चमकीले विरोधाभासों में बेसुध आत्म-सम्मोह
उर्फ़
‘प्रश्न की उथली-सी पहचान’
विष्णु खरे
दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
कोई भी मुर्ग़ा
यदि बांग दे उठे ज़ोरदार
बन जाये मसीहा
(गजानन माधव मुक्तिबोध,’अँधेरे में’, 6, 156-60)
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‘अँधेरे में’ आज भी इतनी जीवंत और प्रासंगिक है कि उसे ‘अब’ सिर्फ प्रतीक मानना एक सुविधाजनक, पलायनवादी, चालाक, विरोधी रणनीति का एक दांव ही हो सकता है. यदि वह अमर है तो निस्संदेह वह एक अभिशाप उनके लिए है जो ऐसी अमरता न सोच पाते हैं और न सह. आज हिंदी में केन्द्रीय कविता कौन-सी है यह कह पाना कठिन है लेकिन 1964 में अपने प्रकाशन के समय से ही हिंदी के कई सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि और उनकी ‘कविताएँ’ ‘अँधेरे में’ के प्रकट प्रभाव से जाने-अनजाने मुक्त रहे हैं. कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा आदि से शुरू होने वाली पीढ़ियाँ कुछ तो मुक्तिबोध की दुर्दांत प्रतिबद्धता से आज़ाद रही हैं और अधिकांश उनकी भाषा, शिल्प और शैली से भी स्वतंत्र रही हैं. मामला हिन्दू मिथकों में विष्णु और शिव जैसा रहा है – राम और कृष्ण आदि विष्णु के अवतार माने गए हैं बल्कि उन्होंने, और अन्य कई कमतर आराध्यों ने भी, विष्णु को लगभग अपदस्थ कर दिया, किन्तु किसी को भी शिव का अवतार होने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है.
तात्कालिक और सतही तौर पर ऐसा हमेशा लगता है, और जितना उथला हमारा दिमाग हो उतना ज़्यादा लगेगा, कि अब हमारा समय और संसार एक कालजयी कृति से बहुत दूर चले आए हैं, लेकिन, महान लेखकों और उनकी अमर कृतियों के कितने नाम गिनाए जाएँ, सैकड़ों अन्य रचनाओं के भी, जिनके न पूर्वानुभव अतीत हुए हैं और न उनकी आहटें, न चेतावनियाँ ऐसी हैं कि जिन्हें आगे न सुना जाएगा. यह कहना कि ‘अँधेरे में’ भविष्य की कविता नहीं है विकलमस्तिष्क हास्यास्पदता है क्योंकि वह 50 वर्षों से उत्तरोत्तर वर्तमान की कविता बनी हुई है और यदि हालात न बदले, जो कि अब तो विश्व-स्तर पर बदलते दिखाई नहीं देते, बल्कि लगता है बदतर होने को अभिशप्त हैं, तो ‘अँधेरे में’ सरीखी कृतियों की प्रासंगिकता में एक दुर्भाग्यपूर्ण, भयावह वृद्धि होती रहेगी. उनमें अभिव्यक्त संकटों से कोई आर-पार का सामना नहीं हो सका है बल्कि वह भयावह्तर भेसों में सामने हैं. मुक्तिबोध-जैसा जीवन न तो मुक्तिबोध का अभिप्रेत था न आज के कवि का है – वह उन जैसे कवि पर नाज़िल किया गया था और उन जैसे कवियों पर बरपा किया जाएगा. 'अँधेरे में’ के नायक का आध्यात्मिक और विचारधारागत आत्मोन्नयन तो कविता में हो चुका है, यदि वह कविता के बाहर नहीं हुआ तो उसके लिए मुक्तिबोध उत्तरदायी नहीं हैं, यदि बाहर ‘जीवन-शैली’ बदल गयी है तो उसके लिए भी नहीं.
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निस्संदेह अब ‘अँधेरे में’ सरीखा अँधेरा नहीं है क्योंकि वह 1964 से कहीं गहरा, भयावह और हत्यारा हो चुका है. हाँ,जो सावन में अंधे हुए हैं उन्हें वह अब हरा-हरा सूझ रहा है. मुक्तिबोध का काव्य-नायक अपने ‘जीवन-काल’ में ही व्यवहार से छिटका हुआ आदर्श था लेकिन यह बखूबी जानते हुए भी उसे इसकी परवाह न थी. यह तो स्पष्ट है कि हमारा अनलिखा-लेखनायक उस महानता को दोहराना तो क्या, इकहराना भी नहीं चाहेगा क्योंकि अपनी श्रद्धाहीन, सुविधाजनक, अभिप्रेत नपुंसकता में वह स्वयं पहले से ही सड़क के नीचे के गटर में छिप गया है और परिवर्तनातीत पूँजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बन चुका है. अब वह बदल नहीं सकता. बदलना नहीं चाहता.
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गाँधी कहते ज़रूर हैं कि हम हैं गुज़र गये ज़माने के चेहरे लेकिन मुक्तिबोध के लिए वह ‘देव’ हैं जिनके आगे ‘अति दीन’ हो कर ही जाया जा सकता है : किन्तु, मैं देखा किया उस मुख को/ गंभीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही/शब्दों में गुरुता// वे कह रहे हैं – (इस टिप्पणी का पुरोद्धरण) / वे कह रहे हैं – ‘मिट्टी के लोंदे में किरणीले कण-कण / गुण हैं, / जनता के गुणों से ही संभव/ भावी का उद्भव //...मुस्करा उस द्युति-पुरुष ने कहा तब - /’’मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था/सँभालना इसको,सुरक्षित रखना’’
हमारा अनलिखा-लेखनायक अव्वल तो कुटिलता और चालाकी से मुक्तिबोध के उद्धरण में इस तरह कतरब्योंत करता है जैसे कोई चोर दर्ज़ी गाहक के कपड़े में करे, फिर इस पर आँखों में सूअर का बाल डाल लेता है कि यदि समय और जनचरित्र ने मुक्तिबोध और गाँधी के सपनों के साथ एक-सा विश्वासघात किया तो उसके लिए यह दोनों उत्तरदायी कैसे हैं और ‘अँधेरे में’ में व्यक्त संकटों से सामना किस तरह और कौन कर चुका है और ‘अँधेरे में’ जैसा अँधेरा अब कैसे नहीं है?
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कोई दुर्बुद्धि दृष्टिहीन ही कह सकता है कि यह समय मुक्तिबोध के युग से बेहतर है. इस बौद्धिक दीवालिएपन की इंतिहा यह मानना है कि वर्तमान हमेशा अतीत से श्रेष्ठ होता है. ऐसी मूर्खता तो अनिर्वचनीय है. मुक्तिबोध जैसे जिद्दी, हठधर्मी, प्रतिबद्ध आदर्शवादी के लिए आज भी यदि विकल्प होते तो ‘ज़िंदगी की शर्म जैसी शर्त’ सरीखे अस्वीकार्य होते. युग और वर्तमान के बहुआयामीय, वैश्विक अर्थ-सन्दर्भ में जीवनयापन और प्रकाशन जैसी सीमित समस्याओं की बात हमारे अनलिखे-लेखनायक के हाय-हाय (मैंने उन्हें देख लिया नंगा) विरोधी, ‘कर्मवादी’ बौद्धिक-नैतिक दारिद्र्य को विवस्त्र कर देती है. 'अँधेरे में’ यदि आज भी प्रासंगिक है तो यह विडंबना ‘अँधेरे में’ और उसके बाद की आज तक की हिंदी कविता की नहीं, यह La condition humaine की विडंबना है. वैश्विक पूँजीवाद ने अपने सहित समूची मानवता को suicide bomber बना दिया है, उसे आत्मनाश की मंज़िल का एकतरफ़ा टिकट कटवा दिया है. जिसे भौतिक सफलता कहा और माना जा रहा है यदि वह आधिभौतिक-नैतिक-आदर्शवादी-प्रतिबद्ध असफलता पर विमर्श करती है तो यह जिद्दी, अलज्जित, अड़ियल असफलता नाउम्मीद और नपुंसक कैसे सिद्ध होती है? ‘अँधेरे में’ की ‘विडंबना’ को 1964 और उसके पहले से ही कौनसी प्रतियोगी धूर्त सफलताओं ने महान और प्रतीक बना डाला था जो अब तक बनाए हुए हैं?
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यदि हिंदी के अकादमिक जगत में सुविधाभोग का सफल माहौल है और सत्ता भी वहाँ सफल रही है और ‘अँधेरे में’ एक अप्रासंगिक, और चुकी हुई कविता है तो हिंदी में ‘परम अभिव्यक्ति’ की खोज को लेकर हमारा अनलिखा-लेखनायक परेशान क्यों है? अचानक वह ‘सरकारी अनुदानों और सुविधाओं...पर पलनेवाले पालतू’ जे.आर.एफ़ों., शोधार्थियों को हिक़ारत से ‘अँधेरे में’ को समझने के नाक़ाबिल मानते हुए अग्निवर्षण क्यों करने लगता है जबकि वह ख़ुद ‘अँधेरे में’ और मुक्तिबोध को लगभग दो कौड़ी के समझता लगता है? अकादमिक वर्ग पूछे या न पूछे, हमारे अनलिखे-लेखनायक से दूसरों को यह तो पूछना ही चाहिए कि पार्टनर, तुम्हारी सैलरी और पॉलिटिक्स क्या हैं? तुम किन रावणों के घर पानी भर रहे हो?
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विचार के रास्ते शिल्प से जुड़ने का क्या मंतव्य है? अव्वल तो यह किया कैसे जाता है? फिर किया भी जाता हो तो क्या विचार की कविता में शिल्प नहीं होना चाहिए? या शिल्प से जुड़ना कोई चालाकी या स्नायु-दौर्बल्य है? क्या वह एक मूर्खता है? क्या लेखक संगठन ‘जनचरित्र’ हैं जिसे कोई ‘अँधेरे में’ सरीखे महान प्रतीक को ढोने के निर्देश दे रहा है?
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मार्क्सवाद को नकारने के उद्देश्य से इस बाली उमर में ही पुंसत्व जुटाने के लिए बर्ट्रेंड रसेल के दिवंगत, आउट-ऑफ़-डेट विआग्रा की दरकार क्यों हुई? इस कुश्ते का नुस्खा तो जरद्गव रज़ा फ़ाउंडेशन के खैराती शिफ़ाखाने में हकीममुसल्लस कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी, ओम थानवी से हासिल हो सकता था. मिल तो लें.
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प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी शक्तियाँ आज नहीं, पहले भी जनसमर्थन से राज कर चुकी हैं. हिंदी के क्या सभी बौद्धिक वर्ग समाज में हो रहे बदलावों से बेखबर रहे? 1947 के, और विशेषतः 1964 में नेहरू की मृत्यु के, बाद से हिंदी कविता जितनी जनोन्मुख और जन-जागरूक रही है – मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, धूमिल, चंद्रकांत देवताले, आलोकधन्वा, ज्ञानेन्द्रपति, कात्यायनी, नरेश सक्सेना, सुदीप बनर्जी, विनोदकुमार शुक्ल, ऋतुराज, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल से लेकर आज के अनेक युवतम कवि-कवयित्रियों ने भाड़ नहीं झोंके हैं – उतनी दक्षिण एशिया में तो कोई और रही ही नहीं और विश्व-मंच पर भी इतनी प्रतिबद्ध कविता बहुत कम दिखाई पड़ती हैं. उसकी समझ और पकड़ न संकीर्ण होती गईं न कमज़ोर. किसी बुनियाद को यदि उसने मज़बूत किया है तो किन्हीं जड़ों तक पहुँच कर. हिंदी कविता में यदि महानताएँ और आदर्श हैं तो उनके सारे स्मारक और प्रतीक जीवंत हैं. यदि डोमाजी उस्ताद का जुलूस बढ़ता गया है तो उसे सबसे पहले नंगा देखने और शनाख्त करने की सज़ा हिंदी में ही मिली है. यह कोई नहीं कह रहा है कि हिंदी कविता में सभी कुछ सार्थक, श्रेयस्कर और उत्कृष्ट हो रहा है – ऐसा किसी साहित्य में कभी नहीं होता – लेकिन यदि हमारा अनलिखा-लेखनायक अपनी तान – दम नहीं – ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने’, 'मठों और गढ़ों को तोड़ने’ और ‘अरुण कमल’ को खोजने पर तोड़ रहा है तो देखा जा सकता है कि अपनी हास्यास्पद, गड्डमड्ड, परस्पर-विरोधी, विश्वासघाती छद्म-प्रकान्डता और प्रयासित, असफल मूर्तिभंजन के अंत में वह ‘अँधेरे में’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के सामने ही साष्टांग मूर्च्छित है.
(बुद्धू-बक्सा पर आए अविनाश मिश्र के 'अंधेरे में' पर आलेख से निकला हस्तक्षेप का पक्ष पूरी तरह से अवशोषित न हो सका. उसी आलेख पर विष्णु खरे की पैनी नज़र बरपा हुई है. अविनाश के विरोधाभासों में सिमटे आलेख के बाबत विष्णु खरे के सवालात पर अमल करना नैतिक रूप से ज़रूरी है. इस आलेख के लिए बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे का आभारी.)