बुधवार, 28 जनवरी 2015

अवकाश की आकांक्षा में जटिलताएं - अविनाश मिश्र

[लिखने के और बयां करने के कई बहाने सम्भव हैं. उन बहानों में एक लम्बी उदासी चली आ रही है. समारोहों की रिपोर्टिंग हो या फ़िल्मों पर आलोचनात्मक लेखन, दोनों में ही युवा लेखक वर्ग का रवैया इतना पिट चुका और पुराना हो चुका होता है कि धुएं से भरे कमरे से बाहर आने की चाह हो उठती है. थोड़ी ख़ामोशी लेकिन वैचारिक जत्थे के साथ चलने वाले अविनाश मिश्र का जजमेंट देते हुए भी बात रखने का यह तरीका ज़्यादा साफ़ और थोड़ा कम गड्डमड्ड है. इसे जज़्ब करने और अपने वर्तमान के स्तर से साझा बैठाने में एक सहज प्रयास की आवश्यकता है, जो हर पाठक कर ही लेता है. सुन्दर लेखन और साफ़गोई से भरे अविनाश का बुद्धू-बक्सा आभारी.]

Caricaturists - Foot Soldiers of Democracy 

समापन उसे सुंदर नहीं लगते, लेकिन समापन प्रत्येक समारोह की नियति है। उसने कहा, ‘‘वांग कार वाय बेशक मास्टर हैं, लेकिन दि ग्रैंडमास्टरबेहतर फिल्म नहीं है। इसे देखकर इस सदी के संदर्भ में मेरा यह यकीन अब तथ्य में बदलता जा रहा है कि स्वीकार्यता के बाद सृजन में सुंदरता धीमे-धीमे कम होती जाती है। स्वीकृति सौंदर्य को नष्ट करती है और सृजन में सौंदर्य का तापमान किसी भी तकनीक से अनुकूलित नहीं किया जा सकता।’’

वह मुझे 45वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (इफ्फी) में मिला। वह केशव-सा लगा ‘एक साहित्यिक की डायरीसे निकलकर सीधे रेड-कॉर्पेट पर चलता हुआ। मैंने उसके साथ 11 दिन और 40 फिल्में गुजारीं। इस दरमियान मैंने पाया कि उसका आवास फैसला सुनाने की शीघ्रता में है और इस शीघ्रता में उसके संक्षिप्त विश्लेषण मुझे आकर्षित कर रहे हैं। 

पहला दिन 
दि ग्रैंडमास्टरसमारोह की क्लोजिंग फिल्म थी जिसे वह पहले ही देख चुका था। ओपनिंग फिल्म दि प्रेसिडेंटथी जिसे देखकर बाहर निकलते ही उसने कहा, ‘‘प्रोधान ने कहा था कि तानाशाहों के बाद मैंने शहीदों से ज्यादा घृणास्पद किसी और को नहीं देखा।’’ वह इस उद्धरण को प्रस्तुत फिल्म से कैसे जोड़ रहा था, मुझे समझ में नहीं आ रहा था। मोहसिन मखमलबाफ निर्देशित यह फिल्म एक तानाशाह के पतन की कहानी है। तानाशाहों के पतन के लिए हिंसा प्रायः अनिवार्य रही आई है। हिंसा और बहुत कुछ की तरह मासूमियत को भी खत्म करती है। यह फिल्म हिंसा को हिंसा से खत्म करने में यकीन नहीं रखती। यह चाहती है कि मासूमियत को हिंसा के शोर से बचा लिया जाए। हिंसा के प्रकटीकरण में भी यह फिल्म अपने सारे प्रतीकों और दृश्यों में हिंसा का प्रतिकार है। प्रोधान को उद्धृत करने के बाद उसने और कोई बात नहीं की, लेकिन प्रोधान के उद्धरण को वह प्रस्तुत फिल्म से...

दूसरा दिन
मोहसिन मखमलबाफ, क्रिस्ताफ किस्लोवस्की और दक्षिण कोरिया के फिल्मकार जिआन सू इल की फिल्में समारोह के रेट्रॉस्पेक्टिव सेक्शन में थीं। मखमलबाफ और किस्लोवस्की के सिनेमा से हम परिचित थे, इल की फिल्मों से परिचित होना था। उसने कहा, ‘‘अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में भारतीय फिल्मों को देखने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रहती। इसलिए मैं परेश मोकाशी की मराठी फिल्म एलिजाबेथ एकादशीजो इंडियन पैनोरमाकी ओपनिंग फिल्म थी, की जगह लतिन अमेरिकी निर्देशक पाब्लो सीजर की दि गॉड्स ऑफ वाटरऔर जीतू जोसेफ की मलयालम फिल्म दृश्यमकी जगह टर्की की फिल्म दि लैंबदेखूंगा।’’ 

जब 79 देशों की 178 फिल्मों में से अपने देखने लायक फिल्में चुननी हों तो स्नोवा बार्नो की एक कहानी का शीर्षक याद आता है, ‘मेरा अज्ञात तुम्हें बुलाता है।मैंने दि लैंबछोड़कर किस्लोवस्की की दि डबल लाइफ ऑफ वेरोनिकादेखी। किस्लोवस्की के सिनेमा को सिनेमाघर में देखने का मोह मैं संवरण नहीं कर पाया। फ्रेंच फिल्म पार्टी गर्लदेखकर जब हम कला अकादमी से बाहर निकले तो रात के 12 बजने ही वाले थे, उसने कहा, ‘‘फ़्रांस में बहुत खराब फिल्में बन रही हैं इन दिनों, सुबह थ्री हार्ट्सभी बकवास थी। खैर, ‘दि लैंबआउटस्टैंडिंग थी, तुम कहां गायब रहे?’’

तीसरा दिन
लिबास का जादूशीर्षक से अनिल यादव ने एक कहानी लिखी है। इस कहानी और गुलजार निर्देशित फिल्म लिबासमें कोई समानता नहीं है, लेकिन इस फिल्म और उसके बाद इस पर गुलजार की मौजूदगी में हुई चर्चा के बाद उसने कहा, ‘‘मुझे अनिल यादव याद आ रहे हैं।’’ 
मैंने पूछा ‘लिबास का जादूकी वजह से?’  
उसने कहा ‘लिबासके जादू की वजह से।

इंडियन पैनोरमा के रेट्रॉस्पेक्टिव सेक्शन में जहानु बरुआ और 2013 के दादा साहेब फाल्के अवार्ड से
लिबास

सम्मानित गुलजार की फिल्में प्रदर्शित जानी थीं। गुलजार की लिबाससे इस खंड की शुरुआत हुई। लिबाससार्वजनिक सिनेमाघरों में अब तक रिलीज नहीं हो पाई है। यह कभी दूरदर्शन या किसी अन्य चैनल पर प्रसारित भी नहीं हुई है, न ही इसकी कोई डीवीडी/सीडी बाजार में है और न ही इसे इंटरनेट की मदद से डाउनलोड किया जा सकता है। इस अर्थ में दुर्लभ इस फिल्म को खुद गुलजार ने 26 साल बाद देखा। स्क्रीनिंग के बाद चर्चा में उन्होंने कहा, ‘‘मैं चिंतित था कि कहीं यह फिल्म आउटडेटेड न लगे, लेकिन इसे देखकर लगा कि मानवीय संबंधों की जटिलताएं कभी पुरानी नहीं पड़तीं।’’ फिल्म के अब तक रिलीज न हो पाने का ठीकरा उन्होंने इसके प्रोड्यूसर के सिर फोड़ते हुए मजाहिया लहजे में कहा, ‘‘यह लिबासअब तक लांड्री में धुल रहा था और मैं इसलिए भी चिंतित था कि पता नहीं यह कितना साफ होगा।’’ इस मौके पर विशाल भारद्वाज और मेघना गुलजार भी मौजूद रहे। विवाह-संस्था को अपना विषय बनाने वाली इस फिल्म में शबाना आजमी, नसीरूद्दीन शाह और राज बब्बर की केंद्रीय भूमिकाओं के साथ-साथ उत्पल दत्त और अन्नू कपूर का अभिनय भी काबिले-गौर रहा। यह लिबासका जादू ही था कि दर्शकों ने इसे सीढ़ियों पर बैठकर और खड़े होकर भी देखा। समारोह में गुलजार निर्देशित आंधी’, ‘अंगूर’, ‘इजाजत’, ‘कोशिश’, ‘लेकिन’, ‘माचिसऔर मेरे अपनेभी पर्दे पर उतारी जानी थीं... इस पर उसने हंसकर कहा, ‘‘ये सब रिलीज हो चुकी हैं।’’   


चौथा दिन
विद दि गर्ल ऑफ ब्लैक सिओल’ ...जिआन सू इल के सिनेमा से यह परिचय की शुरुआत थी। मैंने इल की इस फिल्म पर उसकी राय जाननी चाही। वह बोला, ‘‘इस फिल्मकार की और फिल्में देखनी चाहिए, वैसे कल हमने एक बड़ी फिल्म छोड़ दी ‘लिटिल इंग्लैंड’’ 
मैंने कहा, ‘‘हम लिबासदेख रहे थे।’’              

पांचवां दिन 
कल हमने स्टेफेनी वोलाटो की डॉक्यूमेंट्री कार्टूनिस्ट्स : फुट सोल्जर्स ऑफ डेमोक्रेसीभी देखी। अंतरराष्ट्रीय पटल पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो हमले गए वक्त में हुए हैं, उन्हें यह डॉक्यूमेंट्री मशहूर कार्टूनिस्ट्स के बयानों के माध्यम से बयां करती है। कार्टून राज्य और सत्ता के लिए बौखलाहट और दहशत का सबब कैसे बन जाते हैं, यह इस डाॅक्यूमेंट्री की रफ्तार में पैवस्त कार्टूनों की व्यंग्य की पैनी धार और जोखिम उठाने की क्षमता देखकर ज्ञात होता है। उसने दोपहर में कहा, ‘‘सुबह देखी सर्बिया की फिल्म मोनुमेंट टू माइकल जैक्सनको कल देखी डॉक्यूमेंट्री की स्मृति में सोचना एक मुस्कुराते हुए शोक से भर जाना है अभिव्यक्ति, संस्कृति और इनकी सीमाओं के संदर्भ में।’’ 

रात के 12 बजते-बजते उसके शोक से मुस्कुराहट उतर चुकी थी। शोक अब बिलकुल एकाकी था। व्याकुलता ने हमें घेर लिया था। यह नर्गिस अब्यार निर्देशित ईरानी फिल्म ट्रैक 143’ का असर था। यह फिल्म युद्ध में सैनिक बन अदृश्य हो गए पुत्र के लिए एक मां की प्रतीक्षा का आख्यान है।      

छठवां दिन 
आई केम फ्रॉम बुसानदेखने के बाद उसने कहा कि वन ऑन वनदेखने के बाद इस पर बात करते हैं। ये दोनों ही फिल्में दक्षिण कोरिया की थीं। जिआन सू इल के सिनेमा से हमारा परिचय बिलकुल अभी का था और वन ऑन वनकिम की डुक की फिल्म थी जिनकी सारी फिल्में हम देख चुके थे। वन ऑन वनइफ्फी के मास्टरस्ट्रोक्समें थी। 
One on One - Kim Ki Duk

फेस्टिवल केलिडोस्कोपऔर मास्टरस्ट्रोक्सके अंतर्गत 2013-14 की अवधि में निर्मित संसार भर की कई शानदार फिल्मों का प्रदर्शन होना था। इनमें ज्यां लुक गोदार, क्रिस्ताफ जानुसी, किम की डुक, लार्स वान ट्रिएर, नाओमी कवास, पॉल कॉक्स, नूरी बिल्जे चेलान और रॉय एंडरसन जैसे नामचीन निर्देशकों की नवीनतम फिल्में शरीक थीं। 

वन ऑन वनमें किम की डुक हिंसा को परिकल्पित कर उसकी व्याख्या करते हैं। यहां प्रायश्चित को हिंसा से पराजित होते प्रस्तुत किया गया है। इस फिल्म में बहुत सारे प्रतिशोध और बहुत सारी हिंसा को देखते हुए लगता है कि कोई बगैर कहे हुए कह रहा है कि सुनो— क्षमा और अहिंसा बहुत महान मूल्य हैं।

सातवां दिन  
जिआन सू इल के सिनेमा पर हमारी बातचीत नहीं हो पा रही थी। सुबह टर्की की फिल्म सिवासऔर दोपहर रशियन फिल्म दि फूलदेख लेने से बहुत उम्दा वक्त गुजरा। सिवासमें एक 11 साल बच्चे और सिवास नाम के कुत्ते की और दि फूलएक प्लम्बर और एक गिरती हुई इमारत के बहाने एक गिरते हुए समाज की कहानी है। इन दोनों फिल्मों को एक साथ देखना मासूमियत को बदलते और ईमानदारी को मरते हुए देखना है उस समाज में जिसमें अब दरारें आ गई हैं और जिसे ढहने से अब कोई नहीं बचा सकता। दि फूलके बाद उसने कहा, ‘‘रघुवीर सहाय ने अपनी एक कविता में कहा है कि जब समाज टूट रहा होगा तो कुछ लोग उसे बचाने नहीं, उसमें अपना हिस्सा लेने आएंगे।’’   

आठवां दिन
रवि जाधव की नॉन फीचर फिल्म मित्राभी अपने विषय और प्रस्तुतिकरण के कारण चर्चा में रही थी, इसलिए इसकी रिपीट स्क्रीनिंग मैंने मिस नहीं की। मित्रामें विजय तेंदुलकर की कहानी को गुलजार की कविताओं के साथ बहुत खूबसूरती से पेश किया गया। फिल्म का समय 15 अगस्त 1947 के आस-पास का है और विषय है समलैंगिकता।

उसने मित्रानहीं देखी और कहा कि उसने ऐसा इसलिए क्योंकि वह जिआन सू इल के सिनेमा पर एक राय कायम करना चाहता था। उसने कहा, ‘‘इल की फिल्में अपने सादे कथ्य को बहुत धीमी गति में प्रस्तुत करती हैं। इन फिल्मों में कहीं-कहीं गति इस कदर ठहर जाती है मानो तस्वीर में बदल गई हो। बेरौनक वस्तुओं से यह फिल्मकार एक अद्वितीय सिनेमाई सौंदर्य गढ़ता है। भावनाएं इस सौंदर्य का आधार होती हैं और मानवीय संबंध इसकी सांस।’’

मैंने उससे कहा कि कल इल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि वह बॉलीवुड, अमिताभ बच्चन और रजनीकांत इनमें ये किसी को भी नहीं जानते। 
इस पर उसने कहा, ‘‘जिआन सू इल की तुलना मारिया शरापोवा से मत करना।’’

नौवां दिन
कल शाम हमने एक भयानक फिल्म देखी थी। जो शाम से साढ़े छह बजे शुरू होकर रात 12 बजे खत्म हुई। यह फिल्म थी लार्स वान ट्रिएर निर्देशित दो वाल्यूम में इन्फोमेनिक’ (NYMPHOMANIAC) करीब 30 प्रतिशत पोर्नोग्राफी वाली इस फिल्म में अगर दर्शक अंत तक न ऊबे तो वह जान पाएगा कि मनुष्य का मूल स्वभाव केवल हिप्पोक्रेसी है। फिल्म में खुद अपना गर्भपात करती असीमित और असाधारण यौनाकांक्षाओं वाली एक नायिका का बचपन, यौवन और अधेड़ावस्था है। संभोग के विभिन्न आयाम और निष्कर्ष हैं जो धोखों और संदेहों के बीच दंड और यातना की तरह आते हैं। यह फिल्म खत्म होने के बाद भी एक समय तक साथ रहती है। रात गए उसने कहा, ‘‘शायद यह इन्फोमेनिकका ही खुमार था कि आज हमें न गोदार की गुडबॉय टू लैंग्वेजसमझ में आई और न ही नूरी बिल्जे चेलान की विंटर स्लीप’ ...जटिलताओं को अवकाश न मिले तो वे और जटिल हो जाती हैं।’’ 

दसवां दिन
लगातार फिल्में देखते-देखते अब एक गंभीर ऊब मुझ पर सवार थी। क्या कर सकता था मैं इस ऊब का, इसे समुद्र के पास ले जाने के सिवाय। उसने कहा, ‘‘ऊब से घबराना नहीं चाहिए। बहुत सारे लोग केवल ऊब का अभिनय करते हैं, उसे महसूस नहीं करते। ईश्वर उनका निर्देशक होता है और वह उन्हें वहां ले जाता है, जहां ले जाना चाहता है। लेकिन जब कोई अभिनय नहीं सच के साथ जीता है और ऊबता है तो उसका कोई निर्देशक नहीं होता और वह पेड़ से पृथक पत्ते की तरह होता है। फ्रेंच फिल्मकार राबर्ट ब्रेसां ने भविष्य के निर्देशकों के लिए कहा था कि अपने अभिनेताओं का सही चुनाव करो ताकि वे तुम्हें वहां ले जाएं जहां तुम जाना चाहते हो।’’

उसे सुनकर मैं बेहतर महसूस कर रहा था। मैं उसके साथ-साथ STALWARTS OF INDIAN CINEMA से गुजरने लगा : 

शरीफा, हिमांशु रॉय, दिनशॉ बिलीमोरिया, जुबैदा, पंडित फिरोज दस्तूर, मोती बी गिडवानी, मोहाना, वी शांताराम, शक्ति सामंत, सरदार चंदुलाल शाह, सुलोचना, इजरा मीर, सुबोध मुखर्जी, शमशाद बेगम, वसंत देसाई, रवि, सितारा देवी, जिया सरहदी, स्नेहल भटकल, बी एन सरकार, पंकज मलिक, जे पी कौशिक, होमी वाडिया, मनमोहन सिंह, बाबूभाई मिस्त्री, अबरार अल्वी, दादा साहब फाल्के, आर्देशर ईरानी, नक्श लायलपुरी, महिपाल, देव कोहली, करुणेश ठाकुर, नबेंदु घोष, फियरलेस वाडिया, कल्याणी बाई, बाबूराव पेंटर, जे बी एच वाडिया, मंजू, नौशाद...      

ग्यारहवां दिन
इफ्फी में इस बार आठ श्रेणियों में पुरस्कार दिए गए। रजनीकांत को वर्ष के भारतीय सिने व्यक्तित्व शताब्दी सम्मान से महोत्सव के पहले दिन और वांग कार वाय को लाइफटाइम अचीवमेंट से आखिरी दिन नवाजा गया। Andrey Zvyagintsev  निर्देशित Leviathan को सर्वश्रेष्ठ फिल्म, The Kindergarten Teacher के लिए Nadav Lapid को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, Alexel Serbriakov (Leviathan) और Dulal Sarkar (Chotoder Chobi) को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, Alina Rodriguez (Behaviour)  और Sarit Larry (The Kindergarten Teacher)  को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, और श्रीहरि साठे की मराठी फिल्म एक हजाराची नोटको विशेष ज्यूरी सम्मान प्राप्त हुआ। 
***

...कल सुबह उससे मुलाकात नहीं होनी थी और रात जा रही थी। वह पेड़ से पृथक पत्ते की तरह लग रहा था जब मैंने उससे पूछा, ‘‘अब कब मुलाकात होगी?’’

उसने कहा, ‘‘शिशिर भादुड़ी ने कहा था कि एक्टर वह अच्छा होता है जो इंट्री नहीं एग्जिट बढ़िया लेता है। इसलिए जिगर का यह शेर सुनो :

पहले शराब जीस्त थी, अब जीस्त है शराब 
कोई पिला रहा है, पिए जा रहा हूं मैं’’    

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

अशोक वाजपेयी पर व्योमेश शुक्ल

अशोक वाजपेयी, १९५६
जीने की पद्धति
(अशोक वाजपेयी के आलोचक-व्यक्तित्व पर एक प्रतिक्रिया)

व्योमेश शुक्ल

एक
हिंदी साहित्य संसार कितना अशोक वाजपेयी है। यह व्याप्ति दूर तक जाती है और बहुत पास चली आती है। यह नियम है और नियम का अपवाद। यह कठिन की लोकप्रियता है और कभी धीमी न होने वाली सामयिकता। यह हिन्दी के संख्याबल का प्रतिपक्ष है। यह हमारी आदत है। यह कविता का तर्क और आलोचना की दख़लंदाज़ी है। यह उत्सवों का रतजगा है। यह कई बार चली आती बहसों का एजेंडा पलट देने की नैतिक और इंटेलेक्चुअल हैसियत है। यह न इधर है, न उधर; एक ‘खुला और ख़तरनाक़ बीच’ है।


दो
इधर हिंदी कविता में सर्वानुमति की गुंडई बहुत बढ़ी हुई है। तमाम शोरगुल और असहमति की सतह के नीचे वह इतनी सतर्क, गोपनीय, अंत:सलिल और उम्रदराज़ है कि अक्सर उसके शरीफ़ और वास्तव होने का भ्रम होता है। यही हिंदी की मुख्यधारा है। इस गुण्डई में अमरत्व और महानता के रजिस्टर्स खुले हुए हैं और ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ की तर्ज पर एक तरफ़ पूरे दृश्य को उसकी असह्य यथास्थिति के साथ आशीर्वादपूर्वक स्वीकार किया जा रहा है और दूसरी ओर, बदले में, स्वीकार करने वाला और अमर और महान हुआ जा रहा है। यहाँ अस्वीकार, जिज्ञासा, जाँच और विश्लेषण – यानी कुल मिलाकर आलोचना – को भूलने और उस वैचारिक समर को कमतर करने का काम अबाध चलता रहता है जो नये साहित्य की पहचान और प्रतिष्ठा के लिए लड़ा गया था और इन सब दि़क़्कतों के बावजूद लड़ा जाना है। हो सकता है कि यह अवमूल्यन कभी-कभी अनजाने हो जा रहा हो, लेकिन अनजाने किये गये गुनाह क्या गुनाह ही नहीं होते? इस गुण्डागर्दी का नाम है अजातशत्रुता। दृश्य में इस चीज़ का बड़ा दबदबा है और गुस्ताख़ी माफ़ हो — इसके दो संस्करण हैं — एक है ‘पडरौना’ संस्करण और दूसरा ‘कठोपनिषद्’ संस्करण। इन दोनों संस्करणों ने हिंदी की सजर्नात्मक आलोचना को, सीधे-सीधे कहें तो कवियों द्वारा लिखी जा रही आलोचना में जोख़िम न लेने, हाथ कटाने से बचने, उपलब्ध में 

‘सर्वाइव’ करने और आलोचना लिखकर ‘स्टैण्ड’ न लेने के फ़ायदे युवतम पीढ़ियों तक को सिखा दिये हैं। आजकल आख़िर और कैसे अमर हुआ जाता है?

तीन
ऐसे दृश्य में अशोक वाजपेयी ने महान या अमर होने की बजाय आलोचना का वरण किया है। ज़ाहिर है कि वह हमारे कहने से आलोचक नहीं हैं। रोलाँ बार्थ के शब्दों में, ‘आलोचक समाज द्वारा प्रदत्त कोई पद नहीं है, बल्कि एक ख़ास तरह से जीने की पद्धति है।’
लगभग पचास साल से इस ख़ास तरह से जीते हुए उन्होंने विश्लेषणविहीन सर्वानुमति के प्रतिपक्ष की वह जगह हासिल की है जहाँ वह हैं। यहाँ पहुँचना आसान नहीं रहा है। आलोचना निष्कवच और वेध्य होकर ही संभव है। वह एक ऐसा युद्ध है जिसमें दुश्मन की सरहद पर अकेले ही जाना होता है – आत्मरक्षा का कोई भी सामान लिये बग़ैर। 

चार
हमें यह मान लेना चाहिये कि जहाँ ‘सेल्फ डिफ़ेंस’ होगा, वहाँ और कुछ भले ही हो, आलोचना नहीं होगी। अशोक वाजपेयी ने आलोचना में कहीं भी अपनी कवि-दृष्टि को बचाने या बढ़ाने की ज़रा-सी भी कोशिश नहीं की है। यह बात उसे अनिवार्य बनाती है। यों, उनके बाद, मंगलेश डबराल को छोड़कर, आठवें दशक में दृश्य में आने वाले ज़्यादातर कवियों ने आलोचना के नाम पर जो लिखा है वह मुमकिन है कि एक ख़ास दौर में बड़ा झरनेदार रहा हो, यहाँ तक आते-आते मुरझा गया है। उसे पढ़कर ज़्यादा से ज़्यादा ख़ुद लेखक की कविता के बारे में कुछ जाना जा सकता है। उसकी सामाजिक उपयोगिता और उसका उत्तर जीवन – दोनों संदेहास्पद हैं; बल्कि थोड़ा निर्मम होकर कहा जाय तो आजकल यह लगने लगा है कि नवें दशक में आने वाले कवियों में से पंकज चतुर्वेदी को छोड़कर किसी का भी आलोचनात्मक गद्य न लिखना और आठवें दशक के कवियों का वैसा गद्य लिखना, दोनों एक ही बात है।

पाँच
कवि-दृष्टि, बल्कि कवि-व्यक्तित्व को आलोचना में घंघोल कर, हिलामिला कर, लगभग विलीन करते हुए अशोक वाजपेयी ने अपना आलोचक हासिल किया है। इसलिए भी उनकी आलोचना का ‘प्रोजेक्ट’ व्यापक और बहुस्तरीय है। उसने अनेक काम अपने हाथ में ले रखे हैं। वह कविता पर एकाग्र ज़रूर है लेकिन कवियों के मूल्यांकन तक सीमित नहीं है। ख़ुद लेखक के शब्दों में, ‘.....तब तक यह अहसास तीखा और गहरा होने लगा था कि हमारे समय की अच्छी कविता के लिए समझ और जगह की ज़रूरत है। यह भी मन में साफ़ था कि स्वयं कवि के कारण सिर्फ़ अपने ढंग की कविता के लिए ऐसा करना न तो काफ़ी होगा न ही कुल मिलाकर बहुत नैतिक। आलोचना एक व्यापक चेष्टा का हिस्सा बनी जिसमें संपादन और आयोजन भी शामिल थे।’


देवीशंकर अवस्थी और अशोक वाजपेयी

छह
इस बहुस्तरीयता और वैविध्य ने उनकी आलोचना को कुछ दिलचस्प अंतर्विरोध सौंपे हैं। अशोकजी के ही मुहावरे में कहें तो ‘मानवीय तात्कालिकता’। मिसाल के लिए, हिन्दी की जिस समकालीन कविता की स्मृतिहीनता, अबुद्धिवाद, पैगम्बराना और शहीदाना अंदाज़ की वह लगातार निंदा करते आये हैं, उसी कविता को हिंदीतर मंचों पर वह उपलब्धि की तरह अविचलित पेश करते हैं। कविता में जटिल और सूक्ष्म के प्रवक्ता को, उसी कविता की जाँच के लिए एक ऐसी भाषा खोजनी होती है जो बिलकुल बातचीत के शब्दों में विन्यस्त हो। कथ्य और शिल्प, प्रगति और प्रयोग, लघु और गुरु, हाइकू और महाकाव्य, गद्य और पद्य के प्रचलित द्वैतों का अतिक्रमण करती उनकी आलोचना कई बार ऐन्द्रियता और विचारशीलता की अलग-अलग कसौटियों पर विभाजित करके कविता का मूल्यांकन करती रही है। इस आलोचना की शक्ति और सौन्दर्य इन अंतर्विरोधों में तो है ही, इस बात में भी है कि इन्हें कृत्रिम तरीक़े से ढँकने और अनर्जित नैतिक ऊँचाई से कुछ कहकर ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने की कोई कोशिश उनके यहाँ नहीं है।

सात
अशोक वाजपेयी की आलोचना की जीवंतता का सबब इस बात में भी है कि वह अपने समय के वैचारिक संघर्षों का आभ्यंतरीकरण करके संभव हुई है। वह हमेशा एक समवेत प्रतिफल है। दरअसल सातवें दशक के आसपास शुरू होने वाली नए साहित्य की आलोचना  — जिसे अशोक वाजपेयी और उनके हमक़दम आलोचकों ने मिलकर बनाया था — अपनी बुनियाद में ही इतनी युयुत्सु और संवादपरक थी कि वह अकेले और शांतिपूर्वक लिखी ही नहीं जा सकती थी। उस समय हिन्दी का साहित्यिक प्रतिष्ठान, आज की ही तरह, विश्वविद्यालय थे, जो अपनी अभिरुचि, मूल्यदृष्टि और लेखन में ‘नए’ को लेकर असहिष्णु और हमलावर थे। इसी स्थापित व्यवस्था के ख़िलाफ़ लगातार लड़ते हुए अशोक वाजपेयी के गद्य ने वह चमक, उत्तेजना, सार, क्षिप्रता और लोकप्रियता हासिल की है जो आज हमारी आलोचना की बेहद ख़ूबसूरत और यादगार उपलब्धि है और आने वाले आलोचकों का उत्तराधिकार। 

आठ
अपने वक़्त के वैचारिक समर को आयत्त किये बग़ैर किसी कविता या कवि-विशेष पर सुन्दर, सुगंधित, प्रभावाभिव्यंजक और काव्यात्मक-सा कुछ तो लिखा जा सकता है, परिदृश्य का, दृश्य के द्वंद्वों, वैभिन्य, अलगाव और प्रतिवादों का, दृश्य की तब्दीली का, समयांतर का विश्लेषण नहीं किया जा सकता। यहाँ तक आते-आते शानदार लोग भी फिसड्डी हो जाते हैं। मेरा ख़याल है कि पूरे दौर को हिसाब में लेने वाली किताब के बिना आलोचक का काम माया है। दि़क़्कत यह है कि ऐसी आलोचना-पुस्तकों का हिन्दी साहित्य संसार में अभाव है — कुल जमा तीन किताबें हैं। पहली, नामवर सिंह की ‘कविता के नये प्रतिमान’, दूसरी, अशोक वाजपेयी की ‘फ़िलहाल’ और तीसरी, मदन सोनी की ‘कविता का व्योम और व्योम की कविता’। चूँकि नवें दशक के कवियों और कविता की सैद्धांतिकी वाला पंकज चतुर्वेदी का कामकाज अब तक पुस्तकाकार नहीं आया है इसलिए उन्हें ‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ दिया जा सकता है। 

नौ
बात फिर से शुरूआत की ओर मुड़ने वाली है यानी सर्वानुमति की ओर। सर्वानुमति एक तरह की सत्ता है और सच्ची आलोचना का सबसे बड़ा मक़सद हर तरह की सत्ता-संरचना को ढहाना है। सर्वानुमति से टकराने की आत्मशक्ति, अध्यवसाय और औद्धत्य जब क्षीण हो जाता है तो बतौर आलोचक आप निर्भीक सामान्यीकरणों में जाने से बचते हैं। आप पूरे दृश्य का हिसाब लेने का जोख़िम उठाने से कतराने लगते हैं। अलग-अलग कवि या कविता-केंद्रित निबंधों के ज़रिये आप कवि और कविता से अपना प्यार तो ज़ाहिर करते हैं लेकिन अपनी नफ़रतें, अपनी निराशाएँ छिपा ले जाते हैं। 
अज्ञेय और अशोक वाजपेयी

दस
इसी संकोच या चालाकी के कारण दृश्य मे अच्छे और बुरे, साधारण और असाधारण का भयंकर अप्रत्याशित घालमेल हो गया है। आज की तारीख़ में कविता लिखने वाला हर अच्छा कवि इसी अर्थ में अभागा है — उसे समकक्ष आलोचनात्मक पर्यावरण नहीं मिल रहा है — उसे दृश्य में ‘लोकेट’ नहीं किया जा सका है। एक चमकीले और संदिग्ध मुहावरे में कहें तो वह कवि ‘आधा है और आधा नहीं है।’ अशोक वाजपेयी में यह संकोच या चालाकी या भय कभी नहीं रहा। बतौर आलोचक, वह अपनी नफ़रतें और निराशाएँ छिपा न सके। इस ईमान ने उनकी आलोचना का तापमान बढ़ा दिया और वह बहुत ख़तरनाक जगह हो गयी। यहाँ से देखने पर जो चीज़ें बहुत शाश्वत लगती हैं, अपने समय में वह भी घटित हुई होंगी। मेरे लिए यह बेहद रोमांचक, हर बार लगभग डरा देने वाला अनुभव है कि ‘बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाये’ शीर्षक निबन्ध लिखने वाले आलोचक की उम्र महज़ अट्ठाइस साल थी। यों ही, अनुत्तेजित और पीड़ा रहित निजी संसार के कवियों का रास्ता उन्होंने तभी, ‘फ़िलहाल’ के दिनों में ही, दो पृष्ठों के मूल्यांकन से हमेशा के लिए रोक दिया था।

ग्यारह
एजाज़ अहमद ने एक जगह पर लिखा है कि जब आप असहमतों को किसी भी बिन्दु पर सहमत कर लेते हैं तो तत्क्षण वह आडिएंस एक ऐसी नयी आडिएंस में रूपांतरित हो जाती है, जिसका अस्तित्व उस क्षण के पहले तक नहीं था। इसी जगह से परिवेश और मूल्यों का आरंभ होता है। अभाग्यवश अब हिन्दी में यह परम्परा रही नहीं। ज़्यादातर लोग सहमतों को ही सहमत करने के हीनतर काम में मुब्तिला हैं और असहमतियां खीझों और वर्चुअल संसार में अहर्निश बरसती गालियों में ‘रेड्यूस’ हो गयी हैं। अशोक वाजपेयी की आलोचना ने असहमतों को कभी भी अलक्षित नहीं किया है — वह न तो असहमतों से ‘आब्सेस्ड’ रही है कि सिर्फ़ उन्हीं को पुकारती रह जाय और न ही उसने उन्हें नज़रंदाज़ किया।

[इस आलेख को लिखे एक लंबा अरसा बीत चुका है. समय में काफ़ी बदलाव इस दौरान हुए हैं. तथ्य और कथ्य में मुक़म्मिल फ़ेरबदल हुए हैं. पाठकों से इतनी आशा रखना गलत नहीं है कि इस लेख के लिखे जाने और इसके यहां छपे जाने के बीच कोई साहित्येत्तर वजह नहीं ढूंढेंगे. आलोचनात्मक हस्तक्षेप का हमेशा स्वागत है, रहेगा. बुद्धू-बक्सा व्योमेश शुक्ल और अशोक वाजपेयी का आभारी.]