सोमवार, 6 अप्रैल 2015

आशुतोष भारद्वाज की डायरी

[सवाल बस इतना-सा ही है कि क्या कहा जाए इस डायरी के लिए? प्रश्न थे कि क्या इसे यहां इतना व्यापक होना चाहिए था? 'इंटरनेट पर लोग पढ़ेंगे?' के सवाल से जूझते हुए लगा कि क्यों नहीं पढ़ेंगे भला? इसे पढ़ना ही चाहिए. यह बस एक गुज़रता हुआ रोज़नामचा नहीं है, यह एक बड़े वक्फ़े का कम जर्नलिस्टिक और ज़्यादा पर्सनल लेखा-जोखा है. डायरी एक पुराना माध्यम है जो कई-कई तरीकों से दर्ज़ होती रही है लेकिन इसे ज़्यादा चश्मदीद ढंग से हम सभी के सामने रख पाने में एक-दो लोग ही सफल हो सके हैं, आशुतोष भारद्वाज उनमें से एक हैं. बुद्धू-बक्सा पर आशुतोष का स्वागत.]




दिल्ली की एक अवैध बस्ती में एक दुकान की छत पर एक छोटा सा सील भरा कमरा. सर्द सुबह सात फरवरी दो हजार पंद्रह की, सूरज शायद थोडा मेहरबान हो जाए. मेरी छत के पीछे स्कूल में लम्बी लाइनें लगने लगी हैं. उन चेहरों को पहचानने की कोशिश करता हूँ, शायद पिछले इक्कीस दिनों में किसी को देखा हो. एक डेयरीवाले ने मथुरा से अपने पूरे परिवार को बुला लिया है, वह नहीं चाहता उसके कुनबे का एक वोट भी खाली जाये. सारी दुकाने आज बंद हैं.

बूथ पर जुटती भीड़ के चेहरों और हुलिए को देख उनकी पसंद भांपने का प्रयास करता हूँ. कम्बल में लिपटी यह बूढी, लगभग कुबड़ी औरत शायद उसी को वोट देगी. यह भरा पूरा परिवार शायद दूसरी तरफ जायेगा. अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं - मैं किसे वोट दूंगा. मैं कभी जवाब नहीं देता. रिपोर्टर को अपनी राजनैतिक पसंद उजागर नहीं करनी चाहिए. मेरे साथ लेकिन एक चीज और है - मैं वोट दे ही नहीं सकता. मैं अपनी पसंद बटन दबा व्यक्त नहीं कर सकता. मैं सिर्फ गुजरते दृश्य को देखता हूँ, अपने अखबार के लिए दर्ज करता हूँ. दिल्ली का यह चुनाव जिसे वर्तनाम भारत के दो शायद सबसे प्रभावशाली राजनेताओं का निजी संघर्ष कहा जा रहा है, जिसे रिपोर्ट करने के लिए मेरे अखबार ने दिल्ली में हमारी पूरी टीम होने के बावजूद मुझे बारह सौ किलोमीटर दूर से यहाँ बुला लिया है, इस विराट राजनीति के समर में मैं भागीदार नहीं हूँ. अगर रिपोर्टिंग को भागीदारिता कहा जाये तो शायद हूँ. शायद नहीं.  

पिछले तेरह महीनों में बतौर रिपोर्टर यह मेरा चौथा चुनाव है. बस्तर, बनारस, आगरा, आजमगढ़, दिल्ली - अनेक जगहों पर गया हूँ. साल का लगभग हरेक मौसम चुनाव रिपोर्टिंग करते बिताया है, ढेर सारा लिखा है, बगैर गीली स्याही अपने दायें हाथ की तर्जनी पर महसूस किये. ऐसा नहीं है कि सभी पत्रकारों के साथ ऐसा हो. दिल्ली के मेरे सभी साथी इस वक्त लाइन में लगे होंगे, पिछले तेरह महीनों में तीसरी बार. सैनिक भी पोस्टल वोट का इस्तेमाल करते हैं. मेरे लिए वह भी नहीं. क्या मैं हीनतर नागरिक हूँ?
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हर सौ मीटर पर खाकीधारी तैनात. ऑटोमैटिक राइफल लिए खड़ा वो वर्दीवाला शायद राजस्थान का होगा. कल शाम यहाँ तैनाती हुई होगी. एक छोटा परिवार आ रहा है. पिता, और माँ की ऊँगली थामे बच्चा. वह शायद जींस सिलने के कारखाने में काम करता है, वह अलकनंदा के किसी घर में. उन्होंने वोट डालने के लिए आज छुट्टी ली हुई है. उसने उसे रात भर समझाया होगा कि किसे वोट डालना है, लेकिन वह नहीं मानेगी. उसकी अपनी पसंद है. दो लड़के, शायद पिछले महीने ही अठारह के हुए होंगे, बाइक पर आ रहे हैं. पिछली सीट पर बैठा संजू स्याही लगी अपनी तर्जनी को उठा फ़ोन सामने ला सेल्फी लेता है. इस तस्वीर को वह अब एक लड़की, नीलू, को भेजेगा जो अभी वोट की उम्र से थोडा पीछे है. उसे जलन होगी. 
  
दस का समय हुआ अब. मेरे कमरे में अभी भी सीलापन है, बाहर सूरज फूट रहा है. मुझे इस वक्त सड़क पर होना चाहिए था, लोगों से पूछता उनकी पसंद. लेकिन आज, यहाँ अपने आखिरी दिन, मैं इस कमरे को नहीं छोड़ना चाहता. बिना स्याही की मेरी तर्जनी को यह दिन अपने में ही बिताना चाहिए - नोट्स ऑफ़ एन इंकलैस फिंगर.
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छः घंटे और यहाँ. दिल्ली की यह सर्दियाँ पिछले तीन दशकों में सबसे क्रूर थीं. मेरे कमरे की खिडकियों और रोशनदान पर मेरे अखबार के पन्ने बतौर कांच फडफडाते थे. संगम विहार में रहने आया था कि अर्बन स्लम्स पर मेरी चुनाव रिपोर्टिंग कहीं अधिक 'प्रामाणिक दिखे'. तीन में से पहला हफ्ता बिना टोंटी, बिना बल्ब और बिना छत के बाथरूम से याराना बनाने में, रहने भर की चीजें मसलन रूम हीटर, केतली, गद्दा, कुर्सी, मेज इत्यादि जुगाड़ने में खर्च हुआ. मकान मालिक की चेतावनी अलग कि यहाँ पानी नहीं आता, इतनी बाल्टी से अधिक खर्च किया तो फिर मुझे खुद ही पानी के टैंकर की व्यवस्था करनी होगी. मेरी हर रिपोर्ट के साथ लोगो जाता था - इंडियन एक्सप्रेस रिपोर्टर मूव्स इनटू एशिया’ज लार्जेस्ट अनओथोराईज्ड कोलोनी टू लिव देयर एंड ट्रैक द बैटिल फॉर द कैपिटल. फ्रॉम अ रूम ऑन टॉप ऑफ़ अ गारमेंट शॉप. साथी कहते थे यह अवार्ड विनिंग इलेक्शन रिपोर्टिंग है. लेकिन इक्कीस दिन यहाँ बिताने के बाद मुझे अभी भी नहीं मालूम कि आईफोन के टोर्च की रौशनी में नित्य कर्म करने ने क्या मेरी रिपोर्टिंग को अधिक प्रामाणिक बनाया.

अगर मैं साउथ एक्स या सुन्दर नगर में रहा होता तो क्या कुछ और लिखता? क्या यहाँ रहना सिर्फ एक स्टंट था? पत्रकारीय ड्रामा?
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बनारस में मुझे अक्सर एक दुकान दिखलाई देती थी जो यहाँ संगम विहार में भी दिखती है. मुर्दों को जलाने का सामान यहाँ मिलता है. उपले, लकड़ियाँ, गाय का घी (यह शायद गाय का नहीं होता होगा, मिलावट जरुर होगी इसमें. मुर्दे के पास कोई जरिया नहीं पहचानने का कि यह असली है या नहीं. अगर वह परख भी ले तो शायद किसी को बताने के काबिल नहीं. ऐसा तो शायद नहीं होता होगा कि कोई अपने मृत पिता की देह इस घी से भिगोने से पहले इसे चखे कि शुद्ध गाय का ही है. शायद कोई सच्चा पितृ-भक्त ऐसा करता भी होगा.) मेरी अक्सर इच्छा होती है दुकानदार से पूछूँ उसके ग्राहक सामान कैसे मांगते हैं. क्या कोई मानक निर्धारित है? मसलन पंद्रह किलो लकड़ी, चार किलो घी, पांच किलो उपले. या यह मुर्दे के आकारानुसार बदलता है. हो सकता है अगर कोई व्यक्ति बहुत मोटा हो तो उसके रिश्तेदार पच्चीस या तीस किलो लकड़ी मांगते हों. कैसे मांगते होंगे? चालीस किलो लकड़ी कहते में उनके चेहरे पर थोड़ी शर्मिंदगी आ जाती होगी कि उनका आदमी इतना खाया-पीया था. बहुत मरियल इंसान का पांच-छः किलो लकड़ी में ही हो जाता होगा. उसके रिश्तेदारों को शायद अधिक ग्लानि होती होगी मांगने में. दुकानदार भी घूर कर, संदेह से देखता होगा कि इन बेदर्द लोगों ने अपने आदमी को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया.  
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सिर्फ तीन घंटे और इस कमरे में. निशाँ जो मैं छोड़े जा रहा हूँ - एक लीटर वाली बियालिस बोतलें. तीन दो लीटर वाली. कुछ पोलीथिन. मेरे अख़बार की कुछ प्रतियाँ. कल रात मैं देर तक संगम विहार की गलियों में घूमता रहा. एक दिन पुराना चाँद कीचड़ में टिमक रहा था. मुझे इसकी कौंध सहसा असहनीय लगी. शायद वही लम्हा था जब एक महीन अवसाद मुझे जकड़ने लगा. मैं अपने इस बस्ती में रहने के निर्णय पर लगातार खुद को कोसता आया हूँ. घनघोर ठण्ड, भूख, कीचड़, दुर्गन्ध के पहाड़ या किसी अन्य भौतिक कठिनाई से मुझे परहेज नहीं, लेकिन अभाव में रहने के इस स्वांग से बतौर मनुष्य भले मेरी डायरी समृद्ध हुई, बतौर रिपोर्टर क्या?

यह निरंतर चलने वाला आक्रोश कि बतौर रिपोर्टर मैं अपने पाठक के साथ फरेब कर रहा हूँ अचानक कीचड़ में चाँद के इस टुकड़े को देख घुलने लगा. मुझे कचड़े का वह तिमंजिली गोदाम याद आया जहाँ नादिया के तीन बंगाली परिवार रहते हैं. वह लड़की जो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ती है, यहाँ पानी के लिए रोज पड़ोसियों से लड़ाई लडती है. अलीगढ का इकराम साईकिल पर गलियों में घूमता है औरतों से उनके बाल लेता है, औरतें कंघी करते वक्त झड़े अपने गुच्छे संभाल कर रखती हैं, बाल के वजन बराबर जीरा इकराम उन्हें देता है, बाल इस गोदाम में ला बेचता है. औरतों के बाल बहुत महंगे बिकते हैं. १८०० रुपये किलो. इकराम पांच बरस पहले यहाँ आया था क्योकि उसके घर में कोई काम नहीं था, यहाँ आ हर महीने ५००० घर के लिए भी बचा लेता है. कचड़े के ढेर में बंगाली परिवारों के बच्चे खेलते हैं. कैथरीन बू की बिहाइंड द बियुटिफुल फॉरएवर.

कल रात मुझे संगम विहार के सभी अफसाने याद आये और मैंने अपने कमरे को पहली मर्तबा पुकारा - मेरा घर.   
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“एक इन्सान किसी चीज में उस्तादी नहीं हासिल कर सकता जब तक उसने उसमें नपुंसकता का अनुभव न किया हो; और अगर आप सहमत हों, तो आप जानेंगे कि यह नपुंसकता किसी विषय के न तो आरंभ में प्रकट होती है न ही उससे जूझने से पहले, वह उसके बीच ह्रदय में रहती है.” वाल्टर बेंजामिन, अ बर्लिन क्रोनिकल.
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वे इसे ग्रीनफील्ड बोलते हैं. उन्हें नहीं मालूम क्यों. संगम विहार की भिनकती बस्ती के पीछे पसरे एक विशाल जंगल में सैकड़ों कब्र बिखरी हैं जिन पर वे क्रिकेट खेलते हैं. “अर्थियां,” बिक्की सिंह इन्हें कहता है. मौत की चारपाई. बिक्की मिटटी में एक उभरे हुए छोटे से पठार को इंगित करता है. छोटे छोटे पत्थरों से घिरी मिटटी. “पैप्सी.” वह झुककर पत्थरों को संभालता है कि पैप्सी चैन से सोता रहे. कई सर्दियाँ पहले पैप्सी उन्हें इन्हीं कब्रों के बीच कुडकुडाता मिला था. पैप्सी, बिक्की की सत्रह वर्षीय पुतलियाँ चमकने लगती हैं, ठेके की दुकान से संतरे की बोतल अपनी पीठ पर ले आता था. पूरी गुप्ता कॉलोनी में पैप्सी सबका लाडला था. पैप्सी से थोड़ी ही दूर कुछ बच्चे सोये हैं. बच्चों और पिल्लों की कब्र साथ ही हैं. 
  
यह फरवरी की एक शाम है, पिछले तीन दिनों में मैं इस जंगल में पांचवी बार आ रहा हूँ जिसे कागजों में असोला वन्य अभ्यारण्य कहा जाता है. नील गाय के सिवाय मुझे कोई जानवर नहीं दिखाई दिया. पैप्सी के करीब बिक्की के बड़े भाई बहिन सोये हैं. बिक्की को ठीक जगह नहीं मालूम. वह अपनी माँ से कैसे पूछता कि उसके भाई और बहिन की अर्थी कहाँ है. हो सकता है क्रिकेट खेलते में बौल उनके ऊपर चली चली जाती होगी और बिक्की अक्सर अपने भाई पर पैर रख बौल उठाने जाता होगा. यह भी असंभव नहीं कि डीप फाइन लेग जहाँ बिक्की अक्सर खड़ा होता है, उसकी बहिन के ठीक ऊपर हो. उसे नहीं मालूम. उसे यह जंगल एक अंतहीन भूलभुलैया लगता है. संगम विहार में कोई भी इसकी मिटटी को अब तक समूचा नहीं खूंद पाया.

एक सभ्यता शायद मुर्दों के साथ अपने सम्बन्ध के आईने में प्रतिबिंबित होती है. क्या वे मर चुके हैं, हमेशा को; क्या वे कभी कभार या अक्सर मिलने आते रहते हैं; या वे जीवित के पहले और आखिरी सहयात्री हैं, हमेशा साथ रहते हैं, किसी अमर प्रेम के साथी.

बनारस में फिनलैंड से आई एक लड़की ने मृतक के साथ किसी सभ्यता का ऐसा ही सम्बन्ध महसूस किया था. मणिकर्णिका की लपट कभी बुझती नहीं थी. एक सनातन शमसान, जिसमें मृतक के आहार को लकड़ियाँ हमेशा कम पड़ जाती थीं, पूरा शहर मृतक के इस भोज का उत्सव मनाता था. लकड़ियाँ पिघल जाती थीं, उपले बुझ जाते थे लेकिन विकट-क्षुधा मृतक शांत नहीं होता था. “तुम हिन्दुस्तानी विचित्र हो. अपने प्रियजनों को अपने सामने जलता हुआ देखते हो. यूरोप में मृत्यु एक वर्जना है. लोग इसे छुपाते हैं, आसानी से स्वीकारते नहीं, काले ताबूत में कैद कर चुपके से ले जा दूर दफना देते हैं,” जूडिथ मेई बोली थी. 

मैं अपने मृतक किस तरह अपनी काया पर सहेजता हूँ? क्या कोई मुझे देख कर बतला पायेगा कितने मुर्दे मेरी सांस के कतरों से प्राणवायु हासिल करते हैं?
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पिछले तीन सालों में किस्म किस्म के मृतक मैंने इकट्ठे किये हैं. I am diagnosed to be diseased with the deceased. मेरे अभिन्न सहचर, वे मेरे जीवन के माइलस्टोन हैं. बस्तर से शायद मैंने डेढ़ दो सौ मृत्यु दर्ज की होंगी. बच्चियां, गर्भवती महिलाएं, खाकीधारी, टांगों के बीच लगी गोली से ख़त्म हुई लड़की. एक दिन शायद किसी अनजाने प्रदेश में डैथ रिपोर्टर से यह सभी मिलने आयेंगे. एक लड़का सर के पीछे लगी उस गोली को दिखायेगा जिस पर मेरा ध्यान नहीं गया था. एक बुआ दौड़ी आएगी कि मैंने यह तो लिखा कि उसका पंद्रह साल का भतीजा नक्सली नहीं था लेकिन यह भूल गया कि उसकी देह पर खंजर के एक नहीं दो निशान थे.

तीस जून दो हजार बारह की दोपहर. मैंने पहली बार एक साथ पंद्रह लाश देखी थीं, बस्तर के एक सुदूर जंगल के बीच बसे गाँव सारकेगुड़ा में. उनका क़त्ल हुए छत्तीस घंटे से अधिक हो चुके थे. उन्हें नक्सली कह मार डाला गया था. पुलिस के अनुसार छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा एनकाऊंटर. उन्हें जलाये जाने से पहले मैं उनके गाँव पहुँच गया था. शरीर सूख कर अकड़ चुके थे. यह एनकाऊंटर नहीं था. कई शरीरों में खंजर के साफ़ निशाँ थे, यानी एकदम करीब आ उन्हें गोदा गया था. उनके रिश्तेदार चीख कर मुझसे बोलते थे, अपने मुर्दों पर पड़े कफ़न उघाड़ एकदम नंगी देह मुझे दिखाते थे कि मैं सबूत बतौर यह तस्वीरें ले लूँ कि उन्हें गोली से नहीं मारा गया था. यह एनकाऊंटर नहीं था. बेरहम क़त्ल था. मैंने एक के बाद एक लगातार खबर की थीं कि तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री जिसे कुख्यात नक्सली बता रहे थे वो दरअसल एक पंद्रह साल का बच्चा था, थाने से सटे होस्टल में रहता था. लेकिन चूँकि उस दोपहर मैं उस बच्चे की तस्वीरें नहीं ले पाया था, सीआरपीएफ ने बगैर सबूत के मेरी खबर मानने से इनकार कर दिया था, मुझे अपनी निगाह साबित करने की चुनौती देते हुए कहा था कि उन्होंने सारे शवों का पोस्टमार्टम करवाया था, उस पोस्टमार्टम की वीडियोग्राफी भी हुई थी, जिसमें किसी भी शरीर पर खंजर का कोई निशान नहीं था. सभी लोग गोली से ही मरे थे. मैंने तीन दिन के भीतर उस पोस्टमार्टम का वीडियो हासिल कर लिया था. देश के सबसे बड़े अर्धसैनिक बल का सेनापति साफ़ झूठ बोला था, वीडियो में दिखती देह चाक़ू के निशाँ से बिंधी हुईं थीं. 

दो साल बाद, जुलाई दो हजार चौदह इस मामले की तफ्तीश कर रहे हाई कोर्ट जज के सामने अपने बयान में तस्वीर न ले पाने की वजह बतलाई थी - इतनी सारी लाश देख मैं घबरा गया. मुझे यह अमानवीय लगा कि मैं उन मृत बच्चों की (एक बारह साल की बच्ची भी थी) नंगी तस्वीर अपने कैमरे और लैपटॉप में कैद कर सिर्फ इसलिए रख लूँ कि मुझे सबूत मिल जायेगा, मेरी खबर कहीं अधिक प्रामाणिक हो जाएगी.

पुलिस का वकील बोलता था कि वो कैसे मानें कि मैंने वाकई खंजर के निशाँ देखे थे. आप न यकीन करें, मेरे पाठक को मेरी निगाह पर पूरा भरोसा है.

वो पहला वाकया था. उसके बाद कथित मानवता के तथाकथित प्रश्नों ने मुझे कभी नहीं छुआ. मैंने बेधड़क तस्वीरें लीं मृत देहों की. मैं डिस्ग्रेस के नायक की तरह होता गया जो पहली बार पशुओं को मारने में मदद करते वक्त हिचकता है, लेकिन धीरे धीरे मौत का आदी होता जाता है. उन्हें आराम से पोटली में बाँध सुपुर्दे-ख़ाक करने ले जाता है.
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पत्रकारिता ने लगभग अदृश्य लेकिन बहुत गहराई से मेरी बुनियाद को ध्वस्त किया है. मेरे संपादक मुझे भले “रिपोर्टर बाई इंस्टिंक्ट” मानें, मुझे मालूम है मैं किस कदर नष्ट और भ्रष्ट हुआ हूँ. मैं एक बदहवास सी हड़बड़ी में जीने लगा हूँ. इर्द गिर्द घटित होती किसी भी चीज से मुझे डर बना रहता है कि कहीं इसमें कोई न्यूज तो नहीं, क्या मैं इस न्यूज को मिस तो नहीं कर रहा. उस अनुभव को जीने के बजाय मैं उसके पीछे एक खोजी पशु की तरह भागने लगता हूँ कि उसकी जड़ टटोल लूँ, कोई सुराग-सबूत, कोई ख़ुफ़िया काग़ज खोज निकालूं. 
   
इन्द्रियों की इस अति-जागृति से एक विचित्र किस्म का भय उपजता है जो निरंतर मेरी काया पर रिसता रहता है. पिछले चार सालों में मेरे पास विलक्षण अनुभवों का अम्बार जमा हुआ है, उन जगहों पर जा पाया हूँ जहाँ बगैर रिपोर्टर हुए कभी संभव नहीं था. नक्सलियों के साथ हफ़्तों रहा हूँ, गाज़ीपुर के डॉन अंसारी भाइयों के घर में रात बितायी है, सीआरपीएफ के कैम्पों में सोया हूँ, लेकिन इन अनुभूतियों को सहेजने, परखने का समय जरा भी नहीं. एक खबर से दूसरी, फिर तीसरी, चौथी. उस इंसान की तरह जिसके जीवन में लड़कियां एक के बाद एक आती हैं, कई बार कई कई एक साथ, वह उनमें अपने समूचे अस्तित्व को डुबो देना चाहता है, लेकिन प्रेम के लिए फुरसत उसके पास नहीं. वह अभिशप्त है कि उसके लिए उनकी सिर्फ देह मुक़र्रर है.

हर चीज मुझे अब ‘ख़बर’ नजर आती है, किसी भी चीज पर मेरी पहली दृष्टि अब एक ख़बरनवीस की होती है. पिछले वर्षों के मेरे लगभग सभी मानवीय सम्बन्ध खबर की कूची से रंगे हैं. किसी के साथ डिनर पर भी जाओ तो ख्याल यही रहता है इससे क्या खबर निकलवाई जा सकती है - हैडलाइन क्या मिली? वह व्यापारी जो ताजमहल देखने गया तो पहला ख्याल यही आया इसे कैसे बेचा जाए.

ऐसा कहानी के दौरान भी अनुभव हुआ है, हर कोई कहानी का किरदार लगा करता था. लेकिन वह कहीं ठहरी और गहरी प्रक्रिया थी. अपने जीवन में आये मनुष्यों को किरदार बतौर बरतते हुए प्रयास उनके भीतर उतरने का, उनसे एक आंतरिक संवाद का होता था. बतौर रिपोर्टर इतना समय नहीं मेरे पास. अंग्रेजी में शायद इसीलिए रिपोर्टर के दोस्तों के लिए बड़ा उपयुक्त लेकिन त्रासद शब्द है - ‘सोर्स’. सोचकर कितना भयावह लगता है कि इस खुबसूरत दुनिया का अधिकांश हिस्सा मेरे लिए महज एक ‘सोर्स’ है, अपने टुच्चेपन का पुख्ता एहसास भी होता है.
    
रिपोर्टर और उपन्यासकार में शायद यही बुनियादी फर्क है. एक के हिस्से कोरा शरीर आता है, दूसरा रूह का शैदाई है. क्या कोई तरीका है कि मैं बगैर देह छोड़े रूह को भी साध लूँ?
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बनारस आने से पहले मैंने सिर्फ सुना था मणिकर्णिका के बारे में. मगध में उल्लेख भी है लेकिन इस वक्त इसका होश नहीं. नौ मई दो हजार चौदह की इस गर्म और बदहवास शाम हम खो चुके हैं. अस्सी घाट के पीछे जाती यह सड़क लाऊडस्पीकरों से गूंज रही है. मुझे नहीं मालूम अगला कदम कहाँ रखूं. इस बीहड़ भीड़ में दिल्ली से आये मेरे साथी मुझे नहीं दिखाई दे रहे. क्या वे चुके हैं? मैं यहाँ दो हफ्ते से हूँ, उनका पहला ही दिन है. फोन मिलाता हूँ. सिग्नल कमजोर, वैसे भी लाऊडस्पीकर किसी मानवीय आवाज को असंभव बना रहे हैं. वाहनों का विशाल काफिला, बीएचयू के लंका गेट से चलता हुआ आ रहा है. बीच में बिना छत की एक गाडी. माध्यम कद का एक आदमी हाथ हिला रहा है. लोग पगलाए हो उसका नाम पुकार रहे हैं. छतों से कूद, एक दूसरे को धक्का दे उस तक पहुंचना चाहते हैं. मैं बैग से कैमरा निकलने को होता हूँ, लेकिन भीड़ मुझे दूर धकेल देती है, जैसे तैसे बैग को कंधे से गिरने से बचाता हूँ. तभी हम दोनों एक दूसरे को देखते हैं. हमारे चेहरों पर राहत, आँखों में विस्मित मुस्कान है, मानो एक दूसरे से पूछ रहे हों क्या तुम्हें इसकी उम्मीद थी? कल्पना करो अगर इसने दिल्ली नहीं छोड़ा होता यह लड़ाई कितनी बड़ी हो गयी होती. दो राज्यों के मुखिया अपना प्रदेश छोड़ इस प्राचीन शहर में इस लोक सभा चुनाव की शायद सबसे बड़ी लड़ाई लड़ने आ गए हैं. हम पत्रकार राजनीति में रूपक और प्रतीक के महत्व को जानते हैं. हम उसके करीब जाना चाहते हैं, लेकिन भीड़ का विशाल थपेड़ा हमें पीछे पटक देता है. क्या यह यहाँ बाजी पलटा सकता है? हम इस चुनावी काफिले के कोलाहल के दरमियाँ, सहमत होते हैं कि अगर यह सिर्फ बनारस जीत समूचा हिन्दुस्तान हार भी गया तो पहले पन्ने पर आठ कॉलम की बैनर हैडलाइन इसके ही नाम होगी.
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इस व्यक्ति में विचित्र साहस है. आठ मई की इस गर्म दोपहर बनारस की भीड़ के सामने बोल रहा है - मेरे यहाँ एक रेगिस्तान है. लेकिन मैंने अमिताभ बच्चन को बुला ऐसी मार्केटिंग करवाई कि लोग आज रेत को देखने के लिए डॉलर खर्च करने आते हैं. यह तो बनारस है.

वो उस शहर को बाजार का पाठ पढ़ा रहा है जिसका जीवन बाजार का विलोम रहा है. उसके लिए गंगा में असीम व्यापारिक सम्भावना है. वह विशुद्ध व्यापारी है. घाट में भी ‘एंट्री टिकट’ लगाएगा. मूर्खता की हद है. कल अपने घर में घुसने पर भी टिकट मांगेंगा. लोग उसे कुबूल भी रहे हैं, वही शायद जीतेगा भी. आयो घोष बड़ो व्योपारी - ब्रज की गोपियों ने उद्धव से कहा था. क्या बनारस ऐसा नहीं कर सकता? लेकिन उन बनारसी लेखकों का क्या जो हत्या के आरोपी का समर्थन कर रहे हैं? सबको अपनी राजनैतिक पसंद का अधिकार है लेकिन क्या यह अपने शहर की रूह से द्रोह नहीं?
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ग्यारह मई को अस्सी के हारमनी बुक स्टोर से द मैन विदाउट क्वालिटीज खरीदी. यहाँ एंडी रॉटमैन अक्सर मिल जाते हैं. अमरीकन हैं, लेकिन संस्कृत के विद्वान. पिछले दस पंद्रह सालों से लगभग हर साल बनारस लम्बे समय के लिए आते हैं. बनारस से गोरी चमड़ी वालों को बहुत प्रेम है, शायद यह उनकी गुप्त हसरतों का प्रतिरूप है. जिस व्यवस्था से वह प्रेम करते हैं, लेकिन जिसे वह अपने देश में नहीं चाहते, उसके लिए यहाँ बनारस में स्थान बरक़रार चाहते हैं. वो चाहते हैं ऐसे जगह पृथ्वी पर तो बनी रहे, बस उनके आँगन से थोडा दूर रहे.
  
रॉटमैन को बनारस पर मेरा लम्बा आर्टिकल - वाया काशी - पसंद आया. बोले “पढ़कर लगा तुम्हारे नाखूनों में बनारस की असल मिट्टी जमी है.” शालिनी दिल्ली से फोन करती हैं, लगभग हँसते हुए अपने बनारसी पति का उल्लेख करती हैं: “वो बोलते हैं इतना गन्दा शहर है यह, इसे (मुझे) यहाँ कविता दिखाई दे रही है.”  
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हम पांच हैं. मैं, एक फिनलेंड के कपल (हालाँकि मैं उन दोनों के बीच एक बारीक रोमांटिक तनाव महसूस करता हूँ, मुझे तय नहीं कि वह अधिकृत तौर पर किसी सम्बन्ध में हैं या सिर्फ मित्र हैं जो साथ घूम रहे हैं), और एक इतालवी कपल (इनके स्टेटस पर कोई संदेह नहीं मुझे). रोज रात हम दशाश्वमेध के सामने एक इस लॉज की टेरिस पर आ जाते हैं. जूडिथ मृत्यु पर एक फिल्म बना रही है - विभिन्न संस्कृतियों में मृत्यु के मायने. वह मणिकर्णिका की शूटिंग करना चाहती है लेकिन वहां कैमरा वर्जित है. मैं उसे बताना चाहता हूँ कि हम नाव ले नदी के बीच जा वहां से चुपके से वीडियो बना सकते हैं. अगर नाव वाले का डर हो तो दूसरे किनारे जा आराम से रात में ट्राईपौड लगा बैठा जा सकता है, अँधेरे में किसी को कुछ नहीं पता चलेगा. लेकिन नहीं कह पाता कि वह सोचेगी मैं खुद ही उसे अपने देश के नियम तोडना सिखा रहा हूँ.

विदेशी लड़कियों को देख आखिर क्यों हम भारतीयों को अपने बिसरे प्रेम याद आने लगते हैं? क्यों उनमें हम वह सभी संभावनाएं हासिल कर लेना चाहते हैं जो हमसे छिटक गयीं थीं? उनकी टटोलती हुई आँखें, बिखरती हंसी, बेतरतीब बाल, छोटी टीशर्ट या कुर्ती की तनियों के नीचे गोर कंधे पर बेखबर झांकता ब्रा का स्ट्रैप.

यह लॉज बहुत छोटी है, लेकिन गंगा के एकदम सामने. दो सौ रुपये रोज का मेरा कमरा ढाई बाई सात का होगा सिर्फ. पलंग के बाद जरा भी जगह नहीं बचती. एक सिन्नी का मेज पंखा. भीषण गर्मी, बिजली जब चाहे चली जाती है. हम पाँचों के बीच सिर्फ एक बाथरूम जहाँ कई सीडी उतर-चढ़ पहुंचना होता है. एक गर्म देश का निवासी मैं पूरे समय गर्मी को कोसता हूँ, लेकिन यह लोग बेफिक्र हैं. यात्रा का रोमांच और रोमांस इन यूरोपियों से सीखना चाहिए. छोटा सा बस्ता पीठ पर टाँगे, पैरों में चप्पल लिए कहीं भी पसर जाते हैं. मुझे सलाह देते हैं कि यूरोप घूमने का सबसे अच्छा तरीका काउच सर्फिंग है. इंटरनेट पर दोस्ती करो, कहीं भी जाकर पसर जाओ! 

जिस रास्ते पर लेकिन मैं चल रहा हूँ, शायद फिनलैंड जाकर भी न्यूज ही खोजता फिरूंगा. आखिर यह अजनबी, जिनके साथ एक बारीक सम्बन्ध जुड़ता जा रहा है, भी मेरी आगामी रिपोर्ट का हिस्सा होने वाले हैं. यह लालच है या भूख या बीमारी?
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दिन भर की रिपोर्टिंग के बाद सिगरा चौक पर एक होटल में खाने बैठा हूँ. वह मुझसे एक मेज दूर है, लेकिन कुछ देर बाद मेरी सुविधा पूछते हुए मेरे सामने आ बैठ जाती है. बनारस में मैं ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकता कि कोई लड़की रात पौने दस पर खुद आ किसी लड़के के सामने मेज पर बैठ जाये. मेरा खाना आ चुका है, उसने कुछ पार्सल ऑर्डर किया है यानी यहाँ सिर्फ खाना लेने आई है, घर जाकर खाएगी. मैं उसे समझ पाने में नाकाम हूँ, वह शायद मेरी नाकामी पढ़ रही है, धीरे से कहती है - कुछ ख़ास नहीं, बस यूँ ही. उसका घर नजदीक है, घर में अकेली है, दरअसल इस शहर में ही अकेली है, आज खाना बनाने का मन नहीं हुआ था. उसका पार्सल आ गया है, मेरा खाना ख़त्म नहीं हुआ. मेज पर रखी मेरी नोटबुक और कैमरे से उसे पता चल गया है मैं यहाँ का नहीं हूँ. वह चंडीगढ़ से है, गोदौलिया में किसी बैंक में काम करती है, दो तीन महीने पहले ही पीओ परीक्षा के बाद यहाँ पहली नौकरी लगी है. उसका एक बेटा भी है, जो चंडीगढ़ में अपने नाना-नानी के पास रहता है, बेटे का पिता हिमाचल में कहीं किसी बैंक में काम करता है.

कितना बड़ा है आपका बेटा?

यह पूछो कितना छोटा है. वह पहले हंसती है, फिर चेहरे पर अचानक उभर आई दुःख की महीन लकीर छुपाए बगैर कहती है. सिर्फ छः महीने का है. यहाँ रख नहीं सकती. कौन ख्याल रखेगा.

आपकी तो बहुत पहचान होगी..मेरे ट्रांसफर की किसी से कह सकते हैं? कईयों से कह चुकी हूँ. बेबी के साथ रहने के ग्राउंड पर ट्रांसफर नहीं हो सकता?

वह मोबाईल में अपने बच्चे की तस्वीर दिखाती है, उसके हंसने-रोने की आवाज भी सुनवाती है. मैं कभी बच्चे को देखता हूँ, कभी उसे जो अचानक से इस रात मेरे सामने आ बैठ गयी है, अपना जीवन एक अजनबी के सामने उघाड़े जा रही है. सवा दस करीब हम बाहर निकलते हैं. उसे बनारस से नफरत है. धूल और गर्मी के सिवाय कुछ नहीं दीखता उसे. दशाश्वमेध कभी नहीं गयी वो. हम रिक्शे से दशाश्वमेध पहुँचते हैं. नाव लंगर डाल पानी में ठहरी हैं. चुनावी माहौल है, ढेर सारे पुलिसवाले गश्त पर हैं. कई लोग सीड़ियों पर सोये हैं. हम घूमते रहते हैं, मैं उसे वो लॉज दिखाता हूँ जहाँ कुछ दिनों पहले तक रह रहा था, फिर ऊँगली से अपने वर्तमान अड्डे अस्सी की ओर इशारा करता हूँ. उसका ससुराल लखनऊ है लेकिन बच्चा ननिहाल में है. दादा दादी के पास रहेगा तो बरबाद हो जायेगा. बहुत बैकवर्ड लोग हैं. लव मैरिज थी, अभी तीन साल ही हुए हैं, लेकिन उसे ऊब होने लगी है. मुझसे झूठ बोला गया था, वह कहती है.

रात में खिलती नदी को देख वह अचंभित होती है. उसे नहीं मालूम था बनारस में ऐसा घाट होगा जहाँ लड़के इस वक्त भी क्रिकेट खेल रहे होंगे. पौने बारह करीब हम रिक्शे से वापस लौट लेते हैं. मैं उसे सिगरा छोड़ता हूँ, अस्सी की ओर मुड़ जाता हूँ. आज सात मई है, बुधवार. कल उस गुजराती की यहाँ रैली है, मैं बेइंतहा व्यस्त रहूँगा, शुक्रवार को राज आ रहे हैं. दस को सैकिंड सैटरडे है, उसकी छुट्टी. वह दस की सुबह ही चंडीगढ़ निकल जाएगी. ग्यारह इतवार, बारह वोटिंग की छुट्टी. पूरा हफ्ता बिता कर आएगी, तब तक मैं यहाँ से चला जाऊँगा.
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भले दोनों एक ही नदी के किनारे हैं, महज कुछ सौ क़दमों के फासले पर ठहरे हैं, अस्सी और दशाश्वमेध में एक बुनियादी फर्क है. दशाश्वमेध की हवा में एक विचित्र सा औघड़पन लेकिन अंतरंगता बसी है. कुछ ऐसा जो मेरा बहुत अपना है लेकिन जिसे मैं शायद कभी स्वीकारने का साहस नहीं कर पाऊँगा. क्या है वह मुझे नहीं पता, लेकिन कुछ ऐसा है इन सीड़ियों में जो अपनेपन का एहसास कराता है. मैं दोनों ही जगह - अस्सी और दशाश्वमेध - की लॉज में ठहरा हूँ. दशाश्वमेध से अस्सी की ओर आते में हवा कहीं परायी सी होने लगती है, उसके अपनत्व के कतरे गिरने लगते हैं और आखिर में बस उतना अपनापन बचा रहता है कि आदमी को यह महसूस हो कि अब वह बनारस के आखिरी छोर पर है. एक कदम और, फिर यह शहर पीछे रह जायेगा.
  
और दशाश्वमेघ से मणिकर्णिका की ओर? यह शायद पृथ्वी पर मृत्यु का स्थायी मकान है. खासकर रात में जब यह घाट स्ट्रीट लैम्प की नारंगी रौशनी में चमकता है इस रस्ते पर चलने पर सहसा खुद को बर्गमेन की सेवेंथ सील का नायक महसूस करने लगता हूँ. मृत्यु से शतरंज खेलने जा रहा हूँ, एक ऐसी बाजी जहाँ मात पहले ही तय है.

मई की इन रातों में मणिकर्णिका पर, देर तक ठिठक कर, गंगा के पानी में जलती चिताओं की पीली परछाईं देखते हुए अक्सर वो गुनाह याद आते हैं, खासकर प्रेम में किये गुनाह, जिनकी माफ़ी इस जीवन में संभव नहीं होगी. जीवन या तो माफ़ होने का अवसर नहीं देगा, अगर अवसर मिला भी तो गुनाह स्वीकारने का साहस नहीं होगा. मुंह छुपाये चुपचाप मृत्यु की ओर बढ़ जाना होगा.

1 टिप्पणियाँ:

विश्व हिन्दी साहित्य ने कहा…

बहुत ही सुन्दर और सार्थक