मंगलवार, 22 सितंबर 2015

'अंधेरे में' पर विष्णु खरे का प्रतिवाद


चमकीले विरोधाभासों में बेसुध आत्म-सम्मोह 
उर्फ़
‘प्रश्न की उथली-सी पहचान’ 

विष्णु खरे 

दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
कोई भी मुर्ग़ा
यदि बांग दे उठे ज़ोरदार 
बन जाये मसीहा
                                 (गजानन माधव मुक्तिबोध,’अँधेरे में’, 6, 156-60)



[ 1 ]

‘अँधेरे में’ आज भी इतनी जीवंत और प्रासंगिक है कि उसे ‘अब’ सिर्फ प्रतीक मानना एक सुविधाजनक, पलायनवादी, चालाक, विरोधी रणनीति का एक दांव ही हो सकता है. यदि वह अमर है तो निस्संदेह वह एक अभिशाप उनके लिए है जो ऐसी अमरता न सोच पाते हैं और न सह. आज हिंदी में केन्द्रीय कविता कौन-सी है यह कह पाना कठिन है लेकिन 1964 में अपने प्रकाशन के समय से ही हिंदी के कई सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि और उनकी ‘कविताएँ’ ‘अँधेरे में’ के  प्रकट प्रभाव से जाने-अनजाने मुक्त रहे हैं. कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा आदि से शुरू होने वाली पीढ़ियाँ कुछ तो मुक्तिबोध की दुर्दांत प्रतिबद्धता से आज़ाद रही हैं और अधिकांश उनकी भाषा, शिल्प और शैली से भी स्वतंत्र रही हैं. मामला हिन्दू मिथकों में विष्णु और शिव जैसा रहा है – राम और कृष्ण आदि विष्णु के अवतार माने गए हैं बल्कि उन्होंने, और अन्य कई कमतर आराध्यों ने भी, विष्णु को लगभग अपदस्थ कर दिया, किन्तु किसी को भी शिव का अवतार होने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है.

तात्कालिक और सतही तौर पर ऐसा हमेशा लगता है, और जितना उथला हमारा दिमाग हो उतना ज़्यादा लगेगा, कि अब हमारा समय और संसार एक कालजयी कृति से बहुत दूर चले आए हैं, लेकिन, महान लेखकों और उनकी अमर कृतियों के कितने नाम गिनाए जाएँ, सैकड़ों अन्य रचनाओं के भी, जिनके न पूर्वानुभव अतीत हुए हैं और न उनकी आहटें, न चेतावनियाँ ऐसी हैं कि जिन्हें आगे न सुना जाएगा. यह कहना कि ‘अँधेरे में’ भविष्य की कविता नहीं है विकलमस्तिष्क हास्यास्पदता है क्योंकि वह 50 वर्षों से उत्तरोत्तर वर्तमान की कविता बनी हुई है और यदि हालात न बदले, जो कि अब तो विश्व-स्तर पर बदलते दिखाई नहीं देते, बल्कि लगता है बदतर होने को अभिशप्त हैं, तो ‘अँधेरे में’ सरीखी कृतियों की प्रासंगिकता में एक दुर्भाग्यपूर्ण, भयावह वृद्धि होती रहेगी. उनमें अभिव्यक्त संकटों से कोई आर-पार का सामना नहीं हो सका है बल्कि वह भयावह्तर भेसों में सामने हैं. मुक्तिबोध-जैसा जीवन न तो मुक्तिबोध का अभिप्रेत था न आज के कवि का है – वह उन जैसे कवि पर नाज़िल किया गया था और उन जैसे कवियों पर बरपा किया जाएगा. 'अँधेरे में’ के नायक का आध्यात्मिक और विचारधारागत आत्मोन्नयन तो कविता में हो चुका है, यदि वह कविता के बाहर नहीं हुआ तो उसके लिए मुक्तिबोध उत्तरदायी नहीं हैं, यदि बाहर ‘जीवन-शैली’ बदल गयी है तो उसके लिए भी नहीं.

[ 2 ]

निस्संदेह अब ‘अँधेरे में’ सरीखा अँधेरा नहीं है क्योंकि वह 1964 से कहीं गहरा, भयावह और हत्यारा हो चुका है. हाँ,जो सावन में अंधे हुए हैं उन्हें वह अब हरा-हरा सूझ रहा है. मुक्तिबोध का काव्य-नायक अपने ‘जीवन-काल’ में ही व्यवहार से छिटका हुआ आदर्श था लेकिन यह बखूबी जानते हुए भी उसे इसकी परवाह न थी. यह तो स्पष्ट है कि हमारा अनलिखा-लेखनायक उस महानता को दोहराना तो क्या, इकहराना भी नहीं चाहेगा क्योंकि अपनी श्रद्धाहीन, सुविधाजनक, अभिप्रेत नपुंसकता में वह स्वयं पहले से ही सड़क के नीचे के गटर में छिप गया है और परिवर्तनातीत पूँजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बन चुका है. अब वह बदल नहीं सकता. बदलना नहीं चाहता.

[ 3 ]

गाँधी कहते ज़रूर हैं कि हम हैं गुज़र गये ज़माने के चेहरे लेकिन मुक्तिबोध के लिए वह ‘देव’ हैं जिनके आगे ‘अति दीन’ हो कर ही जाया जा सकता है : किन्तु, मैं देखा किया उस मुख को/ गंभीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही/शब्दों में गुरुता// वे कह रहे हैं – (इस टिप्पणी का पुरोद्धरण) / वे कह रहे हैं – ‘मिट्टी के लोंदे में किरणीले कण-कण / गुण हैं, / जनता के गुणों से ही संभव/ भावी का उद्भव //...मुस्करा उस द्युति-पुरुष ने कहा तब - /’’मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था/सँभालना इसको,सुरक्षित रखना’’

हमारा अनलिखा-लेखनायक अव्वल तो कुटिलता और चालाकी से मुक्तिबोध के उद्धरण में इस तरह कतरब्योंत करता है जैसे कोई चोर दर्ज़ी गाहक के कपड़े में करे, फिर इस पर आँखों में सूअर का बाल डाल लेता है कि यदि समय और जनचरित्र ने मुक्तिबोध और गाँधी के सपनों के साथ एक-सा विश्वासघात किया तो उसके लिए यह दोनों उत्तरदायी कैसे हैं और ‘अँधेरे में’ में व्यक्त संकटों से सामना किस तरह और कौन कर चुका है और ‘अँधेरे में’ जैसा अँधेरा अब कैसे नहीं है?

[ 4 ]

कोई दुर्बुद्धि दृष्टिहीन ही कह सकता है कि यह समय मुक्तिबोध के युग से बेहतर है. इस बौद्धिक दीवालिएपन की इंतिहा यह मानना है कि वर्तमान हमेशा अतीत से श्रेष्ठ होता है. ऐसी मूर्खता तो अनिर्वचनीय है. मुक्तिबोध जैसे जिद्दी, हठधर्मी, प्रतिबद्ध आदर्शवादी के लिए आज भी यदि विकल्प होते तो ‘ज़िंदगी की शर्म जैसी शर्त’ सरीखे अस्वीकार्य होते. युग और वर्तमान के बहुआयामीय, वैश्विक अर्थ-सन्दर्भ में जीवनयापन और प्रकाशन जैसी सीमित समस्याओं की बात हमारे अनलिखे-लेखनायक के हाय-हाय (मैंने उन्हें देख लिया नंगा) विरोधी, ‘कर्मवादी’ बौद्धिक-नैतिक  दारिद्र्य को विवस्त्र कर देती है. 'अँधेरे में’ यदि आज भी प्रासंगिक है तो यह विडंबना ‘अँधेरे में’ और उसके बाद की आज तक की हिंदी कविता की नहीं,  यह La condition humaine की विडंबना है. वैश्विक पूँजीवाद ने अपने सहित समूची मानवता को suicide bomber बना दिया है, उसे आत्मनाश की मंज़िल का एकतरफ़ा टिकट कटवा दिया है. जिसे भौतिक सफलता कहा और माना जा रहा है यदि वह आधिभौतिक-नैतिक-आदर्शवादी-प्रतिबद्ध असफलता पर विमर्श करती है तो यह जिद्दी, अलज्जित, अड़ियल असफलता नाउम्मीद और नपुंसक कैसे सिद्ध होती है? ‘अँधेरे में’ की ‘विडंबना’ को 1964 और उसके पहले से ही कौनसी प्रतियोगी धूर्त सफलताओं ने महान और प्रतीक बना डाला था जो अब तक बनाए हुए हैं?

[ 5 ]

यदि हिंदी के अकादमिक जगत में सुविधाभोग का सफल माहौल है और सत्ता भी वहाँ सफल रही है और ‘अँधेरे में’ एक अप्रासंगिक, और चुकी हुई कविता है तो हिंदी में ‘परम अभिव्यक्ति’ की खोज को लेकर हमारा अनलिखा-लेखनायक परेशान क्यों है? अचानक वह ‘सरकारी अनुदानों और सुविधाओं...पर पलनेवाले पालतू’ जे.आर.एफ़ों., शोधार्थियों को हिक़ारत से ‘अँधेरे में’ को समझने के नाक़ाबिल मानते हुए अग्निवर्षण क्यों करने लगता है जबकि वह ख़ुद ‘अँधेरे में’ और मुक्तिबोध को लगभग दो कौड़ी के समझता लगता है? अकादमिक वर्ग पूछे या न पूछे, हमारे अनलिखे-लेखनायक से दूसरों को यह तो पूछना ही चाहिए कि पार्टनर, तुम्हारी सैलरी और पॉलिटिक्स क्या हैं? तुम किन रावणों के घर पानी भर रहे हो? 

[ 6 ]

विचार के रास्ते शिल्प से जुड़ने का क्या मंतव्य है? अव्वल तो यह किया कैसे जाता है? फिर किया भी जाता हो तो क्या विचार की कविता में शिल्प नहीं होना चाहिए? या शिल्प से जुड़ना कोई चालाकी या स्नायु-दौर्बल्य है? क्या वह एक मूर्खता है? क्या लेखक संगठन ‘जनचरित्र’ हैं जिसे कोई ‘अँधेरे में’ सरीखे महान प्रतीक को ढोने के निर्देश दे रहा है?

[ 7 ]

मार्क्सवाद को नकारने के उद्देश्य से इस बाली उमर में ही पुंसत्व जुटाने के लिए बर्ट्रेंड रसेल के दिवंगत, आउट-ऑफ़-डेट विआग्रा की दरकार क्यों हुई? इस कुश्ते का नुस्खा तो जरद्गव रज़ा फ़ाउंडेशन के खैराती शिफ़ाखाने में हकीममुसल्लस कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी, ओम थानवी से हासिल हो सकता था. मिल तो लें.

[ 8 ]

प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी शक्तियाँ आज नहीं, पहले भी जनसमर्थन से राज कर चुकी हैं. हिंदी के क्या सभी बौद्धिक वर्ग समाज में हो रहे बदलावों से बेखबर रहे? 1947 के, और विशेषतः 1964 में नेहरू की मृत्यु के, बाद से हिंदी कविता जितनी जनोन्मुख और जन-जागरूक रही है – मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, धूमिल, चंद्रकांत देवताले, आलोकधन्वा, ज्ञानेन्द्रपति, कात्यायनी, नरेश सक्सेना, सुदीप बनर्जी, विनोदकुमार शुक्ल, ऋतुराज, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल से लेकर आज के अनेक युवतम कवि-कवयित्रियों ने भाड़ नहीं झोंके हैं – उतनी दक्षिण एशिया में तो कोई और रही ही नहीं और विश्व-मंच पर भी इतनी प्रतिबद्ध कविता बहुत कम दिखाई पड़ती हैं. उसकी समझ और पकड़ न संकीर्ण होती गईं न कमज़ोर. किसी बुनियाद को यदि उसने मज़बूत किया है तो किन्हीं जड़ों तक पहुँच कर. हिंदी कविता में यदि महानताएँ और आदर्श हैं तो उनके सारे स्मारक और प्रतीक जीवंत हैं. यदि डोमाजी उस्ताद का जुलूस बढ़ता गया है तो उसे सबसे पहले नंगा देखने और शनाख्त करने की सज़ा हिंदी में ही मिली है. यह कोई नहीं कह रहा है कि हिंदी कविता में सभी कुछ सार्थक, श्रेयस्कर और उत्कृष्ट हो रहा है – ऐसा किसी साहित्य में कभी नहीं होता – लेकिन यदि हमारा अनलिखा-लेखनायक अपनी तान – दम नहीं – ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने’, 'मठों और गढ़ों को तोड़ने’ और ‘अरुण कमल’ को खोजने पर तोड़ रहा है तो देखा जा सकता है कि अपनी  हास्यास्पद, गड्डमड्ड, परस्पर-विरोधी, विश्वासघाती छद्म-प्रकान्डता और प्रयासित, असफल मूर्तिभंजन के अंत में वह ‘अँधेरे में’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के सामने ही साष्टांग मूर्च्छित है.

(बुद्धू-बक्सा पर आए अविनाश मिश्र के 'अंधेरे में' पर आलेख से निकला हस्तक्षेप का पक्ष पूरी तरह से अवशोषित न हो सका. उसी आलेख पर विष्णु खरे की पैनी नज़र बरपा हुई है. अविनाश के विरोधाभासों में सिमटे आलेख के बाबत विष्णु खरे के सवालात पर अमल करना नैतिक रूप से ज़रूरी है. इस आलेख के लिए बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे का आभारी.)

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

'अंधेरे में' पर अविनाश मिश्र

अनलिखे लेख का केंद्रीय संवेदन
अविनाश मिश्र




[1] 
गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ अब एक प्रतीक है। इसे अमर कर दिया गया है। सारी अमरताएं ‘अभिशाप’ होती हैं, क्योंकि मुक्ति का कोई विकल्प उनके पास नहीं होता। हिंदी के सामूहिक विवेक के बीच ‘अंधेरे में’ अब भी स्वीकृत है, लेकिन हिंदी की केंद्रीय कविता इसके प्रकट प्रभाव से पृथक स्वयं को विकसित और सुनियोजित कर चुकी है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि समय और संसार इस कविता से बहुत दूर चला आया है। इसमें मौजूद ‘पूर्वानुभव’ अब अतीत है और अब इसमें वे आहटें और चेतावनियां भी नहीं हैं जिन्हें भविष्य में सुना जाना बाकी है। इस अर्थ में यह भविष्य की कविता नहीं है। इसमें अभिव्यक्त संकटों से सामना हो चुका है और निष्कर्ष यह है कि मुक्तिबोध जैसा जीवन और ‘अंधेरे में’ जैसी कविता न आज के कवि का अभिप्रेत और व्यवहार है, न समाज का। इस निष्कर्ष में कहें तो कह सकते हैं कि इस कविता के नायक का आत्मोन्न्यन नहीं हुआ, लेकिन जीवन-शैली बदल गई। 


[2]
‘अंधेरे में’ जैसा अंधेरा अब नहीं है। नई-नई रंगीनियों में ‘अंधेरे में’ आंखों को चुभता हुआ श्वेत-श्याम है अब। वह व्यवहार से छिटका हुआ आदर्श है। असत्य का परिहार करती हुई और सत्य में आस्थावान वह एक ऐसी महानता है जिसे अब कोई दोहराना नहीं चाहेगा। वह अब एक स्मारक है। वक्त-वक्त पर इस पर से धूल झाड़ी जाएगी और कालजयी वैभव चमक उठेगा। इस पर माल्यार्पण होते रहेंगे, आयोजन और प्रवचन होते रहेंगे। बाद इसके ‘नपुंसक श्रद्धा सड़क के नीचे के गटर में छिप जाएगी’ और गुनगुनाएगी कि ‘पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।’

[3]
मैं इस कविता के पास जाता हूं और मुक्तिबोध को इसमें वैसे ही पाता हूं जैसे इस कविता के नायक ने इस कविता में महात्मा गांधी को पाया था— अंधेरे की स्याही में डूबा हुआ। मैं भी वैसे ही अति दीन हो जाता हूं पास कि :

बिजली का झटका
कहता है—
‘‘भाग जा, हट जा
हम हैं गुजर गए जमाने के चेहरे
आगे तू बढ़ जा।’’



‘‘परिस्थितियों के साथ मेल स्थापित करने के लिए मैं कभी अपने आदर्शों को नहीं छोड़ सकता।’’ यह महात्मा गांधी का वाक्य है। मुक्तिबोध ने जीवन और कविता दोनों में ही परिस्थितियों के साथ मेल स्थापित करने के लिए कभी अपने आदर्शों को नहीं छोड़ा। मैं ‘अंधेरे में’ के स्वप्नचित्रों में मुक्तिबोध के सपनों के आशय खोजता हूं और देखता हूं कि समय और जनचरित्र ने मुक्तिबोध के सपनों के साथ भी वही किया जो महात्मा गांधी के सपनों के साथ किया।


[4]
तथ्य बताते हैं कि यह समय मुक्तिबोध के समय से बेहतर है। गुजरे हुए वक्त से मौजूदा वक्त हर दौर में बेहतर रहा आया है। मुक्तिबोध आज होते तो उनके पास कई विकल्प होते, जीवनयापन और प्रकाशन के लिए। ज्यादा हाय-हाय से किसी वक्त का काम नहीं चला है और प्रवचन से ज्यादा कर्म का महत्व प्रत्येक युग में सतत स्थापित होता चला गया है। ‘अंधेरे में’ अगर अब भी प्रासंगिक लगती है तो यह इस कविता समेत हिंदी में इसके बाद सृजित सारी कविताओं की विडंबना है। इस विडंबना में इस कविता की असफलता है, और असफलता की सबसे बड़ी त्रासदी यह होती है कि सफलताएं उस पर विमर्श करने लगती हैं। इस विमर्श में नाउम्मीद नपुंसकताएं जान ही नहीं पातीं कि कब उनकी विडंबना को सफलताओं ने महान बना प्रतीक में बदल डाला।


[5]
‘अंधेरे में’ हिंदी साहित्य से परास्नातकों को अमूमन पढ़नी ही पड़ती है और हिंदी विभाग के प्राध्यापकों को इसे पढ़ाना ही पड़ता है। छठवें वेतन आयोग और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) द्वारा दी जाने वाली जूनियर रिसर्च फैलोशिप (जे.आर.एफ.) के कारण हिंदी के अकादमिक जगत में इन दिनों सुविधाभोग का माहौल है। यहां होने वाले 99 प्रतिशत शोध ऐसे ही सुविधाभोगियों की उपज हैं। सत्ता यहां कामयाब रही है, क्योंकि उसने हिंदी से उसका सारा प्राथमिक संघर्ष छीन उसे बंजर कर दिया है। आज हिंदी की सारी उल्लेखनीय प्रतिभाएं इस दायरे से बाहर हैं। हिंदी में ‘परम अभिव्यक्ति’ की खोज किसी किस्म के सुविधाभोग में संभव नहीं हो सकती। सरकारी अनुदानों और सुविधाओं का दुरुपयोग कर उस पर पलने वाले पालतू ‘अंधेरे में’ को क्या खाकर समझेंगे। इस कविता के स्मारक बन जाने में इस वर्ग का बड़ा योगदान है जो मुक्तिबोध के एक प्रचलित प्रश्न को आज बदलकर पूछता है— ‘पार्टनर तुम्हारी सेलरी क्या है?’


[6]
हिंदी के अकादमिक जगत और लेखक संगठनों का पतन साथ-साथ हुआ है। जैसे ‘अंधेरे में’ विचार के रास्ते शिल्प से जुड़ जाती है, ऐसे ही हिंदी के अकादमिक जगत की सारी मूर्खताएं लेखक संगठनों से जुड़ जाती हैं। जनचरित्र में महान प्रतीकों को ढोने की असीमित शक्ति होती है, बस इसे निर्देश मिलते रहें।


[7]
‘‘यदि आप यहूदी ईश्वर ‘याहवे’ के स्थान पर ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’, ‘मसीहा’ के स्थान पर ‘कार्ल मार्क्स’, चुने हुए व्यक्तियों के स्थान पर ‘प्रेलोतेरियत या मजदूर वर्ग’, एक लाख चौबीस हजार पैगंबरों के स्थान पर ‘कम्युनिस्ट पार्टी’, यीसू के पुन: प्रकट होने के स्थान पर ‘सशस्त्र क्रांति’, काफिरों को जलाने वाले नर्क की जगह ‘पूंजीपतियों का सर्वनाश’ और ‘स्वर्ग’ के स्थान पर ‘वर्गहीन समाज’ कहकर पूरे मार्क्सवाद की बात करें तो सारी की सारी यहूदी विचारधारा अपने आधुनिकतम रूप में दोहराई जाएगी। कार्ल मार्क्स और उनके श्रद्धालुओं का आदर करते हुए मैं यह बात करने की आज्ञा चाहूंगा कि दया, प्यार, सहानुभूति और संतुष्टता की विचारधारा मार्क्सवाद की विचारधारा नहीं है।’’

— बर्टेंड रसेल


[8]
‘अंधेरे में’ की उम्र 50 वर्ष है। आज प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी शक्तियां जनसमर्थन से केंद्र में सक्रिय हैं। यह अचानक नहीं हुआ और न ही इसकी मूल वजहों की खोज के लिए बहुत सुदूर अतीत में जाने की जरूरत है। यह सब इन्हीं 50 वर्षों में हुआ। समाज में हो रहे बदलावों से बेखबर हिंदी का बौद्धिक वर्ग (जिसे मुक्तिबोध ने क्रीतदास और किराए विचारों का उद्भास कहा) एक लगातार में अपनी प्रतिष्ठा खोकर हास्यास्पद होता गया। अपने जन के बारे में उसकी और हिंदी कविता की समझ और पकड़ सतत संकीर्ण और कमजोर होती चली गई। बुनियाद को मजबूत करते हुए हिंदी कविता पूरी तरह पाताल में पहुंच गई। इस बुनियाद पर सारी महानताओं के स्मारक बन गए, सारे आदर्श प्रतीक में बदल गए और धीरे-धीरे भयावना जुलूस बढ़ता चला गया। इस सबके बावजूद ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने का मतलब अब तक नहीं बदला। अब भी इसका मतलब मठों और गढ़ों को तोड़ना और ‘अरुण कमल’ की खोज में दुर्गमता के पार जाने का जोखिम उठाना ही है।



['अंधेरे में' के साथ बड़ी दिक्कतें जुड़ी हुई हैं. एक तो यह कि कविता नवकाव्याभाषियों के रियाज़ में शामिल नहीं है, और जो युवा इस घोंट पा रहे हैं उनसे हस्तक्षेप की पैदाईश होती ही नहीं है. यह दृश्य उतनी ही उदासी से चला जाता है, जितनी याचना और जीवट के बाद इसे बीच लाया गया था. अविनाश मिश्र की समस्या एक अलग किस्म की है. उनके पास इस कविता की प्रासंगिकता को नापने के एकदम अलग पैमाने हैं. उनके लिए कविता से ज्यादा इस समय में इस कविता का मतलब प्रासंगिक है. अव्वल तो यह कि इस कविता की पहुंच को हिंदी के संस्थाओं से बाहर देखना होगा. यदि अब वह एक स्मारक है तो अभी भी 'अभिव्यक्ति के खतरे' उठाने का मतलब नहीं बदला है. यह आलेख 'सापेक्ष' में शीघ्र प्रकाश्य. कविता से ज्यादा इस कविता के समय के तीक्ष्ण आंकलन के लिए बुद्धू-बक्सा अविनाश का आभारी.]

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

प्रो. वीरभद्र मिश्र बरास्ते व्योमेश शुक्ल



कहीं साफ़ नदी-जल चाहिए   
(प्रसिद्ध पर्यावरणविद प्रो़फेसर वीरभद्र मिश्र के साथ व्योमेश शुक्ल की बातचीत के आधार पर तैयार लेख)



लाखों-करोड़ों लोगों के लिए गंगा जी का सर्वोत्तम इस्तेमाल भक्त कवि तुलसीदास की इस पंक्ति की राह पर चलकर संभव हुआ है :

‘‘दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह वेद पुराना।।’’

हमारी सभ्यता में नदी जल की शुद्धता और उसके उपयोग के मानक यही हैं दर्शन, स्पर्श, स्नान और पान। मैं आस्तिक हूँ। गंगा माता से मेरी प्रार्थना यह है :

‘‘तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस वीर।
विचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका ।।’’

वह हमें जीवन के चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करती हैं। ब़गैर किसी भेदभाव के, वह हमें भक्ति का तत्व देती हैं। लेकिन, अगर शहरों के सीवेज को यों ही नदियों में गिराया जाता रहा तो गंगा जी को जीवन का माध्यम मानने वाले मुझ-जैसे न जाने कितने श्रद्धालु मनुष्यता की एक संकटग्रस्त प्रजाति हो जाएंगे और उनकी संस्कृति का शीघ्र पटाक्षेप हो जायेगा।

पेस्टीसाइड्स और बैक्टिरियोफ़ाज वगैरह पश्चिमी पैमाने हैं। पश्चिम के जीवन में नदियों का आध्यात्मिक महत्व नहीं है। वहाँ स्वीमिंग पूल के पानी के लिए अलग, पीने के पानी के लिए अलग और समुद्र-जल के लिए अलग-अलग स़फाई के मानक हैं। नदी के लिए भी एक ढीला-ढाला सफ़ाई-पैमाना बना लिया जाता है। हमें उतना नहीं, उससे कहीं साफ़ नदी-जल चाहिए। विडंबना यह है कि फ़िलहाल हमारी नदियाँ पश्चिम के पैमानों पर भी खरी नहीं उतरतीं।

सीवेज और औद्योगिक अवशिष्ट-मिश्रित गंगाजल के प्रयोग से शहरों में कुछ गम्भीर स्वास्थ्य समस्याएँ पैदा हुई हैं। मैं ख़ुद पोलियो, टायफाइड और पीलिया का शिकार रहा हूँ; लेकिन मुझे गंगा जी से अलग नहीं किया जा सकता, जैसे मछली को जल से। यदि गंगा जी के किनारे बसे 114 शहर यों ही अपना सीवेज गंगा जी में गिराना जारी रखेंगे तो गंगा बेसिन में निवास करने वाले 40 करोड़ लोगों को ताज़ा पानी नहीं मिल पाएगा। इस प्रकार, गंगा-प्रदूषण विश्व-भर में स्वच्छ जल के प्रदूषण की एक अभूतपूर्व समस्या बन गई है।

अगर अचानक भूकंप आ जाये तो लोग कुछ न कुछ तो करेंगे! जान बचाने की कैसी भी कोशिश। वैसा ही नदियों के मामले में क्यों नहीं होता?

बंगलुरु के किनारे कोई गंगा जी नहीं बहतीं। पैसठ लाख से कम आबादी वहाँ की नहीं है। पूरे शहर के मल-मूत्र की निकासी का, उसकी रिसाइकिलिंगका एक सिस्टम बनाया गया है। तब हम अपना सीवेज क्यों नदी में गिराते हैं? मान लीजिए गंगाजी बनारस के किनारे नहीं हैं। मल-मूत्र के निस्तारण का कोई और इंतज़ाम कीजिए। बहस सिर्फ़ एक बात पर हो गंगा जी में सीवेज गिरेगा कि नहीं। सीवेज मत गिराओ, तब देखो कोई प्रदूषण नहीं है।

कोई भी काम किसी अकेले का नहीं होता। एक थे बाबू रघुनाथ सिंह बनारस के पहले सांसद। बाबू साहब कहते थे कि जिस काम को अकेले किया जा रहा हो वह बड़ा काम हो ही नहीं सकता। जिसमें बहुत से लोग न लगे हों वह काहे का काम! इस ऩजरिये से गंगा-प्रदूषण का काम अभी छोटा ही है। अपनी किताब इंटरवल ड्यूरिंग पॉलिटिक्समें राममनोहर लोहिया ने नदियों के हाल पर लिखा है। वे कहते हैं कि प्रदूषण-मुक्ति का कार्य, दरअसल, शंकराचार्यों और दूसरे धर्माचार्यों का है। लोहिया का काम भी कबीर को याद किये बग़ैर नहीं चलता

‘‘माया महा ठगिनी हम जानी।
केसव के कवला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरति होइ बैठी, तीरथ हूँ मैं पानी।।’’

माया बड़ी भारी ठगिनी है। यह भगवान विष्णु के घर में लक्ष्मी, शिव के यहाँ पार्वती, पंडे के यहाँ मूर्ति और तीर्थों में पानी बनी बैठी है।

लोहिया कबीर की कविता को याद करते हुए कहना चाहते हैं कि तीर्थ तीर्थ इसलिए है कि वहाँ जल है। बिना पानी के किसी जगह का तीर्थ होना संभव नहीं। यह महज़ संयोग नहीं कि सभी तीर्थों के किनारे नदियाँ हैं। उसी पुस्तक में लोहिया ने यह भी कहा है कि नदियों की शुद्धि के लिए ग़ैरराजनीतिक आंदोलन चाहिए।

रामराज्य स्थापित करने की गाँधी जी की योजना में, श्री रामचंद्र जी की सरकार ने यह सुनिश्चित किया था :

‘‘सरिता सकल बहहिं वर बारी।
सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।

आज भारत सरकार भी ऐसा कर सकती है। लोगों को शामिल करके, समूहपरक समाधानों के साथ लोक को आगे आने के लिए प्रेरित करके, नयी सूझ और उसे कार्यरूप में ढालने वाली इच्छाशक्तियों को प्रोत्साहित करके।

सौभाग्यवश, तर्क और विवेक में प्रशिक्षित आस्थावान लोगों के एक छोटे-से समूह ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ बनारस में गंगा जी को साफ़ करने का अभियान शुरू किया है और नदियों को स्वच्छ करने की अनोखी मिसाल पेश की है।

यह समूह ज़िद्दी और लचीला, एकसाथ है। पिछले 28 वर्षों में यह समूह बग़ैर बिजली के अवजल की सफ़ाई, गंगा जी की ओर आते उसके मैले प्रवाह को दूसरी दिशा में मोड़ देने और शैवाल और सूर्य की रौशनी के ज़रिये प्राकृतिक अभियांत्रिकी से नदी को शुद्ध करने में मुब्तिला रहा है।

समाज ने इस समाधान को स्वीकार कर लिया है और बनारस में प्राथमिकता के आधार पर लागू करने के लिए, आख़िरकार, भारत सरकार भी इस पर राज़ी हो गयी है।

[इस पोस्ट के लिए एक लंबा इंतिज़ार करना पड़ा. हमें और आप सभी को भी. यदि काशी में गंगा रोजनामचा है तो परिदृश्य में उसका प्रदूषण. वीरभद्र मिश्र से शायद ही कोई अपरिचित हो. यदि परिचय दरकार भी है तो जान लेना चाहिए कि जब नदियों के इंटरलिंकिंग की एक बेवकूफी भरी परियोजना प्रस्तावित और प्रायोजित है, ऐसे समय में गंगा को वैज्ञानिक और सांस्कृतिक, दोनों ही पैमानों से देखने का कार्य जिन दो-तीन लोगों ने किया, वीरभद्र मिश्र उनमें से एक हैं. इस लिखे को बेहद संजीदगी से समझना होगा, कोई समीकरण नहीं बनाने की कोशिश करनी होगी. इस बातचीत का एक विस्तृत अंश भी हम आगे पढ़ेंगे. इस पोस्ट के लिए बुद्धू-बक्सा व्योमेश शुक्ल का आभारी. प्रो. वीरभद्र मिश्र को हमारी श्रद्धांजलि. तस्वीर एबीसी न्यूज़ ऑस्ट्रेलिया से साभार.]