की सूची पेश करे, बदसूरती की झलक दिखाए। न सिर्फ यह कि वह जीवन के बारे में बताए, हमारी जानकारी में इजाफा करे। रचनाएं जो सिर्फ इतना ही करती हैं, समाजशास्त्र का हिस्सा होती हैं, साहित्य का नहीं। रचना के माने हैं सपना, dream. अगर वह किसी बहुत बड़े स्वप्न का हिस्सा या झलक नहीं तो सिर्फ रचनाभास है। 


कविता से प्रेम और कवियों से मित्रता यह आपके कहानीकार का स्वभाव है। इस पर कुछ बताएं?

दिनमान’ का मुझ सरीखे तमाम लोगों के जीवन में एक बड़ा रोल रहा है। कहते हैं न कि रूस में और फिर सारी दुनिया में यथार्थपरक कहानी गोगोल के ‘ओवरकोट’ से बाहर आई है, वैसे ही हिंदी में पिछली शती के सातवें दशक के कितने ही कवि और लेखक और पत्रकार ‘दिनमान’ के पन्नों से निकले हैं। रघुवीर सहाय जितने बड़े कवि थे, उससे कम संपादक नहीं। हर अंक में ‘आज की कविता’ नाम का पन्ना होता था— दुनिया की तमाम भाषाओं में लिखी जा रही कविता की एक खिड़की। वहीं से जाने पिछली शताब्दी के महान कवियों के नाम। बाद में तलाश करके पढ़ा। शायद ही कोई कवि छूटा हो, ज्यादा या कम सभी को पढ़ा है। कवियों के गद्य में, काव्येतर चीजों में मेरी बहुत दिलचस्पी रही है। पिछली शती की जो श्रेष्ठतम विश्व कविता है, वह हिंदी और उर्दू कविताओं के साथ मेरी चेतना का हिस्सा है। लोर्का, नेरूदा, मयाकोवस्की, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत, अर्नेस्तो कार्देनाल, मिलकोश राद्नोती... कितने नाम लूं। वास्को पोपा, मिरोस्लाव होलुब, शिम्बोर्स्का, अख्मातोवा, एमिली डिकिंसन, जोजेफ ब्राडस्की, बोरिस पास्तरनाक। शमशेर जी के शब्दों में कहूं तो— ‘दिल के जगमग पावर हाउस के ऑपरेटर्स...’ अभी भी यह जारी है, कविता कहीं खत्म थोड़े ही होती है। पिछले दिनों अख्मातोवा पर मयाकोवस्की की एक कविता जो हिंदी में अनूदित नहीं है, पढ़कर मैं हैरत में पड़ गया— मयाकोवस्की की महानता और विशालता का एक नया आयाम। जानते ही हो, वह रूसी क्रांति की ओजस्वी आवाज थे और अख्मातोवा... लेकिन यह चर्चा तुम्हारे सवाल से दूर ले जाएगी। 

कवियों से मित्रता... इसमें संयोग और इस बैकग्राउंड दोनों का हाथ रहा होगा। एक शख्स जो खुद कविता नहीं लिखता, लेकिन उस पर थोड़ी बहुत बात कर सकता और कविताएं कोट कर सकता है, उन्हें अपने करीब लगता होगा। हां, तमाम कवि मित्र हैं... हमारे वक्त के सर्वश्रेष्ठ कवि। मेरी काफी एजुकेशन उन्हीं के संग, उन्हीं की सोहबत में हुई है। लेकिन वही नहीं, बहुत सारे कहानीकार भी हैं... मगर उनसे मित्रता की वजह उनका कवि या कहानीकार होना नहीं है। असली चीज यह है कि वे शानदार लोग हैं। एक लेखक होने के, हिंदी लेखक... यही थोड़े बहुत इनामात हैं। आप बहुत सारे शानदार लोगों के संपर्क में आते हैं, हरदम बहुत से अदृश्य दोस्तों की संगत में रहते हैं।


एक कम्युनिस्ट होने के लिए ईश्वर पर अविश्वास जरूरी क्यों है? 

यह कैसा सवाल है। तत्वमीमांसा कोई लेखक का फील्ड थोड़े ही है। अगर वह इस पचड़े में पड़ने लगे तो यह उसके लिए घातक, एक हादसा भी हो सकता है। मगर तुम्हारे सवाल में ‘कम्युनिस्ट’ के मायने क्या हैं? क्या वह शख्स कम्युनिस्ट होता है जो मार्क्स की किताबों से स्मृति के सहारे कोट कर सकता है? जीवन और व्यवहार में, आचरण में उसकी कोई कसौटी होती है या नहीं? अश्लील तनख्वाहें लेते हैं, मगर किसी गरीब विद्यार्थी की शिक्षा का भार लेना, कभी उन्हें सपने में भी इसका ख्याल नहीं आता। वे तो अखबार भी पड़ोसी या सहयात्री का पढ़ना चाहते हैं। अपना मुसला हुआ अखबार फोल्ड करके घर ले आते हैं कि कोई गरीब उस पर रोटी रखकर न खा ले। बुर्जुआ से नाभिनालबद्ध हैं। आपके और उसके जीवन में रत्ती भर फर्क नहीं। क्रांति के लिए अग्रिम दस्तखत दे चुकने के बाद अब जीवन में जातिवादी फैसले करने, पूरे लेन-देन के साथ शादियां करने, नवरात्र के व्रत रखने के लिए स्वतंत्र हैं। आपसी बातचीत में क्षेत्रीयता, प्रांतीयता, मुस्लिम द्वेष, दलित द्वेष, दिल्ली के ऑटो चालकों के प्रति द्वेष, सब कुछ टप-टप टपकता है। जातीय एकता दर्शाने को दक्षिणपंथी समजाति किताब का लोकार्पण करने सहर्ष जाते हैं। अपने हिस्से से ज्यादा हड़पने को हमेशा तत्पर, जीवन में कुछ त्यागना नहीं, छोड़ना नहीं, कुछ नुकसान न उठाना, किसी से कुछ शेयर न करना। यह कितना घृणास्पद है, छोड़ो यार। हमारी हिंदी में हर शख्स कितनी आसानी से कम्युनिस्ट या वामपंथी कहलाने का दावा कर लेता है। यहां तो ‘शोले’ और ‘दीवार’ और ‘जंजीर’ जैसी व्यक्तिगत बदले की हिंसा से भरी फिल्में, ऐसी फिल्में जिन्हें बनाना और दिखाना किसी समाजवादी देश में निषिद्ध होगा, लिखने वाले भी अपने को कम्युनिस्ट कहलाते और मनवाते हैं। ‘एक के बाद खुदा एक चला आता था...’ कैफी आजमी की एक नज्म में है यह लाइन। यहां खुदाओं की भरमार है। न एक राइटर की और न एक लेफ्टिस्ट की मेरी परिभाषा इतनी आसान है। सारे भोग-विलास चाहिए, और अनैतिक पैसे से भी परहेज नहीं मगर राइटर कहलाएंगे और उसके ऊपर वामपंथी। जैसे मानवता का चिराग उन्हीं से प्रकाशमान है। 

सॉरी यार, शायद मैं कुछ ज्यादा कटु हो गया। एक सही कम्युनिस्ट हो पाना, भीतर तक, अंतर्तम तक... वह मनुष्यता का शिखर छू लेना होगा, ऐसा मेरा मानना है। इसका निर्णय किसी की उद्घोषणा से नहीं हो सकता। असगर वजाहत की एक कहानी ‘होज वाज पापा’ पढ़ लें, वह इसी बारे में है। जब तक सोवियत संघ का वजूद था, वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के लाखों सदस्य थे। उन्हीं में लेखक संघों के पदाधिकारी भी होंगे, लेखकों को उनका ‘दायित्व’ और ‘कार्यभार’ बताते हुए। बदले निजाम में वे ही कंपनियों के, कॉरपोरेट्स के, बिजनेस हाउसेज के मालिक हैं। यदि फिर निजाम बदल जाए तो वे फिर पोलित ब्यूरो में नजर आएंगे। कुछ लोग हमेशा सिर्फ सत्ता के साथ होते हैं, किसी विचार के नहीं। ऐसे लोगों के बारे में दोस्तोयेव्स्की बताते हैं अपने उपन्यास ‘द इंसल्टेड एंड ह्यूमिलियेटिड’ (‘अपमानित और अवमानित’) में कि वे हाड़-मांस के नहीं, ‘कार्क’ से निर्मित होते हैं। कैसे भी तूफान आएं, सभ्यताएं उलट-पुलट हों, उनकी कार्क-काया हमेशा ऊपर ही रहती है। 

ऐसा नहीं कि सही वामपंथियों का एकदम अकाल है। वे भी यहीं हैं, हमारे आस-पास, अपना काम करते हुए, चमक-दमक और रोशनियों और ‘फेसबुक’ से दूर। अपने एकांत में या अपने संघर्षों में वे अपनी प्रतिबद्धता और समझ की लौ को बुझने नहीं दे रहे होंगे। लेकिन वे बहुत कम तो हैं ही। पता नहीं किसने कहा था यह, बहुत पहले, कि किसी कम्युनिस्ट को देखता हूं तो लगता है, वह हमारा भविष्य चला आ रहा है हमसे हाथ मिलाने। वे बातें कहां चली गईं। कभी आपने जीती थी एक दुनिया, मगर फिर गंवा दी। और अभी भी आप आत्मविश्लेषण नहीं करते। अपने आप से कोई सवाल नहीं करते।

तुम्हारे सवाल का एक अधूरा, अस्फुट, आरजी जवाब देने की कोशिश कर सकता हूं। मार्क्सिज्म एक भौतिकवादी दर्शन है। जीवन में, नेचर में और हिस्ट्री में जो कुछ घटता है, उसकी व्याख्या वह भौतिक आर्थिक कारणों से करता है, बिना किसी आधिभौतिक सत्ता को बीच में लाए। लेकिन सिर्फ इतना कहना, यह तो इतनी सतही, भोंडी बात है। पदार्थ और चेतना... वे गत्यात्मक और विकासमान हैं और उनमें पदार्थ ‘आद्य’ है, अंतिम रूप से निर्णायक— लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि चेतना का वजूद ही नहीं है या वह निष्क्रिय है। हमारे कुछ मित्र अतिरिक्त रूप से सजग रहते हैं कि उनके समाजार्थिक एनेलिसिस में कहीं भूल से भी ‘मन’ या ‘मनस’ या ‘चेतना’ का, मनुष्य के मनोवेगों का जिक्र न आ जाए। उन्हें लगता है कि ऐसा होने पर विश्लेषण व्यक्तिनिष्ठ हो जाएगा या कम वैज्ञानिक रह जाएगा। मन में जो इतनी विराट शक्तियां हैं, बहुत सारी डार्क फोर्सेज, अशुभ शक्तियां भी, उन्हें परे हटा देना, यह तो इंसानी वजूद का आधा गायब कर देना है। इंसान के मनोवेग... करुणा, नफरत, न्याय चेतना— वे अपने आप में शक्तियां क्यों नहीं हैं, निश्चय ही अंतिम रूप से निर्णायक नहीं, फिर भी। और इश्क जिसमें पड़कर व्यक्ति क्या-क्या कर गुजरता है, वर्गों, धर्मों और देशों के परे— क्या वह अपने में एक ताकत नहीं है? ग्राम्शी ने कहा था कि ग्लानि एक क्रांतिकारी विचार है। उनका आशय ताकत से ही होगा क्योंकि ग्लानि कोई विचार नहीं है। इसी तरह शोक भी एक ताकत है या हो सकती है। जैसे जीवन में वैसे ही इतिहास में मनोगत कारण होते हैं और संयोग भी... बेशक आर्थिक शक्तियों के दायरे में और उनके अंतर्गत ही। कभी-कभी किन्हीं निर्णायक पलों में, चंद लम्हों में जैसे शताब्दियों की शक्तियां, इतिहास का सारा आवेश सिमट आता है। कोई एक गलत फैसला, इंकार, विश्वासघात, कोई दुर्भाग्यपूर्ण देरी या जल्दीबाजी, बीमारी या अप्रत्याशित मौत बाजी पलट दे सकते हैं। स्टीफेन स्वाइग की किताब है ‘शूटिंग स्टार्स’— विश्व इतिहास के ऐसे 12 दृष्टांत, जिनमें शताब्दियों का संघर्ष पलों में सिमट आया है। उनका निपटारा जिस खास तरीके से हुआ, उसके विपरीत तरह से होना भी उतना ही संभावित था। ऐतिहासिक भौतिकवाद में, इतिहास की गति के निश्चित नियमों में मेरा पूरा यकीन है। लेकिन वह न्यूटन की फिजिक्स या यूक्लिड की ज्यामिति जैसा ‘निश्चयवाद’ नहीं है। उसके मायने किन्हीं ऐतिहासिक ‘होनियों’ में धर्मिक किस्म का यकीन नहीं। यह मार्क्सवाद की स्पिरिट से बेमेल बल्कि उलट है— सब धर्मों को रिजेक्ट करने के बाद मार्क्सवाद को ही एक धर्म बना लेना और इतिहास को उसकी देवी। 

फैज की नज्म ‘हम देखेंगे’ की लाइनें हैं— ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे... जो लौह-ए-अजल पर लिखा है...’ मेरी विनम्र राय है कि किसी ‘लौह-ए-अजल’ या शाश्वत पटिया पर पहले से कुछ नहीं लिखा है। जो इंसान लिखेगा, उस पर वही लिखा जाएगा। 

द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत जनता के अविश्वसनीय त्याग और कुर्बानियां, 1941-42 में स्तालिनग्राद पर कब्जे के 200 दिन... एक एक इंच जमीन के लिए नागरिकों, औरतों, सैनिकों, मजदूरों, छात्रों, बच्चों का मर्मांतक संघर्ष। बमबारी में शहर तबाह हो चुका है... एक एक कारखाना, स्कूल, अस्पताल, सड़कें, बिजलीघर, पानी की टंकियां। जर्मन सेना और सोवियत नागरिक इतने करीब हैं कि एक दूसरे की सांसों की आवाज सुन सकते हैं। ठंड के कारण जमीन इतनी सख्त हो चुकी है कि शवों को दफनाने के लिए उसे खोदना भी आसान नहीं। जीरो से भी कम तापमान में एक एक मकान, सड़क, चौक, जीने, चबूतरे के लिए जान की बाजी लगती है। आज तक का सबसे खूनी युद्ध। उस शहर की जनसंख्या साढ़े आठ लाख से घटकर बस डेढ़ हजार रह जाती है, लेकिन कुछ भी हो, फासीवाद को शिकस्त दी जाती है। महाकाव्यीय हैं इस लड़ाई के ब्यौरे, हिस्ट्री में बिखरे हुए हैं। जानकार बताते हैं कि हिटलर एक वक्त युद्ध में जीत जाने, सोवियत संघ को बूटों तले कुचल देने, प्रथम समाजवादी राज्य को खून में डुबो देने की खतरनाक हद के करीब पहुंच गया था। ऐसा हुआ होता तो उसके बाद का वक्त, राजनीति, हम सबका जीवन क्या हुए होते, इसकी कल्पना ही दिल दहला देती है। वह कोई और दुनिया होती, यह नहीं।  

यह दुनिया अपने नियमों से चलती है, ईश्वर उसमें हस्तक्षेप नही करता। ईश्वर मनुष्य की रचना है न कि उसके उलट। यह चेतना हमारे भीतर ईश्वर से जुड़े कर्मकांड, नियतिवाद, कर्मफल, पुनर्जन्म, जन्नत, दोजख जैसी धारणाओं का खात्मा करती है। इसके बाद विवेक और तर्क तले जीवन का पुनर्निर्माण शुरू होता है।  

लेकिन इसके बाद भी थोड़ा बहुत ईश्वर संस्कारों में बचा रह सकता है। वह तानाशाह जैसा पारंपरिक आसमानी ईश्वर नहीं जो विचार से परहेज करता, सिर्फ स्तुति या भक्ति चाहता है। शायद कोई दोस्त जैसा ईश्वर, जिससे हाथ मिला सकते हो। एक आधुनिक चेतना का ईश्वर से जो रिश्ता है या संभव है, उसे शायद तर्क की जगह कविता की भाषा में बेहतर तरह से कहा जा सकता है। शमशेर जी की यह लाइन उसे सर्वोत्तम तरीके से कहती है— ‘खुदा भी है मेरा ही इस्म, गो नहीं वह मैं...’  

चांद का मुंह टेढ़ा है’ की भूमिका में शमशेर बताते हैं कि मुक्तिबोध अंतिम पलों में, कोमा में राम राम, राधे कृष्ण कह रहे थे। यांत्रिक मार्क्सवादी इसे शायद कुछ और मानें, मेरे लिए यह मानवीय मन की जटिलता का उदाहरण है जिसके बारे में आधुनिक मनोविज्ञान ने अभी जानना शुरू ही किया है। यह इंसान की सरलीकृत परिभाषाओं से आगाह करता है। किसी परिवार में मृत्यु के बाद परिजनों को सांत्वना के शब्द कहने के लिए ईश्वरीय शब्दावली मैंने भी अक्सर इस्तेमाल की है। यह कहते हुए मैं यह नहीं कह रहा कि मार्क्सिज्म ऐसे पलों में काम नहीं आता। मगर उसके लिए बहुत उन्नत चेतना चाहिए। ‘स्पार्टाकस’ और ‘माई ग्लोरियस ब्रदर्स’, ‘सिटिजन टॉम पेन’ जैसी महान किताबों के लेखक हावर्ड फास्ट किन्हीं मुश्किल घडि़यों में 2500 वर्ष पहले हमारे यहां हुए कपिलवस्तु के राजकुमार का स्मरण करते हैं, और ध्यान की जापानी पद्धति ‘जेन’ के बारे में एक छोटी-सी किताब लिखते हैं। उन्होंने यहूदी जाति का इतिहास और पैगंबर मूसा की जीवनी भी लिखी। ऐसे ही सवालों के बारे में मुक्तिबोध का एक पत्र, वीरेंद्र कुमार जैन के नाम (पत्र यहां पढ़ें) जो मुक्तिबोध रचनावली में शामिल नहीं है, महत्वपूर्ण है। 

कथाकार मित्र अनिल यादव से, जो ‘विपश्यना’ के साधक हैं, इस बाबत मेरा वार्तालाप चला करता है। मेरे जीवन में भी मार्क्स और बुद्ध (और कबीर और औलिया) साथ-साथ हैं, न्यूनाधिक। मगर सबसे असहमत हो सकने, सवाल करने, आलोचना के अधिकार के साथ।  

एक खास तरह की रहस्य भावना शायद मनुष्य स्वभाव की प्रकृति है। उतनी ही नेचुरल, जितना अन्याय के प्रति क्रोध। उसका ईश्वरीय या आध्यात्मिक होना आवश्यक नहीं। जेनेवा की CERN प्रयोगशाला में हुए प्रयोग के बारे में जो सबसे अच्छा लेख मेरी नजरों से गुजरा, उसमें परमाणु के भीतर के उप परमाणविक कणों का नृत्य लेखक को शिव के तांडव के सदृश जान पड़ता है। परमाणविक रचना उन्हें ‘नटराज’ की आकृति की याद दिलाती है। इसके लेखक हैं सीताराम येचुरी। आधुनिक खगोलशास्त्र हमें कायनात की रचना, असंख्य आकाशगंगाओं, समय और स्पेस में उसके विस्तार, कृष्ण विवर इत्यादि के बारे में जो बताता है, उसमें से रहस्य और विस्मय के एहसासों को जुदा करना मुझे भी मुश्किल लगता है। 


नए लेखकों में क्या समस्याएं नजर आती हैं आपको? या प्रश्न यह भी हो सकता है कि आप हिंदी की अद्यतन युवा रचनाशीलता को कैसे देखते हैं?

नई पीढ़ी के लेखकों और कवियों की मेधा का मैं मुरीद हूं। वे तो जन्म से ही कपास साथ लाते हैं। किसी भी विषय में उनसे बात करो, हर किताब उन्होंने पढ़ी होती है, हर फिल्म देखी होती है, हर नए विचार का उन्हें पता होता है। इक्कीसवीं सदी की अतिमेधावी युवा पीढ़ी... वे हरेक छद्म और दरार दूर से ही देख लेते हैं। और उनकी रचनाएं... पहली दूसरी रचना में ही उनका विन्यास और नैरेशन इस कदर निर्दोष होता है कि आश्चर्य होता है। मेरा संवाद उन्हीं से है और उनका इतना प्रेम मिला है कि क्या बताऊं। प्रेम की बारिश... लगातार। हो सकता है कि मैं इसी वजह से उनका पक्षपाती हूं। मगर जो भी है, मैं उन्हीं के संग हूं, बल्कि अनुगामी। आलोकधन्वा अपनी एक कविता ‘युवा भारत का स्वागत’ में कहते हैं, ‘मुझे उनसे बार बार घिर जाना राहत देता है...’ उन्हीं की एक पुरानी कविता ‘मैटिनी शो’ भी याद आ रही है, मोटर में तेल भरकर, चक्के बदलकर वे तैयार हैं। इलाके के युवा ‘रंगरूट’ प्रेमी जब भागना चाहें तो उनके लिए।

ऐसा नहीं कि उनसे कोई असंतोष या आलोचना के बिंदु नहीं। लेकिन उनसे जवाबतलबी का हक किसी को नहीं, न नीति निर्देश देने का। उनसे सवाल वे करें जिन्होंने अपने जीवन में किसी उच्चतर नैतिकता का सबूत दिया हो। सवाल होने हैं तो पहले उन दिग्गजों, शीर्षस्थानीयों से हों, जो अब अपने ही कदमों में गिरा धूल का ढेर नजर आते हैं। जीवन भर जिस विचार से मान और आजीविका पाते रहे, बदली परिस्थितियों में जब वे उससे दगा करते हैं, क्या उन्हें एहसास है कि नई पीढ़ी किस तरह छला गया महसूस करती है। कमाल की है उनकी हाथ की सफाई। कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो देखते ही देखते ‘गीता’ में बदल जाती है। उनसे यही कहने की इच्छा होती है कि वे जो चाहें करें, लेकिन युवा पीढ़ी को अपने से मुक्त रखें।     

मैं फिर अतिरेकपूर्ण हो गया। इसे उन वरिष्ठों की अवमानना नहीं समझा जाना चाहिए, भूल से भी, जो आखिर तक अविचलित और अटूट रहे। युवा लेखकों के बारे में इल्जाम की तरह नहीं, सिर्फ आबजरवेशंस की तरह कुछ बातें... उनकी रचनाएं कई बार अत्यधिक योजनाबद्ध लगती हैं। विन्यास और लहजा और तलफ्फुज सब दुरुस्त मगर ऐसी नहीं कि उन्हें पढ़कर लगे कि लेखक के अंदर कोई आग है, अन्याय के विरुद्ध कोई तड़प है। अगर कहीं वह नजर आती भी है तो एक अदा या मैनरिज्म की तरह। व्यूह सरीखी (लेबिरिंथाइन) लंबी-लंबी रचनाएं हैं और सुरंग सरीखी भी। रचनाएं कई बार शोध-प्रबंध सरीखी लगती हैं, विदेशी लेखकों और दार्शनिकों के दहकते हुए आप्त वाक्यों से लदी-फंदी। वह विक्षुब्ध रचना जो अपनी सच्चाई से चकाचौंध कर दे, बकौल काफ्का, हमारे भीतर की उदासीनता को इस तरह तोड़ सके जैसे कुल्हाड़ी जल के ऊपर जमी बर्फ, वह कहां है? उस रचना के आने का वक्त यही है। उसे लिखने वाले भी कहीं अंतरिक्ष से नहीं आएंगे। 

हमारा विकास एक अलग साहित्यिक परिवेश में, अलग तरह के साथियों और लेखकों के बीच हुआ था। पिछले दो तीन दशकों में जीवन मूल्यों में बहुत बदलाव आए हैं। अब लेखक होने के मानी शायद वह नहीं जो प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन, शमशेर के वक्त में थे। क्षरण की एक प्रोसेस बहुत पहले शुरू हो गई थी। मुक्तिबोध की वह टिप्पणी याद करें जिसमें वह लिखते हैं कि आज के साहित्यकार का आयुष्य क्रम है— विद्यार्जन, डिग्री, कुछ साहित्यिक प्रयास, घर, सोफासेट, अरिस्टोक्रेट लिविंग, श्रेष्ठ प्रकाशकों के द्वारा पुस्तकों का प्रकाशन, सरकारी पुरस्कार, चालीसवें वर्ष के आस-पास अमेरिका या रूस जाने की तैयारी, अनुवाद और ऊंची नौकरी। यह वर्ग क्या तो यथार्थवाद प्रस्तुत करेगा और क्या आदर्शवाद। वह इसके आगे विवेकानंद के हवाले से कहते हैं कि उच्चतर वर्ग नैतिक रूप से मृतक हो गए हैं। ये शब्द कड़वे हैं, लेकिन उनकी सच्चाई से कौन इंकार कर सकता है? वह प्रोसेस हमारे वक्त में जैसे पूरी हो गई है। लेखक अब उसी उच्चतर वर्ग का हिस्सा हैं या उसमें प्रवेश के लिए लालायित। लेखन अब सिर्फ एक कॅरियर है। तमाम ऐसी रचनाएं हैं जो यथास्थिति का उत्सव मनाती नजर आती हैं। उनमें विचारधारा के परास्त होने का एक प्रच्छन्न उन्माद भी है। कलावाद को दुबारा जीवन मिल गया है। भाषाई खेल और कौतुक वाली रचनाएं पहले गर्हित और निंदित होती थीं, अब वे समादृत नजर आती हैं। सामाजिक सरोकार अवश्य विरल हुए हैं। 

ये सिर्फ आबजरवेशंस हैं, सवाल नहीं। वह भी लिटरेचर के एक छोटे हिस्से के बारे में। यह समूचा दृश्य नहीं है। हमारे समय में ही जनजातियों से, दलितों से, हाशिए से आए लोगों का एक लोकतांत्रिक उभार संभव हुआ है। वह बहुत आशाजनक है। वे हर पुराने विचार की अपने नजरिए से पुनर्परीक्षा कर रहे हैं। हर महान और केंद्रीय को प्रश्नांकित कर रहे हैं। वे पूर्वव्याख्याओं और सुनिश्चित अर्थों को रद्द कर रहे हैं, और हर एक उपदेश या निर्देश की अवहेलना। 

फासीवाद फैल रहा है। हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक जीवन में एक क्रूरता का घेरा है जो कसता जा रहा है। जिस विवेकवाद को एक लंबे ऐतिहासिक प्रक्रम में इतनी मुश्किल से पाया गया, उस पर तेज हमला है। तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन के साथ जो कुछ हुआ वह एक बहुत स्तब्ध करने वाली घटना है। उसे एक अकेली घटना या अपवाद मानना आत्मघाती होगा। यह सिलसिला तेज होने वाला है। इस वक्त केवल इजहार की आजादी नहीं, सारा विवेकवाद, तर्कबुद्धि, सारी मानवीयता दांव पर लगी है। युवाओं को इन सवालों पर सोचना, अपने जवाब पाने हैं।  

उनसे सिर्फ एक बात... आप अतिशय समय ‘फेसबुक’ पर जाया करते हैं। वहां के झूठे लाइक्स और बेमतलब की वाहवाही आपको उस जरूरी आत्मसंघर्ष से दूर ले जाते हैं जिसका कोई विकल्प नहीं। आप त्वरित प्रतिक्रियाओं के आदी हो जाते हैं, वहीं से अनुमोदन और सत्यापन की उम्मीद करने लगते हैं। इसमें ऊर्जा का क्षरण होता है जिसे गंभीर काम में लगना था। मेरे ही कुछ मित्र हैं जिनका सारा सोच-विचार और सृजन अब ‘फेसबुक’ पर होता है। आधे घंटे के भीतर उन्हें 20 लाइक्स और 10 तारीफें न मिलें तो वे बेचैन हो जाते हैं। मुझे मरीना स्वेतायेवा की एक कविता याद आती है। पता नहीं उन्हें वह कैसी लगेगी : 

"किताबों की दूकानों में, धूल में सनी, बिखरी हुई,
और कभी किसी के द्वारा न खरीदी गईं
फिर भी मूल्यवान मदिराओं की मानिंद,
मेरी कविताएं 
इंतजार कर सकती हैं।
उनका वक्त आएगा।" 


आप एक उपन्यास कब लिखेंगे?

उपन्यास विधा का कोई विकल्प नहीं। बहुत लंबी कहानियां भी नहीं। है मेरे मन में एक उपन्यास। वह जल्द ही आएगा। मैं उम्मीदवान हूं। 


आज के वक्त में एक रचनाकार के लिए स्मृति का क्या अर्थ है?

स्मृति... इंसान के मायने ही हैं उसकी मेमोरी। स्मृति से ही उसके वजूद की निरंतरता बनती है। क्या तुम्हारे मायने पर्सनल स्मृतियों से हैं, जीवन के दुखद प्रसंग, मुश्किल मौके, असफलताएं, नाकाम प्रेम इत्यादि। उनका क्या किया जाए यह तो हर शख्स को खुद ही तय करना होता है। मगर शायद तुम्हारा सवाल सामूहिक स्मृतियों... जातीय, ऐतिहासिक स्मृति के बारे में है। 

मिलान कुंदेरा नाम के बाजारू लेखक को मैं बिलकुल पसंद नहीं करता। लेकिन इस बात से सहमत हूं कि किसी भी अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष दरअसल विस्मरण के विरुद्ध संघर्ष होता है। उत्पीड़ितों के मन में अत्याचारों की स्मृति... हर सत्ता उनसे खौफ खाती है। स्मृतियां मिटाने के तमाम उपक्रम जारी हैं। याद रखना एक लगातार चलने वाला आत्मसंघर्ष है। ‘अब तो भूलने की भी बड़ी कीमत मिलती है...’ यह बहुत सारगर्भित वाक्य है।

‘भूलना’ सत्ता के साथ होना नहीं तो उसके फंदे में फंसना जरूर है। राइटर की यह पहली जिम्मेदारी है— स्मृतियों को जिद की तरह पकड़े रहना, उनके खाली स्थानों को भरना, याद दिलाते रहना... इस सजगता के साथ कि उसकी मौलिकता अप्रतिहत रहे। उसे वाक्य अपने ही लिखने होते हैं, मेमोरी में पड़े हुए वाक्य नहीं जो न जाने कितनी चेतनाओं से घिसटकर आते हैं। हां, इस सजगता के भी साथ कि नॉस्टेल्जिया की चपेट में न आएं। याद रखने और अपने गोशे में एक कसक के साथ यादों के मंजर देखने, इन दोनों में बहुत फर्क है। 

मैं जिस इलाके में रहा हूं, गंगा और यमुना के बीच का दोआब, वहां 1857 की कुछ बची-खुची स्मृतियां तो हैं, लेकिन विभाजन के समय की दरिंदगी, बंगाल के अकाल और ‘उलगुलान’ की नहीं। इस इलाके के लिए, यहां के बौद्धिकों के लिए भी, जो यहां नहीं हुआ वह जैसे हुआ ही नहीं। ऐसे में होलोकास्ट और स्तालिनग्राद की महान लड़ाई... उनकी तो बात करना गुनाह है। वे हंस देंगे बिना यह जाने कि उन लड़ाइयों का नतीजा कुछ और होता तो यह हंसना न उन्हें नसीब होता, न उनकी संततियों को।

दिल्ली में, जहां हिस्ट्री की इतनी तहें और पर्तें हैं, रजिया सुल्तान, मोमिन, जौक और रहीम और बेदिल के घर और मकबरे कहां हैं, यह लेखकों में भी बहुत कम जानते हैं। इब्बार रब्बी को जरूर एक-एक गली, चबूतरे और खिड़की और झरोखे का इतिहास पता है। औलिया की दरगाह के अहाते में शाहजहां की बेटी जहांआरा कहां सो रही है, यह उन्होंने ही मुझे बताया था। सलीमगढ़ के किले में भी रब्बी जी ही मुझे ले गए थे। 


‘विचारधारा’ की जरूरत को आप बतौर एक लेखक कैसे देखते हैं?

विचारधारा से तुम्हारी मुराद मार्क्सवाद से ही है न। शमशेर जी ने कहा था कि मार्क्सवाद ऑक्सीजन जितना जरूरी है। यह सिर्फ एक आकर्षक जुमला नहीं है। 1991-92 में जब साम्यवादी सत्ताओं का पतन हुआ तो साम्राज्यवादी शिविर में कैसा उन्मादी शोर था। गहरी तसल्ली कि शताब्दियों के वैचारिक संघर्ष का अंतिम रूप से निपटारा हुआ, उनके पक्ष में। अंत अंत अंत की उद्घोषणाएं। 

समाजवाद का, विचारों का, सपनों का, लेखक का, सबका अंत। लेकिन एक छोटे से शिथिल वक्फे के बाद मार्क्सवाद नए सिरे से प्रांसगिक होने लगा, पहले से भी ज्यादा जीवंत। मार्क्स की और मार्क्सवाद विषयक किताबों के पाठक, पूरी दुनिया में, बढ़ते ही जा रहे हैं। इसके बारे में मुझे अब महसूस होता है कि सोवियत संघ और पूर्व यूरोपीय सत्ताओं के पतन ने मार्क्सवाद को भी एक प्रकार से मुक्त किया। वहां वह सत्ता के कब्जे में था, चीजों को विश्लेषित करने की पद्धति नहीं, एक पूजा की चीज, रस्मों और नारों में सीमित। उसकी तयशुदा पूर्वनिश्चित व्याख्याएं थीं। उत्तर पुस्तिकाओं में मार्क्स के कौन से कोटेशंस दिए जाएंगे, यह भी नियत था। मार्क्सवाद का केंद्रीय तत्व है— आलोचना और आत्मालोचना, सवाल करना और संदेह करना, लेकिन संदेह पर भी संदेह करना। वह सवाल करने से ही वजूद में आया और उसने सही सवाल करना सिखाया। जब आप सवाल, असहमति, आलोचना को असंभव बना देते हैं तो आपके पास जो बाकी बच रहता है, वह कुछ और होता है, मार्क्सवाद नहीं। किसी एक शब्द, वाक्य, मामूली से कथन, जो शासकीय नजरिए से मेल न खाए, के लिए कवि या लेखक को कारावास या मृत्युदंड दे दिया जाए, उसकी अभिव्यक्ति के रास्ते बंद कर दिए जाएं, यह मार्क्सवाद का विद्रूप ही नहीं, उसका भयानक अपमान था। अख्मातोवा, पास्तरनाक, ब्राडस्की, स्वेतायेवा जैसे कवियों के साथ सोवियत सत्ता ने जो किया उस पर गर्वित होना संभव नहीं है। वे सब ऐसे कवि थे जिन पर कोई भी भाषा गर्व करती, लेकिन वे निकृष्ट कवि होते तो भी यह शर्मनाक होता। किसी समाज की हालत जांचने का एक पैमाना वहां स्त्रियों की हालत है, ऐसा कहा जाता है। इसकी सच्चाई से किसे इंकार हो सकता है। लेकिन वह केवल एक पैरामीटर है। उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि वे समाज और राज्य अपने लेखकों और कवियों से कैसा सुलूक करते हैं। इजहार की आजादी के सवाल पर कोई समझौता नहीं हो सकता, न सौदेबाजी। पेरूमल मुरुगन, वेंडी डोनिगर, ए के रामानुजन, राजकुमार हिरानी और पास्तरनाक, अख्मातोवा, ब्राडस्की... सबकी आजादियां, और मेरी अपनी भी, उनसे असहमत होने, कटु आलोचना करने की, अविभाज्य हैं। ‘मैं मुरुगन हूं’ कहना बेमानी है, अगर उसी सांस में यह न कहा जाए कि वह अख्मातोवा भी है।

यह कैसे हुआ कि सर्वाधिक उन्नत और वैज्ञानिक विचारधारा के बावजूद वहां की समस्याएं मुंह बाए खड़ी रहीं। आंइस्टाइन ने 1949 में समाजवाद की अनिवार्यता के बारे में अपने प्रसिद्ध निबंध में उससे प्रतिश्रुति प्रकट की थी। साथ ही कुछ आशंकाएं भी व्यक्त की थीं। वे सब वहां मौजूद थीं। सत्ता का अत्यधिक केंद्रीकरण, एक विकराल नौकरशाही, नागरिक आजादियों का अभाव। मार्क्सवाद में ही उनका समाधान था, हो सकता था, मगर उस मृत मार्क्सवाद में नहीं। 

1991-92 में समाजवाद के पराभव के बाद पूंजीवाद अपनी कल्याणकारी केंचुल उतारने लगा। वह अपने निर्दय, आदिम रूप की ओर लौटने लगा। वह वैसे ही व्यवहार करने लगा जैसे मार्क्स के विश्लेषण में था। उसे समझने के लिए फिर वही अचूक विचार काम आया। मार्क्सवाद के बिना विश्व राजनीति, अंतरराष्ट्रीय अर्थतंत्र और देशों का व्यवहार, साम्राज्यवादी कुचक्र कुछ समझ न आते। एक एकध्रुवीय विश्व-व्यवस्था में हमें देखने पड़ रहे हैं— शक्ति का स्वैराचार, वैश्विक वित्तीय संस्थानों के मैनेजरों के पास विकराल ताकत का जमाव, उपभोक्तावाद और बाजार की संस्कृति का फैलाव। साथ ही रोजगार के साधनों का छिनते जाना, लाखों किसानों की आत्महत्याएं, लोगों की अपने घरों और जमीनों से बेदखली। मार्क्सवाद के बिना यह सब कुछ एक अराजक दृश्य होता जिसे मुर्दा आंखों से देखते रहना होता, बिना कुछ समझे। 


आप बहुत कम लिखते हैं। प्रदीर्घ अंतरालों के बाद आपकी लंबी कहानियां शाया होती हैं और अब तक किताबें भी केवल दो। ऐसा क्यों?

इसे लेकर कोई गौरव का भाव नहीं है मेरे भीतर, बल्कि शर्म ही है। लिखना एक कठोर अनुशासन का, बहुत परिश्रम का काम है, सिर्फ बौद्धिक नहीं, शारीरिक भी। उसे साध पाने में कमी रही होगी, और क्या। मैं कवियों की बात नहीं जानता लेकिन गल्प लेखकों को कहां-कहां से वक्त चुराना होता है, अपने भीतर एनर्जी की एक-एक बूंद बचानी होती है। सर्दियों की धूप में लेटना, दोपहर की नींदें, शराब की महफिलें, यारबाशी, व्यर्थ यहां-वहां आना-जाना ये अय्याशियां उसके डीयू और जेएनयू के प्रोफेसर दोस्तों के लिए हैं। उसके लिए वे वर्जित हैं। जीने में वक्त बर्बाद करना उसके लिए वर्जित है। एक ही जीवन में जीना और लिखना, दोनों नहीं हो सकते। जब कोई कहानी मन में तैयार हो तो उन दिनों मित्रों से रूड भी होना होता है। पत्नी से लड़ाई करनी होती है। अहंम्मन्य या आत्मकेंद्रित समझे जाने का खतरा उठाना पड़ता है। शब्दों में कहीं थोड़ी-सी मानवीयता बचाने के लिए उसे असल जीवन में अमानवीय होना होता है। 

क्या तुमने जैक लंडन की कहानी ‘मैक्सिकन’ पढ़ी है? एक अद्भुत, महान कहानी। उसमें एक दुबला-पतला, कुछ रहस्यमय युवक है, मैक्सिकी क्रांति का एक सिपाही। क्रांति के लिए धन की व्यवस्था करने वह सीमा से अमेरिका में अवैध रूप से घुसता है। वहां शिकागो की गलियों में मुक्केबाजी के शो होते हैं, पहले से तय। उसे पेशेवर गुंडे मुक्केबाजों से मुकाबला करना है। वहां हर मुक्का बिकाऊ है, हर पिटाई बिकी हुई है। हर हार या जीत का दाम तय है। खेल के नियम, रेफरी, माहौल सब कुछ उसके खिलाफ है। वह कमजोर और कुपोषण का शिकार है। मगर उसके पास जो ताकत है उसकी वे पेशेवर गुंडे कल्पना भी नहीं कर सकते। एक विचार की और एक सपने की ताकत। 

उसे अपने भीतर ऊर्जा का एक-एक कतरा बचाना है। हिसाब लगाते हुए कि सासेज का एक बासी टुकड़ा कब खाएगा, वह कितनी देर के बाद उसे कितनी ऊर्जा देगा। उस वक्त कौन-सा राउंड होगा, सामने के बॉक्सर की कितनी ताकत खर्च हो चुकी होगी, कितनी बाकी होगी। निर्णायक पल आने तक उसे ऊर्जा का हर कतरा, हर बूंद बचाते हुए केवल पिटना है, लहूलुहान हो जाना है। वह जब चाहे अपनी पिटाई के दाम वसूलकर मुकाबले के बाहर हो सकता है। लेकिन उसे इनाम की सारी रकम चाहिए, या कुछ भी नहीं। वह आखिरी क्षण में वार करेगा अपनी सारी ऊर्जा, सारी ताकत समेटकर, बेहोश होने के एक पल पहले। या तो खत्म हो जाएगा या सारा इनाम पाएगा। 

कहानी लिखना ऐसा ही है।
फिर भी यार, दस्ताने टांगने में अभी देर है। 


हिंदी में आलोचक नाम के प्राणी को आप कैसे देखते हैं?

आलोचक? रिल्के ने तो एक युवा कवि को लिखे पत्र में कहा था कि आलोचना हमेशा रचना का एक कुपाठ होती है, कम या ज्यादा। वह रचना को छूने की भी हैसियत नहीं रखती। यह एक अतिवादी बात है, बेशक। लेकिन मुझे यह रहस्यपूर्ण लगता है, हमेशा से, कि कोई इस कर्म में क्यों प्रवृत्त होता है। अन्य लेखकों की रचनाओं के गुण-दोषों का आकलन करने की जगह अमूल्य समय और एनर्जी खुद वैसा रचने में क्यों नहीं लगाता। यदि वह उसके बस का नहीं तो क्या उसकी आलोचना इसी से खारिज नहीं हो जाती? इस तरह क्या आलोचना अपने में एक self defeating कर्म नहीं है?  :-) 

आलोचना करने का अधिकार केवल उसे है जो रचना से इश्क करता है। जो पहले एक दीवाना पाठक होता है। मैंने एक अविस्मरणीय क्षण में जो हमेशा मेरे साथ रहेगा, विश्वनाथ (त्रिपाठी) जी को ‘त्यागपत्र’ की मृणाल को किसी निजी प्रसंग में याद करते, आंसू रोकते हुए देखा है। आलोचकों के बीच वह एक दुर्लभ अपवाद हैं, शायद इसलिए कि वह केवल आलोचक नहीं। जो दीवाना पाठक नहीं, वह सिर्फ रचना की राजनीति करने के लिए या किन्हीं अन्य फायदों के लिए आलोचना में उतरता है। हमारी भाषा में आलोचना में जो सर्वश्रेष्ठ है वह रचनाकारों का है, विशुद्ध आलोचकों का नहीं। जैसे ‘कामायनी’ पर मुक्तिबोध की आलोचना और अपने साथी रचनाकारों पर शमशेर के लेख। वे काव्य-मर्मज्ञता के अतिरिक्त उदारता, सहानुभूति और संवेदनशीलता की भी अनूठी मिसाल हैं। एक विशाल हृदय से उत्प्लावित बेजोड़ गद्य, एक साथ आलोचना और आत्मालोचना, एक साथ अन्य को और अपने को संबोधित। जैसे वे औरों में अपने को खोजना चाहते हों। उसे बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है। विशुद्ध आलोचक हमेशा दूसरों को संबोधित होता है, उन्हें कटघरे में खड़ा करने के लिए, लेकिन अपने आपको कभी नहीं। वह फैसला सुनाता, श्रेणीकरण करता रहता है और रचना का मर्म उसकी उंगलियों से फिसल जाता है। 

हिंदी में कविताओं की आलोचना अब हमेशा एक-सी रूढ़, उबाऊ, तकनीकी भाषा में लिखी जाने लगी है। अंग्रेजी में उसके लिए शब्द है— gobbledygook. लगता है जैसे एक आधार आलेख हो जो थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ सभी कवियों पर लागू हो जाता है। कई बार वे रचना में उन मानियों की भी ईजाद कर लेते हैं जो वहां होते ही नहीं। रचना के मानियों को उजागर करने की जगह वे मनोवांछित मानी भरने लगते हैं। कई बार वे ऐसी जिंघासा या खूरेंजी के साथ आक्रमण करते हैं कि विरोधी विचार को ही नहीं, विरोधी को भी नष्ट कर देंगे अगर वह भूल से उनके दृष्टिपथ में आ जाए। 


दिल्ली में आपने एक तवील वक्त गुजारा है, ऐसा क्या है इस भारतीय राजधानी में जो आपको सबसे बेहतर लगता है? 

हमारा परिवार उनमें से है जिन पर इतिहास जैसे टूटकर गिरा था। वह विभाजन के बाद अविभाजित भारत के उस पार के हिस्से से उजड़कर आया था, पाकिस्तान के ‘डेरा इस्माइल खां’ इलाके से जो सिंधु नदी के किनारे है। अपनी जगह से बलात विस्थापन इंसान की चेतना में क्या तब्दीलियां ले आता है, इसकी कल्पना वे कभी नहीं कर सकते जो इस त्रासदी के शिकार नहीं हुए। आपके बहुत सारे सुकून हमेशा के लिए छिन जाते हैं। हमेशा एक अस्वस्ति एहसास बना रहता है। 

पिता जी की और अपनी नौकरी के सिलसिले में बहुत से शहरों में रहना हुआ— काशीपुर, बरेली, देहरादून, खलीलाबाद, फैजाबाद, मेरठ...। सब जगहों पर मेरे आत्मीय मित्र हैं और मुझे सब जगहों से इश्क है। फिर भी मैं त्रिलोचन की तरह गर्वीले भाव से यह नहीं कह सकता कि किस जनपद का हूं। अन्य लेखकों के पास उनके पहाड़, छिंदवाड़ा, काफलपानी, पटना, इलाहाबाद और बेगूसराय हैं। उनके समतुल्य मेरे पास सिर्फ काशीपुर की (अब) उजाड़ रेलवे कॉलोनी है।

दिल्ली कोई एक शहर नहीं, इसमें तो तमाम शहर हैं। यहां औलिया की दरगाह है, रहीम का मकबरा है, जहांआरा, रजिया सुलतान, इल्तुतमिश, अमीर खुसरो न जाने किन-किनकी हड्डियां हैं। यहां कदम-कदम पर इतिहास है, कहानियां हैं। चांदनी चौक, निजामुद्दीन बस्ती और हौजखास, ये सब बहुत रोमांचक जगहें हैं। पुरानी दिल्ली की गलियां हैं जिनके बारे में लोग कहते हैं कि वे रोम और इस्तांबुल की गलियों सरीखी हैं। इसी को रब्बी जी के साथ बार-बार नापते रहना है। 


आप आजीविका के लिए लेखन या किसी साहित्यिक गतिविधि या पढ़ने-पढ़ाने के कार्य से जुड़े हुए नहीं हैं। साहित्य से कतई जुदा एक जॉब आप करते हैं। इससे आपके लेखक को क्या फायदे-नुकसान होते हैं और इस बहुत व्यस्त जॉब के बीच कैसे आप एक साध वाली अविस्मरणीय लंबी कहानियां संभव करते हैं?    

नुकसान तो हैं ही। लिखने-पढ़ने के लिए पर्याप्त वक्त न मिल पाना। उसके लिए वक्त चुराना एक लगातार चलने वाली लड़ाई बन जाता है। लेकिन इसके अपने लाभ भी हैं। आप साहित्य में बहुत कुछ अनावश्यक, निरर्थक पढ़ने से बच जाते हैं। इस तरह बचे समय का इस्तेमाल आप इतिहास, मनोविज्ञान, आधुनिक भौतिकी और खगोलशास्त्र की किताबें या जासूसी उपन्यास, रहस्य-रोमांच की पुस्तकें पढ़ने में कर सकते हैं। हमेशा बौद्धिकों के बीच न रहने का लाभ यह है कि आप झूठी तारीफों और विद्वेषपूर्ण आलोचनाओं दोनों के खतरों से बरी रहते हैं। 

सच्ची सराहनाएं तो आपके पास पहुंच पाने का कोई रास्ता निकाल ही लेती हैं। यह याद रहता है कि साहित्य के बाहर भी एक विशाल दुनिया है। अहंकार का शमन होता है, आप साधारण रह पाते हैं। यह अपने में कोई साधारण बात नहीं। लिखने-पढ़ने की दुनिया में आने पर जिस ताजगी और स्फूर्ति का एहसास होता है, वह शायद तब न होता जब लिखना नौकरी का ही एक विस्तार होता। लेकिन यह नुकसान अपने में कम नहीं कि ऊर्जा का क्षरण अन्य कामों में हो जाता है। रोज रात्रि को आंखें मुंदने के क्षण में सोचता हूं शायद कल चंद वाक्य लिख सकूं। ‘गान विद द विंड’ फिल्म भी याद आती है, उसका अंतिम वाक्य, उसकी नायिका स्कारलेट ओ हारा का आखिरी ख्याल, ‘टुमारो इज एनदर डे...।’  


कोई एक कवि? कोई एक किताब? और कोई एक फिल्म?  

इस तरह तो मैंने कभी नहीं सोचा। किसी एक कवि या किताब या फिल्म से कैसे काम चल सकता है। एक किताब से काम उन धर्मिकों का ही चल सकता है जो पढ़ने की जगह उसे चूमते, आंखों से लगाते हैं। एक कवि से तुलसीभक्तों का चल सकता है, एक फिल्म से गांधी जी का। उन्होंने जीवन में एक ही फिल्म देखी थी— ‘रामराज्य’। एकाकीत्व अमानवीय है। जैसे इसानों को अन्य इंसान चाहिए, वैसे ही कवियों को अन्य कवि, किताबों को अन्य किताबें, फिल्मों को अन्य फिल्में। 

तुम अगर पूछो कि सभी देशों, कालों, संसार के सारे एपिक्स, लेखकों, पुराणों, महान उपन्यासों को शामिल करते हुए, सर्वश्रेष्ठ किताब कौन-सी है तो मैं कहूंगा— ‘महाभारत’। मगर काफी तो वह भी नहीं है भले ही वह ऐसी किताब है जिसे पूरा पढ़ पाने के लिए एक उम्र नाकाफी है। केवल वह किताब होती और दुनिया में और कोई किताब न होती तो जीवन कितना दूभर, कितना दरिद्र होता। ‘एलिस इन वंडरलैंड’ भी अपनी जगह बहुत जरूरी है और हैंस क्रिश्चियन एंडरसन की परी-कथाएं भी। उनकी ‘राजा नंगा है’ कहानी क्या कोई मामूली कहानी है? वह कितनी जगहों पर बार-बार प्रकट होती है। 


आप निर्मल वर्मा के करीब रहे। उनके द्वारा आपको लिखे बहुत आत्मीय पत्र ‘अकार’ के एक अंक में पढ़े गए हैं। उनसे अपने जुड़ाव के बारे में कुछ बताएं।

निर्मल जी के संपर्क में आने, उन्हें जानने का मौका तब मिला था, जब छात्र ही था। तब यह भी नहीं पता था कि साहित्य में उनका कद क्या है। मैं बरेली कॉलेज, बरेली में पढ़ता था, साहित्य नहीं, साइंस। वे लिखने-पढ़ने और दुनिया देखने की शुरुआत के दिन थे। उनकी कहानियों का, भाषा का असर जादुई था। इतनी नाजुक भाषा कि जैसे एक सख्त हाथ लग गया तो खंरोच लग जाएगी या खून निकल आएगा। पत्रों के आदान-प्रदान के बाद बहुत सारी मुलाकातें हुईं। छुट्टियों में दिल्ली आने का एक बड़ा आकर्षण यह होता था कि उनसे मुलाकात होगी। मंडी हाउस और उसके आस-पास की सड़कें, आजकल वे कितनी जनाकीर्ण हैं, तब सुनसान हुआ करती थीं। गर्मियों की शामों को वहां टहलने, उनकी बातें सुनने या यूं ही खामोश चलने का सुख अद्भुत था। अधिकतर मुलाकातें तो उनके करोल बाग के घर की बरसाती में ही हुईं। वह धीमी आवाज में रुक-रुककर बोलते थे, हमेशा चिंतनरत रहते थे, बोलते हुए गुम हो जाते थे। अब याद करने पर मुझे लगता है कि संभवतः वह हर समय लिखते थे, उनके दिमाग में हर वक्त वाक्य बनते थे। वह ‘पल दो पल के शाइर’ नहीं, हर वक्त के लेखक थे। हमारी बातचीत के बीच में लंबी चुप्पियां आती थीं। लेकिन संवाद उस खामोशी में भी जारी रहता था।  

उनका जीवन बहुत सादा था। लेखकों के पास गाड़ियां आज जितनी तो नहीं, लेकिन उस वक्त भी दुर्लभ नहीं थीं। वह बसों की भीड़ में ठुंसकर मजे से आते-जाते थे। उनकी आय अनिश्चित ही होगी, लेकिन कभी उन्होंने मुझे एक रुपए भी खर्च नहीं करने दिया। कितनी बार ऑटो में साथ आना-जाना हुआ, रेस्त्राओं में बैठे, कुछ नाटक साथ-साथ देखे। साथ पीने के कुछ मौके भी आए। कहीं भी नहीं। वे मेरी बेरोजगारी के दिन थे। अनिश्चित भविष्य की चिंताओं में वह मेरे साथ थे। बाद में वैचारिक दूरियां आईं। तकलीफ के मौके आए, खामोशी के अंतराल भी। फिर भी इन बातों को भुलाना संभव नहीं। ये छोटी, क्षुद्र, मामूली लग सकती हैं, लेकिन जीवन में छोटी बातें ही बड़ी होती हैं। 

अपनी लिखी चीजें उन्हें दिखाता था। वह ध्यान से पढ़ते, फिर बेमुरव्वती से खारिज कर देते थे। यह जरूर ध्यान रखते हुए कि मेरा दिल न दुखे। मगर फिर भी मेरे प्रति वह स्नेहिल थे। यहां मैं रेखांकित करना चाहता हूं कि वह मुझे अपने जैसे लेखन और लेखकों से दूर धकेलते थे। एक खास तरह का आत्मपरक लेखन, अपने में गुम। मैं इसके लिए उनका आज भी शुक्रगुजार हूं। मैंने औरों से सुना है कि वह पीने के बाद बहुत निर्मम और क्रूर हो सकते थे। जरूर ऐसा होगा। लेकिन मैं एक क्षण के लिए भी यकीन नहीं कर सकता कि वह कभी फूहड़ या भदेस हुए हों। उनकी अपनी एक ऊंचाई थी।    

बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ तो ‘डेढ़ इंच ऊपर’ के लेखक से, जिन्होंने ‘चुनी हुई चुप्पियों’ पर भी एक तीखा, सारगर्भित आलेख लिखा था, एक स्पष्ट भर्त्सना का इंतजार ही करता रहा। कोई बात या बयान या महज एक शब्द। उन मुश्किल घड़ियों में उन्होंने भी अपने लिए एक चुप्पी ही चुनी।


अब तक जिए गए जीवन में कोई अफसोस?

अफसोस और असंतोष... वे बहुत सारे हैं। उनके बिना क्या कोई जिंदगी पूरी होती है? वे तो बढ़ते ही जाते हैं। सबसे पहला, सबसे बड़ा तो यही है, उतना काम न कर पाना जिसका वादा अपने आप से किया था। इसके बाद... उर्दू अदब के संपर्क में बाद में आना। कोशिश करके भी उर्दू लिपि न सीख पाना। प्राचीन संस्कृत साहित्य, संस्कृत के आचार्यों के चिंतन और उर्दू अदब के खजाने जो हिंदी में उपलब्ध नहीं... से महरूम रहना। पठन-पाठन हिंदी और अंग्रेजी तक सीमित रहा, लेकिन उसमें भी बहुत कुछ छूटा हुआ है।

मुक्तिबोध और रेणु मेरे होश संभालने से पहले दिवंगत हो गए थे। लेकिन शमशेर, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान और हजारीप्रसाद द्विवेदी से भी मिल पाने का कोई अवसर नहीं आया। अज्ञेय जी से तो मिलने की हिम्मत ही कौन कर सकता था। 2013 में इलाहाबाद जाकर भी अमरकांत जी से न मिल पाना, यह भी एक बड़ा अफसोस है। उसके कुछ ही समय के बाद उनका देहांत हो गया।  

रेणु जी की दोनों पत्नियों से मिल पाने की, उन्हें देख पाने की एक भावुक-सी तमन्ना पूरी न हो पाने का भी अफसोस है— हृषिकेश सुलभ से एकाधिक बार तय होने के बावजूद। 

यह तो सब जानते हैं कि जगत में, जीवन में सब कुछ परिवर्तनशील है। लेकिन सब कुछ प्रत्यावर्तनीय भी है, यह उस तरह सर्वमान्य नहीं। ज्ञानी कहते हैं कि सब कुछ अपने स्रोत की ओर, मूल की ओर आकर्षित होता है। हर चीज अपने घर वापस जाना चाहती है। शायद यह कोई सांइटिफिक सच नहीं है, लेकिन मेरे साथ ऐसा होता है। हर चीज, कृत्य, लफ्ज लौटकर आता है। अनजाने में भी किसी से कोई कठोर, अप्रिय शब्द कहूं तो वह बार-बार लौटता रहता है। वे एक ही बार हर्ट हुए होंगे, उनसे कई गुना मैं खुद होता हूं, बार-बार, बरसों। उदय प्रकाश जी और अपने मित्र महेंद्र मिश्र, जो अब न जाने कहां खो गया है, और एक अन्य मित्र जिसका उपनाम ही मुझे याद रह गया है, मिनोचा, से कभी कहे ऐसे कुछ शब्द हैं। शायद अपने मित्र विजय गौड़ से भी, अनजाने में।  

कवि वेणु गोपाल से अनायास एक छोटी-सी मुलाकात एक लिफ्ट में हुई थी। वह व्हील चेयर पर थे। मेरे साथ जो मित्र थे, वह उनके भी परिचित थे। मेरा नाम सुनकर वह मेरी एक कहानी की इतनी तारीफ करते रहे। मैं उनकी व्हील चेयर देखता रहा। मुझे उनकी विकलांगता का पता नहीं था। मैं इस कदर आघात में, स्तब्ध था कि एक लफ्ज भी नहीं कह सका, न नमस्कार, न शुक्रिया, और मुलाकात खत्म हो गई।  

संगमन’ के एक कार्यक्रम में युवा लेखक वरुण ग्रोवर की एक कहानी की आलोचना काफी तीखे शब्दों में की थी। पता नहीं कैसे, मुझे याद ही नहीं रहा कि वह युवा था, उसने लिखने की शुरुआत ही की थी। अब याद करने पर लगता है कि एक मासूम हृदय दुखाकर कौन से साहित्यिक मूल्यों को बचाना चाहता था। पिछले दिनों फिल्म ‘आंखों देखी’ के क्रेडिट्स में उसका नाम देखकर मुझे सुकून हुआ। I am very very sorry, Varun, if you happen to read this. Please pardon me. 

उदय प्रकाश की एक छोटी-सी कहानी है जो मुझे बहुत प्रिय है। शायद वह उनके बचपन की कोई सच्ची घटना है, लेकिन वह मुझे अपने ही बारे में लगती है। उस कहानी में वह कोई गलती करते हैं जिसका इल्जाम विकलांग बड़े भाई पर डाल देते हैं। बड़े भाई की जमकर पिटाई होती है। बहुत बरसों के बाद, बड़े होने पर, ग्लानि का बोझ असहनीय होने पर वह यह घटना याद दिलाकर उनसे माफी मांगना चाहते हैं। भाई को लेकिन कुछ भी याद नहीं। यह सब तू अपने मन से गढ़ रहा है, वह कहते हैं। इसलिए माफी का प्रश्न ही कहां पैदा होता है? कहानी का अंतिम वाक्य है, मैं इस अपराध से कैसे मुक्ति पा सकता हूं। 

मैंने बचपन में शकील के नौ अंक काट लिए थे। दर्जा आठ में कामचोर अध्यापक ने चार पांच मेधावी माने जाने वाले छात्रों को छमाही इम्तिहान की गणित की कॉपियां जांचने को दे दीं। मेरे दोस्त शकील की कॉपी मेरे पास आई। मेरे अपने अंक 90 आए थे और उसके 98 आ रहे थे। मैंने बेईमानी की, उसके नौ अंक काट लिए। यह जानकारी शकील को हो गई और उसने धमकी दी कि वह पूरे स्कूल के सामने मेरा यह कृत्य उजागर कर मुझे कलंकित करेगा। सार्वजनिक अपमान से बचने के लिए मैंने उसकी कॉपी टुकड़े-टुकड़े करके स्कूल के पीछे झाड़ियों में फेंक दी। 

अब याद करता हूं तो आश्चर्य होता है। बच्चे सिर्फ मासूम नहीं होते, वे बहुत क्रूर, हिंसक और अन्यायी भी हो सकते हैं। एकलव्य से द्रोणाचार्य ने जो सुलूक किया था उसके लिए चिरस्थायी नफरत रखने वाला, मैं, कैसे इस प्रसंग में एक साथ द्रोणाचार्य और अर्जुन दोनों हो गया। अब शकील मुझसे यही कहता है कि उसे कुछ भी याद नहीं, शायद मुझे शर्मिंदगी से बचाने के लिए। वह कहता है कि अपनी कल्पनाशक्ति को कहानियां लिखने में इस्तेमाल करो, उससे इतर नहीं। वह अब भी मेरा दोस्त है। काशीपुर में वह एक जिम चलाता है। ऐसा नहीं कि बचपन की यह बात याद कर ग्लानि से गलता रहता हूं। लेकिन मुझे वह याद हमेशा रहती है। 

एक रोते हुए फटेहाल ग्रामीण बूढ़े का चेहरा आंखों के सामने आता रहता है। देहरादून की कचहरी में किस काम से जाना हुआ था यह याद नहीं। एक वाहन उसके पैर की उंगलियां कुचलता चला गया था। वहां खून भल-भल बह रहा था। तमाशबीनों की भीड़ में वह दर्द से दोहरा, मेरी ओर उम्मीद से देखता हुआ चीख रहा था कि वह ऋषिकेश से आया है, कोई उसे वहां पंहुचा दे। उसे कुछ रुपए देकर और ऋषिकेश जाने वाली बस में बिठाकर मैंने कर्तव्य निभाने की तसल्ली हासिल कर ली। अपने को मानवीय और सेंसिटिव होने का तमगा अलग से दे दिया। लेकिन बाद में जब मैंने इस घटना को मन में दोहराया तो अपने आप पर हैरान रह गया। बस में बिठाने से पहले मैं उसे डॉक्टर के पास क्यों नहीं ले गया। उस वक्त उसके पैर पर बैंडेज करवाना सबसे पहली जरूरत थी। क्यों नहीं सोचा कि टपकते खून के संग वह भीड़ और धूल में कैसे और कब घर पंहुचेगा। इस चूक की ग्लानि गहरी है। फ्रायड को काफी पढ़ चुकने के बाद अब यह भी जानता हूं कि ऐसी कोई चूक बेसबब नहीं होती। वह बूढ़ा अब जिंदगी भर कहीं नहीं मिलेगा। उससे जो माफी मांगनी है, वह मैं अपने दोस्तों और पाठकों से ही मांग सकता हूं।


कोई ऐसी बात जो आप कहना चाहते हों, लेकिन जो मेरे सवालों के दायरे मैं न आ सकी हो। मसलन, हमेशा महसूस होने वाली कोई गुह्य बात, विचित्र अनुभव या उलझन या कुछ ऐसा जो अजीब लगता हो। 

यह तो उससे मिलता-जुलता सवाल है जो ‘महाभारत’ में यक्ष ने युधिष्ठिर से किया था। सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने जो कहा था, मुझे नहीं लगता कि उससे अलग या आगे कुछ कह पाना किसी के लिए भी संभव हो सकता है। मैं केवल उसी को आधुनिक शब्दावली में दोहरा सकता हूं, आधुनिक खगोलशास्त्र का सहारा देकर। 

हमारी कायनात का विस्तार है लगभग 93 बिलियन प्रकाश वर्ष और वह भी स्थिर नहीं। वह निरंतर प्रसारशील है। कायनात की परिधि पर इसके फैलने की रफ्तार प्रकाश की रफ्तार से भी अधिक है। कायनात की आयु 14 बिलियन वर्ष। हमारा सौरमंडल जिस आकाशगंगा में है, उसका व्यास है 1 लाख प्रकाश वर्ष। 100 से 120 बिलियन तक आकाशगंगाएं हैं और हर आकाशगंगा में 100 से 120 बिलियन सूर्य। और यह सिर्फ एक कायनात, हमारी कायनात की बात है। वे कहते हैं कि गिनते जाओ मगर वे खत्म न हों, चाहे आपकी सख्याएं खत्म हो जाएं। 

देखिए, आते हुए लिटरेचर के ‘विद्वान’ प्रोफेसर साहिब। और वे लेखक जी, चेहरे पर चमक और पीठ पर पुरस्कारों की लदनी लिए। उनके संग जो हैं, वे हिंदी के इस्टबेलिसमेंट के सर्वेसर्वा हैं। पांच सौ मीटर चलने में वे हांफ जाते हैं। तीसरी मंजिल तक जाने के लिए उन्हें लिफ्ट चाहिए। चश्मा उतार देने पर दुनिया उनके लिए कोहरे में डूब जाती है। जीवन का वक्फा इतना छोटा कि कुछ समझ पाने, जान सकने से पहले ही बीत जाए। क्या यह मुमकिन है कि दुनिया भर की जानकारियों से लदे-फंदे, वे इतना भी प्रारंभिक खगोलशास्त्र न जानते हों। फिर उनकी बॉडी लैंग्वेज ऐसी क्यों। यह व्यर्थ की अकड़ क्यों। आपकी विनम्रता कहां गई। उसे वे उन मौकों के लिए रिजर्व रखते हैं, जब वे ताकतवरों के सामने होंगे। बस यही अजीब लगता है। 


[ज़रूरी यह है कि किसी साहित्यिक विधा के पीछे के रोचक संसार से परिचित हुआ जाए. हिन्दी के अधिकतर कहानीकारों में स्वीकारोक्ति और सेल्फ-जजमेंट का भयानक अभाव है. इस बीते दशक से चर्चा में आए अधिकतर कहानीकारों ने खुद के खांटी हिसाब को जगह देने के बजाय इस पर ज़्यादा दिमाग लगा दिया कि वे कहीं यूरोपीय सभ्यता से पीछे तो नहीं छूट जा रहे हैं. समस्या यह भी है कि इतने घनघोर समय में किसी भी पॉलिटिकल डिस्कोर्स से बचने की कवायद को कैसे रंग दिया जा रहा है? हिंसक-अहिंसक और कला-गल्प-तथ्य के आपसी संबंध बुरे तरीकों से ख़राब हुए हैं. ऐसे में योगेन्द्र आहूजा के ये बयान सुकून देते हैं कि अभी भी 'बहस गर्म है'. हिन्दी के मौजूदा ऊहापोह के बीच इस साक्षात्कार के लिए बुद्धू-बक्सा योगेन्द्र आहूजा और अविनाश मिश्र का आभारी.]